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Sunday, April 8, 2012

दोती बि‍आह :: जगदीश मण्‍डल


दोती बि‍आह

पचास वर्षीए प्रोफेसर उमाकान्त दोहरा कऽ बि‍आह कइये लेलनि। केना नै करितथि? संयमी रहने पचास बर्खक चेहरा पैंइतीस-चालीससँ ऊपर नै बूझि पड़ैत छन्हि। पत्नीक मुइने घर सुनसान लागए लगलनि। चौघारा कोठरी सभ ढन-ढन करैत रहनि। अपना छोड़ि ने दोसर भैयारी आ ने कियो आन परिवारमे रहनि। दुइएटा सन्तानो! जेठ बेटी प्रोफेसर पतिक संग बनारसेमे रहै छथिन। दुरागमनक पछाति आइ धरि मात्र तीन बेर माए-बापसँ भेँट‍ करए एलीह। बेटो तहिना। डाॅक्टरीक अंतिम साल, बंगलोर मेडिकल कओलेजमे पढ़ैत छथिन। सालक दुर्गापूजाटा मे गाम अबैत छथि।

किरिण फुटितहि तीनू बकरी घरसँ निकालि बाहरक खुट्टीमे बान्हि, कटहरक पात आगूमे दऽ बगलमे बैस अपने फुड़ने असकरे बैसल बहि‍री बाजए लगलीह- घोर कलयुग! घोर कलयुग आबि गेल। जते दिन ई दुनियाँ चलैए, चलैए, नै तँ धरती फाटत। सभ ओइ‍मे चलि जाएत। सुआइत लोक कहै छै जे मनुक्ख तते पपियाह भऽ गेल अछि जे खिआइत-खिआइत चुट्टी-पि‍परी जकाँ भऽ गेल। हमरा सभकेँ भगवान पार लगौलनि जे एतेटा मनुक्ख भेलौं। आबक लोक थोड़े एते-एतेटा हएत। तेहेन हएत जे लग्गी लगा-लगा भट्टा तोड़त।
     
ओना बि‍आहसँ दू दिन पहिनहिसँ स्त्रीगणक बीच गुन-गुनी शुरू भऽ गेल छलैक मुदा कियो खुलि कऽ नै बजैत छेलीह। मुदा आइ सबहक मुँह खुजि गेलनि। टोलक बीच सरकारीक तीनियेटा चापाकल अछि। बाकी पाँचो अपन-अपन अंगनेमे गरौने छथि, जइपर आन-आन नै जाइत। तीनूमे सँ एकटाक हेडे खोलि तड़िपीबा सभ बेचि‍ कऽ ताड़ी पीब गेल। दोसराक फील्टरे फुटि गेल छै, जइमे पानिसँ बेसी गादिये अबैत अछि। खाली चौराहा परहक कल बँचल अछि। मुदा ओहो कोन जनमक पाप केने अछि जे भरि दिनमे कखनो आराम नै भेटैत छै। चारू दि‍ससँ पनिभरनी बाल्टी-घैल लऽ आबि-आबि चारू दि‍ससँ घेरि बेरा-बेरा पानि भरैत रहै छै। तँए गप-सप्‍प करैक नीक अवसरो आ जगहो फइल।
चिक्कारी मारैत मझौरावाली सोनरेवाली दि‍स देखि‍‍ कऽ बजलीह- साओनक लगनक गीत अबै छन्हि, दीदी?”
मुस्की दैत सोनरेवाली उत्तर देलखिन- जहिना एक्के लोढ़ीसँ सिलौटपर मिरचाइयो पीसल जाइत अछि आ मिसरीओ, तहिना ने डहकनो फागुनोक लगनमे गाओल जाइत अछि आ साओनोमे।
     
