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Saturday, April 7, 2012

नवान :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल



बाध दि‍ससँ भोरे बड़का काका आबि नादिमे कुट्टी-सानी लगा, गाए बाहर कऽ केटली नेने कलपर पहुँचलाह। जइ कलपर आन समए (जाड़-बरसात) हेँक-हेँक भेल रहैत छल ओ रुक्‍ख बूझि पड़लनि। समैक गरमियोमे अंतर बूझि पड़लनि। जाड़क मासमे दस बजे दिनक समए पाँचे बजे भोरेमे बूझि पड़लनि। सोहनगर समए बूझि वसन्तपर नजरि गेलनि। वसन्त आमक मंजरक महमही फल रूपमे महमहा रहल अछि। मनमे उठलनि जे वसन्त ऋृतु बर्खक पहिल ऋृतु (चैत-बैशाख) होइतो शरद-शिशिर सन ऋृतु केना आगू अबैत? हाँइ-हाँइ कऽ केटली धोय लोटामे पानि नेने चूल्हि लग आबि, चाह बनबए लगलथि। केतलीमे चाहकेँ खौलैत देखि‍ मनमे उठलनि जे अहिना समुद्रोमे लहरिक ज्वार-भाँटा उठैत अछि। एते गहींर समुद्र जइमे करोड़ो-अरबो पानिक तह रहैत अछि‍ तइ ऊपरमे कि‍एक एत्ते जोरसँ लहरि अबैत अछि? मन औनाइते रहनि कि चाहक गंध लगलनि। गिलासमे चीनी दऽ चाह छनलनि। केटली अखारि कऽ रखि चाहक गिलास नेने दरवज्जाक चौकीपर बैस पीबए लगलथि। मन औनाइत रहनि जइसँ चाहो नीक-नहाँति नहिये पीबैत रहथि। तखने हहाएल-फुहाएल रविया कने फड़िक्केसँ बाजल- गोड़ लगै छी कक्का।
अासिरवाद दैत बड़का काका कहलखिन- कनिये पहिने अबितह रबी, तँ चाहो पीऐबतियह, आब तँ हूसि गेलह।

- नै काका, हुसलौं नै, नीके भेल। एक चुटकी विष्णु भगवानकेँ चढ़ाइये कऽ मुँहमे पानि लेब।
विष्णु भगवानक नाओं दि‍स धियान नै गेलनि। कहलखिन- तूँ तँ अनेरे बौआइबला आदमी नै छह। तहन.......?”
- काजे एलौंहेँ।
- भोरे कोन काज बजरि गेलह?”
- न्योंत दइले एलौं।
     
न्योंत सुनि बड़का काका तारतम्य करए लगलाह जे अखन तँ, ने बि‍आह-मूड़नक दिन अछि आ ने केशे कटौल देखै छिऐ जे बरखीयो-तरखीयो करैत। मुदा चौलो तँ कहियो नै केलक जे आइ करत। सभ दिन शिष्ट बूझि श्रद्धाक नजरिसँ देखैत अछि। मन पाड़लनि- जेठ मास परीब तिथि। आमो पाकब नहिये शुरू भेल अछि‍ जे अमइयो भोज करैत। पनरह दिनक पछाइते अमइया भोज चलत। तहूमे नवको गाछी-कलम तँ कतौ नहिये नजरिपर अबैत अछि। तीन दिन रोहि‍णियोकेँ चढ़ैमे बाँकिये अछि। खिच्चा आम पाकि कऽ केहेन हएत? धि‍या-पुता ने चोकर-मोकर खाइए। भोज-काज ओइ‍सँ केना हएत? भोज-काजक लेल तँ नीक आम चाही। मन आगू बढ़लनि। तीमन-तरकारीक तँ भोज नै होइत अछि। ओ तँ ओहिना पहिल फड़ महादेवो स्थानमे चढ़बैत अछि आ हितो-अपेक्षि‍तकेँ देल जाइत अछि। ओना लोक कटहरोक भोज करैत अछि मुदा ओ तँ आमो-सँ-पाछाँ होइत अछि‍। भऽ सकैत अछि जे गाए बि‍आएल होइ। गाइक दूध तँ छाँकी देल जाइत अछि। कियो-कियो रक्तमाला स्थानमे चढ़बैत अछि। पाल खेलापर राजाजीकेँ गाँजा चढ़बैत अछि आ बियेलापर कुशेश्वर स्थानमे घी चढ़बैत अछि। हमरा किएक न्योंत देत। पुछबो केना करबै? दही-दूधक चर्च तँ खाधुर लोक करैत अछि। हँ-निहसक बीचमे पड़ल बड़का काका सोचलनि जे हमहीं सवाल पुछिऐ आ वएह ने किअए जवाव देत जे अनेरे अपसियाँत होइ छी। मुस्की दैत पुछलखिन- आरो के सभ न्योंतिहारी रहथुन?”
बड़का काकाक प्रश्न समाप्तो नै भेल छलनि तइ बिच्चेमे रविया बाजि उठल- अहींटा छिऐ काका। पहिल नवान छी कत्ते गोटेकेँ न्योंत देबनि। कोनो कि उपनएन छी जे गिनती पुरबए पड़त।   
     
