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Saturday, April 7, 2012

तृष्णा - राजेन्द्र बिमल





आइ फेर बहु-बदला भेलैए कहाँ दन!...गे दाइ, गे दाए! रजदेबाके बहु सिकिलिया आ देबलरैनाके बहु सोनावती। सिकिलिया ओना छै मोसकिलसँ अढ़ाइ हाथक मौगी मुदा सउँसे गोर देहमे गजगज मासु करै छै। देखिते होएत जे काँचे चिबा जाइ। टोङि देबै, बन्न दऽ सोनित फेकि देतै। देहपर जेना इस्त्री कएल होइ; छिहलैत आ गतानल अंगअंग। देबलरैनके मुँहसँ तँ कहिया सऽ ने लेर चूबैत रहै-लसलस। देबलरैना-बहु सोनाबती, रोलल-छोलल, पोरगर करची सन लचलच करैत देह। रजदेबाके ततराटक लागि जाइक- देखैक तँ देखिते। एक्के टोलमे दसे घरक तऽ फरक हएतै दुनूक घरमे। छिनरझप्पबाली सोनावतियो केहन मन सरभसी जे जखने रजदेबासँ नयन मिलै कि छट्ट दऽ बिहुँसि उठै अंग-अंग- जेना लौका लौकि गेल होइ भीतरे भीतर। उपर सऽ सतबरती जे बनैय। रजदेबा माने राजदेव मंडल, अंचल अस्पतालमे चपरासी अछि। बाप ओकरा जनमऽ सँ पहिनहि सरग सिधारि गेल रहथिन्ह। पोसल केऽ तऽ माए। एकटा बहीन रहै चंचलिया। सभ कहै कुमरठेल्ली। सउँसे गाम अनघोलकएने रहै छौंड़ी। कहियो खेसारीक झारमे पकड़ल जाइक, कहियो राहरि खेतमे केयो देखि लैक। कहिने कते आगि भगवान देहमे देने रहथिन्ह। चंचलियाक माय कहै जे ई देहक आगि थोड़बे रहैक, पेटक आगि रहै, पेटक। आब जे रहौक, मुदा ओ मारलि गेलि। ओकरा लऽ कऽ दू टा मनसामे झगड़ा भऽ गेलैक। जगदिसबा कहै जे हमर धरबी अछि, मनमोहना रिक्साबला कहै जे हम्मर माल अछि। चंचलिया दुन्नूकेँ दूहै छलि। से बरदास्स नहि भेलै मनमोहना रिक्साबलाकेँ। ताड़ीक झोंकमे रिक्साक पुरना चेनसँ तेना ने ततारऽ लगलै जे होशे ने रहलै। सउँसे देहसँ सोनित बहि रहल छलै आ ओ मुँह बाबि देने छलि। परिवारमे विधवा माय छलै, स्वयं छल, सिकिलिया छलै आ पाँच बरखक बेटा रहै। बेटा बड्ड सुन्नर आ बड़ ठोला! चंचलिया तऽ संसारसँ उठिए गेलै। आब परिवारक सुखाएल आँतक घघरा मिझएबाक लेल सोनित सुखएबाक जिम्मेबारी रजबेक छलै। जूआमे चुपचाप कान्ह लगा देलक आ बहए लागल। बहु रहै चमचिकनी, फरदेबाल आ फसलीटीबाली। रोज गमकौआ तेल चाही, स्नो-पाउडर चाही। रङसँ ठोर नइँ रङब, लिपेस्सी चाही। सिनेमामे चसकलि। जी-मुँह चलिते रहइ। पनपियाइमे घुघनी-मुरही, कचरी भरि पोख। दुसंझी। रोज-रोज माध-मासु गमकैत रहउ आङनभरि- ने किछु तऽ डोका-ककरि। आकि कछुएक झोर। कतेक