दुनू गोटेक चिकारीमे गप्प सुनि बेलौंचावाली बजलीह- अपना भैंसुरकेँ नै देखै छहुन जे काठपर जाइ बिना दुइर भेल जाइ छथुन आ तइपर पुट्ठा खलीफा घर लऽ अनलखुन। से बड़बढ़ियाँ। बड़ चिक्कन। आ प्रोफेसर भैयाकेँ अखन की भेलनिहेँ। मारे दरमहो कमाइ छथि आ उमेरे कत्ते हेतनि। तीस-पैंतीस बर्खसँ बेसी थोड़े भेल हेतनि।
मझौरावालीक पच्‍छ लैत मुँह चमकबैत मोहनावाली बाजलि- जानिऐ कऽ तँ पुरुख छुद्दर होइए। तइमे उमाकान्ते जँ छुद्दरपना केलनि तँ कोन जुलुम भऽ गेलै।
मोहनावालीक कड़ुआएल गप सुनि बेलौंचावालीक मन जरए लगलनि। तुरुछि कऽ बजलीह- सभ पुरुख तँ छुद्दरे होइए मुदा मौगी तँ सभटा गिरथाइने होइए। सएह ने। सत-सतटा मुनसा देखैए मौगी आ छुद्दर होइए पुरुख। हिनके पुछै छियनि जे प्रोफेसर भैयासँ नीक अपन घरबला छन्हि?”
     
घरबलाक नाओं सुनि मोहनावाली काँख तरक घैल निच्चाँमे रखि आगू बढ़ए लगलीह। मुदा तइ बीच साठि बर्खक झबरी दादी जोरसँ बजलीह- मरदक कमाएल खाइ जाइ छह आ गरमी चढ़ै छह तँ कलपर झाड़ैले अबै छह। एक्को दिन कोइ उमा बौआकेँ भानसो कऽ दइ छहुन आकि एक लोटा पानियो भरि कऽ दए अबै छहुन। मुदा उल्लू जकाँ मुँह दुसल सभकेँ होइ छह। बेचारा नोकरीपर सँ अबै छथि, अपने हाथे बरतन-बासन धोइ, पानि भरि भानस करै छथि से बड़बढ़ियाँ! मुदा बि‍आह कऽ लेलनि से बड़ अधलाह।

झबरी दादीक गप ओते मोहनावाली नै सुनथि जते तरे-तर बेलौंचावाली जरैत रहथि।
     
छअ मास पूर्व प्रोफेसर उमाकान्तक पत्नी स्वर्गवास भऽ गेलनि। जा धरि जीबैत छलथिन ताधरि घरक कोनो भार प्रोफेसर साहेबकेँ नै बूझि पड़ैत छलनि। जहिना कोसीक धार अनवरत बहैत रहैत अछि तहिना उमाकान्तोक परिवार अपना गतिसँ छअ मास पछाति धरि चलैत छलनि। ओना दस बर्ख पूर्व धरि माए-पिताक नजरिमे उमाकान्त बच्चे आ पत्नी कनियेँ छलथिन। घरक भार दुनूमे सँ किनकोपर नै छलनि। सोलहो आना माइये-बाबू सम्हारैत छलथि‍न। पढ़नाइ-पढ़ौनाइ उमाकान्तक आ दुनू साँझ भानस केनाइ पत्नीक काज छलनि।
     
