Pages

Friday, May 31, 2019

Thoughts of Sh. Jagdish Prasad Mandal_श्री जगदीश प्रसाद मण्डल_बेरमा गाम_जिला- मधुबनी (बिहार), कथा-साहित्यक संक्षिप्त by Umesh Mandal



























अगुताइ भेल_Jagdish Prasad Mandal_बेरमा, मधुबनी_सम्पादन एवम् संकलन- Umesh Mandal


अगुताइ भेल  
दस सालक पछाइत रघुनीबाबाक भाग्य जगलैन जे जीतन बाबा जकाँ एकठाम समटल परिवारसँ भेँट भेलैन। माने, पोता-पोती, बेटा-पुतोहुसँ एक घर-ऑंगनमे भेँट भेलैन। असगरेक दुनू परानीक जे घर-आँगन छेलैन ओ भरल-पुरल बुझि पड़लैन।
दस बजे भिनसुरका उखड़ाहाक समय, जेठ मासक अन्तिममे रघुनीबाबा फलबाड़ीक सेवामे लागल मने-मन सोचि रहल छला- यएह ओ समय छी जे पाँतरमे पैसल पियासे बटोहीक प्राण लइए, यएह ओ समय छी जइमे पाइनिक तृष्णासँ मालो-जालक आ आनो-आन जीव-जन्तुक जान जाइए। यएह समय ने हमरो आ हमर जिनगियोक जान-प्राण लइत अछि।
फलबाड़ीक हहरैत किछु गाछकेँ देख रघुनीबाबाक मन मानि गेल छेलैन जे जेठक ताप सन्ताप बनि जरूर अहू सबहक जीवन लेबे करत..! रघुनीबाबाक हृदय सिहैर गेल छेलैन जे एकरे जीवन किए, ओ तँ फलदाता छी, फलित तँ अपन होइए, तँए अपनो जीवन ने लेब भेल। जहिना रस्ता-बाट वा घाट-बाट मरल वा मरनासन्नक जीवनक ओगरवाही करैत ओगरवाह अधमरू जकाँ भऽ जाइए तहिना दारीमक अधमरू गाछक छाहैरमे बैस अपन जीवन रघुनीबाबा देख रहल छला।
दस बर्खक पोता, पेन्ट-शर्ट पहिरने बाबाक फलबाड़ी देखए आएल। ओना, प्राइवेट शिक्षण संस्थानक विद्यार्थी वोआजी, जेकरा शिक्षक सिखा देने छेलखिन आकि अपन संस्थानक बेवहारसँ सीख चुकल छल से नइ बुझि रहल छी। मुदा एते तँ भेबे कएल जे वोआजी रघुनीबाबा लग पहुँचल। ऐठाम एकटा बात आरो अछि, वोआजी, शब्द, अपना सभ बौआजी कहै छिऐ से नहि वोआजी शब्द अछि। आजुक परिवेशमे सभ कथुक नस्ल जहिना बदैल रहल अछि तहिना भाषा-भाषिक सेहो भइये गेल अछि। अंगरेजीक शब्द वोआआ तइमे जीलागल अछि तँए दोगला नस्ल भेने वोआजीशब्द अछि।
जेठक दसबजिया रौद, दारीमक गाछक अधमरू छाहैरमे बैसल रघुनीबाबा अपन पाँच कट्ठाक मछपोसा पोखैरकेँ सेहो देख रहल छला। छाती भरि मोट केचलीक संग चिलमिल इत्यादिक सुखल बोन-झाड़ पोखैरमे देख रहल छला। जहिना खुट्टापर मरल गाए देख पोसनिहार अपन दूधक आशा तोड़ि लइ छैथ, तहिना रघुनी बाबाकेँ सेहो टुटि रहल छैन।
पैछला शताब्दीक जे सातम-आठम दशकक बीचक समय, जे किसानक जागरणकाल छल। ओही समय रघुनीबाबा कौलेजक पढ़ाइ समाप्त करैत किसानी जिनगी जीबैक संकल्प लेलैन। जहिना दुनियाँक सभ कथुक गति-विधि अछि तहिना अपन जिनगीकेँ रघुनी बाबा शुरूहेसँ बनौने, दुनियाँक संग चलि आबि रहल छला। ओना, पोखरिक दशा देख टुटल मनमे खुशीक हिलकोर सेहो उठिये रहल छेलैन जे जे छुटि कऽ टुटि गेल छल ओहो अनुकूल समय पेबैक अन्तिम सीमापर पहुँचिये रहल अछि।
वोआजी बाजल-
बाबा, बहुत गरमी पड़ि रहल अछि, आब काज करैक समय नहि अछि।
ओना, आजुक परिवेशमे जे शिक्षण संस्थान सबहक रूतबा भऽ गेल अछि, ओ एहेन भऽ गेल अछि जे जेते नव-नव संस्था (शिक्षण संस्था) बढ़ि रहल अछि ओते नव-नव चालि-ढाइलिक संस्कारो आ मनुखोक निर्माण भइये रहल अछि। खाएर जे अछि, वोआजीकेँ तइसँ कोन मतलब। बेठेकान जिनगीकेँ ठेकान लगा जीबि लेब तेतबे मतलबक जरूरत जहिना सभकेँ अछि तहिना वोआजीकेँ सेहो छइ। ओना, रघुनीबाबाक मनमे ईहो उठि रहल छेलैन जे अपना सभ ने चूरा-दही-चिन्नी-अचार पबै छी आ बारह मासोक आ तेकर अधिया रीतुओ आ चारि मासक मौसमोक बारहमासा, छहमासा आ चरिमासा ओछाइनपर पड़ल-पड़ल गबिते