Pages

Monday, April 9, 2012

कपिलेश्वर राउत - छूआ-छूत



दूर्गापूजाक समए रहए। सभ अपन-अपन उमंगमे मस्त। सभ कियो नव-नव परिधानमे सजल। कियो पूजामे मस्त तँ क्यो नाच देखएमे मस्त, कियो दारु पीवैमे मस्त। स्टेजक आगाँमे लग्धी-विरती कऽ देखएमे मस्त, कियो कुमारि‍ भोजन करएवामे व्यस्त। क्यो ब्राह्मण भोजनमे मस्त। एक-एकटा कुमारि‍ आ ब्राह्मण पचँ-पँच गोटेकेँ नोत खाइले तैयार छल। तखनहि शंभू मंडल लड्डू लऽ कऽ भगवतीकेँ चढ़ैवाक लेल गेल। ओकरा मंदिरक भीतर जेवासँ पंडितजी रोकैत बजलाह- ‘‘तु सोलकन सभ भगवतीकेँ अपने हाथे ने लड्डु चढ़ा सकै छै ने प्रणाम कऽ सकै छै। एहि बातपर थोड़े काल हल्ला-गुल्ला सेहो भेल। अंतमे फैसला भेल जे पूजेगरी आ पुरोहित छोरि कऽ क्यो भीतर नहि जा सकैत अछि। चाहे ओ कोनो जातिक रहए।
जखन चौकपर एलौं तँ एकटा दोसरे नाटक पसरल छल। एकटा डोम चाहक दोकानपर बेंचपर वैसि कऽ चाह पीवाक लेल तैयार छल दोकानदार रोकि रहल छल। अन्तमे बलजोरी ओ बेंचपर बैसि गेल। आ ओ डोम दोकानदारसँ सवाल पूछलक। पहिल सवाल छल- ‘‘हम हिन्दु छी कि नै छी। दोसर सवाल छल जे जहन सभ जाइतक अहाँ आंइठ धोइत छी तँ हमर आंइठ किऐक नहि धोअव। तेसर सवाल छल जे एक तँ अहाँ बावाजी छी कंठी बन्हनै छी तहन अहाँ सबहक आंइठ धोइत छी से धोनाइ छोरि दिऔ आ से नहि तँ बावाजी जी बाला आडम्बर छोरि दिऔ, प्रश्न विचारनीय छल हम सोचमे परि गेलौं।

No comments:

Post a Comment