नवान सुनि बड़का काका आरो ओझरा गेलाह। केना ने ओझरैतथि। किछु दिन पूर्व धरि तँ वएह सभसँ पहिने नवानक चर्च करै छेलखि‍न। जहियासँ बाढ़ि आबि-आबि अगहने उसारि देलक तहियासँ कहब छोड़ि देलखिन। अमती काँट जकाँ एकटा डारि छोड़बथि‍ तँ दोसर लगि जाइन। मिरचाइक घोँदा जकाँ ओझरी देखि‍ बड़का काकाक मन असोथकित भऽ गेलनि। आँखि बन्न भऽ गेलनि। आँखि बन्न होइते रविया कहलकनि- काका, ओरियान-पाती करबाक अछि। अखन जाइ छी।
रविया विदा भऽ गेल, मुदा काकाक आँखि बन्ने रहनि। मनमे उपकलनि, भने पतरो कीनब छोड़ि देलौं। एक तँ ओहिना रंग-बि‍रंगक पतरा समाजमे (गाममे) आबए लगल अछि‍। सेहो जँ भिन्न-भिन्न लेखक जकाँ एक्के ढंगसँ बुझाओल जाएत तँ बड़बढ़िया। मुदा सेहो नै। सभ पतरा कीनि‍ अपनेसँ निर्णए करैक ज्ञाने नै अछि। मनमे खुशी उपकलनि। जे पावनि क्षण-पल गनि निर्धारित होइत अछि ओ तीनदिना हुअए लगल। एकदिना पावनि‍ दुदिना भऽ गेल आ दुदिना तीनदिना। तहूमे तेहन-तेहन अगिमुत्तू छुछुनरि सभ गामे-गाम फड़ि गेल अछि जे एक डांरिए समाजकेँ थोड़े चलए देत। समाजो तेहने गड़िखच्चर अछि जे अपन वर्चस्वक दुआरे उचि‍त-अनुचि‍तक (जायज-नाजायजक) विचारे ने करत। कियो जातिक सिपाही तँ कियो सम्प्रदायक सिपाही बनि मोछ टेढ़ करैत रहैत अछि। ककर के सुनत? एहेन परिस्थितिमे चुप्पे रहब नीक। फेर मनमे उठलनि जे एते ओझरीमे ओझराइक कोन जरूरति‍ अछि। जहन रविया न्योंत दइये गेल अछि तहन किएक ने स्नान कए ओकरे ओइठाम जा बूझि ली। सएह केलनि।
     
चारिम सालक बाढ़ि रविया दुनू बेकतीक जिनगी मोड़ि देलक। एहेन विकराल बाढ़ि जिनगीक पहिल बाढ़ि छलैक। पाँच बीघा जमीनबला रविया पुरान ढर्राक जिनगी (किसानी जिनगी) बदलैत रहए। लगभग चारि आना बदलि‍ गेल छलै। उन्नति किस्मक तरकारी आ फल-फलहरीक खेती अपनाए नेने रहए। अन्नक खेतीमे कोनो सुधार नै कऽ सकल रहए। मालो-जाल तहिना (पूर्ववते) रहैक। बाधक सभ जजात दहा गेलै। गाछीक बड़का आम-जामुनक गाछ छोड़ि सभ सुखि गेलै। अंगूर, अनारस, नेबो, लताम, धात्री, अनरनेवा इत्यादि सभ नष्ट भऽ गेलै, घरोक सभ समान नष्ट भऽ गेलै। बाढ़ि‍ये दिनसँ रविया दुनू परानीक मन टुटए लगलै। जेना-जेना पानि सटकैत जाइ तेना-तेना सुक्‍खल गाछ आ घरक सड़ल समान सभ देखि‍-देखि‍ दुनूक मन टुटब बढ़ितहि गेलै। मुदा जिनगीक आशा दुनूकेँ अन्हारसँ इजोत दि‍स धकेलि देलक। नव उत्साहक संग दुनू परानी आँखि उठा आगू देखि‍ डेग बढ़बए लगल।

