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Saturday, April 7, 2012

बि‍हरन :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल



हि‍ना बैशाख-जेठक लहकैत धरती अगि‍आएल वायुमंडलक बीच हवाकेँ खसने, अनायास मेघक छोट-छोट चद्दरि सूर्ज‍ ओढ़ए लगैत, रेलगाड़ीक हुमड़ैत अवाज दौगए लगैत, रहि‍-रहि‍ कऽ गुलाबी  इजोतक संग छि‍टकए लगैत, तँ अनुमानि‍त मन मानैले बेबस भऽ जाइत जे‍ पानि‍-पाथर, ठनका संग बि‍हाड़ि‍ आबि‍ रहल अछि‍, तहि‍ना रघुनन्दन आ सुलक्षणीक परि‍वारमे ज्‍योति‍ कुमारीक जन्‍मसँ भेलनि‍।
भलहि‍ं आइ-काल्हि‍ बेटीक जन्‍म भेने माए-बाप अपन सुभाग्‍यकेँ दुर्भाग्‍य मानि‍ मनकेँ कतबो कि‍अए ने कोसथि‍ जे परि‍वारमे बेटीक आगमन हि‍मालयसँ समुद्र दि‍स नि‍च्‍चाँ मुँहे ससरब छी मुदा से दुनू बेकती सुलक्षणीकेँ नै भेलनि‍। जहि‍ना गद्दा पाबि‍ कुरसी गदगर होइत तहि‍ना खुशीसँ दुनू प्राणी रघुनन्‍दनक मन गद-गद। से खाली परि‍वारे धरि‍ नै सर-समाज, कुटुम-परि‍वार धरि‍ सेहो छलनि‍। ओना आन संगी जकाँ रघुनन्‍दन नै छलाह जे तीनि‍ये मासक पेटक बच्‍चाकेँ दुश्‍मन बनि‍ पुरुषार्थक मोछ पीजबैत आ ने अपन रसगर जुआनी छोलनी धीपा-धीपा दगैत। दुनू परानी बेहद खुशी! कि‍अए नै खुशी रहि‍तथि‍, मन जे मधुमाछी सदृश मधुक संग मधुर मुस्‍कान दैत छलनि‍। पुरुष अपन वंश बढ़बै पाछू बेहाल आ नारीकेँ हाथ-पएर बान्‍हि‍ बौगली भरि‍ रौदमे ओंघरा देब कते उचि‍त छी? दुनू प्राणीक वंश बढ़ैत देखि‍ दुनू बेहाल। मन ति‍रपि‍त भऽ तड़ैप-तड़ैप नचैत।
आेना तीन भाँइक पछाति‍ ज्‍योति‍क जन्‍म भेल, मुदा तइसँ पहि‍ने बेटीक आगमनो नै भेल छलनि‍ जे दोखि‍यो बनि‍तथि‍। भगवानोक कि‍रदानी कि‍ नीक छन्‍हि‍? नीको केना रहतनि‍, काजक तते भार कपारपर रखने छथि‍ जे जखन टनकी धड़ै छन्‍हि‍ तखन खि‍सि‍या कऽ कि‍छुसँ कि‍छु कऽ दैत छथि‍। मुदा से लोक थोड़े मानतनि‍, मानबो कि‍अए करतनि‍ जखन अपने अपने हाथ-पएर लाड़ि‍-चाड़ि‍ जीबैए तखन अनेरे अनका दि‍स मुँहतक्कीक कोन जरूरति‍ छै। कि‍अए ने कहतनि‍ जे अहाँ ि‍नर्माता छी तखन तराजूक पलड़ा एक रंग राखू, कि‍अए केकरो जेरक-जेर बेटा दइ छि‍ऐ आ केकरो जेरक-जेर बेटी। जँ देबे करै छि‍ऐ ते बुइध‍ कि‍अए भंगठा दइ छि‍ऐ जे बेटासँ धन अबै छै‍ आ बेटीसँ जाइ छै‍। जइसँ नीको घरमे चोंगराक जरूरति‍ पड़ि‍ जाइ छै।

उच्‍च अफसरक परि‍वार तँए परि‍वारि‍क स्‍तर सेहो उच्‍च। भलहि‍ं कि‍अए ने माए-बाप छाँटि‍ परि‍वार होन्‍हि। खगल परि‍वार जकाँ सदति‍ गरजू नै। परि‍वारक खर्च समटल तइसँ खुलल बजारक कोनो असरि‍ नै। सरकारी दरपर सभ सुवि‍धा उपलब्‍ध, जइसँ खाइ-पीबैसँ लऽ कऽ मनोरंजनक ओसार चकमकाइत। भलहि‍ं जेकर अफसर तेकर बात बुझैमे फेर होन्‍हि। जइसँ महगी-सस्‍ती बुझैमे सेहो फेर भऽ जाइत होन्‍हि‍। मुदा परोछक बात छी चारू बच्‍चाक प्रति‍ समान सि‍नेह रहलनि‍। परि‍वारमे सभसँ छोट बच्‍चा रहने ज्‍योति‍ सबहक मनोरंजनक