पत्नी मुइलाक उपरान्त उमाकान्तकेँ घर-आंगन सून-मशान बूझि पड़ए लगलनि। चौघारा घरक आंगन, नम्‍हर दरबज्जा, तइ बीच असकरे उमाकान्त रहै छथि। परिवारकेँ डमैत देखि‍‍ उमाकान्तक मनमे बेचैनी बढ़ए लगलनि। जहिना भूमकमक समए धरतीक संग-संग ऊपरक सभ किछु काँपए लगैत अछि‍ तहिना मनक संग-संग उमाकान्तक बुधि-विवेक डोलए लगलनि। हृदए चहकए, मन मसकए लगलनि। मसकैत-मसकैत एहेन चिरक्का भऽ गेलनि जे उपयोग करै जोकर नै रहलनि। अनायास धैर्यक सीमा बालुक मेड़ि जकाँ ढहए लगलनि। ढहैत-ढहैत सहीट भऽ गेलनि। सहीट होइते बरखा पानि जकाँ रास्ता बनबए लगलनि, जइसँ नव-नव विचार जनमए लगलनि। नव-नव विचारकेँ जनैमते आँखि उठा आगू तकलनि तँ मेला-जकाँ दुनियाँ बूझि पड़लनि। सभ रंगक देखिनिहार। सभ तरहक वस्तुक दोकानपर एका-एकी एबो करैत आ जेबो करैत। अपन-अपन धुनिमे सभ बेहाल। दोसर दि‍स देखैक ककरो समए नै। अपने ताले सभ बेताल, जइसँ ककरो-ककरो आँखिसँ नोरो खसैत आ कियो-कियो ठहक्को मारैत। अनका दि‍ससँ नजरि हटा उमाकान्त अपना दि‍स मोड़लनि तँ जिनगीक लेल संगीक जरूरति‍ पड़लनि। मन पड़लनि पत्नीक मृत्‍यूमृत्‍यूक उपरान्त सोग परगट करैले तँ बहुतो एला मुदा की सबहक नोरमे एक्के रंगक वेदना रहनि? एक घटना रहितो एक रंगक विचार आ वेदना कहाँ छलनि? भरिसक सभ भाँज पुरबैले आएल छलाह। मुदा प्रोफेसर हरिनारायणक नोर किछु आरो बजैत छलनि। कि हुनकर नोर पत्नीक प्रति छलनि आकि‍ पढ़ैत बच्चाक प्रति छलनि आकि हमर विधुर जिनगीक प्रति छलनि। मनपर भार पड़लनि। भारक तर मन दबेलनि, जइसँ सोचै-विचारैक रास्तो अवरुद्ध हुअए लगलनि। मुदा तरमे दबल मन कहलकनि- समाजक लोक की कहत?” फेर मनमे उठलनि, की कहत समाजक लोक! जते लोक तते विचार। जहिना ताड़ीक गंधसँ ककरो उलटी होइत छैक तँ कियो सुगंध बूझि आत्म-तुष्टि करैत अछि। बूढ़-बुढ़ानुस परम्परानुसार कहताह जे संयुक्त परिवारमे व्यक्ति-विशेषक वेदना परिवारक बीच हराए, फुलाएल फूल जकाँ हँसैत अछि, जइसँ अभाव कोनो वस्तु नै रहि जाइत अछि। फेर मनमे एलनि जे जइ कओलेजमे शिक्षक रूपमे छी, बेटा तुल्य विद्यार्थीकेँ जिनगीक बाट देखबै छी ओ कि कहत? मुदा कोनो घटनो तँ अनिवार्य नै होइत आकस्मिको होइत छै। जे सबहक संग घटबे करत? घटियो सकैत अछि, नहियो घटि सकैत अछि। मन ओझड़ेलनि। किछु कालक बाद मनमे एलनि जे जे मनुख धरतीपर जन्म लैत अछि‍ ओ मृत्‍यूपर्यन्त हँसैत जीबए जाहैत अछि। से कहाँ भऽ रहल छै। पहिलुका जकाँ परिवारो नै रहल। असकर जीबो कठिन अछि। दोसराक जरूरति‍ सदति काल पड़ैत अछि। भलहिं जिनगीक क्रिया निमाहि लेब मुदा मनक बेथा के सुनत। सभ ठाम ने तँ लोक कानि सकैत अछि आ ने हँसि सकैत अछि। परिवार तँ हँसै-कनैक जगहे छी। जँ से नै भेटए तँ गुड़-घाव जकाँ तरे-तर सड़नि‍ करैत रहत। जते सड़नि‍ करत तते शरीरसँ गंध निकलबे करत, जइसँ कष्टो हएत आ औरुदा घटत। जखने औरुदा घटत तखने जिनगी सिकुड़त। जते जिनगी सिकुड़त तते मृत्‍यू करीब आओत। फेर मन ओझरा गेलनि। मन ओझराइते नजरि घुमौलनि तँ कओलेजक इतिहास विभागक प्रोफेसर हरिनारायणपर पड़लनि। हरिनारायणे बाबूटा एहेन जिज्ञासु रहथि जनिका आँखिसँ हृदैक वेदना, पहाड़पर सँ खसैत झरनाक पानि जकाँ अनघोल करैत रहनि जे बाप रे, अन्याय भऽ गेल।उमाकान्त ठूठ गाछ सदृश भऽ गेलाह। जइमे फूल-फड़क संग छाहरियो अलोपित भऽ जएतनि। अपने जानटा लऽ कऽ पत्नी नै गेलखिन। असीम वेदनाक पहाड़ सेहो माथापर पटकि गेलखि‍न। सभ किछु छिड़िया जेतनि। केना समेटि‍ पओताह उमा भाय! की एकरे जिनगी कहबै?”
     