सबेरे स्नान कए बड़का काका रविया ऐठाम पहुँचलाह। आँगन नीपि बुधनी नहाइ-ले गेलि कि बड़का काकाकेँ देखलक। हाँइ-हाँइ कऽ गोबराएल हाथ धोय धड़फड़ा कऽ आंगन आबि ओसारपर कम्मल बि‍छा पतिकेँ कहलक- काका एलखिन।
दरबज्जापर आबि बड़का काका कनडेरिऐ आँखिए हिया-हिया कऽ आंगन, दरबज्जा, बाड़ी देखए लगलखि‍न। आँखिपर सँ मनक बि‍सबास उठए लगलनि जे सत्ते देखै छी कि फूसि। जइ जेठमे पियाससँ धरतीमे दराड़ि‍ फाटि‍ जाइत अछि‍, हाथ-हाथ भरि जीह बाहर करैत माल-जाल अधसुक्‍खू भऽ जाइत अछि। ठेहुन भरि मोट गाछक सुखाएल पातक पथार लगि जाइत अछि तइठाम वसन्तक-बहार देखि‍ रहल छी। मनमे ई सभ नचिते रहनि कि पानक खिल्ली सिक्कीक चंगेरीमे सरिया कऽ ओसारक चक्कापर रखि रविया आगू आबि कहलकनि‍- अंगने चलू ने कक्का। अनठिया जकाँ डेढ़ि‍यापर किएक ठाढ़ छी।

रवियाकेँ मनमे अपन सेहवाल गाए आ दस कट्ठा गरमा धानक बोझ देखेबाक इच्‍छा रहैक। मुदा काकाक मनमे एलनि‍ जे आंगन तँ औरतक होइत छैक, पुरुखक नै। पुरुख तँ केबल खेबा काल आ कोनो काजक काल जाइत अछि। मुदा बुधनीयो तँ अंगनेक ओसारपर कम्मल बि‍छौलक। ओ एना उट-पटांग किएक केलक? ओसारक एक भागमे बुधनी दू कसतारा दही, दु-चंगेरा आम, एक चंगेरा चूड़ा, स्टीलक अढ़ियामे तरकारी इत्यादि भोज्य-पदार्थ रखने रहए। एकरे सभकेँ देखबैक इच्छा पेटमे रहैक। सभ गोटे अपन-अपन विचारमे मगन आ काजोमे लगल। अगहन जकाँ लड़ती-चड़ती देखि‍ बड़का काकाक मन असथिर होइत रहनि। अस्सीयो बर्खक ओ औरत जनिका पति छन्हि अपनाकेँ कत्ते सुन्दर बुझै छथि मुदा सोलह बर्खक वि‍धवा अपनाकेँ की बुझै छथि? जे जेठ गरमीक विराट मास छी से वसन्ती हवा केना बहा रहल अछि। सालक एक्को दिन ओहन अछि जइ दिन अनेक ऋृतु नै भ्रमण करैत हुअए। चुप-चाप आँखि नचबैत बड़का काकाकेँ रविया पुन: कहलकनि- काका, जहिना पाँच अंग उठलासँ शरीरक वसन्त अबैत अछि‍ तहिना ने वसन्त पंचमीसँ वसन्त ऋृतुक आगमन होइत अछि। आगू-आगू चलू, सभ किछु देखा दइ छी।
रवियाक बात सुनि बड़का काकाकेँ खुशी भेलनि मुदा मनकेँ नवानशब्द घुरि‍याइत रहनि। मन नचैत रहनि अगहनक नवानपर। बजलाह- पतरा देखब छोड़ि देलौं तँए सभ बात नजरिपर नै अबैत अछि। कनी-मनी मन अछि जे नवान तँ अगहन माने कातिक इजोरिया पखसँ लऽ कऽ अाधा पूसे धरिमे होइत छलैक।
काकाक बात सुनि रवियाक मनमे खुशी नै भेल, पुछलकनि- कक्का नवान की?”
- “नव अन्नक ग्रहण।
- “सएह छी काका।
- “चलह कने देखा दए।