छी, मुदा धरतीपर एहनो तँ देश अछिए जैठामक बासीकेँ जेहेन अपना सबहक जेठुआ रौद होइए तइसँ बेसिये रौद सालो भरि होइ छै, जहिना माघक शीतलहरीक जाड़ होइए तेहेन जाड़सँ ऊपरेक जाड़ सालो भरि–माने तीन साए पेंइसैठो दिन होइए। तहूठाम जँ मनुख जीवन धारण केनहि अछि, तइसँ नीक तँ अपना सभ, सभ दिनसँ रहिते आबि रहल छी। मुदा बाल बोध पोताकेँ एते भरिगर विचार देब उचित नहि। मनमे बेसी दाव पड़ि जाइत। तहूमे अखन तक भरिपोख गपो-सप्प ने भेल छेलैन, जे तहूसँ किछु अनुमान लगैबतैथ। तखन तँ भेल जे जइ हिसाबे वोआजी बाजल तइ हिसाबक उत्तर देबे ने नीक हएत। सोझ-साझ जोड़-घटाउकेँ अनेरे दसमलवमे टुकड़ी-टुकड़ी करब उचित नहि। ओ तँ अपन जीवन सूत्र छी, जेहेन जीवन तेहेन सूत्र। अखन तँ वोआजी अठमा क्लासक विद्यार्थी अछि। तहूमे जँ रघुनीबाबाक जुग-जमानाक रहैत तँ ओहिना धड़िया पहिर पीपरक गाछ लग गुल्ली-डण्टा खेलैत, नहि तँ फुटबॉल-भोलीबॉल खेलाइत रहैत। ओना, वोआजीकेँ देख रघुनीबाबाक मनमे ईहो उठैत रहैन जे एहेन समयमे जीन्स पेन्ट पहिरने अछि आ आदेश..! मुदा पोता तँ पोते छी, तेसर पीढ़ीक निच्चाँकेँ तीन पीढ़ी ऊपर जेबाक छइ।
वोआजीक विचारमे विचारकेँ मिलबैत रघुनीबाबा बजला-
बौआ, काज तँ छोड़ि कऽ बैसले छी। तहूमे भगवान तेहेन फेरी लगा देलैन जे अधासँ बेसी फलक गाछ सुखि जाएत।
बाबाक बात सुनि बाल-बोध वोआजीकेँ जिज्ञासा जगल, बाजल- बाबा! ओ पुबरिया खेत जे अछि, तइमे की लगौने छी?”
माछ पोसैक पोखरिक गति देख रघुनीबाबा मने-मन कुही हुअ लगला। महाभारतक अन्तिम दिनक लड़ाइ जकाँ बाबाक मन अपन जीवनक संघर्षमे ओझराए लगलैन। अनेको विचार घनघोर बरखा होइत कालक पाइनिक बुलबुला जकाँ मनमे उठए लगलैन। 1970 ई.मे कौलेजसँ निकललौं। जे किछु अध्ययन कौलेजमे भेल ओ स्वावलंबी जीवनक भेल। ओना, स्वावलंबी सेहो अनेको रंग-रूपक अछिए मुदा से सभ किछु ने। अपन पैत्रिक जमीन रघुनीबाबाकेँ अपनो छेलैन। किसानक जागरण काल छल...। मिथिलांचलक किसान कोसी नहैरक मुख्य शाखा कोसी धारसँ जयनगर तक जुड़ि गेल देख आशान्वित भइये गेल छल। इलाकासँ रौदी मेटा जाएत.., नहैरक सस्ता पानि सालो भरि खेती-बाड़ी लेल हएत.., जनकजीक मिथिला पुन: स्थापित हेबे करत...। तैसंग रंग-रंगक आशाक गीतो समाजमे गओले जाइ छल- छिटा-कोदारि ले चल-चल...।
ओही उठानिक समय रघुनीबाबा सेहो पाँच कट्ठा खेतकेँ पानिमे उसरैग देलैन। पोखैर खुनबैमे बेसी भीड़ो ने भेलैन, किएक तँ गामक बीचमे खेत छेलैन, लोककेँ माइटिक खगता छेलैहे, खुनि-खुनि लऽ गेल। जइसँ मछपोसा पोखैर बनि गेल।
रौदी तँ अपना ऐठामक बुझल अछिए जे 19म शताब्दीमे पचीस बेर भेल। औसतन चारि बर्खमे एकबेर। तहिना बाढ़िक उपद्रव सेहो इलाका-इलाकामे रहबे कएल। जइसँ सदिकाल किछु-ने-किछु उजार-पुजार होइते आबि रहल अछि। असुविधाक चलैत रघुनीबाबाकेँ कहियो समुचित बेवस्था नहि भऽ सकलैन जे समुचित उपजा पोखैरसँ पबितैथ। बरसात समय पानिसँ भरै छल, अखुनका जकाँ रंग-रंगक माछोक किस्म नहियेँ छल, अखाढ़क जीरा कातिक तक कते उमझत। पोखैर सुखि जाइ छेलैन। ओना, अपना बोरिंग रहैन, मुदा तेलबला दमकल रहने खर्च बेसी भऽ जाइ छेलैन, तँए सम्हारि नै पबै छला। मुदा बिजली भेने मन पुन: अपन जुआनीक संकल्प जगि चुकलैन अछि। मन मानि चुकल छैन जे अगुताइ भेल...।
हारि-जीतक बीच रघुनीबाबा छेलाहे, पोताकेँ कहलैन-
बौआ, आगू साल फेर अबिहह। पुरना रहुओ आ गाइयक दूधो-दही भरि मन खुएबह।
वोआजी बाजल- अच्छा चलू। जे भेल सेहो बड़बढ़ियाँ, जे नइ भेल सेहो बड़बढ़ियाँ। काल्हि-ले काल्हि विचारि लेब।