वस्‍तु। मुदा गुरुआइ तँ ओहि‍ना नै होइ छै, तँए सभ अपन-अपन महि‍क्का मनक टेमीसँ सदति‍ देखथि‍, जप करथि‍। आखि‍र के एहेन छथि‍ जे ऐ धरतीपर ज्ञान दानी नै छथि‍। भलहि‍ं ओ अधखि‍जुए वा अधपकुए कि‍अए ने होथि‍। जहि‍ना कोनो माली केर बच्‍चा पि‍ताक संग जामंतो रंगक फूलक फुलवारीमे जि‍नगीक अनेको अवस्‍था देखि‍ चमकैत तहि‍ना भरल-पूरल परि‍वारमे ज्‍योति‍योकेँ भेल‍। देखलनि‍ कलीमे जहि‍ना अबैत-अबैत रंगो, सौन्‍दर्यो आ महको अबैत अछि,‍ तहि‍ना ने जि‍नगी छी। जँ मनुखकेँ डोरीसँ बान्‍हल जाय तँ डोरी तोड़ैक उपायो तँ हुनके करए पड़तनि‍।
समुचि‍त वातावरण रहने ज्‍योति‍ संगी-साथीक बीच नीकक श्रेणीमे आबि‍ गेली। जहि‍ना संगीक सि‍नेह तहि‍ना शि‍क्षकोक सि‍नेह भेटए लगलनि‍। टि‍कट कटाओल यात्री जहि‍ना नि‍श्चि‍न्‍तसँ गाड़ीमे सफर करैत तहि‍ना समतल जि‍नगी पाबि‍ ज्‍योति‍ आगू बढ़ए लागलि‍। जि‍नगीमे बधो अबै छै तइसँ पूर्ण अनभि‍ज्ञ ज्‍योति‍। जना कर्मकेँ धर्म बना‍ जि‍नगीक बाट बनौने हुअए।

थम्‍हसँ नि‍कलैत केराक कोसा, जहि‍ना अपन घौड़क संग हत्‍थो आ छीमि‍योक अनुमानि‍त परि‍चय दैत, फूलक कोढ़ी फूलक दैत तहि‍ना बच्‍चेसँ कुमारी ज्‍योति‍ सुफल जि‍नगीक अनुमानि‍त परि‍चय दि‍अए लागलि‍। जेना-जेना बौद्धि‍क वि‍कास होइत गेलनि‍ तेना-तेना तीनू भाँइयो बुझए लगलाह जे ज्‍योति‍ तेहेन चन्‍सगर‍ अछि‍ जे आगू कि‍छु जरूर करत। जइसँ भैयारि‍ये जकाँ ज्‍योति‍क संग बेवहार करए लगलाह। लैंगि‍क प्रभाव ओतए अधि‍क देखि‍ पड़ैत जतए भाए-बहीनि‍क दूरी जते अधि‍क रहै छै। से रघुनन्‍दनक परि‍वारमे नै छलनि‍ दोसर कारण इहो छलनि‍ जे वैचारि‍क दूरी जेना आन-आन परि‍वारमे रहैत तेना सेहो नहि‍ये जकाँ छलनि‍। परि‍वारक सभ अपन-अपन दायि‍त्‍व बूझि‍ अपन-अपन काजमे दि‍न-राति‍ लागल रहैत। ओना ज्‍योति‍केँ सभ अपना-अपना नजरि‍ये देखैत। गुरुक रूप रघुनन्‍दन देखथि‍ तँ जगत-जननी जानकीक सुनैनापुर रूप माए देखथि‍। जइसँ एक-एक लूरि‍-बुइधकेँ धरोहर जकाँ सजबैत छलीह। भाइक मन सामा-चकेबाक संबंधमे ओझराएल। केना नै ओझराइत? आइ धरि‍क इति‍हासक दूरी जे मेटाइत देखथि‍! कतेक प्रति‍शत परि‍वार अखन धरि‍ इति‍हासक पन्नामे लि‍खाएल अछि‍ जइमे भाए-बहि‍न‍क शि‍क्षाक दूरी समतल हुअए। तँए सबहक सि‍नेहक अपन-अपन कारण। जनकपुरमे जहि‍ना रामकेँ आ मथुरामे कृष्‍णकेँ देखि‍, देखि‍नि‍हारकेँ भेलनि‍ तहि‍ना ज्‍योति‍योक परि‍वारमे।

बाल-बोध जहि‍ना अपन मनोनुकूल वस्‍तु पाबि‍ छाती लगबैत हृदैसँ खुशी होइत तहि‍ना वि‍ज्ञान वि‍षयसँ ज्‍योति‍ सटि‍ गेलि‍। नीक -वि‍ज्ञानक वि‍षयमे- नम्‍बर आनि‍‍ बि‍जलोका जकाँ ज्‍योति‍ संगि‍यो-साथी, शि‍क्षको आ मातो-पि‍ताकेँ चमकाबए लगली। हाइ स्‍कूल पएर दैते जेना अपन आँट-पेट बूझि‍ कोनो वि‍द्यार्थी साइंस तँ कोनो कामर्स तँ कोनो आर्ट वि‍षय चुनि‍ आगू बढ़ैत तहि‍ना ज्‍योति‍यो साइंस चुनि‍ नेने रहए। घरसँ बाहर धरि‍ सर्वत्र