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Saturday, April 7, 2012

तिलासंक्रान्तिक लाइ :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल



धानक लड़ती-चड़ती पतराइते गमैया विद्यालयमे तिलासंक्रान्तिक पढ़ाइ शुरू भऽ गेल। विद्यालयक लेल ने जगहक कमी आ ने पढ़ौनिहारक। इनार-पोखरिक घाट सन पवित्र स्थान आ बिनु आरक्षणवाली महिला शिक्षि‍का। शिक्षि‍को सभ इमानदार। ने ट्यूशन फीस लैत आ ने दरमाहा। पढ़बैक लेल एते उताहुल जे खेनाइयो-पि‍नाइक चिन्ता नै। छोट दिन होइतो भानस-भातक कौड़ियो भरि ढकार नै। पावनिक विषय नम्‍हर तँए पूरा विषयक शिक्षक तँ नै मुदा टुकड़ी-टुकड़ी कए कऽ अपना-अपना ढंगसँ अपन हिस्साक विषय पढ़बए लगलीह।

पाँच दिन पहिनहि केदार कलकत्तासँ गाम आबि गेल। ओना ओ दुर्गोपूजामे सभ साल एबे करै छथि, तिलोसंक्रान्ति सेहो नहिये छोड़ै छथि। केना छोड़ताह? आब कि कलकत्ता ओ कलकत्ता रहल जे तीन-तीन दिन गाड़ीमे बैसल-बैसल देह-हाथ अकड़ि जाएत। आब तँ छअ घंटाक रस्ता अछि‍। तहूमे केदार अपन गाड़ी रखने छथि, चाह-नास्ता कलकत्ताक डेरामे करै छथि आ कलौ गाममे। हुनके सबहक तँ ई दुनियाँ आ देश छी। एक तँ बैंकक मैनेजरक दरमाहा दोसर कुरसीक कमीशन आ तइपर सँ अपनो बैंकक शाखा खोलनहि‍ छथि। कमीशने बेतन तँए स्टाफोक कमी नै। शहरे कलकत्ता सन जइठाम भीखमंगो करोड़पति अछि

गाममे जँ कियो मरद छथि‍ तँ केदारे छथि। गाममे आँखि उठा कऽ हुनका दि‍स के तकतनि। तिलासंक्रान्तिमे अखनो सतरहटा अँचार, बीकानेरक पापड़ केदार छोड़ि के खाइत अछि? विधिपूर्वक जँ पावनि करैत अछि तँ केदार छोड़ि दोसर के?” - पोखरिक घाटपर दतमनि करैत जगदरवाली कछुबीवालीकेँ कहलखिन।
साड़ी-साया रखि कछुबीवाली घाटपर बैस झुटकासँ पएर मजैत छेलीह। मन चिन्तामे बाझल छलनि। काल्हिये पावनि छी। ने चूड़ा कुटलौंहेँ आ ने मुरही भुजलौं। जाबे चूड़ा-मुरही नै हएत ताबे लाइ कथीक बनाएब। गलती अपनो भेल जे अगते-ओरियान नै केलौं। फेर मनमे उठलनि- एक दिनक पावनि लेल महीना दिन पहिनेसँ ओरियान करए लागब। एतबे काज अछि? काजक दुआरे एको दिन ने समैपर नहाइ छी आ ने खाइ छी। जेकरा काज नै छै सालो भरि पावनिये करए। कोनो की हम जनै छेलिऐ जे पनरह दिन पहिनेसँ शीतलहरी लाधि देतै? चूड़ा-मुरहीक ताड़ल धान भारलो ने जाएत? जइ देवताकेँ पावनि करबनि हुनका एतबो बुत्ता नै छन्हि जे अपनो पावनिक ओरियानक चिन्ता करतथि। फेर मनमे एलनि जे चूड़ा-मुरही तँ दोकानो-दौरीमे बिकाइत अछि। कीनि‍ लेब। मुदा लाइ केना हएत? चूड़ा-मुरही तँ अखड़ा होइत अछि। अमैनियाक जरूरति‍ नै अछि। मुदा लाइ? केहन-कहाँ हाथे, केहेन-कहाँ बरतनमे बनौने हएत? तहूमे आइ-काल्हिक बनियाँ सभ तेहन गैखोर भऽ गेल अछि जे गुड़क बदला छुएमे बना पाइ टलिया लैत अछि। दिनेमे मुरही-चूड़ा लऽ आनब आ रातिमे खएला-पीलाक बाद बना लेब। मन असथिर होइत रहनि कि जगदरवालीक बात मन पड़लनि। क्रोध फेर आपसी रस्तासँ घुरि गेलनि। तुरुछ भऽ उत्तर देलखिन- सतरह रंगक आकि पचासे रंगक  अँचार जे केदरबा खएत तइमे कछुबीवालीक जीहोक पानि मेटेतै?”

