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Sunday, April 8, 2012

संगी :: जगदीश मण्‍डल


संगी

बालि‍ग-नबालि‍गक सीमापर पहुँचल सुशील सतरह बर्ख सात मास पार कए चुकल। पाँच मासक उपरान्त बालि‍ग भऽ जाएत। शुक्र दिन रहने चारि क्लासक आशासँ समैपर कओलेज विदा भेल। संयोगो नीक, कओलेजक कम्पाउण्डमे पहुँचि‍ते घंटी बजल। वर्गमे बैसल बहुतो संगीक बीच सुशीलो। पहिल घंटी फोंक गेल। दोसरो-तेसरो-चारिमो तहिना। एक्को घंटी पढ़ाइ नै देखि‍ कियो खुशीसँ समए बितबैत तँ कियो बन्द कोठरीमे जेठक दुपहरिया बिनु पंखे बितबैत रहए। ओइमे सँ एक सुशीलो रहए।
कनैत मने सुशील क्लासक कोठरीसँ निकलि डेरा दि‍स विदा भेल। मनमे एलै- कि हमरा सबहक जिनगी, पोखरिक पानि जकाँ चारू भरसँ घेराएल अछि वा पहाड़सँ निकलैत नदी जकाँ समुद्र दि‍स बढ़ैत अछि
डेरा एलाक उपरान्तो सुशीलक मनमे बेचैनी बढ़िते गेल। उन्मत्त सुशील कि‍ताब-काँपी रैकपर फेकैत बिनु देहक कपड़ा आ पएरक चप्पल खोलनहि चौकीपर ओंघरा गेल। जेना मन काबुएमे ने होइ तहिना बेसुधि। पहिल घंटीक पढ़ाइ किअए ने भेल? नजरि दौड़ौलक तँ देखलक जे ओइ विषयक तँ शिक्षके नै छथि तँ पढ़ैब‍तथि के? मनमे हँसी उपकलै। मुदा फेर मन घुमल। बिनु शिक्षकक शिक्षण संस्था केना चलि सकैत अछि। कि एकरा प्राइबेट संस्थाक बाट खोलब नै कहबैक? कि सार्वजनिक शिक्षण संस्था बाघक खाल ओढ़ल संस्था तँ ने छी। मन घुसुकि दोसर घंटीक विषयपर पहुँचल। एगारह सए विद्यार्थीक बीच एकटा प्रोफेसर छथि। तहूमे जहियासँ इन्चार्य भेलाह तहियासँ क्लासक कोन बात जे विभागक स्टाफो रूम छोड़ि प्रिंसिपलेक कुरसीपर बैसए लगलाह। जहिना ईंटाक देबाल लेटरीन आ कीचेनक दूरी बनबैत तहिना छात्रक पढ़ाइ आ नब बेतनक हि‍साब दूरी बनौने। अधखिलल फूल जकाँ, जेकरा ने कोंढ़ी कहबै आ ने फूल तहिना सुशीलक मन बीचमे पड़ि गेल। मनमे उठलै मधु दइबला माछीकेँ विधाता ओहन डंक किएक देलखिन। मुदा मन तेसर घंटीक विषयपर गेलै। तीन शिक्षक। तहन किअए ने पढ़ाइ भेल। ई तँ ओहन विषय छी जे बिनु पढ़ौने विद्यार्थीकेँ बहुत अधिक कठिनाइ हेतै। प्रोफेसरपर नजरि पड़िते देखलक जे के एहेन बेपारी हएत जे समए पाबि अपन सौदाकेँ महग कए कऽ नै बेचत। एहेन काज तँ वएह बेपारी कऽ सकैत अछि जेकर मन बैरागी होइ। मुदा मन ठमकलै। ने आगू बढ़ै आ ने पाछू हटैले तैयार होय। जहिना जीरो डिग्री अंक्षांससँ सूर्ज मकर रेखा दि‍स बढ़ैत तँ कर्क रेखा दि‍स विपरीत समए हुअए लगैत, तहिना तँ ने भऽ रहल छै। एक दि‍स घर-घर शिक्षा आ दोसर दिस सोनो-चानीसँ महग। जहिना गरीबक घरसँ सोनाकेँ दुश्मनी छै तहिना कि शिक्षोक भेल जा