धान देखबैत रविया कहलकनि- चौरीमे एक बीघा खेत अछि। सत-सत, अठ-अठ बर्खपर हँसुआ खेत पहुँचैत छल। सेहो दूध महक डाढ़ीए होइत छल। गोटे साल आध-मनक कट्ठा तँ गोटे बेर तीन पसेरी कट्ठा धान होइत छलए। तहूमे तते चिलमिल, कोढ़िला, आ करमी लत्ती भऽ जाइत छलए जे ऊपरका खेतीसँ दोबर खर्च होइत छलए। उपजा देखि‍ मनमे उठैत छलए जे बेचिये लेब नीक होएत। मुदा लेबालो नै। के अनेरे पूजी दूरि करि‍तए। सबहक एक्के गति। गामक अाधा हिस्सा जमीन एहने अछि। बर्ख दसम मनमे उठल जे चौथाइ खेतमे डबरा खुनि माछ पोसब। नवका-नवका माछक थर सभ हेचरीमे बि‍काइत अछि। ओकरे पोसब। सदिकाल रेडियोओसँ आ अखबारो, पत्रिका सभमे माछ पोसैक लाभ देखाओल जाइत छै। खूब लाभकारी अछि। सएह केलौं। दू कट्ठा ऊपरका खेत बेचि‍ डबरा खुनेलौं। हेचरीसँ थर आनि देलिऐ। ले बलैया, कोसी नहरिमे पानि एलै। फाटकक खुजले मुँह छोड़ि देलक। भरि मुँहखर पानि चौड़ीमे पसरि गेलै। बीच बाधमे खेत अछि। डबराक महारोपर जाएब कठिन भऽ गेल। एक दिन नहाइ बेरमे केरा थम्हक बेरही बना कऽ गेलौं तँ देखिलिऐ जे सौंसे चौरीक सलाढ़ लगल अछि। एक्कोटा थरक दर्शन नै भेल।
- “देखि‍ कऽ बड़ दुख भेल हेतह?”
- “ऍंह, काका की कहब, अपनेटा होइत तहन ने, तेहने तँ सौंसे बाधे झलकैत रहए।
- “तब तँ निचला खेतक संग दू कट्ठा ऊपरको चलि गेलह।
- “ओतबे गेल। साले-साल मलगुजारियो भरए पड़ैत अछि। तेहेन पाहीपट्टीक पट्टी छी जे अग्गहसँ बिग्गह भरए पड़ैत अछि। गामक खेतक कोनो एक्के रंग मलगुजारी अछि। अन्हरा राज छै। जइ खेतमे उपजा नै होइत अछि ओकरे मलगुजारी बेसी अछि। हँ, तँ कहै छलौं जे ओइ‍ एक बीघा चौरी खेतमे डबरा भरा देलापर तेसराँ आ पौरुकााँ पच्चीस क्वीन्टल आ सत्ताइस क्वीन्टल धान भेल। उपजबैक ढंगो नै छल। थोड़े-थोड़े आब सीखने जा रहल छी। बेर दुनू सालसँ नीक धान अछि। अखन काटि-काटि अनितहि छी। तैयार पछाति करब। चलू, गाएकेँ देखिऔ।

