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Monday, April 9, 2012

शिवशंकर श्रीनिवास - पण्डित ओ हुनक पुत्र



नैनापुर गाममे एकटा पण्डित रहथि। नाम रहनि- बौआ चौधरी। नैनापुर टोलक विद्यालयक ओ प्रधान गुरुजी रहथि। सभ हुनका बड़का गुरुजी कहनि। बड़का गुरुजीक पण्डिताइक सोरहा ओहि समयमे देश-विदेशमे छल। ओहि समएक प्रसिद्ध युवा विद्वान् मे बेसी गोटे हुनके शिष्य रहथि। देश-विदेशक लोक हुनका लग शास्त्रक गप्प बूझऽ अबैत छलाह। किन्तु बड़का गुरुजी रहथि बड़ क्रोधी, से सभ जनैत छल। क्रोध छोड़ि हुनकामे सभ टा गुणे रहनि। किन्तु हुनक क्रोधक चर्चा सभ करए।
बड़का गुरुजीक एक मात्र संतानमे बेटा, नाम रहै धनंजय।
धनंजय बड़ तेजस्वी रहय। लोक कहै धनंजय अयाची मिश्रक बेटा शंकरक दोसर अवतार छी। धनंजय बारहे-तेरह वर्षक उम्रमे बड़का विद्वान् भऽ गेल। इलाकाक लोक कहऽ लगलै- जेहने गुणमन्त बाप तेहने बेटा। किन्तु धनंजय उदास रहैत छल कारण जे बाप कहिओ नीक भाखा नहि कहथिन। ई कोनो विषयमे कतबो अंक आनय, परीक्षामे प्रथम घोषित होअए, कठिनसँ कठिन शास्त्रार्थ जीति कऽ आबय आ सोचय जे एहि बेर बाबू अवश्य प्रसन्न भऽ किछु कहता, किन्तु बाबू ओहिना धीर-गंभीर, किछु नहि कहलथिन। धनंजय अपन पिताक मुखसँ नीक गप्प सुनबाक लेल वा कोनो वाहवाहीक शब्द सुनबाक लेल ओहिना तरसय जेना उपासल पानि लेल तरसैत अछि। ओना बड़का-बड़का विद्वान् प्रशंसा करथिन, कतेको प्रसिद्ध विद्वान् हृदएसँ लगबथिन किन्तु पिताक मुँहसँ प्रशंसा सुनबाक हेतु मन रकटले रहै।
अठारह वर्षक उम्रमे धनंजय न्याय शास्त्रक एहन पोथी लिखलक जे सर्वत्र चर्चामे आबि गेल।
धनंजय अपन पोथी पढ़बाक लेल पिताकेँ देलक, किन्तु ओ पढ़ि घुमा देलथिन, किन्तु किछु कहलथिन नहि।
एक दिन धनंजय साहस कऽ केँ पिताकेँ पुछलक- बाबू, पोथी पढ़ि अहाँ किछु सम्मति नहि देलहुँ।
थोड़े आर परिश्रम करू।कहि पिता गंभीर भऽ गेलथिन।
धनंजयकेँ पिताक गप्प बहुत अधलाह लगलै, ततबे नहि, मनमे घोर प्रतिक्रिया भेलै। सोचलक- ई हमर शत्रु छथि, जावत जीता तावत हमर यश-प्रतिष्ठासँ जरैत रहताह, कहिओ प्रशंसा नहि करताह।से सोचैत-सोचैत बुझू बताह भऽ गेल। मनेमन निर्णय कएलक जे आइ रातिमे जखन ओ भोजन कऽ आङनसँ बहरेता तँ खर्गसँ गरदनि काटि पड़ा जाएब। अन्हरिया छैके केओ ने देखत।
दिन बीतल, साँझ भेलै आ तकर बाद राति। बड़का गुरुजी भोजन कऽ रहल छलाह, आगूमे पत्नी अंजनी बैसलि छलथिन। आ इम्हर धनंजय खर्ग लऽ कऽ ठाढ़ छल जे भोजन कऽ कोनटा लग औताह कि काटि कऽ पड़ा जाएब।
अंजनी कहलथिन- धनंजयक पोथीक सुनै छी बड़ चर्चा छै।
हूँ”- पत्नीक गप्पपर बड़का गुरुजी बजलाह।
एकटा बात कहू, तमसायब तँ नहि।अंजनी अपन क्रोधी पति बड़का गुरुजीकेँ पुछलनि।
कहू ने”- गुरुजी पुछलथिन।
पहिने कहू जे तामस नहि करब।
अच्छा नहि करब, पूछू।
अहाँ धनंजयपर तमसाय किएक रहै छियनि? ”
