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Monday, April 9, 2012

आशीष चमन - पछता रोटी




‘की रौ भीम! मोटरसाइकिल सभक बहुत भीड़ देखैत छियैक....’’ गजीन्‍दर बाबूक ओहिठाम करमान लागल लोक सभकेँ देखैत ओ पुछलकैक ....ओहिकाल भोरूक लगभग छओ बजैत छलैक....। ’गजीन्‍दर बाबू मरि गेलथिन....’। ओंघाएल स्‍वरेँ भीमा उतारा देलकैक। ओकर बढ़ैत डेग अकस्‍तात् रूकि गेलैक आ अनायास मुँहसँ निकललैक-‘अँय कखनि....आ की भेल छ‍लनि हुनका? 
‘की भेलैक? किछुओ नहि, रातिमे केहन बढि़या छलथिन, किन्‍तु अकस्‍मात्। भीमा पूर्ववते जेकाँ बाजल।
ई कने काल लेल गुम्‍म पड़ि गेलैक। ओम्हर भीमाकेँ ओहिठामसँ जल्दी हटबाक हलतलबी छलैक मुखाकृतिपर एकरा उद्वेग तकरा ओ दबने छल-, किन्‍तु ओ पहिने कोना हरितए चमन भैया ठाढ़ छथि अपनासँ दस पनरह बरखक जेठ। ओकर आतुरताकेँ पारेख करैत ई ओतए ससरि कऽ चलि गेलैक जतए दुइ जन अपनामे बात करैत सिकरेट धुकैत छलैक, ओतए ई सहारेकेँ देखलैक, भीमा मनोयोग पूर्वक भरि रातुक संचित लग्‍धीकेँ बहार कऽ रहल छलैक, एकरा निवृत्तिक भावकेँ अपन चेहरापर पसारने ।
’ओ स्वाइत!’ ओ मोनहि-मोन बाजल आ आगाँ चौबटिया दिशि बढि़ गेल।
चौबटिया, लग आबल जा रहल छलैक- ओकरा अजय चौधरीक ओहिठाम जयबाक छलैक। अजय चौधरी पानमसाला, सिकरेट सभक फेरिया छल जे साइकिलपर माल लादि गामे-गाम आ हाट-बाजार सभमे बौआइत रहेक, किन्‍तु किछु लक्ष्‍मी कृपा आ किछु जन्‍मजात वाणिक बुद्धि एहि दुनुक संयोगसँ ओ दुइये-तीन बरखमे कमा कऽ टाल लगा देने छलैक....। ओ ओकरे लग जा रहल छल उपेक्षा आ बेकारी भरल जिनगीसँ त्राणण्‍यबा लेल, किछु राय विचारक हेतु अपन पुरान जान-चिन्‍हक संचित निधि लऽ कऽ। ओ भरि रातुक संकल्‍प लऽ कऽ भोरे चलल छल जे प्रात-काले ओकरासँ भेंट भऽ सकैत अछि, भरि दिन तँ ओ पतनुकात धयने रहैत अछि।
ओकर मोनमे विभिन्‍न प्रकारक विचार उठि-बैसि रहल छलैक। ‘गजीन्‍दर बाबूक मृत्‍यु....,तीनटा लड़का दुइटा तँ बड्ड कमबैत छैक मुदा जेठका कने गड़बड़ा गेलैक- तकरा सम्‍हारक लेल ओ दोकान खोलि देलथिन-ओना दोकान पहिनो दुइ-दुइ बेर खोलल गेल छलैक मुदा तकरा ओ खा पका नेने छलैक.... तेँ एहिबेर ओ-स्‍वयं बेसीकाल बैसथि....एकटा आशा तीन फूके चानीक-ओवर बेटा माने अपन पोताकेँ ओ मोट डोनेशन दऽ कऽ राँचीक इस्‍कूलमे भर्ती करौलनि-बेटा नहि तँ की भेलैक पोते सु‍तरि जाइक-एकरा मृग-मरीचिका....।
ओ आब चौबतिया लग आबि गेल छलैक भोरूका पहरमे चाहक दोकानपर भीड़ कने बेशीये रहैत छैक ओ सोझे आगाँ बढि़ गेलैक आ थोड़े दूरक बाद एकरा गली होइत अजय चौघरीक घर लग आबि गेलैक....।
