कपटलालक
मृत्यु
चारि दिनपर पटनासँ
गाम घुमल अबैत रही। बससँ उतैरते गौआँ सभकेँ हियाकऽ देखए लगलौं जे कियो जँ भेटता तँ
गामक सभ हाल-चाल बुझि लेब। मुदा से कियो ने भेटला। चाह पीबैक तृष्णा सेहो जगि गेल
छल किए तँ छह घन्टा पहिनहि जे पटनामे चाह पीने रही, सएह पीलहा रही। ओना, बस केतेकोठाम रूकल, केते गोरे उतैर-उतैर चाहो पीलैन
आ जलखैयो केलैन मुदा अपने ने केतौ चाहे पीलौं आ ने जलखैइये केलौं।
बससँ उतैरते मनमे भेल
जे जखन गामे जाएब अछि तखन एते अगुताइये कथीक अछि, परिवारोक सभकेँ बुझले छैन जे
पटना गेल छी। गामक गेल नीनक सुतलक कोन ठेकान। बस स्टैण्डमे नइ उतैर स्टेण्डसँ थोड़ेक
पाछूए, अपना गामक रस्ता लग उतरलौं। ओइठाम चाह-पानक दोकान नहि, थोड़ेक आगू बढ़ि कऽ अछि। कियो गौंआँ नइ भेटला तखन मन मारि कऽ गामक रस्ता
ई सोचि धेलौं जे ऐगला चाहक दोकानपर चाह पीब, पान खा गाम
जाएब। मुदा से भेल नहि, मनक विचार–चाह
पीब-पान खा, गाम जाएब–तर पड़ि गेल आ गामक हाल-चाल बुझैक
जिज्ञासा मनकेँ तेना पकैड़ लेलक जे चाहक दोकान लग चाह मनो ने रहल आ जखन बढ़ि गेलौं
तखन चाह मोन पड़ल। एहेन चाह पीआको नहियेँ छी जे घुमि कऽ चाह पीबए जइतौं। तहूमे
गामक सीमा परहक पाखैर गाछ लग पहुँच गेल रही।
पाखरिक गाछ लग दुखहरण
काका बैसल रहैथ। भरिसक केतौ विदा भेल छैथ, माने गामसँ बाहर। दुखहरण काकाकेँ
देखते मन हलैस गेल जे आब गामक हाल-चाल जरूर बुझब। दुखहरण कक्काक लगमे जा बजलौं-
“गोड़ लगै छी
काका। गामक की हाल-चाल अछि?”
ओना, गामो तँ गाम
छी, हजारो रंगक लोक जहिना गाम रहैए तहिना हजारो रंगक वृत्ति
सेहो अछिए, जइसँ हजारो रंगक हाल-चाल सेहो हेबे करत मुदा से
नहि, गामक हाल-चालक माने होइए जे किछु एहेन घटनाक समाचार जे
प्रमुख रूपसँ तजगर अछि। ओना, हाल-चाल बजनिहारो आ सुननिहारोक
बीच किछु-ने-किछु अन्तर भइये जाइए, मुदा से होइए अपन-अपन मनक
अनुकूल। माने ई जे साइयो रंगक समाचार गाममे रहितो जहिना बजनिहर अपन मनक अनुकूल
समाचारकेँ प्रचार-प्रसार बेसी करै छैथ आ मनक प्रतिकूल समाचारकेँ बिसरिये जाइ छैथ
वा अनठाइये दइ छैथ तहिना सुननिहारकेँ सेहो होइते छैन। जँ रूचिगर समाचार रहल तँ
सुरूचिगर भोजन जकाँ किछु बेसिये चढ़ा देलिऐ आ जँ अरूचिगर रहल तँ किछु कम्मे कऽ
देलिऐ वा छोड़िये देलिऐ। खाएर...।
दुखहरण काका कपटलालपर
बहुत दिन पहिनेसँ पकपकाएल छला। पकपकाइक कारण छेलैन कपटलालक बेवहार। कपटलालक कपटपन-बेवहार
दुखहरण काकाकेँ पसिन नहि छेलैन। पसिनो केना रहितैन। जेहने सोझमतिया विचारक लोक
दुखहरण काका तेहने सोझडरिया चालि चलैबला सेहो छथिए। दुखहरण काका बजला-
“बौआ गौरी,
गामक की हाल-चाल रहत। एकटा छुतहर घैल फुटल..!”
‘एकटा छुतहर
घैल फुटल’ ई कोन समाचार भेल? अखनो
ओहिना मोन अछि जे बैसाख मास मड़ुआ बीआ पटबैकाल जे पानिक झगड़ा होइ छल तँ ओइ झगड़ामे
केतेको छुतहर घैल फुटिते छल, मुदा फेर ओहिना-क-ओहिना रहिते
आबि रहल अछि। मने-मन तर्क-वितर्क करिते रही, जे दोहरा कऽ
दुखहरण काकाकेँ पुछिऐन जे की छुतहर घैल फुटल? अही
तर्क-वितर्कमे कनी देरी भऽ गेल। मुदा दुखहरण कक्काक मनमे वर्तनक अदहन जकाँ विचार
खौलैत रहैन। जइसँ दोहरा कऽ वएह बजला-
“गौरी, एकटा छुतहर फुटने सोल्होअना तँ नहि मुदा आठअना जरूर गामक उतरी टुटल।”
अलंकारिक शैलीमे
दुखहरण काका तावरतोर बाजि रहल छला आ अपने भकचकाएले छेलौं जे गामक केहेन समाचार
दुखहरण काका कहि रहला अछि। बीचमे केना कहबो करितिऐन जे ‘काका, अहाँक बात हम नइ बुझि रहल छी।’ बजैमे लाजो होइते
रहए। मने-मन सोचलौं जे एना गामक समाचार नहि बुझि पएब। से नहि तँ अपने पटनाक समाचार
बीचमे रखि देब नीक बुझि बजलौं-
“काका, पटनामे ते ऐबेर धमगज्जर भऽ गेल..!”