पोताक विचारमे अपन विचार मिलिते रघुनीबाबाक मनमे तीन पीढ़ी[i] ऊपरसँ तीन पीढ़ी निच्चाँ धरिक रूप-रेखा आबए लगलैन। एबो केना नहि करितैन, मनुख मशीन नइ ने छी जे सालेमे सात-गुणा बढ़ि जाएब, मनुख तँ मनुख छी। हँ! तखन माल-जाल जकाँ सात पीढ़ीमे तँ नहि, मुदा मनुख तीन पीढ़ीमे सोलहन्नी केचुआ जरूर छोड़ए। मुदा बाबाक मनमे ईहो शंका होएत रहैन जे नवतुरिया छौड़ासँ जँ मुँहमिलानी नइ राखब तँ अनेरे बकठाँइमे समय जाएत। विदा होइत बजला-
चलह।
q शब्द संख्या : 1054, तिथि : 22 फरवरी 2019


[i] वंशगत परिवारमे

थैंक्यू पापा_Jagdish Prasad Mandal_बेरमा, मधुबनी_सम्पादन एवम् संकलन- Umesh Mandal


थैंक्यू पापा
चारि बजे भोरेसँ धीरज भाय जे किछु कऽ रहला अछि, माने नित्य कर्म ओ हाथ-पैरसँ कऽ रहला अछि आ ठोर पटपटबैत भगवानोक नाम लऽ रहला अछि...। भाय, एकरा अहाँ शंकराचार्यक अद्वैत नहि बुझब। कोसी प्रोजेक्टक कार्यालयसँ सेवा निवृत्ति बड़ाबाबू छैथ। जहिना अपन काम-धाममे लागल धीरज भाय मने-मन तृप्त रहै छैथ तहिना खुशीसँ उधियाइतो तँ रहबे करै छैथ। औझुका उधियाइक कारण छैन जे बेटा आइ मेडिकलक अन्तिम परीक्षा दिअ जा रहल छैन। ओना, होस्टलक विद्यार्थी अनुप, जे अपन ऐगला खेबा-खर्चाले काल्हियेँ गाम आएल।
मासे-मास अनुप अपन खर्चा लइले अबिते अछि तँए परिवारमे कोनो हलचल नहियेँ छल। धीरज भाय सेहो मने-मन बुझिये रहल छला जे सभ मास जहिना अनुप अबैए तहिना आएल अछि। ओना, धीरज भाय किसान-परिवारक लोक सभ दिन रहला, बीचमे नोकरीसँ सेवा-निवृत्त भेला पछाइत फेर अपन वृत्तिसँ किसानी जिनगी धारण कइये लेलैन अछि। दू साल पहिनहि नोकरीसँ सेवा-निवृत्त भेला। 
धीरज भाइक जिनगीक स्वर्णकाल ओ छेलैन जखन कोसी नहरक खुनाइ चलै छल। ऑफिसोक ओ चुहचुही आब कहाँ रहल जे ओइ समय छल। भरि दिन प्रणाम-पाती आ भोज-भात चलैत रहै छेलैन। ओइ संस्कारमे धीरज भाइक नोकरीक आधा समय बीतल छेलैन। नोकरी शुरू केलाक नअ बर्खक पछाइत अनुपक जन्म भेल। विभागो–जल-सिंचाई विभाग–आ विभागक कार्यालयो सबहक नीक चला-चलती छेलैहे। नोकरी शुरू केलाक तीन सालक पछाइतसँ धीरज भाय सौनक बरखा जकाँ पाइयक बर्खातर पड़ि गेल छला। एक दिस ठिकेदारीक तँ दोसर अस्थायी बहाली आ तेसर दिस दिल्लीक कार्यालयसँ लऽकऽ जिला कार्यालयक कार्यकर्त्ता सबहक आबाजाही रहने खेबा-पीबा-रहबाक ओरियान करैक जिम्मा धीरजे भायपर रहै छेलैन, जइसँ ऊपर-सँ-निच्चाँ तकक कर्मचारीसँ सम्बन्ध बनियेँ गेल छेलैन। ऐसँ एते बिसवास तँ बनियेँ गेल छेलैन जे जँ हरिद्वारसँ गंगासागर देखैत रहब तँ कोनो वैतरणी टपि सकै छी।
पाइयक आमदनीक चढ़ाउ समय, तँए धीरज भाइक मन सेहो चढ़िये गेल रहैन। अनुपक छठियार दिन चुपे-चाप पत्नीक दर्दमे मलहम लगबैत फुस-फुसा कऽ कहबे केने रहथिन जे ई बेटा तँ तेहेन लाल हएत जे कमाल करि कऽ देखौत।कबीरक जे पहिल चेलबा कमालरहैन से कमाल नहि, ऐठाम धीरज भाइक बेटा अनुपक प्रति अछि। सरकारी योजनाक क्रियान्वित केनिहार धीरज भाय, अपनो परिवारक योजना ओही रूपमे बनबै छला। जइसँ अनुपक पढ़ाइक ओरियान बच्चेसँ ओहन विद्यालय सभमे कएल गेल जे ग्रामीण परिवेशक कोन बात, बजरूओ परिवेशमे अगुआएल छल। माने हाइ लेभेलक।