सेहवाल गाए। ललौन-कारी। कतौ-कतौ चितकाबर। पतरकी नाङरि। साढ़े चारि फूट खड़ा आ आठ फूट नमती। निच्चासँ ऊपर धरि काका तजबीज केलनि‍ मुदा नजरिपर चढ़बे ने करनि जे कोन किस्मक गाए छी। थने कहै छै जे भरि बाल्टी खुआउ आ भरि बालटीन दुहि कऽ लऽ जाउ। गाम दि‍स नजरि दौड़ेलनि। कहाँ कतौ ऐ कटिंगक गाए छै। कियो-कियो जे अनबो केलनि तँ महींसक खाँढ़क जरसी छन्हि। सेहो तँ गनले-गूथल अछि। पहिलुका गाए सभ जे अछि ओकर खाँढ़े बिगड़ि गेलै। तेहन-तेहन दानी सभ साँढ़ दान केलनि जे टाएरक बड़दक वंश कोल्हुक रास्ता धेलक।
रविया - काका, की सभ देखै छिएे?”
बड़का काका- हौ, कोन चीज नै देखैबला अछि। कतएसँ अनलह?”
- “चारिम साल जे बाढ़ि आएल से मालो-जालकेँ नष्ट कऽ देलक। खूँटेपर बान्हल गाए-बड़द मरि गेल। धि‍या-पुता मात्रिकमे रहए तँए बँचि गेल। बाढ़िक बाद सासु भेँट करैले समाद पठौलनि। हमर मन नै मानलक। ओकरे -पत्नीकेँ- कहलिऐ जाइले। एक तँ नैहर दोसर धियो-पूताकेँ देखना साल भरि भऽ गेल छलैक। गेल। ओतै एकटा गाए आ खेती करैले बड़दो आ मन तीनि‍येक अन्न देलखि‍न‍। किछुए दिनक पछाति गाए उठल....।
मुस्की दैत पुन: बाजल- जहिना बाढ़ि एने मूस पतरा गेल तहिना अनेरुआ साँढ़ो सभ। मन भेल जे साँढ़ लग लऽ जाइऐक। मुदा मनमे भेल, अनेर खाइत-खाइत तँ बुधि‍यारो लोक सनकि जाइत अछि‍, साँढ़-पारा तँ जानिये कऽ पशु छी। साँढ़ लग नै लऽ जा डाक्टरकेँ बजा अनलियनि। वएह पाल (सिम) देलखिन तकरे बच्चा छी। गाए तेहन दुधगरि जे अपन जीह दागि बच्चाकेँ पोसलौं। वएह गाए छी। पाँचम दिन बिआएलहेँ।

पाँचम दिन सुनिते बड़का काकाक मन फेर ओझरा गेलनि। मनमे नाचए लगलनि जे गाए तँ नअो दिनपर शुद्ध होइत अछि। अशुद्ध दूधक दही खुऔत कि ककरोसँ दूध आनि पौरने अछि। पुछबो केना करबै? ओहन खाधुर थोड़े छी जे खाइसँ पहिने पता लगा लेब। शुद्ध-अशुद्धक विचार मनमे संघर्ष करए लगलनि। एक दिस देखैत छथि‍ जइ गाइक दूध, गोंत, गोबर सभ शुद्ध होइत अछि, एते तक जे दूधक लाटमे छुतहर घैलो शुद्ध भऽ जाइत अछि, दूध तँ अमृतोसँ पैघ होइत अछि‍। दोसर दिस देखैत छथि‍ जे सभ अशुद्ध गाइक दूधसँ परहेजो करैत अछि। ओना देस-देसक आ कोस-कोसक चलनि सेहो एक-दोसराक विपरीतो चलैत अछि। विचित्र स्थितिमे अपनाकेँ देखि‍ निर्णए केलनि जे पुछनहि‍ शुद्ध-अशुद्ध। जँ बुझले नै रहत तहन शुद्ध-अशुद्ध की होएत। मनमे खुशी एलनि, पुछलखिन- दूध कत्ते होइ छह?”
  दूधक नाओं सुनि रवियाक मन, फुलक पहिल सुगंध जकाँ महकि‍ उठल। बाजल- कक्का, की कहू! दुहैत-दुहैत आङुर भरा जाइए। बेराबेरी दुनू बेकती दुहै छी। ओना अखन पाँचे दिन भेल अछि। तहूमे दू दिन अधे-छिधे दूहलौं। पहिलौठ रहने थनमे गुदगुदी चलते हरपटाए लगए। मुदा परसूसँ दूधो फाटब बन्न भऽ गेल अछि‍ आ गायो असथिरो भऽ गेि‍ल।
- “दूध बेचबो करै छह?”
- “अखन तक तँ नै बेचलौंहेँ मुदा एते दूध दुइये गोटे बुते केना सठत। कहि अागू बढ़ल। आमक कलम। चारू कातक हत्तापर लताम, दाड़ि‍म, नेबो, शरीफा रोपल। गाछक बीचमे अनारस, हरदी-आदी सेहो रोपल देखि‍ खुशीसँ गद्-गद् होइत बड़का काका बजलाह- रवि, तेहन वृन्दावन सजौने छह जे एत्तएसँ जाइक मने नै होइए।