बहारे-बहार। ऋृषि‍-मुनि‍क लेल दुनि‍याँ जहि‍ना समतल देखि‍ पड़ैत, तहि‍ना स्कूलक शि‍क्षकक संग दू-दूटा भाए पाबि‍ ज्‍योति‍क दुनि‍याँ सेहो समतल। जइसँ कोनो तरहक असोकर्ज घरसँ बाहर धरि‍ नहि‍ये। असोकर्ज तँ ओइठाम होइत जतए एकपेरि‍या चरि‍ पेरि‍याक-चौवट्टी-मि‍लैक भौक होउ। भौक तँ ओतए ने बेसी बूझि‍ पड़ैत जतए जेहेन चलनि‍हार होइत। जइठाम बेसी चलनि‍हार रहैत ओतए कच्‍चि‍यो सड़क पक्कि‍ये जकाँ सक्कत आ पक्कि‍यो कच्‍चि‍ये जकाँ बनि‍ जाइत।

साइंस कओलेजसँ ज्‍योति‍ फि‍जि‍क्‍ससँ नीक नम्‍वर पाबि‍ एम.एस.सी. केलक‍। जहि‍ना अखराहापर लपटैत-लपटैत पहलवानक कश बनि‍ जाइत तहि‍ना ज्‍योति‍योकेँ भेल‍।
‘नारी मुक्‍ति‍ संघ’क स्‍थापि‍त अध्‍यक्ष होइक नाते पि‍ता रघुनन्‍दनक सि‍नेह आरो बेसी ज्‍योति‍पर। ज्‍योति‍केँ कओलेज पहुँचैत-पहुँचैत तेसरो भाय नोकरी पकड़ि‍ लेलनि‍ जइसँ आरो बेसी सुवि‍धा भेटलनि‍। ओना काजकेँ कर्म बना करैक अभ्‍यास सुलक्षणी बच्‍चेसँ लगबैत आएल रहनि‍। जइसँ घरक काजक जहनि‍ ज्‍योति‍क जेहेन तक पकड़ि‍ लेने तँए जहि‍नगर। सदति‍ कर्मकेँ सहयोगी प्रेमी जकाँ दुलरबैत, प्रेम करैत। तँए कि‍ ज्‍योति‍ सुलक्षणीक बेटी नै?, परि‍वारक सभसँ बेसी सि‍नेही बेटी छि‍यनि‍। मुदा सुलक्षनीक मनमे सदति‍ एक कचोट कचोटि‍ते रहनि‍ जे कुल कन्‍या की? कुल तँ अनेको अछि‍- गुरुकुल, पि‍तृकुल, मातृकुल इत्‍यादि‍। जे पश्न अखनो धरि‍ नै सोझरेलनि‍।
एम.एस.सी. करि‍ते दुनू बेकती रघुनन्‍दनकेँ जहि‍ना बि‍नु हवोक पीपरक पात‍ डोलए लगैत, तहि‍ना ज्‍योति‍क प्रति‍ सि‍नेह डोलए लगलनि‍। अनायास दुनूक मनमे प्रश्नपर प्रश्न उठए लगलनि‍। बीस बर्खक बेटी भऽ गेलि‍, बि‍आह करब माए-बापक कर्तव्‍य कर्म छी। कओलेजक अंति‍म सीढ़ीक आगू टपि‍ चुकलि‍, संग इहो जे पारदर्शी सीसा जकाँ ज्‍योति‍क शरीर देखथि‍ जे जुआनीक रंग सगतरि‍ चमकि‍ रहल छै। ओना कओलेजक आन छात्रा जकाँ नै, मि‍थि‍लाक धरोहर कुल-कन्‍या। जे गुरुकुलमे वि‍द्याध्‍ययन करैत। दुनू प्राणीक दायि‍त्व बूझि‍ रघुनन्‍दन पत्नीकेँ पुछलनि‍-
ज्‍योति‍ बि‍आहै जोकर भेल जाइए से की वि‍चार?”
संयासि‍नी जकाँ सुलक्षणी उत्तर देलखि‍न-
अपन कोनो काज पछुआ कऽ नै रखने छी, जे बाकी अछि‍ अहाँक छी। तइ बीच कि‍ वि‍चार देब।
पत्नीक उत्तर सुनि‍ रघुनन्‍दन ति‍लमि‍लाइत वि‍चार करए लगलाह। एहेन उटपटांग उत्तर कि‍अए देलनि‍? मुदा सोलहो आना तँ अनुमानोसँ कोनो बात नै बुझल जा सकैत अछि‍। नीक हएत जे पुन: प्रश्न उठा आगू बजबाबी। ई तँ नि‍श्चि‍त जे एको परि‍वारमे काजक हि‍साबे सबहक सोचै-वि‍चारै आ बुझैक ढंग फुट-फुट भऽ जाइ छै। भलहि‍ं सासुसँ ऊपर कि‍अए ने जेठ सासु मानल जाए, मुदा सासु तँ सासु होइत। जहि‍ना देवालयक कपाट लग ठाढ़ भक्‍त हाथ जोड़ि‍ अपन दुखड़ा भगवानसँ सुनबैत तहि‍ना तड़पैत रघुनन्‍दन पत्नीकेँ पुछलखि‍न-
संयासि‍नी जकाँ कि‍अए घरसँ पड़ाए चाहै छी। की‍ बि‍‍सरि‍ रहल छी जे घरनी सेहो छी?”