रहल छै। मन आगू बढ़ि चारिम घंटीपर पहुँचलै। तीन शिक्षक तँ अहू विषयक छथि। तहन किएक ने पढ़ाइ भेल? एक गोटे सीनेटक चुनावक तिकड़ममे लगल छथि मुदा तैयो तँ दू गोटे छथिये। एक गोटे तेरहम दिन रिटायर करताह। मनमे खुशी उपकलै। जहिना मरै समए किछु दिन लोक दुनियाँसँ कारोबार समेटि‍ घरक ओछाइन धड़ैत अछि तहिना तँ हुनको धड़ैक चाहियनि। सोगेसँ ने रोग होइत अछि। तेरहे दिनक उत्तर दरमाहा आधा भऽ जेतनि। समए तँ अहिना जहिना बिनु पढ़ौने, कौलेज नै अएने बीतलनि, रहतनि‍। तँए सोग होएब अनिवार्य आ काज नै करब आवश्यक छन्हिये। मुदा तेसर तँ सभसँ अलग छथि। ओ किअए ने एला। नजरि दौड़ैबि‍ते देखलक जे ओ तँ सप्ताहमे एक दिन आबि छबो दिनक हाजरी बनबै छथि। शनि तँ काल्हि छिऐ आइ केना अबितथि? एते मनमे अबिते सुशीलक आँखि झलफलाए लगलै। मन खलिआएल बूझि पड़लै। उठि कऽ चप्पलो आ पेंटो-शर्ट खोललक। लूँगी बदलि‍ते पानि पीबैक मन भेलै। कोठरीसँ निकलि कलपर हाथ-पएर-मुँह धोअए गेल। पानि पीबि‍ते मन हल्लुक बूझि पड़लै। मुदा जहिना खढ़हाएल खेतमे हरबाहकेँ हर जोतब भरिगर बूझि पड़ैत तहिना सुशीलक मन समस्याक बोनाइल रूप देखलक। कओलेजकेँ बीचमे देखि‍ सीमा दिस बढ़ौलक। एक सीमा सर्वोच्च शिक्षण दिस पड़लै तँ दोसर गामक टटघर स्कूलपर। जहिना पहाड़सँ निकलि अनवरत गतिसँ चलि नदी समुद्रमे जाए मिलैत अछि तहिना ने टटघरेक ज्ञान उड़ि कऽ सर्वोच्च ज्ञानक समुद्रमे मिलत। एते विचार अबि‍ते गाछसँ गाछ टकराइत आगिक लुत्तीकेँ छिटकैत देखलक। ई लुत्तीक आगि तँ कोसक-कोस सुक्‍खल लकड़ीक संग-संग लहलहाइत फुलल-फड़ल गाछकेँ सेहो जरा दैत अछि। जहिना सघन वनमे रस्ताक ठेकान नै रहैत तहिना सुशील कोनो रस्ते ने देखए। मन अपन उमेरपर गेलै। सतरह बर्खसँ ऊपर। अठारहमक बीच। अठारह बर्ख पुरलापर चेतन भऽ जाएब। मुदा हमर चेतना कहिया जागत जे बाहरी दुनियाँकेँ अंगीकार करब। आकि देखि‍ कऽ छोड़ि देब। स्कूल-कओलेजक पढ़ाइक तँ यएह गति अछि। जहिना एक-एक ईंटा जोड़ि वि‍शाल अट्टालिका बनैत अछि‍ तहिना ने कने-कने सीख बाल चेतनाकेँ पैघ बना सकै छी। ई के करत? ई तँ अपनहि केने हएत। मन शान्त भेलै। नजरि देलक गामक ओइ बच्चापर जे माएक मुँहसँ लुक्‍खी सीखैत अछि मुदा स्कूलमे प्रवेश करिते गिलहरीसँ भेँट भऽ जाइ छै। कि हमर मातृभाषा गामो धरि नै अछि। कि हिमालय पहाड़सँ गंगा कूदि-कूदि रास्ता टपि समुद्रमे पहुँचैत अछि आकि नीच-ऊँचक रास्ता टपैत समुद्रमे पहुँचैत अछि। ज्ञान-कर्मक बीच भक्ति होएत। की बच्चाकेँ कर्मरूपी माएसँ सीख ज्ञान रूपी गुरुसँ मि‍लि‍ पबैत अछि। जँ से नै तँ माए-बाप गुरु केना? गामक स्कूलसँ नजरि हटि