नित्यकर्मसँ निवृत्ति भऽ धीरज भाय बेटाक खर्चक ओरियान केने दरबज्जापर बैसल-बैसल अपन जीवनक समीक्षा करए लगला। भाय रचनाकारक रचनामे ने गोल-माल हएत जे कखनो प्रिंटक दोख तँ कखनो बुझैक दोख तँ कखनो बुझबैक ढंगक दोख तँ कखनो किछु तँ कखनो किछु कहि दुतकारि लेल जाइए। मुदा जीवन तँ से नहि छी, ओ तँ हर ब्रह्मक अपन-अपन सिरजन छी, रचना छी तँए अपन रचनाकेँ अपने समीक्षा करबसँ नीक भइये की सकैए। सेवा निवृत्त धीरज भाय, तहूमे मन तेते विचलित भऽ गेल छैन जे एकठाम असथिर रहिते ने छैन। कखनो किम्हरो तँ कखनो किम्हरो डोलिये रहल छैन। डोलैत-डोलैत बिसवास एते टुटि गेल छैन जे अपनोपर बीराने जकाँ बिसवास रहै छैन। तँए अपन समीक्षो करब कठिन भइये गेल छेलैन। मुदा तैयो धीरज भाय जी-जाँति कऽ पराती जकाँ असगरे गाबि रहल छैथ। पराती गीतक एक ओहन विधा छी जेकरा लोक जाड़क भोरमे बेसी आ आन मौसममे कम गबै छैथ। ओना, अखनो ओहन ठकुरवारी सभ अछियो जैठाम पराती गबैक नियमित समय सालो भरि रखनहि छैथ। नीक बात, जैठाम ढोल-डम्फ, लॉडस्पीकरसँ जगौल जाइए तइसँ परातीक जगाएब नीक भेबे कएल। मुदा ओ पराती गबैक विधान की अछि। असगरे ओछाइनपर बैस कोकिल कण्ठसँ जन-जनकेँ जगाएबे ने भेल। ने साज-बाजक जरूरत आ ने दोसराइत-तेसराइत पलगाँइक खगता।
जननक प्रक्रियाक सुख-दुख आ दुख-पीड़ा सभ जनानीकेँ बुझले रहै छैन, जानले-मानले रहै छैन। तँए बिसवासक मलहम-पट्टी मनमे भेले रहै छैन। समयानुसार चंगा हेबे करै छैथ, बुझलमे अगुताएब की। मास दिनक पछाइत जखन भौजी–धीरज भाइक पत्नी–धीरज भायकेँ पुछलकैन- अपन लाल केहेन कमाल करत?’ तँ मुँह फोरि धीरज भाय बिसवासक संग बजला-
“अनुप डॉक्टर बनत।”
धीरज भाइक मन आइ डोल-पत्ता भऽ रहल छैन। जइसँ नख-सिखक विचार नहि उठि सिख-नखक भाव मनमे जगने मन तरसए लगलैन। तरसैत मनक बीच एकाएक विवेक बरैस गेलैन- केकरा-ले एते केलौं..!
ऑफिसोक ओ चला-चलती धीरज भाइक जिनगीमे नोकरीक अदहे समय बितलैन। जइसँ चढ़न्त जिनगीमे अनेको मोड़ आबिये गेल छेलैन।
एक तँ सेवा-निवृत्तिक आमदनी, जे जीवन-पद्धतिकेँ एक्केबेर अदहा-अदही कइये दइए, तैपर परिवारमे उठल विवाद सेहो छेलैन्हे। चारू बेटाक बीच बटबारा भऽ गेल छेलैन। मुदा तैयो अनुपकेँ पढ़ा धीरज भाय जी-जाँति कऽ समाजमे अपन कीर्त्ति स्थापित कइये लेलैन। जइसँ मनमे संकल्पक कल्प सेहो जगलैन। जिनगीक नाह भलेँ भँसिया गेलैन मुदा डॉक्टर बेटा गढ़निहार समाजमे पहिल कुम्हार भेबे केलौं किने। मन बिहुसलैन। बिहुसलैन ई जे ब्रह्मचारी जीवनक अन्तिम विदाइये ने अनुपक भेल। आठम दिनसँ परीक्षा छिऐ
तहीकाल अनुप अपन कोठरीसँ निकलल कि धीरज भाय दरबज्जापर सँ उठि हाथमे रूपैआ नेने अनुपक आगूमे ठाढ़ भेला। तैबीच अनुप पिताकेँ ठढ़िया प्रणाम कइये नेने छल आ माइयोसँ असिरवाद लइये नेने छल जे एते-दिनक आस-बिसवास तोहर हम छेलियह आब तों हमर भेलह। जेकरा अनुप मुस्कुराइत अंगीकार केलक। मुदा केतेक अंगीकार केलक से तँ वएह जानत।
ओना, धीरज भाइक जे जीवन अखन बनि गेल छैन ओ पाइक पियासल भइये गेल छैन मुदा जिनगियोक तँ अपन व्रत-संकल्प होइते अछि। पाइयक पियासकेँ धीरज भाय मरूभूमि इलाकामे बसनिहार मोर जकाँ मनेमे मोड़ि मुस्की ठोरपर लऽ अनने छला।
पिताक हाथसँ पाइ अपना हाथमे लैत अनुप बाजल-
थैंक्यू पापा..!”
बेटाक मुहसँ थैंक्यूसुनि धीरज भाइक हृदय चूर-चूर भऽ गेलैन। तैबीच अनुप सेहो आगू बढ़ि गेल छल आ पत्नी सेहो ऑंगन चलि गेल छेलैन। दरबज्जाक चौकीपर आबि बैसते धीरज भाइक मन फुटलैन- यएह छी जीवन..!”
जे जीवन अखन धरि प्रणाम-पातीसँ लऽ कऽ भाए-भैयारीमे बीतल अछि, ओहन जीवनकेँ गतिमान बना सकै छी? आइ हम अपन बेटाक ऋृणसँ जरूर उऋृण भऽ रहल छी, तैसंग बेटा अपन कन्हापर भार उठबैक स्थितिमे सेहो आबि गेल अछि। तैठाम जँ बेटाकेँ एतबो ठेकान नहि अछि जे थैंक्यूशब्द छी की। केकरो नाँगैर केकरो मुँहमे सटा पशुक जँ रूपे बदैल दिऐ, ई दीगर भेल!