पति‍क गंभीर वि‍चारकेँ अँकि‍ते सुलक्षणीक करेज कलपि‍ गेलनि‍ मुदा पानि‍क बहैत बेगमे जहि‍ना गोरसँ गोरि‍या-गोरि‍या‍ गोर उठाओल जाइत तहि‍ना सुलक्षणी ज्‍योति‍क जि‍नगीक धारामे ठाढ़ भऽ बजली-
अहूँ कोनो हूसल नै छी, सभ माए-बाप बेटा-बेटीकेँ बच्‍चे बुझैए। मुदा एतए से बात नै छै। अहाँ लि‍ये भलहि‍ं ज्‍योति‍ बच्‍चा हुअए मुदा ओ आेइ सीढ़ीपर पहुँचि‍ गेलि‍ अछि‍ जतए मनुख अपन जि‍नगीक बाट चुनैक गुण प्राप्‍त कऽ लैत अछि‍। तँए दुइये प्राणी नै, बेटाे-पुतोहुसँ वि‍चारि‍ लि‍अ।


सेनट्रल बैंकक ब्रान्च मैनेजर भोगेश्वरक संग ज्‍योति‍क बि‍आहक बात पक्का भऽ गेल। जहि‍ना ज्‍योति‍ तहि‍ना भोगेश्वर। अद्भुत मि‍लानी। वि‍षुवत रेखाक समान दूरीपर जहि‍ना उत्तरो आ दछि‍नो समान मौसम समान उपजा-बाड़ी होइत अछि,‍ तहि‍ना दुनूक बीच। अलेल कमाइ तँए छि‍ड़ि‍आएल जि‍नगी भोगेश्वरक। हजारो कोस हटि‍ भोगेश्वर अपन परि‍वारसँ रहैत। नव-नव वस्‍तुसँ भरल बजार, जे दुनि‍याँक एक कोणसँ दोसर कोण पहुँचैत, भोगेश्वर चकाचौंधमे हरा अपन माइयो-बाप आ भाइयो-भौजाइसँ दूर भऽ गेल। कि‍अए ने हएत? जखन सभकेँ अपन कर्मक फल भोगैक अधि‍कार छै तँ भोगेश्वर कि‍अए ने भोगत। एक तँ दि‍न राति‍ रूपैयाक पेंच-पाँचक गुत्‍थी खोलैक क्षमता तइपर जेकरे माए मरै तेकरे पात नै भात?
नीक बर पाबि‍ रघुनन्‍दन चंदाक ति‍जोरी -नारी मुक्‍ति‍ संघक कोष- खोलि‍ देलनि‍। कोनो अनचि‍तो तँ नहि‍ये केलनि‍। चंदो तँ मुक्‍ति‍येक लेल अछि‍। एक तँ मनी-ग्रुप अर्थशास्‍त्रसँ पी.चए.डी. तइपर सँ सेन्‍ट्रल बैकक शाखा-प्रबंधक, कि‍अए नै भोगेश्वर अपन अधि‍कारक उपयोग करत। बि‍आहक दि‍न तँइ भऽ गेल। तइ बीच ज्‍योति‍केँ, मास दि‍न पूर्व देल आवेदनक, इन्‍टर-भ्यूक चि‍ट्ठी भेटल। तहूमे बि‍आहक दि‍नसँ तीन दि‍न पूर्वक। दोहरी काज परि‍वारमे बजरि‍ गेल। छोड़ैबला कोनो नै। तइपर ज्‍योति‍ सेहो बि‍आहकेँ माइनस आ इन्‍टर-भ्‍यूकेँ पलसमे हि‍साब लगबैत। बि‍आहक ओरि‍यानक धुमसाही परि‍वारमे। मुदा ज्‍योति‍ वि‍परीत दि‍शामे मुड़ि‍ इन्‍टर-भ्‍यू दइले अड़ि‍ गेलीह। इन्‍टर-भ्‍यूओ तँ लगमे नहि‍ये जे दू-चारि‍ घंटा समय लगा पुराओल जा सकैए। दछि‍न भारत लऽग नै। केतबो तेज दौड़ैबला गाड़ी भेल तैयो चौबीस घंटासँ पहि‍ने नै पहुँचि‍ सकैए। तहूमे बि‍आह सन शुभ काजमे बर-कन्‍याकेँ सुरक्षि‍त रहब जरूरी अछि‍। सीमा केना पार कएल जा सकैए। गाड़ी-सवारीक कोन ठेकान। ज्‍योति‍क प्रश्न परि‍वारकेँ स्‍तब्‍ध केने। जेठ भाय प्रेमकुमारक सि‍नेह ज्‍योति‍पर उमड़ि‍ पड़लनि‍। हि‍साब लगबैत पि‍ताकेँ कहलखि‍न-
बि‍आहक दि‍नसँ चौबीस घंटा पहि‍ने अवश्य पहुँचि‍ जाएब। अहाँ सभ बि‍आहक ओरि‍यान करू ज्‍योति‍क संग जाइ छी।
प्रेम कुमारक वि‍चारसँ रघुनन्‍दन दुनू काज होइत देखि‍ खुशी भेलाह। मुदा सुलक्षणीक मन आरो बेसी कडुआए लगलनि‍। खोलि‍ कऽ बजती केना? एक तँ पुरुष-प्रधान परि‍वार तइपर सभ बापुतक एक वि‍चार। स्‍त्रीगणक कोनो ठेकाने नै। कहैले ने चारि‍ गोरे परि‍वारमे छी मुदा ननदि‍-भौजाइक संबंध केहेन होइ छै से कि‍ केकरोसँ छि‍पल छै। नीक हएत जे पोल्हा कऽ बेटि‍येकेँ पूछि‍ ली। मुदा वि‍ध-बेवहारपर नजरि‍ पड़ि‍ते पुन: मन भगंठि‍ गेलनि‍। बि‍नु वि‍धि‍-बेवहारक बि‍आह केहेन हएत। रस्‍ते पेरे तँ सेहो लोक बि‍आह कऽ लइए मुदा परि‍वार केहेन बनै छै। आठो दि‍न तँ कमसँ कम वि‍ध-बेवहारमे लगबे करत।