मिड्ल स्कूल आ हाइस्‍कूलपर पहुँचलै। कतौ हाइस्‍कूलसँ क्लास काटि मिड्ल स्कूलमे जोड़ाइत अछि तँ कतौ कओलेजक क्लास हाइस्‍कूलमे। जहिना क्लास तँ कटि कऽ चलि अबैत तहिना शिक्षको अबैत। पढ़निहार तँ विद्यालय पैदा कऽ दैत अछि‍ मुदा पढ़ौनिहार केना...। आगू बढ़ैत सुशीलक मन कओलेजमे नै अँटकि विश्वविद्यालय पहुँचि‍ गेल। मनमे उठल जिनगीक पाँचम (भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्साक उपरान्त) आवश्यक शिक्षा छी। ओना शिक्षण संस्था अनन्त अछि। मुदा एक सीमाक भीतर सेहो अछि। कियो अपना डेरापर पोथी उलटा प्रश्नक जबाब अपन परीक्षाक कॉपीमे लिखैत अछि तँ कियो पढ़ाइक अभावमे प्रश्न पत्रो ठीकसँ नै बूझि पबैत अछि। कि‍ दौड़मे के आगू बढ़त? कियो मार्कसीटे कीनि‍ लैत अछि। कि‍ शिक्षा सन समस्याकेँ बेदरा-बुदरीक खेतमे बनाओल गरदा-गुरदीक घर-आंगन छी? चिन्तासँ मातल सुशील निराश भऽ ओछाइनपर ओंघराएले रहल। चिन्ताक वनमे चिन्तनक गाछ कतौ देखबे ने करए जइसँ आशाक फल देखैत। सुतल शरीर आरो सुति रहल।

कओलेजसँ आबि वसन्ती कोठरीमे किताब-काँपी रखि सोझे माए लग पहुँचल। जलखइक छिपली वसन्तीक आगूमे बढ़बैत माए बाजलि- बुच्ची, उदास किअए छह?”
अपनाकेँ छिपबैत वसन्ती बाजलि- नै, नै। उदास कहाँ छी?”
वसन्ती अपन वसन्ती-बहारकेँ छिपबैक कोशिश करैत मुदा जहिना शरीरक रोग तरे-तर बिसबि‍साइत रहैत अछि तहिना मनक रोग वसन्तीकेँ। मनमे नचैत रहै‍ कओलेजक पढ़ाइ आ अपन जिनगी। सुशील आ वसन्ती संगे पढ़ैत। पढ़ाइ नै हेबाक सोगसँ सोगाएल वसन्ती माएसँ आगू गप्प नै बढ़ा बि‍स्कुट खा चाह पीब चुपचाप अपन कोठरीमे आबि उतान भऽ ओंघरा गेलि‍। सिरमापर माथ देने दुनू बाँहि समेटि‍ कऽ मोड़ि छातीपर रखि अपन जिनगी दिस ताकए लगल। आजुक शिक्षा लऽ कऽ की करब? माए-बापक संग जे अन्याय भऽ रहल अछि कि ओ एक इमानदार बेटीक दायित्व नै बनैत जे आगूमे आबि ठाढ़ हुअए। आजुक शिक्षाक रूप एहेन बनि गेल अछि जे सरकारी स्कूल-कओलेजमे पढ़ाइ नै भऽ रहल अछि। तइपर एते महग शिक्षा भऽ गेल अछि जे अपन बेटा-बेटीक शिक्षा लेल बाप-माए अपन जिनगी तोड़ि, खूनक घूँट पीब कऽ जीवन-बसर करै छथि। जेकर परिणाम कि भेटैत छन्हि तँ जेहो अपन बनाओल आकि‍ पूर्वजक देल जे सम्पति‍ रहैत छन्हि बेटीक बि‍आह करबैमे देमए पड़ैत छन्हि। बीस लाख रुपैया खर्च कए डाक्टरीक शिक्षा बेटीकेँ दि‍याउ आ तइपर सँ बीस लाख ि‍बआहोमे चाही। ओइ डॉक्टर सभसँ पूछै छियनि जे देशक प्रथम श्रेणीक नागरिक होइतो अपन अन्याय नै रोकि सकैत छी तँ कि आशा अहाँसँ कएल जा सकैत अछि। माघक शीतलहरीमे जाड़-भूखसँ ठिठुरल बच्चाकेँ जीबैक उपाए अहाँ कऽ सकबैक?