‘की यौ चाचा जी! अजय बाबू उठलाह....?’ अपन स्‍वरमे चीनीक चाशनी सन घोरैत ओकर शिक्षक पितासँ पुछलकैक....।
‘अबह आबह! अजय लैट्रिनमे छैक....। ई कहि गृहपति ओहिठाम पहिनेसँ बैसल आन लोक सभसँ गप्‍प करए लगलाह....। एकरा पेटमे खलबली छलैक- ‘गजीन्‍दर बाबूक’
घरसँ ई घर आधा माइलपर छैक आ एतेक भोरमे ई घटना एकरा सभकेँ तँ नहियेटा बूझल होयतैक....। ओ चर्चा करए चाहैत छल गजीन्‍दर बाबूक असामयिक निधन करि। हुनक शिक्षक संघक विषएमे, हुनक व्‍यक्ति व ओ कृतित्‍वक चर्चा कऽ ओ स्‍वयं ओहि दरबज्‍जापर बैसल समस्‍त लोकक केन्‍द्र-बिन्‍दु बनऽ चाहैत छल....लोक सभकेँ चौकाएब अचंभित करए चाहैत छल- ‘अँय कखनि मुइलाह गजीन्‍दर बाबू? आ हा-हा-केहन स्‍वस्‍थ लोक रहथि ....भगवानक लीला अपरम्‍पारक कहू चमनजी अहाँ कखनि बुझलहु आदि आदि....।
ओ, बाजब शुरू कयनहि छल कि दीर्घ-श्‍वास छोड़ैत गृहपति बाजि उठलाह-‘ की करबहक ओहिना होइत छैक....बड्ड नीक लोक छलाह....शिक्षक समुदायक बड्ड पैघ हितैषी....,हुनक देहावसानसँ हम सभ लोक बड्ड मर्माहत छी....।
’के मुइलाह? ‘उपस्थित लोक-सभमे सँ एक गोटे पुछलथि।
’अरे वैह मास्टरसाहेब ने रातिए....।’ दोसर गोटे यन्‍त्रवतद्य सन बाजल....।
अच्‍छा तँ वैह ने....।’
‘अच्‍छा तँ ई बात एकरा सभसँ हमरा पहिने बुझल छलैक आ एकटा नव गप्‍प ई जे गजीन्‍दर बाबू भोरमे नहि अपितु रातिए मुइलाह....ई खबरि एकरा सभक लेल आब बासी भऽ गेलैक अछि....।“ओ सोचए लागल....। ता धरि अजय आबि गेल छलैक....।
ओतएसँ घुमलाक बाद ओ पुन-चौबटिया लग ठाढ़ भऽ गेलैक....। चाहक दोकान लग आब भीड़ बेसी भऽ गेल छलैक। एकरा नेता सन लोक-चाहक मफाएल गिलास धऽ कऽ भाषण झाड़ि रहल छलैक मुदा महगीक छैक आ केन्‍द्र सरकारक पतनकेँ भविष्यवाणी सेहो-आगाँ, के सरकार बनाओल तकरापर विचार-विमर्श चलि रहल छल।
मोहल्‍लाक एकरा पैघ व्‍यक्तिक मृत्‍युपर कोनो चर्चा नहि भऽ रहल छलैक ओ कनेकाल ठाढ़ रहल आ फेर घुमिते चाहैत छल की लतीफ भेटलाह- ‘की यौं पंडीजी! अहाँक पीसा छथि, की गाम गेलाह’? 
लतीफ एहि गा्मक पुरान काश्तकार अछि आ पीसासँ मोकदमाबाजी सेहो करैत अछि....। उत्तर देलाक बाद ओ जहाँ गजीन्‍दर बाबूक चर्चा शुरू कयलक तँ लतीफ बाजि उठल-‘अल्‍ला हो अल्‍ला’! ज‍खनि सुनलियेक तखनिसँ भरि राति नीन्‍दे नहि भेलैक....।
ई सुनितहि ओ आगाँ बढि़ गेल ओ अपन विचारक कड़ीकेँ सोझराबए चाहिते छल कि ‘बड़े’ भेट गेलैक। बड़े माने अनिल झाक माझिल बेटा-ब्रेन पारालैसिसक पुरान शिकार, आब कने सुधारक संकेत देखैत छियैक ओकरामे....।