श्यामा काकी चुपचाप नहा कऽ घर दिसक रस्ता धेलीह। अपना धुनिमे श्यामाकाकी। ने समाजसँ कोनो मतलब आ ने समाजक काजसँ। समाजक काजे बेढंग अछि। ककरो कोनो ठेकान नै। की बाजत आ की करत तेकर कोन ठेकान। एक्के मुँह जत्ते लोकसँ गप करत, एक्के गपकेँ तते रंगसँ बाजत। लगले किछु लगले किछु। तहूमे आब तेहन-तेहन अगिमुत्तू सभ भेलहेँ जे, जूरशीतलक मुइल नढ़ियाकेँ जहिना कुत्ता सभ अपना-अपना दिस दाँतसँ पकड़ि-पकड़ि घिचैत अछि‍, तेहि‍ना भऽ गेल अछि नै तँ कतौ एना हुअए जे एक्के गाममे एक्के पावनि दूदिना, तीनदिना दुनू होय। तहन तँ जेकरा जे मन फुड़ै छै से करैए। सभ करत अपना मने आ हम करब लोकक मने। अपन जिनगी अछि अपन दुख-सुख अछि। अपनासँ पलखति हएत तँ दोसरो बच्चा दि‍स देखब। नै तँ अपन के सम्हारि देत? यएह विचार सभ श्यामा काकीक मनमे नचैत रहनि। चूड़ो-मुरहीक लाइ भइये गेल। तिलबो बनाइये लेलौं। कुरथियो-तेबखाक दालि ऐछि‍ये। लोको सभ जीहक चसकी दुआरे कियो खेरही तँ कियो राहड़ि तँ कियो बदामक दालिक खिच्‍चड़ि‍ बनबैत अछि। एते बात मनमे उठिते काकीक विचार रुकि गेलनि। कुरथीक तुलना राहड़ि, खेरहीसँ करए लगलीह। पूसक संक्रान्तिक दिन पावनि होइत अछि‍। राहड़ि चैत-बैशाखमे जहनकि बदाम फागुन आ खेरही जेठ-अखाढ़मे होइत अछि, तइ हिसाबे कुरथिये ने नवकी कनियाँ बनि घर एलीह। ई बात मनमे अबि‍ते काकीक मन आगू बढ़लनि। हमरा सन दही ककर हेतै? कियो लोहा महींसक दूध पौरने हएत तँ कियो पोखरिक पानिक। मुँहसँ हँसी निकललनि। जेहने लोक सभ ठक भऽ गेल अछि तहने देवि‍यो-देवता सभ। अनदिना कियो दूधमे पानि फेँटि‍ कऽ बेचैए तँ बेचैए, पावनिमे जे हुनको सभकेँ खुअबै छन्हि से ओ नै बुझै छथिन। किएक ने हड़हरी बज्जर खसा दइ छथिन। एते दिन हुनको सभकेँ शक्ति छलनि आब ओहो सभ डलडाक मधुर खा पेट बिगाड़ि लेलन्हि अछि। फेर मन अपना दिस घुड़लनि। खिच्‍चड़ि‍मे जम्बीरी नेबो नीक आकि घीउ। मुदा प्रश्नपर मन नै अँटकलनि। खाइ बेरमे बुझल जाएत। फेर मनमे खुशी एलनि। मुस्की दैत आँखि उठा कऽ तकलनि तँ दि‍नकरपर नजरि‍ पड़लनि। मने-मन प्रणाम कए कहए लगलखिन- एहनो जाड़मे अहाँ चास-वासकेँ भरि देने छिऐ। अपना लेल कोठी माल-जाल लेल टाल, खेतक-खेत तरकारी, बाधक-बाध गहूम, दलिहन-तेलहनसँ सजल खेत। हे दि‍नकर बहुत जाड़ सहि जीब रहल छी, कल्लह फेरू।
आँखि निच्चाँ होइते मनमे एलनि। आइये ने सीमापर (मकर रेखा) जेताह। काल्हिसँ तँ तिले-तिल बढ़बे करताह।