मन आगू बढ़ि अपनापर एलै। बी.ए. पास कऽ शिक्षिका बनब। पति या तँ किसान, बेपारी आकि‍ नोकरिहारे किएक ने होथि महिलाक संग जे असुरक्षा बढ़ि रहल अछि ऐमे कत्ते गोटे अपनाकेँ सुरक्षित बूझि रहल छथि। कि कओलेज-हाइस्‍कूलक विद्यार्थी अपन अध्यापिकाकेँ ओहने नजरिसँ देखैत अछि जइ नजरिसँ अध्यापककेँ। की अदौसँ अबैत हमर संयुक्त परिवारक सामाजिक ढाँचा रूपी धरोहर, गाछसँ खसल पाकल कटहर जकाँ आँठी उड़ि कतौ, कोह उड़ि कतौ, कमड़ी खोइचा थौआ भेल एकठाम आ नेरहा ओंघराइत कतौ, तहिना आँखिक सोझमे नष्ट भऽ जाएत। दुखद घटनाक जबाबदेह के? गामक बच्चाकेँ स्कूलसँ लऽ कऽ कओलेज धरि एते तरहक गाड़ीक आबाजसँ लऽ कऽ लाेडस्पीकरक आबाज धरि कानमे पड़ैत अछि। जइठाम गप-सप्प करब कठिन भऽ जाइत अछि तइठाम पढ़ाइक की दशा होएत।
एत्ते बात मनमे उठैत-उठैत परा-अपराक क्षितिजपर वसन्ती अँटकि गेलीह। जहिना शिशिर-ग्रीष्मक बीच वसन्तक स्‍वागत गाछपर बैस कोइली अपन जुआनीक इठलाइत राग-तानसँ करैत अछि तहिना वसन्तीक स्‍वागतक लेल होरी खेलाइत राधा-कृष्ण सेहो वृन्दावनमे प्रतीक्षा कए रहल छन्हि। अबीर उड़बैत राधा अपन पौरुख देखबैत अखाड़ाक माटि लऽ हाथ मिलबए चाहैत छथि तँ कृष्ण पाछू घुसकैत पिचकारीक निशान साधि कखनो गुलाबी रंग फेकए चाहैत छथि‍ तँ कखनो हरिअरका। आँखिपर नजरि पड़िते तँ कारी रंग मनमे अबनि मुदा निशाने साधैक बीच राधा सतरंगा अबीर मुँहपर फेकि‍ देलकनि। मुँहपर अबीर पड़िते दुनू हाथे कृष्ण मुँह-कान पोछए लगलथि। आकि हाथसँ पिचकारी खसिते राधा आगू बढ़ि दुनू बाँहि पसारि हृदैसँ लगबैत वि‍ह्वल भऽ निराकार-साकारक बीच दुनू हँसए लगलथि। नम्‍हर साँस छोड़ैत वसन्तीक मनमे उठल- धरतीपर किछु करए लेल संगीक जरूरति‍ अछि। जा धरि पुरुख-नारी मि‍लि‍ अपन समस्याक लेल अपन पौरुखकेँ नै जगाओत ताधरि सपना साकार केना भऽ पाओत।
ओछाइनसँ उठिते सुशील सूर्जक किरिणकेँ देखए लगल। देबालक एक छोट भूर देने रोशनी कोठरीमे प्रवेश करैत छल। सूर्जक ओ रूप नै जइठाम आँखि नै टिकैत। मुदा कोठरीक रोशनी ओहन नै। पातर-कोमल। बिजलौका जकाँ सुशीलक मनमे उठल पुरुष-नारीक बीच सृष्टि निर्माण करैक शक्ति अछि तहन जँ ओ नान्हि-नान्हिटा समस्यामे ओझरा जाए, कत्तेक लाजिमी छिऐक। कोठरीसँ निकलि सुशील वसन्तीसँ भेँट करैक वि‍चार केलक।