अन्तो-अन्त धीरज भाइक मन ऐठाम आबि अँटैक गेलैन जे दुनियेँ छी, अरबो-खरबो जीवन अछि, तही बीच ने अपनो जीवन अछि, तइले तँ एतबे लूरिक ने काज अछि जइसँ अपने जीबैक लूरि भऽ जाए।  
q शब्द संख्या : 965, तिथि : 24 फरवरी 2019

किसुनपुराक हाट_Jagdish Prasad Mandal_बेरमा, मधुबनी_सम्पादन एवम् संकलन- Umesh Mandal


किसुनपुराक हाट
मधुबनीसँ देवकृष्ण आएले रहैथ कि समय खटियाइत देख लालभौजी जेना मन पाड़ैत होथि तहिना बजली-
आइ हाटो छिऐ।
देवकृष्ण सुतिहार जिनगीक लोक, पत्नीकेँ अँगनेमे एते काज सिरजबाए देने छथिन जे खगते भरि दुनू परानीक बीच गप-सप्प होइ छैन। हाट-बजारक काज देवकृष्ण अपने हाथमे रखने छैथ। तइसँ कहियो काल एहनो भइये जाइए जे कोनो-कोनो काज बिथुत रहि जाइ छैन। मुदा मनमे की गड़ि चुकल छैन से तँ अपने जनता। पत्नीक विचार सुनि देवकृष्ण भाइक मनमे उठलैन- दू दिनक मधुबनी कोर्टक थाकल छी तैपर आइ नहेबो ने केलौं हेन, साढ़े पाँच बजि रहल अछि, घन्टा भरिक पछाइत हाटो उसैर जाएत। जखने हाट उसरत तखने अपन काजो खगबे करत...।
पत्नीकेँ देवकृष्ण कहला-
बौआ केतए अछि, गामेक हाट छी, कहुना ते आब दस बर्खक भइये गेल, हेरा थोड़े जाएत। ओकरे पठा दइ छिऐ।
मनमोहन अछि ओना दसे बर्खक मुदा हाइ स्कूलमे तँ पढ़िते अछि। कोनो कि पहिलुका हाइ स्कूल छी, जे साले-साल धिसियौर कटेला पछाइत अगुअबैत रहइ। लगमे अबिते मनमोहन बाजल-
की कहै छी?”
देवकृष्ण बजला-
बौआ, हाटपर सँ तीमन-तरकारी अनैक छह, से हेतह किने?”
हाटसँ खरीद-बिक्रीक कोन बात जे गामक हाट रहितो मनमोहन देखनौं ने अछि। ओना, रस्ते-रस्ते ओइ दऽ कऽ जाइ-अबैए जरूर मुदा जखन हाट उसरल रहै छै तखन, तँए हाटक किछु मनमोहन देखनहि ने अछि। संजोग बनल, देवकृष्ण भाइक पितियौत भाए केतौसँ आएले रहैथ कि लालेभाय जकाँ हुनको पत्नी मन पाड़ि देलकैन। हुनकर अपन सोचो छैन आ किरियो कलाप अपन छैन्हे। पत्नीक गपकेँ रतिदेव कोनो हुक्मरानाक आदेश नइ मानै छैथ। मुदा नहियोँ नहियेँ कहै छथिन। अपन सोच छैन जे अपन बेकतीगत काज तँ आगू-पाछू हेबे करत, तइले कोनो धड़फड़ी अछि, मुदा पत्नीक काजकेँ जँ बाधक बनि जाए, सेहो केहेन हएत। तँए धड़फड़ाएल बाहरसँ एला पछातियो रतिदेव झोरा लेलक आ हाटपर विदा भेल। रतिदेवकेँ देखते देवकृष्ण कहला-
हाटपर जाइ छह रतिदेव?”
रतिदेव- हँ।
देवकृष्ण- मनमोहनोकेँ संगे नेने जाहक।
ओना, देवकृष्ण नहाइक विचार मनमे कऽ नेने छला मुदा थाकल-ठेहियाएल देह, मन भरिया गेलैन जइसँ देहकेँ उठैये ने दैन। मनमे उठलैन- गामक हाट केना बनल..!
देवकृष्णकेँ मन पड़लैन ब्रह्मदेव, दुनू गोरे बच्चेसँ कौलेज धरिक संगी रहलौं। अखनो छी। पढ़ैमे ब्रह्मदेव हमरासँ नीक जहिना अखनो अछि तहिना पहिनौं छल। तेकर कारण छल जे ओकरा अखियास बेसी रहै छै, हम बिसराह अखनो छीहे। अर्थशास्त्रक विद्यार्थी दुनू गोरे, तँए नेतागिरी करैक विचारे मनमे किए उठैत, ओ तँ उठै छै राजनीतिशास्त्रक विद्यार्थीमे। समाजो तँ सएह छी जे समाजक अर्थनीतिकेँ अगुआइ-पछुआइक बात बुझैये नहि चाहैए, ओकरा चाही चौक-चौराहा परहक मसल्ला। ओ बुझैए अमेरिकोसँ बीस थाइलेंडकेँ, जे क्रिकेटमे पचास रनसँ हेरा पचास गुणा नीक भेल की नहि। समाजक नेतो तँ वएह ने नीक जे भाषणसँ लिपिस्टिक कीनैले बैसलसँ उठा कऽ बजार दिसक रस्ता पकड़ा दिऐ।