दिनसँ एक जोर परबा पोसक लेल रगड़ा कए रहलि छलि साँयसँ। छमकि कए एमहर, छमकि कए ओमहर। राति-राति भरि झूलन देखए, सलहेसक नाचमे खतबैया टोलक झुलफिया या नटुआक नाच आ सतरोहनाक बिपटइ देखि-देखि कऽ लहालोट भऽ जाए। रजबाकेँ ई सभ सतखेल्ली मौगिक लच्छन बुझाइक, तेँ रोज बतकुटौअलि होइ। रिक्साबला देबलरैनासँ यारी रहै रजदेबाकेँ। देबलरैना सिकलियाके बड़ पसिन्न। कारण रहै जे देबलरैना सेहो सलहेसक नाचमे ढोलकिया रहै। ईह ढोलक बजबैकाल ओकर कनहा जे उपर-नीचाँ होइ छल- गुम-गुमुक-गुमुक...गुम गुमुक गुमुक! .. बेर-बेर झुलफी मुँहपर खसि पड़ै जकरा ओ ओहिना छोड़ि दैक। मुँहपर बुनकिआएल ओसक बूँद सन पसेना! ओ मोनहि मोन अपन साँय रजदेबासँ देबलरैनाक मिलान करै। ... कहाँ देबलरैना, कहाँ रजदेबा। रजदेबाक मुँहपर चौबीस घंटा जेना विपत्तिके झपसी लधने रहै। घोघनमुँहा एक रत्ती ने सोहाइ सिकिलियाकेँ। मगर करओ तऽ की करओ? सिङार-पटार कए एकान्तमे एसगर बिछाओनपर पड़ि रहय आ कल्पना करए-साँय जे बदलतै! देबलरैना फुलपेन्ट पेन्हि कऽ, चसमा पेन्हि कऽ बाबू-भैया नाहित जे रिक्शापर बैठिकऽ रिक्सा चलबइ हइ तऽ सिनेमाके गोबिना माउत कऽर हइ। .. मानली जे ताड़ी-दारू पीबै हइ, त की भेलइ। सुनइ छिऐ जे कहाँदुन ताड़ी-दारु पीलै हइ मनसासुन तऽ ओकरा देहपर राछच्छी सबार भऽ जाइ छै, मौगीके छोड़ने ने छोड़ै छै।..धौर, केनाकऽ सकैत होतै देबलरैना बहु।..रजदेबा ला धन्न-सन! बिछाओनोपर जाएत त खाली घरेके समेस्सा। ..रङ आ लस!! .. देहो हाथ छूबैतऽ खौंझा कऽ छूटत!.. देबलरैनाके बँसुरीके आवाज सुनएलै। ..दारू पीकऽ अबै छै तऽ आङनमे बैसिकऽ बँसुरी टेरऽ लगै छै।..अहाहाहा..की राग, की तान।..सोनाबतीके तऽ लीरीबीरी कऽ दै छै। फेर दुनू परानीमे मुँहाठुट्ठी होइत-होइत पिटापिटौअल शुरू भऽ जाइत छै।..सोनाबतीके कहब छै जे मरदाबा जे कमाइ हए से तऽ दारू पानीमे उड़ा दै हए, सिनेमामे गमा दै हए आ सूतऽ लागी हरान रहै हए।..पेटमे अन्न नैआ.. मनसा तऽ रजदेबो हइ”- सोचैए सिकिलिया- ओकरा सूतऽ के मन नै होइ हइ?..केरबा आमसन मुँह लटकओने रहैए!सिकिलियाके अपने हँसी लागि जाइ छै। दोसजी कहाँ गेलखिन”?- अरे, ई बारह बजे रातिमे सोनाबती!!.. की हइ, हे”?- बाँसक फट्टक खोलिकऽ सिकिलिया बाहर अबैत अछि।..छौंड़ाक बाप तऽ नै एलैगऽ अस्पताल सऽ।..लैटडिपटी (नाइट ड्यूटी) हइ।..” “बहीन की कहियो दुखके बात। आइ फेनू मनसा मारलकगऽ।