प्रात भने क्लासक संगी वसन्ती ऐठाम पहुँचल। टेबुलक एक कोणपर पोथी गेंटि कऽ राखल। एकटा कि‍ताब आ काँपी आगूमे पसड़ल आ पेन सेहो खोइल कऽ राखल मुदा कुरसीपर ओंगठि आँखि बन्न केने वसन्ती अपन वसन्ती-बहारपर नजरि अँटकौने रहए। जहिना वसन्त साले-साल अबैत आ जाइत अछि तहिना कि मनुष्योक जिनगीमे वसन्त अबैत आ जाइत अछि? कथमपि नै। मनुखक जिनगी तँ ओहन होइत अछि जइमे वसन्त एलापर पुनः जाइत नै छै। दिनानुदिन बढ़ैत-बढ़ैत समुद्र जकाँ महा वसन्त बनि जाइत अछि। एते बात मनमे अबि‍ते देह चौंकि गेलनि। हृदए सिहरए लगलनि। मुदा अपनाकेँ संयत करैत धियान वसन्त ऋृतुपर देलनि। ऋृतुपर नजरि पड़िते देखलनि जे एकठाम फसल लगल चौरस खेत, सुन्दर-सुन्दर गाछसँ सजल बगीचा जइपर खोंता लगा रंग-बिरंगक चिड़ै अपन मधुर स्वरसँ वसन्तक स्‍वागत करैत अछि। तँ दोसर कोसीक बाढ़िसँ नष्ट भेल ओ इलाका जइमे बालुसँ भरल ढि‍मका-ढि‍मकी बनल खेत, गाछ बि‍रि‍छक अभाव देखि‍ कनैत चिड़ै रहैक ठरक दुआरे छोड़ि पड़ा गेल। कि ओइठाम चैत-बैशाखकेँ वसन्त ऋृतु नै कहल जाइत अछि? अथाह समुद्रमे वसन्ती कखनो उगए तँ कखनो डुमैत रहए। अनायास नोरसँ आँखि ढबढबा गेलनि। नोर केहेन? दुखक आकि क्रोधक। ओढ़नीसँ वसन्ती नोर पोछितहि रहथि कि सुशील कोठरीक दरबज्जापर सँ बाजल- वसन्ती ।
वसन्ती कानमे पड़िते धड़फड़ा कऽ कुरसीसँ उठि दुनू हाथ आगू बढ़बैत वसन्तीक मुँहसँ निकलल- सुशील।
कुरसीपर सुशीलकेँ बैसाए अपने बगलक कुरसीपर बैस पूछलि-  पढ़ाइ-लिखाइक की हाल-चाल?”
सुशील- कॉलेज छोड़ैक विचार भऽ रहल अछि
सुशीलक बात सुनि अकचका कऽ वसन्ती पुछलक- किअए?”
-“कओलेज सहित शिक्षाक जे दुरगति देखि‍ रहल छी ओइसँ मन दुखी भऽ रहल अछि। ऊपरी ढाँचा किछु देखि‍ रहल छी आ भीतरी किछु आर छै।
सुशीलक बात सुनि वसन्ती बाजलि- सिर्फ अहींटा दुखी छी आकि आरो गोटे छथि।
वसन्तीक बात सुनि सुशीलक विचार ठमकल। मुँहसँ निकलल- अखन धरि जे देखलौं ओइमे नगण्य दुखी भेटलाह आ अधिकांशकेँ कोनो गम नै
किछु तँ भेटलाह?”
मुदा ओ कहिया तक संग रहताह एकर कोन ठीक। जँ रस्तेसँ घुरि जाथि आकि‍ हलवाइक कुकुड़ जकाँ रसगुल्ला-जि‍लेबीक रस चाटए लगथि।
अहाँ जे कहलौं ओकरो हम नै कटै छी मुदा एकर अतिरिक्तो किछु छै?”
से की?”
जँ पुरुष-नारी मि‍लि‍ सृष्टिक निर्माण कऽ सकैत अछि तँ कि कोनो व्यवस्थाकेँ नै बदलि‍ सकैत अछि
बदलि‍ सकैत अछि मुदा ओकरा लेल.....।
हँ। ओकरामे पौरुख चाही। पौरुख सिर्फ पुरुखेक धरोहर नै मनुख मात्रक छी। गललसँ गलल आ सड़लसँ सड़ल व्यवस्थाकेँ हमहीं-अहाँ ने संग मि‍लि‍ बदलि‍ सकै छी।
वसन्तीक बात सुनि, नम्‍हर साँस छोड़ैत सुशील बाजल- ओहन संगी कतए भेटत?’’
संकल्प स्थलपर।- वसन्ती बाजलि।
ओ स्थल कतऽ अछि?”
दुनियाँक एक-एक इंच जमीनपर।
संकल्पक विधान की?”
आत्माक मिलन।कहि दुनू गोटे दहिना हाथ मिला संग-संग जीवन जीबाक बचन एक-दोसराकेँ देलक।
ःःःःःःःःःः

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