पावनिक छुट्टीमे ज्योतिषी काका गाम नै एला कि काकीकेँ आफद भऽ गेलखिन। ओना साल भरिसँ काकियोक मन बदलि‍ रहल छन्हि। काकी जत्ते बुधियार भेल जाइ छथिन तते काकासँ मन-भेद भेल जाइ छन्हि। ज्योतिषी काकाकेँ काकीक ओइ‍ किरदानीसँ हृदैमे चोट लगलनि। जइ दिन काकी काकाक कमाएल रुपैया चोरा कऽ बुइधिक सर्टिफिकेट कीनि‍ लेलखिन, ओही दिनसँ काकीक आफद कक्का आ काकाक आफद काकी भऽ गेलखिन। विद्यालयसँ अबैतखिन बाटेमे पावनिपर नजरि गेलनि। कने काल गुम्म भऽ उत्तर-दछि‍नक सीमापर आँखि रोपलनि। आँखि रोपितहि हृदैमे हँसी उठलनि। जे लोक दक्षिणायणमे मरैत अछि तँ नर्क जाइत अछि आ उत्तरायणमे मुइलापर स्वर्ग। स्वर्ग तँ मनुख निर्मित छी जहन कि मकर संक्रान्ति ग्रह-नक्षत्रक प्रक्रिया छी। दुनू एकठाम केना भऽ गेल। बाटेसँ ज्योतिषी काकाक मनकेँ हौंड़ने रहनि। आंगनमे पएर रखि‍ते काकी टोकि देलखिन- तलब भेटल कि नै? अखन धरि कोनो ओरियान नै भेल अछि
काकीक बात सुनि काकाक मन लहरि‍ गेलनि। आँखि गुड़ेरि काकीकेँ देखि‍ ओसारक चौकीपर झोरा रखि हाथ-पएर धोअए कल दि‍स बढ़लाह। काका मने-मन सोचथि‍ जे सभ काजक बेर‍ फँड़बन्ही करतीह आ टाका बेरमे काका मन पड़ै छन्हि। काका अप्पन धुनिमे आ काकी पावनिक धुनिमे। तिलासंक्रान्ति सन पावनि दंगलक अखाड़ापर उतरैबला अछि, ओइ‍ लेल अखन धरि हाथपर हाथ जोड़ि बैसलि छी.....। मुदा पहिलुके नजरि काकीकेँ डोला देलकनि। करेज काँपि गेलनि। मन निर्णए कऽ लेलकनि जे परिवारक गारजन पुरुख होइत छथि‍, मान-अपमान पुरुखक कपारपर चढ़त। हम तँ अनेरे तबाह छी। जे आनि कऽ देता ओ बना कऽ आगूमे धऽ देबनि।