तमसाय किएक रहबनि? ”
अहाँ आइ तक हुनकर प्रशंसा कयलियनि? ” पत्नी गप्पपर बड़का गुरुजी बहुत हँसलाह आ कहलथिन- अहाँ नहि बुझै छिऐ।
हम बुझै छिऐ, ओ अहाँकेँ नहि सोहाइ छथि।
के एहन अभागल होएत जकरा बेटा नहि सोहेतै? बेटे एकटा एहन होइ छै, जकरा लोक अपनासँ पैघ देखऽ चाहैए।”- गुरुजी बजलाह।
ताहिपर पत्नी पुछलथिन- कहू तँ अहाँक बेटा केहन पण्डित छथि? ”
बहुत पैघ पण्डित छथि। हमरासँ बहुत आगू बढ़ि गेलाह।गुरुजी बहुत आनन्दमे अंजनीकेँ कहलनि।
ओहिना आनन्दसँ आनन्द लैत अंजनी पुछलथिन- ओ पोथी जे लिखलनि से केहन छै? ”
बहुत उत्तम, हम कएटा बात ओहि पोथीसँ जनलहुँ अछि, बूझू गदगद छी। धनंजय पुत्रे नहि, पुत्र रत्न थिकाह।
तखन हुनकर प्रशंसा किएक ने करै छियनि?”
पुनः पत्नीक गप्पपर भभा कऽ हँसैत गुरुजी कहलथिन- बुझलहुँ, हम हुनकर बाप छियनि, प्रशंसा करबनि तँ घमण्ड भऽ जयतनि आ तखन विकास रुकि जयतनि।
सुनू, हम अहाँक स्त्री छी। अहाँ जहिया हमर काजक प्रशंसा करै छी तहिया हम आरो नीकसँ काज करै छी। आ जहिया कोनोपर बिगड़ै छी तकर बाद आरो काज गड़बड़ा जाइए, ताहिपर अहाँ ध्यान देलिऐ? ”
हूँ...।कहि पत्नीक गप्पपर गुरुजी गंभीर होइत पुछलनि- अहाँ आइ ई सभ किए पुछैत छी? ”
अहाँ धनंजयकेँ पोथी दैत कहलियनि जे आर परिश्रम करू, से हुनका नीक नहि लगलनि।
अहाँ कोना बुझलहुँ? ”
हम माय छिऐ, हम ओतबो नहि बुझबै। तखनसँ हुनक माथ ठीक नहि बुझाइए।
ओ ज्ञानी छथि, हुनका हमर बातक कतहु क्रोध होइन? ”
तखन अहाँकेँ क्रोध किए होइए? अहूँ तँ ज्ञानी छी।
हँ, से...।पत्नी गप्पकेँ स्वीकारैत गुरुजी सोचैत भोजन करऽ लगलाह। मने-मन सोचलनि अंजनी ठीक कहैत छथिन।
ओम्हर कोनटाक अन्हारमे ठाढ़ गप्प सुनैत धनंजयक हालत विचित्र भऽ गेलै- ओ एहन महान पिताक हत्याक लेल ठाढ़ अछि? ओ वस्तुतः पण्डित नहि मूर्ख अछि।सोचैत धनंजय कानऽ लागल।
भोजन समाप्त कऽ गुरुजी ओसारापर सँ उतरि अङना अएलाह आकि धनंजय पएरपर खसि कनैत कहलक- बाबू हम बिना विचार कएने अहाँक हत्या कऽ दैतहुँ। हम बताह छी। हम मूर्ख छी। पातकी छी।
नहि धनंजय, अहाँ हमर हत्या करऽ लेल छलहुँ से बात नुका सकै छलहुँ, किन्तु अहाँ सत्यकेँ नुकेलहुँ नहि। अहाँ सत्यकेँ समक्ष अनबामे डरेलहुँ नहि। अहाँ वस्तुतः पण्डित छी।
नहि बाबू। हम क्रोधमे रही। अहाँक हत्या करब सोचलहुँ, तकर प्रायश्चित? ”
प्रायश्चित् भऽ गेल।
से कोना? ”
सत्यक खुलासासँ। आँखिक नोरसँ।
किन्तु बाबू? ”
बेटा धनंजय, आइ अहाँक प्रसङसँ हमहूँ किछु सिखलहुँ।
बाबू!
जावत क्रोध रहत तावत ज्ञान हँटल रहत। हम सभ दिन विद्या सिखलहुँ आ सिखौलहुँ किन्तु हमरामे क्रोधक स्वभाव रहबे कएल आ...।

आ की बाबू? ”
सभकेँ, जे काज करए ओकरा प्रोत्साहन दीऐ। आ कोनो बात केओ कहए वा नहि कहए, दुनू स्थितिमे सोची, से नहि कएने अहाँ सन ज्ञानी बापकेँ मारब सोचैत अछि।

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