‘धमगज्जर’
सुनि दुखहरण कक्काक मनमे जेना बिसवासू उत्कंठा उठलैन तहिना
जिज्ञासुक स्वरमे बजला-
“से की गौरी?”
दुखहरण कक्काक
जिज्ञासा देख मनमे भेल जे आब कक्काक अलंकार शास्त्री-मन भरिसक राजनीति शास्त्र दिस
बढ़ि गेलैन। भाय,
एक्के भाषामे राजनीतो शास्त्र आ अलंकारो शास्त्र किए ने लिखल हुअए
मुदा भाषा-शैलीक बीच दूरी बनियेँ जाइए। जखने शास्त्रक शैलीमे दूरी बनत तखने मनक
विचारक दूरी सेहो बनिते अछि। बजलौं- “काका, ऐबेर भोटोँ छी ने!”
जहिना हलैस कऽ कोनो
बच्चा कोनो खेलौना वा खाइक वस्तुकेँ लपैक पकड़ए चाहैए तहिना दुखहरण काका लपकैत
बजला-
“से की गौरी?”
बजलौं-
“काका, धर्मनिरपेक्ष केकरा कहै छै से शब्द डिक्शनरीसँ निकालि देल गेल।”
अपनाकेँ तीर-कमान
जकाँ संयमित करैत दुखहरण काका बजला-
“से केना?”
बजलौं-
“काका, हमहूँ बुझै छेलौं जे धरमौओ पार्टी अछि आ बिनुधरमौओ अछि। मुदा से आँखिक
बीझक पानि पटनामे उतैर गेल।”
ओना, जहिना अपने
दुखहरण कक्काक मुहेँ गामक समाचार बुझैमे भकचकेलौं तहिना दुखहरण काका सेहो पटनाक
समाचारमे भकचकेला। भकचकीए-मे मुँह फुटलैन-
“पटना तँ
गंगानदीक महारेपर ने अछि तखन ओइठाम केना आँखिक बीझक पानि उतरत?”
अपना बुझि पड़ि रहल
छल जे दुखहरण काका भकचका जरूर रहला अछि मुदा धारक किनछैरक रस्तासँ चलनिहारकेँ
जहिना सदिकाल पानिक आशा बनल रहै छै तहिना दुखहरण कक्काक मनमे बनल बुझि पड़ल..!
बजलौं- “काका, लोक बनबैए पार्टी आ लोके तेहेन पट-पटिया अछि जे जइ पार्टीक टिकट भेटल गंगा
नहाइत तेही पार्टीक बनि गेलौं।”
दुखहरण काका जेना हमर
बात सोल्होअना बुझि गेला तहिना अपन विचारकेँ अलंकार शैलीसँ उतारि समाजशास्त्रक
शैलीमे बजला-
“कपटललबा मरि
गेल।”
बजलौं- “कहिया?”
दुखहरण काका- “आइ चारि दिन
भऽ गेल। छौरझप्पियो भऽ गेलइ।”
बजलौं-
“तखन तँ हमरो
नीके भेल जे मरैकालक मुइल मुँहक दर्शन नइ भेल।”
हमर विचार सुनि
दुखहरण काका मुँह दिस टकटक देखए लगला। तैबीच फेर बजलौं-
“काका, जे मरि गेल तेकरापर सँ आब तामस उतारि लिअ।”
कहलयैन मनसँ तामस
उतारि लिअ आ ओ तँ आरो भुभुका आगि जकाँ धधकैत बजला-
“बौआ, अपना सोझमे हंसलालक दू लाख रूपैआ कपटललबा ठकि लेलक।”
पुछलयैन-
“से केना?”
दुखहरण काका बजला-
“गाममे सभकेँ
मन हेतै आ तोरा मन नइ छह?”
मनपर जोर दिलेऐ तँ
अन्हार रातिक तरेगन जकाँ भुकभुक करैत साइयो बात मनमे उठि आएल। कपटलाल एक बेकती नहि, समाजक बीच एक
वंश आ वंशवृक्ष जकाँ अछि। बजलौं-
“कनी-मनी मन
पड़ैए काका, मुदा जड़ि नइ मन पड़ैए।”
दुखहरण काका बजला-
“हंसलाल बेचारा
सोझ लोक। से तँ सभ जनिते छी। कपटलाल बजै-भुकैबला लोक रहल, सेहो
सभ जनिते-ए। हंसलाल बेटी बिआह करैले एक-एक पाइ जमा केने छल। एकटा लड़का टोहियबैले
कपटलालकेँ कहलक। झपासा मारि कपटलाल दुनू लाख रूपैआ एकटा लड़काक दहेजक नामपर टानि
लेलक। पछाइत खेत बेच बेचारा हंसलाल अपन बेटीक बिआह केलक।”
q शब्द संख्या : 987, तिथि : 25 मार्च 2019
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