ब्रह्मदेवो आ देवकृष्णो भाय कौलेज छोड़ि गाममे पाँच बरख जखन गिरहस्ती केलैन तखन अनुभव भेलैन जे उत्पादन लेल बजारो चाही। कहब जे जखन गामक खगताकेँ पूर्ति भऽ जेतइ तखन ने समान बाहर भेजब नीक हएत। मुदा अही संग ईहो प्रश्न तँ उठबे करत किने जे एक किलो मीटरमे पसरल भरि गाममे वस्तु केना पहुँचत। तँए, एकटा केन्द्र स्वरुप स्थानक खगता भइये जाइए। जइसँ आनो-आन गामक लोक आ गामोक लोक कीनबो-बेसाहबो करबे करत।  
चारि बजे बेरुका समय, नरक-निवारण चतुर्दशीक हुमेला देवालय दिस सहनिहारो आ सहनिहारियोक आवाजाही बढ़ि गेल। जइसँ घर-आँगन पतरा रस्ता भरिया गेल छल। ब्रह्मदेव देवकृष्ण भाइक ऐठाम पहुँचला तँ देखलैन जे देवकृष्णो भाय सेहो दरबज्जेपर बैस रस्ते दिस देख रहल छैथ।
ब्रह्मदवेकेँ देखते देवकृष्ण बजला-
संगी, एक सालमे एक गोरे केते पाप करैए जे ओही पापक निवारण करैले मेला जकाँ लोकक ढबाहि लागल अछि।
ब्रह्मदेवक मन चकुआ गेल। मर्र ई की देवकृष्ण पुछि रहल अछि! कोनो कि यमराजक हम ठिक्का-स्टाफ छिऐ जे धरम-पापक लेखा-जोखा भरि दिन करैत रहब आ जखने आदेश कानमे पड़ल कि ओकर हिसाब-वाड़ी जोड़ि बाजब। ब्रह्मदेव बाजल-
संगी आइये नहि, सभ दिनसँ अपना दुनू गोरेक बीच एक विचारक सम्बन्ध रहल अछि। जइसँ काजोमे एकरूपता आ जीवनोमे एकरूपता आबिये गेल अछि। तँए जे बात बुझल नइ अछि तइमे किछु बजने अड़ंगा लगत। चतुर्दशीक सम्बन्धमे एतबे बुझल अछि जे नरकसँ निवारण करैए।
देवकृष्ण-
संगी, स्त्रीगण सभकेँ देखबहक जे जहिना धान-दे पुछबहक तँ बजबे ने करतह आ गोबरक चोत लग राखल भुस्सा-दे[i] टनाटन चानीबला रूपैआ जकाँ बजए लगतह। तूँ तँ जिनगी भरिक संगी रहलह, जहिना कोनो देशक अपन उत्पादन शक्ति जेतेक बढ़ैए, बुनियादी ढंगसँ ओकर उन्नतियो तहिना होइ छइ। कोनो मनुखकेँ कोनो विषय ओते जानै-बुझै आ करैक तँ अछिए जेतेटा ओकर जीवनभूमि अछि।
देवकृष्ण भाइक विचार सुनि ब्रह्मदेवक मन पनपना गेल। पनपनाइते बाजल-
ऐसँ बेसी किछु ने नरक निवारण चतुदर्शीक सम्बन्धमे बुझल अछि।
मुस्की दैत देवकृष्ण बजला-
ई बुझल छह जे नरकक केते घाटक ई चतुर्दशी घटवार छी?”
देवकृष्ण भाइक विचार सुनि ब्रह्मदेवक मन जेना उग्र हुअ लगलैन तहिना बजला-
आइ तक एकोटा ने नरक निवारण चतुर्दशीक उपास केलौं हेन आ ने नरकक घाट बुझै छी। ऐसँ मतलबे की अछि।
देवकृष्ण बुझि गेला जे ब्रह्मदेवक मन उग्र भऽ रहल अछि। मुदा बाजि किछु ने रहल अछि। जहिना धारक धाराकेँ बगलक कनबह बना कम कएल जाइए तहिना पत्नीकेँ सोर पाड़ैत देवकृष्ण बजला-
सुनै छिऐ! चाह पीना बड़ीकाल भऽ गेल।
देवकृष्ण भाइक बातकेँ लाल भौजी जहिना सभ दिन चुहैट कऽ पकैड़ एली अछि तहिना चुहैट कऽ पकैड़ते बुझि गेली जे शास्त्रार्थमे केतौ दृष्टिकूट आबि गेलै हेन तँए चाहक खगता भेलैन। जहिना ब्रह्मदेव गुमे-गुम तहिना देवकृष्ण सेहो गुमे-गुम एक दोसरकेँ निहारियो रहल छला आ समाज विकासक गुम भेल रस्ताकेँ सेहो गमि रहल छला।
चाह पीबिते जेना दुनू गोरेक चाह जगलैन तहिना पहाड़ी नोकरएकबोलिया बहादुर–जकाँ तँ नहि, मुदा अपन चाह जगजिआर होइत जरूर जगलैन। देवकृष्ण भाय बजला-
संगी, गामक आवाजाही जाबे बाहरसँ नहि बढ़त ताबे अपना सबहक मेहनत सदिकाल सड़िते रहत। तँए गाममे एकटा हाट लगबै पाछू पड़ह।
ब्रह्मदेव- विचार तँ बढ़ियाँ उठौलह। मुदा हएत केना?”
देवकृष्ण- तोहर की विचार?”
