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Saturday, April 7, 2012

मातृभूमि :: जि‍नगीक अंति‍म चरणमे


जि‍नगीक अंति‍म चरणमे आइ अपन मातृभूमि‍क दर्शन भेल। ओ भूमि‍ जइठामसँ माए सदति‍ नजरि‍ उठा-उठा देखैत रहैत, ओ प्‍यारी, सि‍नेही, प्रेमी, जीवनदायि‍नी, जीवन रक्‍छि‍नी भूमि‍-मातृभूमि‍। दर्शन पबि‍ते कमल मन कलपि‍ उठल मुदा असीम उत्‍साहक संग उमंग संचारि‍त भेल। काल्हि‍ धरि‍क जि‍नगी आँखसँ छि‍पए लागल, ओझल हुए लगल, मुँह नुकबए लगल। जइ दि‍न अपन जीवनदायि‍नी भूमि‍सँ वि‍दा हुअए लगल रही पूर्ण जुवा रही। नस-नसमे नव खूनक संचार होइत रहए। समुद्री जुआर जकाँ जुआनी उठैत रहए। आशा-अभि‍लासाक संग पकड़ैक लेल उत्‍साहि‍त रहए। बाट नै‍ भेटने मातृभूमि‍क दर्शन लाखो कोस दूर दुर्गमे छि‍पल रहए। मुदा दर्शन पबि‍ते सत्-चि‍त्त-आनन्‍दसँ खेलैत देखि‍, नमन केलि‍यनि‍।

डाक्‍टरीक डि‍ग्री प्राप्‍त करि‍ते बि‍आह भेल। नीक गाम, नीक कन्‍या नीक कुल-मूलक संग नीक दहेज भेटल। केना नै भेटैत, जइ डि‍ग्रीक मांग देश-वि‍देशमे अछि‍ ओइमे बेकारी कतएसँ आओत। मुदा इंजि‍नि‍यर जकाँ तँ नै जे डि‍ग्री पेलोपर काज नै! तइले तँ साधनक जरूरति‍ अछि‍ से अछि‍ कत्तऽ। जुआनीक उमंग उठि‍ते गेल। संयोगो नीक रहल जे बाइस बर्खक अवस्‍थामे ओइ फ्रान्‍समे जइमे महान्-महान् दार्शनि‍क, तत्‍व चि‍न्‍तक वैज्ञानि‍क, कलाकार, साहि‍त्‍यकार, देशभक्‍त जन्‍म लेने छथि‍, काज करैक अवसर भेटल। रंगीनी दुनि‍याँक स्‍वर्ग, जेहेन ओतए सड़क तेहेन एतए घर नै, ओइ पेरि‍समे। बि‍सरि‍ गेलौं अपन भूमि‍-अपन मातृभूमि‍। ओना सोलहन्नी बि‍‍सरि‍ नै गेल रही, मुदा वि‍चारक आलमारीक पोथी जाकमे, तर जरूर पड़ि‍ गेलैं। अखनो मन अछि‍, गामक वि‍द्यालयक देश वन्‍दना। हृदैमे नै पहुँचल छल गंगा सन पवि‍त्र जलधाराक सरि‍ता, नै जनैत छलौं माटि‍क सुगंध आ गाछी-बि‍‍रछीक फल-फूलक महमही।
अनुकूल हवा पाबि‍ मन मोहि‍त भऽ गेल। जी तोड़ि‍ जि‍नगीक पाछू पड़ि‍ गेलौं। करमेसँ जि‍नगी तँ हमरा कि‍अए नै। नीक स्‍तरक परि‍वार बनेलौं, नीक बैंक बैलेन्‍स अछि‍। अपनोसँ बेसी खुशी परि‍वारक सभ रहै छथि‍। कारणो स्‍पष्‍ट अछि‍। वाल-बच्‍चाक जनमे भेल, पत्नी अनके घरमे रहैवाली। मुदा आइ मन वेकल कि‍अए लगैए। बौराइ कि‍अए अछि‍? एकाग्रचि‍त्त सभ दि‍न रहलौं तखन बान्‍हल मन पड़ाए कतए चाहैए। की ‘आएल पानि‍ गेल पानि‍ बाटे-बि‍लाएल पाि‍न।’ जइ मातृभूमि‍क गुनगान बच्‍चा, वृद्ध सभ करै छथि,‍ तइठाम कतए छी। बढ़ैत-बढ़ैत जहि‍ना धन बढ़ैए, गाछ-वि‍रीछ बढ़ैए तहि‍ना ने वि‍चारो बढ़ैए। मुदा एना कि‍अए भऽ रहल अछि‍ जे आब ऐठाम- माने पेरि‍समे, नै‍ रहब अपन मातृभूमि‍क रजकण बनब।
जहि‍ना बाइस बर्खक वएसमे अपन गाम, समाज, भूमि‍-मातृभूमि‍ छोड़ि‍ पेरि‍स आएल रही तहि‍ना आइ छोड़ि‍ अपन प्रेमी मातृभूमि‍, सि‍नेही मातृभूमि‍क कोरामे वि‍श्राम करब। मुदा नहि‍यो बुझैत रही तैयौ अबैकाल सभसँ असि‍रवाद लऽ लेने रही तहि‍ना तँ एतौसँ असीरवाद लैये लि‍अ पड़त। जरूर पड़त। मुदा केकरासँ? केकरोसँ नै! ने अपन गंगा-यमुनाक जलधारा, ने हि‍मालय-कैलाश सन पहार, ने गंगा-ब्रहमपुत्र सन धरती, ने समुद्र सदृश हृदए। जहि‍ना पत्नीक संग आएल रही तहि‍ना जाएब। जँ ओहो नइ जाथि‍ तखन? ओ नइ जाए चाहती तेकर कारणो तँ कहती।
आब ऐठाम नै रहब। हम पुछलयनि‍।
पत्नी बजलीह- तखन?”
हम कहलि‍यनि‍- अपन मातृभूमि‍क दर्शन भऽ गेल। ओतए जाएब।
फेर पत्नी उत्तर देलनि‍-
सभ अपन-अपन मालि‍क होइए। जँ अहाँ जाएब तँ जाएब।
पुन: पुछलि‍यनि‍- अहाँ?”
पत्नी बजलीह-
अपन कारोवार अछि‍। बेटा-पुतोहु दुनू फ्रान्‍सक भऽ गेल। दुनि‍याँक स्‍वर्गमे रहि‍ रहल छी। तखन की?”