कलपर पानि पीब, आंगन आबि ज्योतिषी काका चौकीपर बैस तमाकुल चुनबए लगलाह। अपन भलाइ सोचि काकी बाड़ी दिस टहलि गेलीह। मुँहमे तमाकुल लैत काका आँखि घुमा कऽ पत्नी दिस देखलखिन। मन खुट-खुट करनि जे फेर ने किम्हरोसँ आबि किछु फरमा देथि। मुदा सोझमे नै देखि‍ मन असथिर भेलनि। मनमे उठलनि, काल्हि मकर संक्रान्ति छी। जइठामसँ सूर्ज दछि‍‍न मँुहे नै बढ़ि उत्तर मुँहे घुमताह। सूर्जकेँ उत्तरायण होइते जीव-जन्तुमे सूर्जक प्रकाश नव स्फूर्ति पैदा करैत अछि। मौसमक बदलाव हुअए लगैत अछिऐसँ परिवर्त्तनक रूप देखि‍ पड़ैत अछि मुदा लोकमे परिवर्त्तन की आओत? जे दछि‍‍नपंथी विचार बेवहारिक रूपमे पर्वत सदृश अपन रूप बनौने अछि से चूड़ा-लाइ खेने भेट जाएत?

संक्रान्तिक पहिल संध्या अबैत-अबैत भोरमे नहेबाक कार्यक्रम तैयार भऽ गेल। प्रश्नपर विद्यालयक सभ शिक्षिका एकमत भऽ गेलीह। कार्यक्रममे एकटा फनिगा आबि गेल। फनिगाक गंधसँ वातावरणमे गंध आबि गेल। गंध ई जे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरी (कमलेश्वरी) महरानी चुड़लाइक छिट्टा रखने छथिन। जे पहिने नहाइले जाएत ओकरा देथिन।
टेल्हुक धि‍या-पुतासँ लऽ कऽ ढेरबा धरि अपन दावा ठोकए लगल जे पहिने हम नहाएब आ कमलेसरी महरानीक चुड़-लाइक छिट्टा आनब। अपन-अपन शक्तिकेँ जगबैत संकल्पित सभ हुअए लगल।

जारनि‍ तोड़ि कऽ अबैत काल अझप्पे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरीक चुड़लाइक छिट्टा गोपला सुनलक। मुदा किछु दोहरा कऽ नै बुझए चाहलक। माथपर ठहुरीक बोझ रहैक। मुदा भार मनसँ हटि‍ चूड़ा-लाइक छिट्टापर पड़लै। बड़का छिट्टा, जेहन भत-भोजमे भातझकैक लेल होइत छै। भरिये दिन ने पावनि छै। कत्ते खाएब। मनमे खुशीक अंकुरा उगलै। घरपर आबि जरनाक बोझ रखि मने-मन संकल्प केलक जे सभसँ पहिने हम घाटपर जाएब। गहींर गोपला, विचारकेँ गोपनीय रखलक। माइयो-बापकेँ नै कहलक।

बारह बजे रातिमे नीन टूटिते गोपला माए-बापकेँ बिनु किछु कहनहि पोखरि दिस विदा भेल। माए बुझलनि जे लघी-तघी करए निकलल। बुद्धू (पिता) नीनभेड़ि‍, तँए बुझबे ने केलनि‍। जहिना प्रेमीकेँ अपन प्रिय छोड़ि दुनियाँमे किछु नै देखि‍ पड़ैत छै, तहिना लाइक छिट्टा छोड़ि गोपला किछु नै देखैत। दुलकी मारैत पोखरि दिस बढ़वो करै आ आँखि-कान उठा-उठा आगुओ ताकै जे क्यो दोसर ने तँ बढ़ि गेल। ने कानसँ कोनो भनक बूझि पड़ै आ ने अन्हारमे किछु देखए। किछु काल देखि‍ माए बान्हपर आबि तकलक तँ गोपलाकेँ नै देखलक। मनमे टराटक लगए लगलै, जे एते अन्हारमे कतऽ चलि गेल। भरिसक भकुआएलमे किम्हरो चलि ने तँ गेल। मुदा अन्हारमे देखबे कत्ते दूर करब। ओह! से नै तँ हुनको (पति) उठा दुनू गोटे चोरबत्तीक हाथे तकबै। सएह कैलक।