“ “कइला?” “धुर। की जान गेलिऐ कोन बढ़मकिटास हइ देहपर।..हमर तऽ जान लऽ लेलक।..अन्न-पानी जरि गेलै, जी-जाँघमे खौंत फुकने रहै छै चौबीस घंटा।बलू, चल नऽ सूतऽ।..सुतना बेमारी धऽ लेलकैगऽ।“..सोनाबती घौलेघौले बजैत रहल। जोर-जोरसँ घोल-चाउर भेलै तँ बुढ़िया रजदेबामाइ टुघरि कऽ अङनामे आएल- गे, की भेलउ गऽ? चुप, लबरी। साँइयो बहुके बातके कहूँ एते घोलफचक्का भेलै गऽ?” सोनाबती घेओना पसारलकि। रित्ती रित्ती कऽ फाटल, सतरह ठामसँ गिरह बान्हल अपन नूआ आ अङिया देखओलकि। घरबाली अन्न बेत्रेक मरै छै आ ओ दारु-ताड़ी पीबिकए बेमत्त भेल रहै छै। घरमे लाल छुट्टी नै दै छै। दारू पी कऽ सेजपर ओकर गत्रगत्रमे दाँत गड़ा दै छै! इस्स!रजदेबाबहुके मुँहसँ अनायासे बहार भऽ गेलै। भीतर चीनीक गरम पाक जेना टघरि रहल छलै। ओ गत्रगत्र देबलरैनाक हबकबाक कल्पनामे हेरा गेलि। हे बहीन!..मनसा नै भोगतओ तँ ई देह लऽ कऽ की करबा।..एक दिन अँचियापर तऽ सबहक देह जरै छै!”- रजदेबा-बहु समझओलकै। रजदेबामाइ दुरदुरओलकै। ताबत डिप्टीसऽ रजदेबो घूरि अएलै। आङनमे ठहाठहि इजोरियामे चमकैत सोनाबतीक मुँह चमकैत देखलक। नयन मिललै, सोनावती विहुँसि देलकि, जेना रजनीगंधा फूल झरझरा गेलै। मोनप्राण गमैक उठलै। रजदेबा बाजल किच्छु नैं। बस पुछलकै- की भेलौ गऽ भौजी?” सोनावती फेर सउँसे खेरहा दोहरओलकि।... सिकिलिया चौल कएलकै- साँय बदलबे?” “सहे तऽ ने उपाइ हइ।..तोहर डागदरसनके साँय हउ गजै छे।..अस्पतालमे काम करै हउ। ने दारू, ने पानी। घरगिरहस्थी डेबने हउ। भरिमुँह कोनो छौंड़ी मौगी जरे बोलबो ने करइ हउ। अपन काम से काम। एहन महाभारथ पुरुख हमर भागमे कहाँ?..” सिकिलियाकँ देह जरि गेलै- हइ गोबरके चोत महाभारत कहाँदुन! मनसरभसी। अपना साँय महकै छनि आ छौंड़ाक बाप जरे केना रसिया-रसिया, सिलिया बतिआइ हए। बहीन, तौँ घर जा।..तोहर साँयके दोसरकेँ सम्हारि देत ओ? जे अपन साइँयो के कसमे ने रखलक, से मौगी कथिके?” आ सिकिलिया रजदेबाक बाँहि पकड़ि घरदिशि घीचय लागलि। रजदेबामाइके पित्त लहरि गेलै। सोनाबत्ती कनिकाल थरभसाएलि, फेर बाजलि-दोस जी!..हम आइ घरे नैं जबे..फेन निम्मन सऽ कूटत।..ओकर आकृति कातर छलै। अहाँ जाउ। लोक फरेब जोड़त।रजदेबा समझओलकै। ओ घूरि गेलि। सभ अप्पन-अप्पन फट्टक लगा लेलक। मुदा, भोरे उठल रजदेबा जँगलझार लेऽ तँ देखलक जे देबलरैनाके बहु दरबज्जापर एकटा फेकल तरकुन्नीपर ओंघराएलि छै, घर नैं गेलउ।..