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Monday, April 9, 2012

विजय हरीश- चारिटा विहनि कथा


छींट बला गमछा
हम हुनका दिस दैखलियै तँ ओ बैसले-बैसल मुस्किया देलखिन। कने आर लग जे गैलियै तँ ओ खिलखिला कऽ हँसि देलखिन। हम अतिउत्साहित भऽ हुनक आरो लग जे गैलियै तँ ओ कने सइटि कऽ कानमे कहलखिन–“भाइयौ हमहुँ अहींक जातिबिरादरी छी। आ अपन माथ परक छींटबला गमछा हटा देलखिन।
किकिऔनी
दुइ गोट लेखक मित्र छलाह। एकटा नव तँ दोसर पुरान। पुरान किछु हद धरि एक मोकामपर पहुँचि गेल छलाह। तँ नवका हुनका लग बेरबेर दौड़थि। पुरनका बेचारे आजिज भऽ गेल छलाह अपन नव मित्रसँ। मुदा बाजताह की? कहबाके लेल, मुदा छलथि तँ मित्र। एक दिन ओ कविताक माध्यमे अपन पीड़ा व्यक्त केलखिन आ कविताक शीर्षक देलथिनकिकिऔनी।
नोट- सगर राति दीप जरयसरसठिम कथा गोष्ठी, मानाराय टोल, नरहन (समस्तीपुर) मे पठित
भावीरणनीति
हम बच्चा सभकेँ ट्यूशन पढ़बैत छलहुँ। एक ठाम नव ट्यूशन शुरू करबाक छल। हम ओतए पहुँचलहुँ। मौसम कने गर्म छल। कुर्सीपर बैसते गमछासँ हाथमुँहपोछए लगलहुँ।
तखने कुसंयोगे हमरा दहिना आँखिमे किछु पड़ि गेल। आँखि लिबिरलिबिर करए लागल। बगलेमे बच्चा सभक दादी बैसल छलि। ओ हमरा दिस कने नजरि कड़ा करैत बाजि उठलीह–“हो मास्टर! आइ तोहर पहिले दिन छिअ आ हमरा तोहर छिच्छा नीक नञि बुझबै छअ
हुनकर ई गप्प हमरा टिकासन धरि लेसि देलक। मुदा हम पितमरू भेल हुनका कहलियनि–“नञि माताराम कोनो तेहेन गप्प नञि छै। हम तँ अपनेक आँखिक रोशनी टेस्ट करैत छलहुँ। किएक तँ ओहि हिसाबे ने हम अपन भावीरणनीति तेँ करब
तृष्णा
हमरा टोलामे एकगोटछल। नमरी कोढ़िया। पुरखाक अर्जल संपैत बेचिबेचिक जीवन भरि अपन आत्मिक आ शारीरिक सुख मौज केलथि। जीह तँ बहसले रहनि अय्याशो तेहने। हुनक गप्प सुनिक तँ नवका छौड़ा सभ आँगुरमे दाँत काटे लागैत छलै। अपन छुतहरपनीक लेल ओ प्रसिद्ध छलाह आ एहि आगाँ ओ धियोपुताक भविष्यक लेल कहियो नञि सोचलनि।
तँ समए एलनि तँ बेटापूतोह खूब ऐराठेन, खूब दुर्गज्जन करनि। ई रोजरोजक फजीहत देखि अड़ोसपड़ोस बलाक अनसहज लागि जानि मुदा हुनका लेल कोनो हरख वि‍षए नञि। एहि क्रममे एक दिन एकटा हुनके मेरिया आजिज भऽ बाजि उठलाहएह! हिनका जगहपर जौ दोसर कियो रहिते तँ निस्तुके बिख खा लित मुदा एहि चार्वाक प्रवृति इंसान लेल कोनो बात नञि। सभ किछुकए कुर्त्तामे पड़ल गदी जकाँ झाड़ि दैत रहथिन लागै जेना निर्लज्जताक सभ घाटक पानि ओ पीने रहथि। छिः छिः ऐना बेटा पूतोहूक खोरनाठबसँ मरि जाएब बेसतर एहेन जीनगी कतो मनुक्खल जीते।
संयोगे एक राति हुनके घर लग बाटे हम जाइत छलहुँ कि एकटा आवाज हमरा कानमे सुनाई पड़ल राम जानकी, राम जानकीहम अकनाबे लगलौं कि फेर वैह आवाज राम जानकी, राम जानकीरक्षा करहुँ प्राण की ओ अपन मचानपर पड़ल रटेत छलाह। कने मुसकीयाबेत हम आगाँ बढ़ि गेलौं।

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