ब्रह्मदेव-
जइसँ अपनो आ समाजोक बढ़बाढ़ि हएत ओ बेकता-बेकतीटा केने नइ ने हएत।
देवकृष्ण भाय बजला-
चलह गाममे पहिने एकर जानकारी दहक। जखने जानकारी छिड़ियाएत तखने ने रंग-रंगक विचार सभ सेहो बितिआएत, वृद्धि करत।
सएह भेल। कोनो काजक शुरूआत उकड़ू होइते अछि मुदा अपनो दिस ने देखए पड़त जे हमहूँ तँ एक्कैसमी सदीक मनुख छिऐ। उकड़ूकेँ सुकड़ू केना बनौल जाए, यएह ने भेल समाजक भार।
q शब्द संख्या : 995, तिथि : 25 फरवरी 2019


[i] गोरहा-चिपरीक कच्चा माल

धनखेतीक बैगन_Jagdish Prasad Mandal_बेरमा, मधुबनी_सम्पादन एवम् संकलन- Umesh Mandal


धनखेतीक बैगन      
विचारपुरक हाट। नमगर-चौड़गर आँट-पेट हाटक अछिए। तँए ने एकहट्टा नै कहि बहुहट्टा कहल जाइए। एकहट्टा भेल ओहन हाट जइ हाटमे एक्के रंगक वस्तुक खरीद-बिक्री केनिहार होइथ। भलेँ ओ रंग-रंगक डिजाइनमे सइयो रंगक किए ने हुअए। मुदा से नहि, हरिहर क्षेत्रक हाट जकाँ हाथी-घोड़ासँ लऽ कऽ चिनियाँ-मुनियाँ[i] तकक खरीद बिक्री विचारपुर हाटमे तहियेसँ होइए जहियासँ हाट लगल। ओना, केते लोक हाटक सम्बन्धमे ईहो कहै छैथ जे विचारपुरक हाट बहबाँड़िक हाट छी! नीक लोकक हाट नइ छी।
नीक लोकक माने जानकार लोक। जानकार भेला ओ, जेकर मात्र एक वस्तुक उदाहरण लिअ। पाकल केरा अछि, कियो प्रसाद बुझि बँटितो छैथ आ कियो परसाद मानि पेबितो छथिए। मुदा से नहि, जानकार भेला ओ जे केराक वंश-वृक्षसँ लऽ कऽ धरतीपर केना स्थापित भेलसँ लऽ कऽ पातपर भोज-भात, फूलसँ बिआही मरबा सजबैक संग-संग भोज्यक अमृत अंशकेँ–पौष्टिक तत्त्वकेँ–जानि ओकरा अंगीकार केनौं छैथ आ करैबतो छैथ। जनकपुर राजधानीक मिथिलामे केराक ओ महात्म जानि महात्मा/चिन्तक केराकेँ नबेद[ii] स्वरूप सभठाम सभ जगह स्थापित करैत भूमिमे एहेन स्थापित केने छैथ जे सौंसे मिथिला पसरले अछि। भलेँ ओ आधुनिक परिवेशमे बिरहा किए ने गेल हुअए। बिरहाइक माने भेल उपैट जाएब।
तीस साल बंगलोरमे इंजीनियरक जिनगी बितौला पछाइत नवीननाथ सेवा निवृत्त भऽ गाम एला। ढहल-ढनमनाएल घर सभकेँ तोड़ि नबघर-आँगन सेहो बना लेलैन।
जिनगीक अन्तिम पड़ावमे पहुँचल नवीननाथ शहरी जिनगी आ गामक जिनगीक बीच जे अनेको धारा प्रवाहित होइत बीच-मझधारमे जहिना कियो उगडुम करैत रहैए तहिना नवीननाथ सेहो अपन जिनगीक धारमे उगडुम जखन करए लगला तखन निर्णयात्मक मनमे विचार जगलैन जे नइ किछु जानी तँ बहुजन मानी। माने भेल जइ समाजमे अधिकांश लोकक जे बेवहार छै जँ तेकरा अङ्गेजै छी तँ कोनौं समाजमे अँटावेश भइये जाएत। तहिना अपनाकेँ नवीननाथ सेहो अङ्गेज लेलैन। जइसँ एते गुण तँ बेवहारमे आबिये गेल छैन जे जहिना गंजी-लूँगी वा सोझे[iii] धोती पहिरने कन्हापर गमछा नेने लोक अपन गामक हाटक काज करै छैथ तहिना नवीननाथ धोती पहिरैक आदती तँ नहि, मुदा लूँगी, चट्टी आ गंजी पहिरने कान्हपर गमछा नेने हाटपर पहुँचला।
विचारपुरक जहिना नमहर हाट तहिना लोकक भीड़ो। तरकारी किनैक विचारसँ नवीननाथ हाटपर एला। सभ तरकारीक फुट-फुट पतियानी लगल दोकानक बजार देखलैन। ओना, गमैया हाटमे एहनो होइते अछि जे एकोटा बेचनिहार अनेको रंगक वस्तु बेचै छैथ। एहेन छोट हाटमे होइए। नमहर हाटमे वस्तुक संख्या समटा एकठाम आबि जाइए। तइले ईहो जरूरी अछिए जे ओकर वस्तुक निकास बेसी नहि तँ ओते हेबै करै छै जे जेते ओकर मेहनताना हेबा चाही। सभ तरहक तरकारीक पतियानी फुट-फुट।
कातेसँ जखन नवीननाथ हिया कऽ देखलैन तँ बैगनक हाट नम्हरो आ बेसी भरिगरो बुझि पड़लैन। सहैट कऽ नवीननाथ बैगनक पतियानी लगल बजार दिस बढ़ला। रंग-रंगक बैगनसँ सजल बजार। जहिना गोलकीसँ गोलका भाटिन धरि अनेको रंगमे, तहिना नमकी सुतपुतियासँ लऽ कऽ हाइ ब्रिडक दू-हत्था बैगन धरि। अनेको रंग, अनेको मोटाइमे बैगन सजल छेलैहे। आगू बढ़ि नवीननाथ अपने सन उमरदारक दोकानपर पहुँच ठाढ़ भेला। अपने सन दोकानदारक दोकानपर जाइक कारण नवीननाथक ई छल जे नव-तुरियाक बेवहार हिनका पसिन नइ छैन। ऐगला गहिंकीक लेन-देन देख बुझि गेल छला जे की दरमे बैगन चलैए।
गहिंकीकेँ पतराइते माने पहिलुका गहिंकीकेँ समान लइते नवीननाथ अगुएला। दोकानदार अपन वस्तुक परिचय दैत बजला-
भाय, धनखेतीक बैगन छी, निरोग बैगन अछि। देखै छिऐ केतौ भूर-भार छइ?”