ज्‍योति‍क इन्‍टर-भ्‍यूओ आ बि‍आहो भऽ गेलनि‍। अद्भुत बि‍आह तँए समाजमे चर्चक वि‍षय। चर्चो मुँह देखि‍ मुंगबा परसैत। जेहेन मुँह तेहेन मुंगबा। कि‍यो दुनू बेकतीक -बर-कन्‍याक- शि‍क्षाक चर्च करैत तँ कि‍यो युगक अनुकूल बर-कन्‍याक जोड़ाक। कि‍यो वि‍ध-बेवहारक लहासक चर्च करैत तँ कि‍यो समाजक अगुआएल नारी जाि‍तक। कतौ भोज-भातक चर्च चलैत, तँ कतौ गमैया बरि‍यातीक संग बजरूआ बरि‍यातीक। मेल-पाँच बरि‍याती तँए सबहक बात दमगर। इनार पोखरि‍क घाटसँ लऽ कऽ दुआर-दरबज्‍जा धरि‍ संसद चलैत। मुदा सबहक मन ओइ ि‍बन्‍दुपर अँटकि‍ जाइत जतए भोगेश्वर आ ज्‍योति‍क वैवाहि‍क बंधन रहए।
बि‍आहक तीन दि‍न पछाति‍ भोगेश्वर दुरागमन प्रस्‍ताव केलनि‍। प्रस्‍ताव सुनि‍ परि‍वारमे सबहक मनमे सभ रंगक वि‍चारक संग उत्तरो उठलनि‍। मुदा आगू बढ़ि‍ कि‍यो बजैले तैयार नै। मने-मन सुलक्षणी सोचथि‍ जे बि‍आहक साल तँ बर-कन्‍याक वि‍ध-बेवहार होइत अछि‍। जँ वि‍ध-बेवहारक कारण नै होइ छै तँ कि‍अए साओन-भादो आ पूस-माघ बेटीक वि‍दागरी नै होइए। बि‍नु वि‍धि‍-बेवहारक बि‍आह तँ ओहने होइत जेहेन बि‍नु मसल्‍लाक तरकारी। कहैले ने लोक बजैत अछि‍ जे फल्‍लां चीजक तरकारी खेलौं मुदा कि‍ बि‍नु मसल्‍लेक बनल छलै। जँ मसल्‍लोक सागि‍रदीसँ तरकारी बनल तँ ओकर चर्च कि‍अए ने होइ छै। तर-ऊपर मनकेँ होइतो कंठसँ नि‍च्‍चे सुलक्षणी ि‍वचारकेँ अँटका रखलीह। रघुनन्‍दनक मनमे भि‍न्ने वि‍चार औंढ़ मारैत रहनि‍। मुदा गारजनक हैसि‍यतसँ धड़-फड़ा कऽ बाजबो उचि‍त नै बूझि‍ सुरखुराइत मनकेँ रोकने रहलाह। मुदा तैयो होन्‍हि‍ जे बि‍नु कहने बुझता केना? भीतरे-भीतर मन बजैत रहनि‍ जे जहि‍ना बीजू -आँठीसँ जनमल साल-दू सालक आमक गाछ- गाछ कलमी डारि‍मे छीलि‍ कऽ डोरीसँ बान्‍हि‍ कि‍छु मास जुटैले छोड़ि‍ देल जाइत तहि‍ना ने बि‍आहो छी। फागुनक कन्‍या जँ फागुनेमे सासुर चलि‍ जाथि‍ तँ समन जरब देखब सासुरमे नीक हएत? चैताबरक टाहि‍ सासुरमे नव-कन्‍याक देब उचि‍त हएत? आमक गाछीक मचकीक बारहमासा आ साओनक राधा-कृष्‍णक कदमक गाछक झुलाक अर्थे कि‍ रहत? तहीले ने बि‍आह-दुरागमनक बीच समय रहैत अछि‍। भलहि‍ं नै बनैबला रहत तँ पान-साल, तीन साल नै मुदा सालो तँ टपबए पड़त। जँ से नै टपत तँ केना सासु-ससुर, सारि‍-सरहोजि‍, सार-बहि‍नोइ, सर-समाजक बीच संबंध बनत। परि‍वारक बीच कम्‍मो दि‍नमे संबंध स्‍थापि‍त भऽ सकैए मुदा समाज तँ नमहरो आ गहींरगरो होइत अछि‍। कोनो धारक पानि‍क पैमाना तँ तखन ने नापल जाएत जखन भादोक बढ़ल आ जेठक सटकल पेटक पानि‍ नापल जाए। तहि‍ना ने समाजो छी। अपना गरजे लोक थोड़े जुरशीतल आ फगुआ आन मासमे कऽ लेत। जँ से करत तँ चरि‍ टंगा आ दू टंगामे कि‍ अनतर भेलै? एतबे ने बि‍नु सि‍ंग-नाङरिक रहत। मुदा मन ममोड़ि‍ कऽ रहि‍ गेला। अनेको कारण अनेको मनकेँ घेर‍ लेलकनि‍। ज्‍योति‍क भाए-भौजाइ‍ अखन धरि‍ धर्मसूत्र आ गृहसूत्र पढ़नहि‍ नै तँए कोनो ि‍चन्‍ता मनमे रहबे ने करनि‍। नोकरि‍या रहने होइत जे जते जल्‍दी काज फरि‍या जाएत ओते जान हल्‍लुक हएत। अनेरे सी.