कनिकाल ओ टुकुर-टुकुर ओकर मुँह तकैत रहल। केना निभेर भऽकऽ सूतलि छै, दुधपीबा पिहुआजेकाँ। नूआँ-बस्तर अस्त-व्यस्त। बिन तेलकूँड़क जट्टा पड़ल, भुल्ल भऽ गेल पैघ पैघ केश, भुँइयापर एमहर-ओमहर जौंड़ जेकाँ लेटाएल। ओकरा देवलरैनापर बड्ड तामस भेलै। सोन-सनक सोनावती अन्न-वस्त्र बेत्रेक झाम भऽ गेलै- बीझ लागल ताम-सन। एखनो जँ नहा धो देल जाइक आ सिङार कऽ दै तऽ झकाझक भऽ जएतै। मुदा दोस तऽ दारू पीकऽ मस्त रहै छै। सलहेसक नाचमे ओकर ढोलकक गुमकीपर खतबैया टोलक कतेको छौंड़ी-मौगी ओकरापर जान दैत छै। दोसजी, खत्ता-पैन, चर-चाँचर, राहरि-कुसियारक खेत, भुसुल्ला घर, पोखरिक भीर जत्तहि पओलक, तत्तहि छौंड़ी-मौगी लऽकऽ...। राम-राम।..एहन गुनमन्तीके एना काहि कटबै हइ, दोसजी निम्मन नहि करै हइ! बड़ समझओलकै रजबा सोनाबतीके। सोनाबती नैं गेलै। देबलरैनाके धन्न-सन। खोजैत-खोजैत एक्के बेर सुरुज जखन नीचाँ अएलै तऽ बँसुरी टेरैत आएल। सोनाबतीके भरिपाँज पकड़ि कए चुम्माचाटी लेबए लागल।सबहक सामने! दरूपिबाके कोन लाज आ बीज। रजबामाइके हँस्सी लागि गेलै। सोनाबत्ती मनसाकेँ धकेलि देलकै, मनसा धाँय दऽ चारूनाल चित्त खसल। बिच्चे आङनमे।..चटाक!...मनसा उठिकए एक चाट देलकै। मौगी घेओना पसारलकि। मनसाकेँ धन्न-सन।..दोसजी अस्पतालमे रहै। सिकिलियाक बेटाके मैंगोफ्रूटीक खाली डिब्बा कतहु सड़कपर फेकल भेटि गेल रहै। ओ ओहिमे पानि धऽधऽ पीबै छल। सिकिलियाक नजरि पड़लै-केहन लगइ हउ?” छौंड़ा हँसि देलकै- आमके रस नहिंता!..पीबे?” सिकिलियाक मोन भेलै- एक बेर ओहो पीबि कए देखैत। ओ बड़का-बड़का बाबू-भैया सबके पीबैत देखने रहै।..मुदा, ओइमे तऽ पतरसुट्टी फोंफी लागल रहै, एइमे कहाँ हइ?.. ओ बड़ा ललचाएल दृष्टिसँ फ्रूटीक डिब्बाकेँ देखि रहलि छलि। दोस्तिनी, पीयब?”-देवलरैना टुभ दऽ पूछि बैसल। दोस्तिनीक आँखिमे फ्रूटीक लालच, पतिसँ उलहन, अभावजन्य वेदना लक्काबाज देवलरैनाकेँ झक् दऽ लौकि गेलै। चलू दोस्तिनी, फ्रूटियो पीयब, सिनेमो देखब आ होडरोमे खाएब। घूमैत-घूमैत राति तओले च्हलि आएबदेवलरैना बजलै आ फेर कोन जादूके बान लगलै कहिने, सिकिलिया चट दऽ ओकर रिक्सापर बैसि गेलि। सभ मुँहे तकैत रहि गेलै। ओ जे गेलै सिकिलिया से फेर ६ महीना नैं घुरलै। सोनाबती रजबाके घरसऽ टकसऽ के नाम नैं लै। पऽर भेल, पंचैती भेल। दुनू मौगीमे सँ कोनो अपन-अपन साँय लग घुरबाक लेल