अनिल भैया ओकरा लेल चौराहापर “सोना जेनरल स्‍टोर” खोलि देने छथि आ बेटाक बदलामे स्‍वयं बेसीकाल गद्दीपर बैसैत छथि....। ओ मजाकमे बेसीखन बजैत रहैत अछि-‘की यौ भाय साहेब! खोललहँ बड़ेकेँ लेल आ बैसेत छी अपने....।
अनिल बाबू बिझुँसैत उत्तर दैत रहैत छथि- ‘की करबैक ओहिना होइत छैक चिल्‍हकाक लाथे चिल्‍हकौर सेहो....।’
बड़े राति कऽ दोकानेमे सुतैत अछि। ओ बड़ेकेँ सभ दिन जेकाँ एखनुहुँ सैल्‍युर ठोकैत अछि....। ओ ओकर स्‍वाभाविक मित्र अछि भातिज नहि समान धर्मा....।
ओ कहि उठैत ‘अछि- ‘चचा! गजीन्‍दर बाबू, आ आँगुरकेँ आडर केर मुद्रामे उठा दैत अछि।
ओफ्फ! तँ ईहो बूझि गेल अछि?’ ओ पुन: घर दिशि विदा भऽ जाइत अछि।
गजीन्‍दर बाबूक घरसँ एकर घर कने बेसी दूरपर छैक बीचमे जनशून्‍यता छैक आ बसबिटारि तथा कलमबाग सेहो छैक....। 
‘निश्चित रूपसँ हुनक मृत्युक खबरि घरपर नहि गेल होयताह’ ओ झटकि कऽ विदा होइत अछि कत्तहु नहि रूकबाक संकल्‍प लऽ कऽ–मुदा ओकर मोनपर विचार पुन-हावी भऽ रहल छैक-‘बड़े पारालौसिसक शिकार अबोध रहि गेल मस्तिष्कबला एकरा जवान मानव देह धारी, गजीन्‍दर बाबूक जेठ नशेरी बालक, दुनूक पिता करि अपन-अपन ओहि अक्षम सन्‍तान लेल भगीरथ श्रम....।
ओकरा लगलैक जे गजीन्‍दर बाबूक नशेरी बालक आ बड़े चलि रहल अछि आ जाइत लटपटा कऽ खसि पड़ैत अछि दुनू बूढ़ पिता अपन-अपन धोती सम्‍हारैत दौगैत छथि आ भीजल स्‍वरसँ पूछि रहल छथि- ‘बाज’ चोट तँ नहि लगलौ?’
ओ आँखि मुनने कने बिलमि जाइत अछि। फेर ओ देखैत अछि- जे ‘पुन’ ओ दुनू जा रहल अछि आब दुनूक घरपर एक-दोसराक मूड़ी लागि गेलैक अछि फेर ओहि घरपर सँ मूड़ी फिर भऽ गेलैक अछि।’ सभटा असंगत लेतरल चित्र सभ, चलचित्र जेकाँ एकर मानस पटलपर आबऽ जाऽ लगलैक....।
एक दिशि गजीन्‍दर बाबू अनिल भैया आ दुनूक सं‍तान, एकटा ई आ एकटा एकर बाप....? सर्वत्र, स्‍वरचित, कपोल कल्पित एकर अक्षमताक ढ़ोलहा पीटैत....।
ओकर मोन तिवूत भऽ गेलैक, भेलैक जे ‘वैह कियैक ने अनिल झा आ गजीन्‍दर बाबूक बेटा भऽ कऽ जनमलैक....बस अक्षमे सही....।
ओ एक बेर मूड़ी झमकारलक आ पुनः घर दिशि बिदा भऽ गेल-विचार पुन: अपन तारतम्‍य बैसाबए लगलैक- ‘ओ गजीन्‍दर बाबूक मृत्‍युक खबरि सभसँ पहिने बाँटि, लोककेँ अचांभित करैत पहिने पत्‍नीकेँ कहतैक....घरबाली एकरासँ सोझ मुँहे कहियो नहि बजैत छैक...,जेना झुरापित्ती सन उठल रहैत छैक....।
पत्‍नीकेँ संमाद देतैक ओ अपन प्रकृतिक अनुरूपेँ लहोछिकेँ पुछतैक- ‘के गजीन्‍दर बाबू’?