एल. दुइर हएत? मुदा से सारेक मनमे नै रहनि‍ भोगेश्वरक मनमे सेहो रहनि‍। बैंकमे घंटाक कोन बात जे मि‍नटोक महत छैक। हरि‍दम पाइयेक बरखा। अनेरे पा-भरि‍ खाइले दि‍न-राति‍ सासुर ओगरब कोन कबि‍ल्‍ती हएत। स्‍त्रि‍ये लऽ कऽ ने सासुर, आ जे संगे रहत तँ सबदि‍ना सासुर नै भेल? जरूर भेल। अपना परि‍वारकेँ जँ सासुर बना सौंसे गाम जे ओझे बनि‍ जाएत तँ केकरा सोझा जाइक आँखि‍-मुँह रहत। मुदा तीनू भाँइ प्रेमकुमार चुप्‍पी लाधि‍ लेलनि‍ जे अखन घरक गारजन माए-बाबू छथि‍ तखन कि‍छु बाजब उचि‍त नै। मुदा मनमे तीनू भाँइकेँ शंका जरूर होन्‍हि‍ जे स्‍त्रीगणक सोभाब होइत अछि‍ जे पुरुखक टीकपर चढ़ि‍ कऽ मुरगीक बाँग देब। तइ संग समाजोक डर। समाज तँ ओहन शक्‍ति‍ छी जे बि‍नु डोरी‍-पगहाक रहनौं चपरासीसँ लाट सहाएब धरि‍ सजौने अछि‍। हाकि‍म-हुकुम आ रि‍नि‍या-महाजन रहै वा नै। भलहि‍ं बि‍लाइ बाझकेँ खाए वा बि‍लाइकेँ बाझ।
जखनसँ जमाइबाबूक दुरागमनक प्रस्‍ताव परि‍वारमे आएल तखनसँ सभ सकदम! चुप्‍पा-चुप, धुप्‍पा-धुप। जइसँ धारक पानि‍ जकाँ बहैत बोल ठमकि कऽ‍ भौर दि‍अए लगल। ओना बन्न मुँह रहि‍तो आँखि‍क नाच जोर पकड़नहि‍, मुदा ि‍सर्फ मूक नाच। जेठुआ गरेक सूर-सार देखते जहि‍ना सचेत लोक पहि‍ने बाल-बच्‍चा आ माल-जालक उपाय सोचि‍ आगू डेग उठबैत अछि‍ तहि‍ना रघुनन्‍दनकेँ अपन भार परि‍वारक बीच उठबैक वि‍चार भेलनि‍। फुरलनि‍- ‘संग मि‍ल करी काज हारने-जीतने कोनो ने लाज।’ जाधरि‍ नीक-अधलाक बीचक सीमा-सरहद नै बुझल जाएत ताधरि‍ हारि‍-जीतक चर्चे बचकानी। मुदा समाजो आ परि‍वारोक तँ चलैक रास्‍ता अछि‍ये। मनमे खुशी उपकलनि‍। खुशी उपकि‍ते मुँह कलशलनि‍। मुदा पत्नी सुलक्षणीक मन महुराएले! कि‍अए ने महुराएल रहतनि‍? जेकरा मुँहमे ने थाल-कादो लागल अछि‍ आ ने पसीनाक सुखाएल टगहार अछि‍ ओ कि‍अए ने रूमालेसँ काज-चला लेत। मुदा जेकरा मुँहमे थालो आ तह-दर-तह सुखल पसीनोक टगहार छै ओ केना बि‍नु पानि‍ये धोनहुँ चि‍क्कन हएत। कि‍ अपनो मन मानत?
सहमत भऽ परि‍वारक सभ सुलक्षणीकेँ बजैक भार देलकनि‍। सुलक्षणी बजलीह-
ओना साल भरि‍ नै तँ छअ मास, जँ सेहो नै तँ तीनि‍ओ मास, जँ सेहो नै तँ एको पनरहि‍या नै रूकताह तँ केना हेतनि‍। जँ से नै मानताह तँ हमहूँ नै मानबनि‍।
सासुक ि‍नर्णए सुनि‍ अपन शक्‍ति‍क प्रयोग करैत भोगेश्वर बजलाह-
अपन अधि‍कार क्षेत्रसँ अनचि‍न्‍ह भऽ बाजि‍ रहल छथि‍। तँए......?”
भोगेश्वरक बात सुनि‍ ज्‍योति‍क हृदैमे तरंग उठलनि‍। तरंगि‍त होइत मुँह तोड़ि‍ उत्तर दि‍अए चाहलनि‍। मुदा इन्‍टर-भ्यू मन पड़ि‍ते ठमकि‍ गेली। मुँह तँ बन्न रहलनि‍ मुदा मनमे तीन परि‍वारक टक्कर उठलनि‍। रूइ सदृश बादलक टक्करसँ ठनका बनि‍ सकैए तँ तीन परि‍वारक तीन जि‍नगीक रग्‍गर कते शक्‍ति‍शाली भऽ सकैए! दि‍न-राति‍क सीमा-सरहद तोड़ि‍ ज्‍योति‍ पति‍केँ कहलनि‍-
अधि‍कार आ कर्तव्‍य हर मनुखक धरोहर सम्‍पत्ति‍ छि‍ऐ नै कि‍ खास-व्‍यक्‍ति‍क खास....?”