चेतना शून्य उमाकान्त दुनियाँक बाजारमे हरा गेलाह। चारू दिसक बाट बन्न बूझि पड़ए लगलनि। के‍म्‍हर जाएब? रस्ते नै। कि ओ खरहोरिक ओहन गाड़ल कड़चीक सदृश भऽ गेलाह जइसँ कोनो क्रिया नै भेनौ आन ओगरवाह बुझैत अछि। अनायास मनमे जगलनि जे दुनियाँमे कियो अप्पन नै। जा धरि आँखि तकै छी ताधरि दुनियों अछि, नै तँ ओहो नै अछि। अपनहि करनीसँ कियो दुनियाँकेँ सुन्दर बनबैत अछि आ कियो अधलाह। आगू जीबैक लेल संगीक जरूरति‍ सभकेँ होइत छै। आनक अपेक्षा हरिनारायणबाबू, लग बूझि पड़ै छथि। अखने हुनका ऐठाम जा अपन मनक बात कहबनि।
     
उमाकान्तकेँ देखि‍ते दुनू हाथसँ दुनू बाँहि पकड़ि हरिनारायण अरिआति कऽ अपन कोठरीमे बैसाए पत्नीकेँ पानि नेने अबए कहलखिन। वामा हाथमे लोटा दहिना हाथमे पानिसँ भरल चमकैत स्टीलक गिलास उमाकान्त दि‍स बढ़ौलखिन। पत्नी विहीन उमाकान्त नजरि निच्चाँ केने हरिनारायणक पत्नी-शोभाक हाथसँ गिलास लऽ पानि पीबए लगलाह। मुदा दू घोंटक बाद पानि कंठसँ निच्चाँ धसबे ने करनि। दोसर गिलास भरैक लेल शोभा बामा हाथक लोटा दहिना हाथमे लैत उमाकान्तपर नजरि गारने। ने उमाकान्त मुँहसँ गिलास हटबैत आ ने पानि पीबैत। उमाकान्तक बेथा हरिनारायण बूझि गेलखिन। शोभा हाथक लोटा अपना हाथमे लैत कहलखिन- अहाँ चाह बनौने आउ। भायकेँ हम पानि पि‍आ दइ छियनि।‍चाह बनबैले शोभा कीचेन रूम चलि गेलीह।
मुँहमे गिलास सटल उमाकान्तक मनमे अाबए लगलनि। जँ कहियो हरिबाबू हमरा ऐठाम जेताह तँ किनका चाह बनबैले कहबनि। उमाकान्तकेँ विचारमे डूबल देखि‍‍ हरिनारायण कहलखिन- भाय, अपनेसँ हम छोट छी मुदा एकरा धृष्टता नै बूझि दिलक धड़कन बुझू। अपने बेसी दुनियाँ देखलिऐक मुदा.......।
चैंकि कऽ उमाकान्त पुछलखिन- मुदा की?”
     
आइसँ पहिने मनुख जते असुरक्षित जिनगी बितबैत छल ओइ‍मे बहुत कमी आएल अछि। सोलहन्नी सुरक्षित तँ नै मुदा पहिलुका अपेक्षा सुरक्षित भेल अछि। ओना खतरा पहिनेसँ अधिक भऽ गेल अछि। मुदा बदलल रूपमे। पहिलुका रूपमे सुरक्षित भेल अछिजइसँ जिनगीक नमती सेहो बढ़ि रहल अछि। ओना पूर्वज शतायुकेँ सही औरुदा बुझै छथिन। मुदा इहो बुझिनिहार तँ छथि जे चालीस कऽ घपचालीस बुझै छथि। ओहो ओहिना नै बुझै छथि। अखनो चालीस बर्खसँ ऊपर कत्ते गोटे छथि जे पूर्ण स्वस्थ छथि। मुदा किछु बर्ख पूर्व धरि अस्सी  बर्खसँ ऊपर गोटि-पङरा पहुँचैत छलाह। से आब अाधासँ बेसी पहुँचए लगल छथि‍। तँए, मोटा-मोटी नब्बेकेँ अाधार बना पुछलखिन- अपनेक आयु कतेक अछि?”
आयु सुनि उमाकान्त वि‍स्मित भऽ गेलाह। हृदए बमकैत रहनि मुदा मुँहसँ बोली निकलबे नै करनि। किछु काल बिलमि कहलखिन- पचास बर्ख।
पचास बर्ख सुनि हरिनारायण उछलि कऽ बजलाह- अाधासँ किछु अधिक भेल अछि मुदा अाधा तँ बाँकिये अछि। अाधाक लेल.......।
     