काकाक खुशी देखि‍ रविया हँसैत कहए लगलनि- कक्का, बाढ़िक नोकसानसँ मन टूटि गेल। आगू नाथ ने पाछू पगहा देखि‍ मनमे आबि गेल जे सभ खेत-पथार बेचि‍ गामसँ चलि जाइ। मुदा फेर मनमे आएल जे गामसँ कतऽ जाएब। गाम-घर बाढ़िमे दहाइत अछि, रौदीमे जरैत अछि। मुदा शहरो-बाजारक दशा तँ सएह देखै छी। दिन-दहाड़े डकैती, हत्या, अपहरण, सदिकाल होइते रहैत अछि। ततबे नै कतौ भाषाक तँ कतौ सम्प्रदायक जहर वायुमंडलकेँ दुषित केने अछि
रविक बात सुनि मूड़ी डोलबैत काका कहलखिन- हँ, ई तँ लाख रुपैयाक बात कहलह। हम तँ बुढ़ा गेलौं। दू-चारि सालक मेहमान छी। भने भगवान आँखिक इजोत लए लेलनि। ने किछु देखब आ ने दुख हएत। छोड़ह दुनियाँदारीकेँ, अपन कहह।

बड़का काकाक जिज्ञासा देखि‍ रविया बाजल- कक्का, घर-सँ-बाहर धरि एक्के रंग बूझि पड़ल। की करी की नै करी! मनमे एबे नै करए। बड़ी कालक बाद मन पड़ल अपन देश आ पूर्वज। जहियेसँ मनुख धरतीपर अछि तहियेसँ ने हमर-अहाँक वंश सेहो छथि‍। जँ से नै रहितथि तँ अखन केना रहितो। तहिना तँ अपन देशो (मिथिला) अछि। अदौएसँ मिथिलाक चर्च बेद-पुरानमे अछि। तइ बीच लाखो भूमकम, अन्हर-बिहाड़ि, पानि-पाथर, बाढ़ि अाएल होएत। केना अपन पूर्वज सहलनि? की अपनो सभमे ओइ‍ वंशक खून नै अछि? मनमे उत्साह जगल।
बड़का काका- वाह! अच्छा, बगीचाक विषयमे कहह?”
रविया- कक्का, तेसर साल मद्रासी बेपारी ट्रकपर फल-फलहरीक गाछ बेचैले आएल। हमहँू पनहरटा गाछ कीनि‍ कऽ रोपलौं। वएह छी। परुँकांे-तेसरांे मोजरल रहै मुदा मोजर तोड़ि देलिऐ। एकटा-दूटा आम फड़ैत मुदा गाछक सेखिए चलि जाइत छलैक। बड़हनमो खूब अछि। तीनि‍ये सालक गाछ छैक, सए-सवा-सए कऽ फड़ल अछि। अपने ऐठामक गुलाबखास जकाँ अछि मुदा पकैत अछि ओइ‍सँ पहिने। यएह आम खुआएब। आब आगू चलू तरकारीक खेत दि‍स।

खेतक आड़िपर अबिते कक्काक नजरि चोन्हरा गेलनि। तरहत्थीसँ आँखि पोछि देखलनि तँ मनमे शंका भेलनि। जइ जेठमे धार-पोखरि-इनार सूखि जाइत अछि‍, बाध-बोनमे लू चलैत रहैत अछि‍, खेतसँ धधड़ा जकाँ ताव उठैत रहैत अछि‍ ओइ‍ खेतकेँ हरिअर वस्त्र पहिरा गहना-जेवरसँ सजा नायिका जकाँ मलड़बैत अछि, ई नान्हिटा काज नै अछि। मुदा काजो ओहन अछि जे सोझे स्वर्ग बनबैत अछि। जिज्ञासा भरल नजरिसँ काका पुछलखिन- रबी, की सभ लगौने छह?”
रविया- कत्ते कहब काका, एक बेर‍ घूमिये कऽ देखि‍ लियौ। सुरुजो बारहसँ निच्चाँ उतरैपर छथि‍। चलू भोजन कऽ लिअ।
- “मन भरि गेल। खाइक छुधा मेटा गेल। होइए जे जहिना कृष्ण वृन्दावनमे रहथि तहिना हमहूँ एतै रहि जाइ। 


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