ज्‍योति‍क वि‍चार सुनि‍ भोगेश्वरक देह सि‍हरि‍ गेलनि‍। मुदा तैयो मनकेँ थीर करैत बजलाह-
साते दि‍नक छुट्टी अछि‍। एक तँ अहुना आन-आन वि‍भागसँ कम छुट्टी बैंकमे होइ छै, तहूमे एते सुवि‍धा भेटै छै जे काज केनि‍हार ओहो छुट्टी काजेमे लगबए चाहैए।
तइ बीच ज्‍योति‍क मोबाइलि‍क घंटी टुनटुनाएल। मोबाइलि‍क अनभुआर नम्‍बर देखि‍ सावधानीसँ ज्‍योति‍ रि‍सीभ करैत बजलीह-
हेलो।
हेलो।
अपने कतएसँ बजै छी?”
वि‍ज्ञान शोध संस्‍थानसँ। सात दि‍नक भीतर आबि‍ ज्‍वाइन कऽ लि‍अ। ओना चि‍ट्ठि‍ओ पठा देने छी।
ज्‍वाइनि‍ंगक समाचार सुनि‍ ज्‍योति‍क मन ओहि‍ना खि‍ल उठलनि‍ जहि‍ना फूलक कली कोनो वस्‍तुसँ दबा तरेतर तँ खि‍लैत रहैत, जे समए पाबि‍ फुड़फुड़ा कऽ फूलक रूपमे आबि‍ जाइत। अखन धरि‍क वि‍चार ज्‍योति‍क तर पड़ि‍ गेलनि‍ आ नव दुनि‍याँक नव वि‍चार ऊपर चढ़ि‍ गेलनि‍। रघुनन्‍दनकेँ कहलनि‍-
बाबूजी, अपन कर्तव्‍य जइ रूपे अपने नि‍माहलौं बहुत कम लोक नि‍माहि‍ पबैए। आग्रह करब जे केकरो जि‍नगीक रास्‍ताक बाधक नै बनि‍ऐ।
ज्‍योति‍क बात सुनि‍ जि‍ज्ञासा करैत जेठ भाय प्रेमकुमार प्रश्न उठौलनि‍-
कि‍ रास्‍ताक बाधा?”
ज्‍योति‍- भाय सहाएब, अखन जबाबक उचि‍त समए नै अछि‍। अखन एतबे जे काल्हि‍ चलि‍ कऽ हमरा शोध संस्‍थान पहुँचा दि‍अ।
ज्‍योति‍क बात सुनि‍ सुलक्षणी पुछलखि‍न-
आइ तीनि‍ये दि‍न बि‍आहक भेलह हेन, बहुत वि‍ध-बेवहार पछुआएल छह?”
जे पछुआएल अछि‍ ओ पाछू हएत। मुदा कोनो हालतमे काल्हि‍ जेबे करब। चाहे......?”
ज्‍योति‍क संकल्‍पि‍त वि‍चार सुनि‍ भोगेश्वर बजलाह-
भाय-सहाएब, काल्हि‍ये हमहूँ चलि‍ जाएब। सभ संगे चलब, हम हाबड़ामे उतरि‍‍ जाएब आ ई सभ आगू बढ़ि‍ जइहथि‍।
सएह भेल। ज्‍योति‍केँ शोध संस्‍थान पहुँचा तीनू भाँइ प्रेमकुमार घुरि‍ कऽ घर आबि‍ गेलाह।

उर्वर भूमि‍क बनल परतीमे जहि‍ना जोत-कोर, नमीक संग बीआ पड़ि‍ते, कि‍छुए दि‍न पछाति‍ हरि‍या उठैत तहि‍ना ज्‍योति‍क उर्वर शक्‍ति‍मे अनुसंधानक नव-नव अंकुर पानि‍क हि‍लकोर जकाँ उठए लगलनि‍। एक नै अनेक। जहि‍ना पोखरि‍मे झि‍झरी जकाँ पानि‍क हि‍लकोर चलैत रहैत तहि‍ना ज्‍योति‍क मनमे सेहो चलए लगलनि‍। भूखल व्‍यक्‍ति‍केँ अपन अन्नक भंडार भेने, वस्‍त्रहीनकेँ वस्‍त्र भेने, गृहवि‍हीनकेँ गृह भेने जहि‍ना वि‍शाल जल-राशि‍ पाबि‍ नदी उफनि‍ जाइत तहि‍ना ज्‍योति‍क मन उफनि‍ गेलनि‍ आइ धरि‍क दुनि‍याँ। नव दुनि‍याँ, नव-नव सुर्ज-चान, ग्रह-नक्षत्र, नव-नव वस्‍तुसँ सजल दुि‍नयाँ। ओ दुि‍नयाँ जइठाम पहुँचि‍ मनुख सृजन शक्‍ति‍ प्राप्‍त कऽ सृजक बनि‍ सृजन करए लगैत। ज्‍योति‍-ज्‍योति‍ नै सृजक बनि‍ गेलीह।