आइ पहिल दिन नवीननाथ धनखेतीक बैगनक नाओं सुनलैन, तँए बुझैक जिज्ञासा सेहो जगलैन। ओना, अपन जिनगी दिस आ गामक हाटक दृश्यकेँ मिलौलैन तँ बुझि पड़लैन जे जेते बैगनक पीठपर हमर नाम लिखल छल तेते भरिसक नइ पुरल अछि। कहब जे बैगनक पीठपर नाम की भेल? तँ जहिना नेपालीजी अन्नक पीठपर लिखलैन तेकर कारणो अछिए जे पाइबलाक लेल जहिना महग तरकारी नीक भेल तहिना कम पाइबलाक लेल सस्त तरकारी नीक भेल। ई तँ जेबीपर निर्भर करैए। तैसंग ईहो तँ अछिए जे इलाका-इलाकाक अपन खान-पान सेहो अछिए। तँए अमेरिकामे रहने अमेरिकन बनि अमेरिकी भोजन करए पड़ै छइ। तैठाम तँ अपन बाप-दादाक मिथिलाक अदौड़ी, बड़ी, सकरौड़ी, तिसियौड़ी, बियौड़ी, फुलौड़ी-पकौड़ी तँ बिसरै पड़त किने।
बंगलोरमे रहने नवीननाथक भोजन बदैल गेल छेलैन तँए जेतेक बैगनक पीठपर नाओं लिखल छेलैन से नइ पुरलैन। अपन दोख जहिना मने-मन रखि दोसरकेँ नहि कहए चाहै छी तहिना नवीननाथ सेहो अपन दोखकेँ बिना दुख केने मनेमे रखि नेने छला।
ओना, आन दोकानसँ कम गहिंकियो आ दोकानमे समानो कम अछिए। अपन तीन कट्ठा बैगन खेतक पाड़क हिसाबसँ समानो कम हेबे करत। किए तँ छह-सात दिनपर बैगन तोड़ैक पाड़ होइए तइ हिसाबे कम्मे खेतक बैगन भेल। रोहित सेहो संतुष्ट भऽ गेल छैथ जे चलितो-चलितो बिका जाएत। तँए नवीननाथसँ बैगनक विषयमे गपो करैक विचार भेलैन तँ जेबीसँ तमाकुलक चुनौटी निकालि नवीननाथकेँ दोहरबैत पुछबो केलखिन-
भाय, तमाकुलो खाइ छी?”
नवीननाथक मनमे बिहाड़ि जकाँ उठि गेल छेलैन जे एकटा साधारण किसानक मुँहक बात..! तँए अपन मनकेँ स्वच्छ करैक खियालसँ बजला-
गहिंकियो पतराएले अछि ताबे बैसै छी। पहिने अहॉं तमाकुल खाउ। काजसँ मन भरिआएल हएत।
नवीननाथक बात रोहितकेँ कठाइन लगलैन, कठाइन ई लगलैन जे मुँह फोरि कहिऐन रेहल-खेहल काज केनिहारकेँ मन नइ भरिआइ छै!’ मुदा चुपे रहला। चुनौटीसँ चुन-तमाकुल निकालि जखने रोहित तरहत्थीपर औंठा देलैन कि मनमे तेजी एलैन। हाँइ-हाँइ तमाकुलपर औंठो रगड़ैत आ मने-मन आगूक गपो-सप्प करैले तैयार होइते रहैथ कि बिच्चेमे बजला-
अहाँ, अनठिया गहिंकी जकाँ बुझि पड़ै छी।
पढ़ल-लिखल नवीननाथ एते तँ बुझिते छला जे गप-सप्पक क्रममे अपन बिनु बुझल बात बाजि देब नीक नहि। किए तँ, धारक पानि जकाँ बजनिहारक धार सेहो फुटिते अछि। ओही क्रममे जवाब आबि जाएत, बुझैले मुँह छोहैनो ने करए पड़त आ बिनु मंगने भेटियो जाएत। नवीननाथ बजला-
हँ! बंगलोरमे सौंसे जिनगी बीत गेल, गामक सभ किछु बिसैर गेलौं। तँए अनठिया भइये गेलौं।
तैबीच रोहित तमाकुल मुँहमे दैत ओकर रससँ अपन विचारक रस मिला नेने छला। बजला-
मिथिलाक सभ गुण जग-जाहिर अछि जे सभ तरहेँ मिथिला सम्पन्न अछि, मुदा..?”
नवीननाथक जिज्ञासा बढ़बैले रोहित बजला आकि अपन मिथिलाक अनुभव बँटैले बजला से रोहित जानैथ। मुदा बजला एतबे जे लोक एकरबा बानर जकाँ एकरबा किसान हमरो कहै छैथ।
प्रश्न-पर-प्रश्नक बर्खासँ नवीननाथ ठकठका कऽ ठमैक गेला। ठमकैत बजला-
से की?”
रोहित बजला-
बैगन बरहमसिया तरकारी छी। जेकरा छहमसिया बना उपजौनिहार अपना ऊपरमे ओढ़ि लेलैन। गाममे जे ऊँचगर जमीन अछि, जेकरा भिट्ठा कहै छिऐ, मात्र ओहन खेतमे बरसाती बैगनक खेती होइत आबि रहल अछि। ओइ छहमसिया खेतीकेँ बरहमसिया हम बनौने छी। आसिनी धान काटि कातिकमे बैगन रोपै छी आ ओ पूससँ फड़ए लगैए।
नवीननाथ बजला- बाह..!”
रोहित बजला-
भाय, अहाँ सभ बुझनुक लोक समाजक भेलौं। एकार कहि हमर काजकेँ जे सभ छँटलक वएह सभ एकार कहि गामक खेतीकेँ सेहो रोकलक। चलू आब अपन काज करू। केते बैगन लेब?”
नवीननाथ- मन ते होइए जे सभटा लऽ ली, मुदा पत्नीकेँ विन्यास बनबैक लूरियो रहैन तखन ने। एक किलो दऽ दिअ।
q शब्द संख्या : 1051, तिथि : 28 फरवरी 2019


[i] छोट चिड़ै
[ii] नवेद्य
[iii] केबल