तैयार नहि भेलि। छओ मासक बाद दुनू अपन-अपन मनसा लग कनैत-कनैत घूरलि-ढाकीक ढाकी सिकाइत नेने। सिकिलिया आ सोनाबती एक दोसरक गरदनि पकड़ि झहरा देमए लागलि। सिकिलियाक घेओनाक आशय छल- देबलरैनाके मुँह महकै छै, ओ बदमास अछि, गुन्डा अछि, निसेबाज अछि, लापरवाह अछि; स्वार्थी अछि आदि-आदि। सोनावती छाती पीटिपीटि बेयान करै छलि- रजबा गुम्मा अछि, बहुसँ बेसी मायकें मानै अछि, दिनराति पाइ लेऽ खटै अछि आ सभ पाइसँ घरे चलबै अछि, बहु ले कहियो कचरी- मुरही नै अनने अछि। कहियो सिनेमा नैं जाइ अछि, बहुकें चुम्मा नैं लैत अछि..आदि...आदि... दुनू अपन-अपन ओरिजिनल साँय लग घूरि गेलि। मनोविज्ञानक प्रोफेसर सत्यनारायण यादव कहलैन्हि- यार, जे भेटैत छै, तकर मोल नै बुझाइ छै। जकर पति गंभीर छै ओकरा चंचल पतिक लेल मोन पनिआइ छै, जकर चंचल छै से गंभीर पतिक लेल सिहाइए..इएह क्रम छै...नो वन इज परफेक्ट.. एक दिन सिकिलिया आ सोनावती सुनू एक-एकटा कोनो मनसा संगे उरहरि गेलै- ओहो एक्के दिन। रजदेबामाइ भोरेसँ आसमान माथपर उठा लेलकि- जुआनी कक्कर ने उमताइ हइ..फेनू बान्ह हइकि नै।..समाज आ पलिवारके बन्हन टूटि जतइ तऽ मनसा-मौगी जिनगी भरि अहिना भँड़छि-भँड़छि कए मरि जतइ... प्रो. सत्यनारायणक व्याख्या छैन्हि- म्यान इज पोलिग्यामस बाइ नेचर..इट इज सोसाइटी ह्विच च्यानलाइजेज सेक्स एनर्जी..सओ मुँह, सओ बात!..सबसँ बड़का सत्य जे सोनाबती, सिनकिलिया दुनू उरहरि गेल!   राजनैतिक, आर्थिक आ सामाजिक क्षेत्रमे एक नव स्फूर्ति प्रदान कऽ कए मिथिलांचलक जीवन-शैली आ सोचक पुनर्संस्कार कयलक। एहि शताब्दीमे आधुनिक शिक्षा, छापाखाना आ सरल यातायातक सुविधाक अभाव रहितहुँ मैथिलीमे साहित्य सृजनक परम्परा वर्तमान रहल। बहुतो दिन धरि मैथिली साहित्य संस्कृत साहित्यक प्रतिछाया सदृश रहल। एहिमे साहित्यिक एवं अन्य प्रकारक लेखन निरन्तर होइत रहल। दुइ विश्व युद्धक बीचक कालमे मैथिली साहित्यक सर्वांगीन समुद्धारक चेतना अनलक। एहि कालक लेखनमे ई नव मनोदशा प्रतिफलित भेल आ साहित्यक विभिन्न विधामे उल्लेख्य योग्य परिवर्तन भेल।
 त नहि सिर्फ समाज सअ महिला आ पुरूषक भेदभाव किछु कम होयत अपितु बल्कि समाज द्वारा उपेक्षित आ एक तरहे त्यागल  महिला
 पुन: समाज के मुख्यधारा में शामिल भय अपन जीवनक नैराश्य सअ मुक्ति पाबि सकलीह।

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