नन्‍दन बनक माली जहि‍ना अपन जि‍नगी ओइ वनकेँ उत्‍सर्ग कऽ नव-नव फूल-फलक गाछ आन-आन जगहसँ जोहि‍ आनि‍ फुलवारी सृजैत, जेकरा देखि‍ माली पुत्र अपन भवि‍ष्य बूझि‍ एक संग छि‍ड़ि‍आएल जामंतो जि‍नगी लोढ़ि‍, फुलडाली सजा, देवमंदि‍रक लेल रखए चाहैत तहि‍ना ज्‍योति‍केँ, श्रृंगी ऋृषि‍क वि‍शाल उपवन भेट गेलनि‍। जइसँ ओइ माली पुत्र जकाँ अपन भवि‍ष्‍य देखए लगली। दू धारक बीच महारपर ठाढ़ भऽ, एक दि‍स तड़ा-उपड़ी गि‍रल मनुख तँ दोसर दि‍स जि‍नगीक खेलौना हाथमे लेने समुद्र दि‍स पीह-पाह करैत धारमे उधि‍आएल जाइत। उगैत-डूमैत देखलनि‍ जे कि‍यो मात्र पति‍-पत्नीक जीवन लीलाकेँ जि‍नगी बूझि‍ तँ कि‍यो अमरलत्ती सदृश वंश-वृक्षपर लतड़ब केँ, कि‍यो धार-समुद्रक बीच धरतीकेँ तँ कि‍यो अकास-पतालक बीचक वि‍शाल वसुदेवकेँ। देखैत-देखैत ज्‍योति‍क मन बेसम्‍हार भऽ गेलनि‍। अपन जुआनीक खि‍लैत कलीक संग चढ़ैत तन, ऊफनैत मनकेँ सम्‍हारि‍ धारमे कुदए चाहली। मुदा मनमे नचलनि‍ माए-बाप! धरतीक प्रथम गुरु! जहि‍ना शि‍क्षक सि‍लेटपर खांत लि‍ख शि‍ष्‍यकेँ सि‍खबैत तहि‍ना शि‍ष्‍यो ने लि‍ख शि‍क्षकसँ शुद्ध करबैत। शुद्ध होइते ओहो खांत ने खांत बनि‍ जाइत। रील जकाँ माता-पि‍ताक सटले पति देखलनि‍। मुदा कि‍छुए क्षण धरि‍ मनमे अंटकलनि‍। बि‍आहक वि‍धो तँ पछुआएले अछि‍! लगले फेर माता-पि‍ता आबि‍ आगूमे ठाढ़ भऽ गेलनि‍!
राति‍-दि‍न ज्‍योति‍क मन साओनक मेघ जकाँ उमड़ए-घुमड़ए लगलनि‍। धारमे चलैत नाह जकाँ डोलि‍-पत्ता हुअए लगलनि‍। आँखि‍ उठा तकलनि‍ तँ देखलनि‍ जे माता-पि‍ता छोड़ि‍ कहाँ कि‍यो छथि‍। फेर लगले मन घुरलनि‍ तँ सभ कि‍छु देखलनि‍। कि‍ नै अछि‍? मातृभूमि‍क संग पि‍तृभूमि‍ सेहो अछि‍। मनमे खुशी एलनि‍। होइत भोर कागज-कलम नि‍कालि‍ पि‍ताकेँ पत्र लि‍खए लगलीह-
माता-पि‍ता, सहस्र कोटि‍ प्रणाम।
एक जि‍नगीक आखरी आ दोसरक पहि‍ल पत्र लि‍खैत मन उमकि‍ रहल अछि‍। तँए कतौ शुद्ध-अशुद्ध लि‍खा जाए, से माफ करब। सुधारि‍ कऽ पढ़ि‍ लेब। अपने लोकनि‍क सेवा, शि‍खर सदृश शि‍ष्‍य जकाँ शि‍रोधार्य केने रहब। जहि‍ना बादलक बुन्न धरतीपर अबि‍ते धरि‍या धार होइत समुद्र दि‍स बढ़ैत तहि‍ना अपने दुनू धरि‍या देलौं। कुल-कन्‍या वा कुल-कलंकनी बनब हमर कर्म छी। मुदा बेटी तँ अहींक छी। हमहूँ तँ एतै बसब। तँए ताधरि‍क छुट्टी असीरवादक संग दि‍अ जे वास बना बसए लगी।

ज्‍योति।

पत्र पहुँचते अह्लादसँ दुनू बेकती रघुनन्‍दन आ सुलक्षणी, बेटी ज्‍योति‍क पत्र पढ़ैक सुर-सार केलनि‍। पत्रपर नजरि‍ दौड़ैबते दुनू बेकती अलि‍सा गेलाह। आगूमे अन्‍हार पसरि‍ गेलनि‍। मुदा मन लगले भक्‍क खोलि‍ रघुनन्‍दन पत्नीकेँ कहलखि‍न-
पत्रक उत्तर देब जरूरी अछि‍ मुदा कि‍ लि‍खब से फुरबे ने करैए।

जेहने गर्म-ठंढ़क बीचक सीमा असथि‍र रहैत तेहने चि‍त्ते सुलक्षणी पति‍केँ वि‍चार देलखि‍न-
कोन लपौरीमे पड़ल छी। माए-बाप केकरो जन्‍म दइ छै। जीबैले अपने ने रौद-वसात सहए पड़तै। आब अहीं कहू जे एहनो बात पत्रमे लि‍ख बेचारीक पढ़ैक समए बड़देबै? रहल असीरवादक तँ एतैसँ दुनू प्राणी मि‍ल दऽ दि‍यौ।

(ई कथा युवा साहित्‍यकार- श्री आशीष अनचि‍नहार लेल)

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