पनरह-बीस दिनसँ शीतलहरी चलैत। लागल-लागल पछियो संग दैत। घूरक आगियो मैलमुँह भेल। गोपलाकेँ ने रस्ता अन्हार बूझि पड़ै आ ने पोखरि दूर, ने जाड़ बूझि पड़ै आ ने पोखरिमे पानि। साक्षत् ब्रह्ममे लीन भक्त जकाँ गोपलो लाइमे लीन भऽ गेल। पोखरि पहुँचि‍ घाटक तरमे गोपला हथोरिया दिअ लगल। जा धरि लाइक आशा मनमे रहै ताधरि खूब हथोड़लक। हथुरैत-हथुरैत देह बर्फ जकाँ जमि गेलै। जाड़ बूझि पड़ए लगलै। सौंसे देह थरथर कँपैत रहए। गोपालक मन मानि गेलै जे मरि जाएब। पोखरिसँ ऊपर भऽ घर दिसक रास्ता धेलक। ताधरि चोरबत्तीक हाथे आगू-आगू माए आ दू लग्गा पाछू पिता पेना नेने अबैत छेलखि‍न। फड़िक्केसँ माए थर-थर कँपैत गोपलाकेँ पुछलक- गोपाल।
गोपाल सुनि बुधबाकेँ खौंझ उठलै। बाजल- मिरगी उठल छलौ जे पोखरि आएल छेलँे?”

थरथराइत गोपलाकेँ माए अपन आँचरसँ देह पोछए लगली। बेटाक दशा देखि‍ पिताक मन पघिलए लगलनि‍। जहिना गंगा स्नानक बाद नीक विचार मनमे उपकैत अछि तहिना बुद्धूक मनमे उपकलै। सोचए लगल, आइ जँ मरि जाइत तँ दिनमे केकरा तिल-चाउर दि‍तिऐक, के तिल बहैत? दछि‍‍नबारि टोलमे सबहक बेटा-पुतोहु बाप-माएकेँ छोड़ि परदेश चलि गेल अछि। बुढ़ियाँ सभ नवकी कनियाँ जकाँ अपनेसँ तिलकोर तडै़ जाइ छथि। तिलकोरक तरुआ केहेन होइ छै ई तँ बुढ़िये कनियाँ सभ बुझै छथिन। जिबठ बान्हि बुधबा गोपलाकेँ पजिया कऽ पकड़ि कोरामे लए डेगगरसँ आंगन दिस बढ़ए लगल। आंगन आबि पुआर धधकौलक।

जहिना गोपलाक देह भीजल तहिना देहमे सटल गंजी-पेन्टो। मुदा कपड़ा बदलैक साहस नै भेलै। देह कठुआएल, हाथ बिधुआएल, ओंगरी ठिठुरल। मुदा कनियेँ कालक बाद टनकल। दुनू परानी बुधबो जाड़सँ ठिठुरल रहए। तीनू टनगर भेल। टनगर होइते गोपाल माएकेँ कहलक- अांङी-पेंट आनि दे।

गोपाल पेंट-शर्ट पहीरए लगल। तीनूक सिरसिराएल देह आगिक गरमी पाबि वसन्ती हवामे टहलए लगल। बुधबा पत्नी दिस देखि‍ हाथ पकड़ि, पहुँचल फकीर जकाँ बाजल- आइ, गोपला हाथसँ चलि जाइत। सबहक अंगनामे पावनिक उत्साह रहितै आ अपना दुनू गोटे बेटाक सोगमे कनैत दि‍न बितबि‍तौं।