तकरा अनसून करैत ओ बाजत- ‘अरे! वैह राजाक दादा! वैह राजा जे अपन सनिक संग पढ़ैत छलैक आ आब राँचीमे एडमीशन करौलक अछि....।’
पत्‍नी आँखि गोल करैत कहतीह- ‘अच्‍छा तँ ओ....? । ओ तकर बाद बुढि़या माए अर्थात् दादी लग जाएत, बूढ़ी एकरा आइ-काल्हि मछी दैत छथि....। अरे कियैक नहि, जखनि घरक मुखिया सभ नहि छलथिन तँ वएह ने ओहि राति बुढ़ि‍केँ दर्द भेलापर अड़ोस-पड़ोस एक करनैत दवाइ विरोक व्यवस्‍था कएने छलैक....। बूढ़ी सिनेह देखबैत बजने छलथिन- ‘तँ हौ बच्‍चा! तोँ नहि रहितह तँ हमर प्राण नहि बचितह....।
पहिल बेर ओकरा अपन व्‍यक्ति व सम्‍पूर्ण रूपेँ सार्थक बुझना गेलैक....। जे-सें ओ बूढ़ी लग जाइत आ एहि आकस्मिक मृत्‍युक ओकरा हाल-चाल कहत....। तखनि दुइ-चारि आँगनमे हल्ला मचि जयतैक- ‘कखनि मुइलाह आ हा-हा....ओ....हो....तो कोना बुझलहक हौ चमन....।
तखनि ओ फडि़छा फडि़छा कऽ आद्योपान्‍त सभ गप्‍प कहत आ लोक सभ ओकरा दिशि मुँह बाबि ताकत...सर्वत्त चमन, क्षणभंगुरे सही मुदा सर्वव्‍यापी चमन....।
ई सोचैत ओ आँगन दिशि विदा भेल। ड़योढ़ी लग पत्‍नी छिटटा छाउर काढ़ने जाइत छलीह, ओ डुर्लास कऽ बाजल- ‘अइ सुनैत छी।’
पत्‍नी छाउरक छिट्टा उनटबैत लहोछि कऽ बजलीह-‘इह कमैनी ने धमैनी आ टहंकार केहन....एकोटा जारनि काठी ने....छओड़ाकए इस्‍कूलक भऽ रहल छैक ऊपरसँ छओंड़ीक नंगो-चंगो....आइ ओकरा हम खून कऽ देबैक। ‘ई कहि ओ द्रुतगति आँगन गेलि आ बेटीकेँ ओध-बाध उठाबऽ लागलि.... छओंड़ी चीत्‍कार कऽ उठलि....।
एकर भीतरमे आक्रोश बिरंड़ो तांडव करए लगलैक तकरा दबौने ओ दादी गेलैक, आ बाजल ‘बुढि़या माँ गइ। गजीन्‍दर बाबू....।’
बूढ़ी बातकेँ बिच्‍चन्‍हसँ कटैत बजलीह-‘हम तँ रातिये बूझि गेल हूँ....आह केहन भद्र लोक....एकूटा हम छी....हमर बही जमराज लगसँ हरा गेल अछि, आं आगाँक जनमल लोक सभ उठल जा रहल अछि।’
‘अ‍च्‍छा तँ ईओ बुढि़या बुझि छल....त‍खनि हमही देरीसँ बुझलहुँ....सत्ते हम पिछड़ल छी-पत्‍नी ठीके कहैत अछि जे अहाँ पछता रोटी खएने छी....।’
ओ स्‍वयंकेँ धिक्‍कारऽ लागल ओकर समस्‍त उत्‍साह आब तिरोहित भऽ गेलैक ओ अपरतीब भऽ गेलैक। तथापि बातकेँ बढ़बैत बाजल-मर्र, ओ की कोनो कम उमेर के छलथिन सत्तरिसँ कदापि कम्‍म नहि।
बूढ़ी हाथ नचबैत बजलीहेँ दुर बतहा नहितन । सत्तरि के तँ इन्‍जीरा आ मंदाग्नि सेहो नहि अछि।
ओ अपन समस्‍त कुण्‍ठा आ हतबुद्धिकेँ बूढ़ीपर कुतारैत मुँह‍ दुसलक- ‘हुँह! इन्‍जीरार आ मन्‍दाग्नि कईक बेर कहल हूँ ले इन्दिरा आ मंदाकिनी बाजू....।
बूदी प्रत्‍योक्रमण करैत बजलीह-‘रौ बाउ! हम नहियों पढ़लहुँ तथापि ओहि कोशीक विकराल सभटा मे छओ गोंट बच्‍चा सभकेँ पढ़ा-लिखा मनुक्ख बनेलहुँ जगह-जमीन आ मकान बनेलहुँ केओ धिया-पुता मुँह नहि दुसैत अछि आ एकटा काबिल तोँ छेँ बड्ड बुधियार छेँ तेँ ने ई हालाति छैक जे बापोसँ नहि पटैत छैक अछि आदि कहैत बूढि़ घर-चलि गेलीह।
ओ हतबुद्धि भेल जड़वत ठाढ़ छल ओकर समस्‍त उत्‍साह कखनि ने बिला गेल छलैक आ ऑंखि नोरा गेलैक....।

कनेक्शन कालक बाद पत्‍नी आचलि आ गौरसँ मुँह देखैत बाजलि- ‘अरे आठ बजैत अछि- किछु जलखै खा लितहुँ फेर तँ भरि दिन अहाँकेँ की करबैक काजक जोगाड़ आ टाका-पैसा कोनो अपना हाथमे छैक की.... जहिया जे हेबाक हैतैक से तँ हेबे ने करतैक....।
ओ अपन हाथक घड़ी देखलक आ बाजल- ‘सते आइयो फेर बहु अबेर भऽ गेलैक....। 

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