नम्‍हर साँस छोड़ि, उमाकान्त आँखि उठा कखनो हरिनारायणपर देथि तँ लगले नजरि निच्चाँ कऽ धरती देखए लगथि। मुस्कुराइत हरिनारायण कहलखिन- अपने दोसर बि‍आह कऽ लेल जाउ। जरूरी नै जे सभ औरत कुल्टे होइत अछि। एहनो औरतक कमी नै जनिकामे मानवीय संवेदना गंगाक धार जकाँ सदिखन उमड़ैत रहैत छन्हि। नारीक पहिल गुण मातृत्व थिक, जेकरा प्रबल बनेबाक लेल पुरुषक सहयोग जरूरी अछि। जखने अनुकूल परिस्थिति नारीक प्रति बनत तखने दुनियाँक रंग-रूप बदलल-बदलल बूझि पड़त।
     
चाह पीब, विदा होइत उमाकान्त कहलखिन- अहाँक विचारसँ सहमत छी मुदा काजक भार अहाँपर।‍
     
दुनू गोटे -उमाकान्त आ हरिनारायण- दू गामक। मुदा कोसे भरिक दूरी दुनूक बीच छन्हि। अपने गामक पच्चीस बरखक यशोदियाक संतप्त जिनगी हरिनारायणक सोझमे छन्हि। सोलह बर्खक देहरिपर जखन यशोदिया पहुँचलि, अट्ठारह बर्खक गुणेश्वर, फूलक सुगंधकेँ भौरा जकाँ झपटि लेलक। जिनगीक हरिअर-हरिअर प्रलोभन देबाक संकल्प करैत, लोक-लाजसँ बँचैक लेल, गाम छोड़ि दिल्ली चल गेल। मुदा दिल्लीक सड़कपर जखन दिन-राति बि‍तए लगलै तखन‍ यशोदियाकेँ छोड़ि गुणेश्वर निपत्ता भऽ गेल। असकर यशोदिया बौअाए लगलीह। हारि-थाकि यशोदिया एकटा कोठीक शरणमे गेलि। आठ बर्खक पशुवत् जिनगी यशोदियाकेँ बदलैक लेल बाध्य केलक। नव बाट ताकए लागलि। अपनाकेँ मृत बूझि एक राति सभ किछु छोड़ि पड़ा कऽ गाम आबि गेलि। गाम आबि हरिनारायणक पएर पकड़ि ताधरि कनैत रहलि जा धरि ओ बाँहि पकड़ि मनुक्खक जिनगी जीबैक भरोस नै देलखिन।
     
हरिनारायण परिवारमे यशोदिया रहए लगलीह। यशोदियाक मनमे तँ चैन आबि गेल मुदा हरिनारायणक बेचैनी बढ़ए लगलनि। समए पाबि, बि‍लटैत दू जिनगीकेँ जोड़ि एक परिवारकेँ लहलहाइत देखलनि। मनमे खुशी अएलनि।
     
अखन धरि उमाकान्त यशोदियाकेँ प्रोफेसर हरिनारायणक बहि‍न बुझैत छलाह। यशोदियाक असली परिचए नै छलनि तँए मनमे खुशी रहनि जे सभ्य परिवारक लड़की घरमे औतीह, जइसँ पहिलुके जकाँ फेर परिवार अपन पटरीपर आबि आगू मुँहे ससरए लगत।
     
दिन -लग्न- बेरागन छोड़ि हरिनारायण उमाकान्तकेँ पुछलखिन- अखन तँ बि‍आहक समए नै अछि तखन‍.....।
एक-एक दिन पहाड़ लगि रहल अछि। बि‍आहक जे कोनो बंधन अछि से काँच सूतसँ बान्हल जाइत अछिजइसँ सदिखन टुट-फाट होइत रहैत अछि। तँए दुनूक -पुरुष-नारी- हृदैक योग हेबाक चाही?”
हरिनारायणक प्रश्नसँ उमाकान्त गुम्म भऽ कहलखिन- समए आ परिस्थितिकेँ देखैत.....।
     
उमाकान्त यशोदियाक बीच साओने मासमे बि‍आह भऽ गेल।

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