पिताक बात सुनि आशा चौंकि‍ गेलि। जेना भूमकमक धक्का धरतीकेँ लगैत तहिना आशाक हृदैमे धक्का लगल। धड़फड़ा कऽ उठि कोठीपर राखल मुजेलासँ दूटा गोल-गोल लाइ लेने गोपलाक हाथमे देलक। हाथमे चूड़ाक लाइ अबिते गोपाल हबक मारलक। मुदा तेहन सक्कत जे ठोर चँछा गेलै, मगर दाँतसँ लाइ नै कटलै। माएकेँ कहलक- लाइ कहाँ टुटैए।

बेटाक बात सुनि आशाक मनमे खुशी उपकल। अपन कारीगरीकेँ परीक्षामे पास देखि‍ मुस्की दैत पति दि‍स देखि‍ बाजलि- तेहेन पाकमे लाइ बनौने छी जे बिना सिलौट-लोढ़ीसँ सुनत?”

बेटाकेँ बुद्धू पुछलक- आइ तँ कतौ नाचो-ताँच ने होइ छै तखन‍ किअए तँू रातिमे एते दूर चलि गेलेँ।
बिच्चेमे आशा बाजलि- लघी-तघी करैले उठल हेतै, भकुआएलमे बौआ गेल हेतै।
हाँइ-हाँइ गोपाल मुँहक लाइकेँ चिबा कऽ घोंटि माए दिस देखि‍ बाजल- लोक सभ साँझमे बजै छेलै जे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरी महरानी लाइ रखै छथिन। उहए अनैले गेल रहौं।
गोपलाक बात सुनि बुद्धुक मन महुरा गेलै। मने-मन बाजल जे अपना कमेने नै हएत ओ भोला बाबा बड़दक.......। मुदा क्रोधकेँ दुआरे मनमे दबने रहल जे गामक लीला सभ आँखिक सोझमे नाचए लगल रहै। जे सभ जुआनीमे, मद-मस्त भोम्हरा जकाँ जिनगी बितौलनि, बेटा-पुतोहुक अछैत मुँहसँ धुँआएल चूल्हि फूकए पड़ैत छन्हि, जइसँ दुनू आँखिमे नोर टघरैत रहैत छन्हि। मुदा ओ सभ तेकरा हृदैक बेथा नै, धुँआ लागब बुझै छथि। बुद्धूक हृदए पसीज गेलै। मुरखो अछि तैयो तँ बेटे छी। बरखे ने चौदहटा भऽ गेलै मुदा भरि दिन तँ असकरे लग्गी लऽ कऽ बोनाएल रहैए। ने खाइक ठेकान रहै छै आ ने नहाइक। तहन बुद्धिसँ भेँट केना हेतै?

बेटाक बात सुनि माएक मन उमड़ि गेलनि। बुझबैत बजलीह- रौ बौआ! अपना की कोनो चीजक कमी अछि। जते रंगक धान गिरहतकेँ होइ छै तते अपनो ने होइए। सतरियाक चूड़ा कुटने छी, लाइ बनौने छी आ ओकरे खिच्‍चड़ियो रान्हब।

पछुआरक रस्तापर गल्ल-गुल्ल सुनि आशा घरसँ निकलि डेढ़ियापर पहुँचलीह कि महरैलवालीक बाजब सुनलनि। डेढ़ियेपर ठाढ़  भऽ सुनए लगलीह। महरैलवाली हड़ड़ीवालीकेँ कहलखिन- हम तँ आध पहर रातिये नहेलौं। अखन धरि अहाँ पछुअएले छी।
हड़ड़ीवाली- अहाँ जकाँ रातिमे कुकुड़ घिसिऔने छलौं जे भोरे नहा कऽ पाक हएब।

दुनू गोटेक गपकेँ दबैत तमोरियावाली जोर-जोरसँ पुतोहुकेँ कहैत रहथिन- तीन दिनसँ बोखार छेलह तहन एहन समैमे  भोरे किअए नहेलह?”

मुदा पुतोहु उत्तर नै देलकनि। आशाकेँ मन पड़लनि जाड़सँ कँपैत गोपाल।

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