मन पड़ल ओ दि‍न जइ दि‍न जि‍नगीक हि‍साब जोड़ि‍ आएल रही। पत्नी संगे रहथि‍। मुदा आइ? जुग बीत गेल। जि‍नका सभसँ असीरवाद लऽ आएल रही भरि‍सक मरि‍-हरि‍ गेल हेता, गेलापर के हृदए लगौताह। तखन? तखन की? कि‍छु ने। मुदा जाधरि‍ पहुँचब ता धरि‍क तँ उपाए चाही। वि‍दा भऽ गेलाैं।
एक समुद्रसँ मि‍लैत दोसर समुद्रक वि‍शाल जलराशि‍क बीच जहाजसँ मद्रास पहुँचलौं। मद्रास बन्‍दरगाहमे उतरि‍‍ अपन धरती, अपन देश, अपन मातृभूमि‍केँ हृदैसँ नमन केलि‍यनि‍। मन पड़ल रामेश्वरम्। जखन मद्रास आबि‍ गेल छी तखन बि‍नु दर्शने जाएब बचपना...। वि‍दा भेलौं।
धरती-समुद्रक बीच बनल रामेश्वरमक मंदि‍र। एक दि‍स वि‍शाल जल-राशि‍क समुद्र तँ दोसर दि‍स खि‍लैत इठलाइत मातृभूमि‍। ऊपर शून्‍य अकास। समुद्रेक लहरि‍‍मे स्‍नान कऽ दर्शन केलौं। मंदि‍रसँ नि‍कलि‍ते खजुरीपर गबैत एकटा साधु मुँहे सुनलौं, अवगुन चि‍त्त न धरो। जना भूखकेँ अन्न, पि‍यासकेँ पानि‍ खेहाि‍र दैत, तहि‍ना मनमे भेल। जलखै कऽ गामक लेल गाड़ी पकड़लौं।
जंगल, पहाड़, नदी, मैदानकेँ चि‍ड़ैत गाड़ी गाम लग पहुँचल। जे गाम कहि‍यो नन्‍दन वन सदृश सजल छल- लहलहाइत खेत, रास्‍ता-पेरा वि‍द्यालयसँ सजल छल, धारक कटावसँ वि‍रान बनि‍ गेल अछि‍। ने एकोटा सतघरि‍या पोखरि‍ बचल अछि‍ आ ने पीपरक गाछक नि‍च्‍चाँक वि‍द्यालय। घराड़ी, खेत बनि‍ गेल अछि‍ आ पोखरि‍-झाँखड़ि‍ घराड़ी। मुदा तँए कि‍, ने गामक परि‍वार कमल, ने लोक आ ने गामक नाअों।‍ गामक दछि‍नवरि‍या सीमापर पहुँचते एकटा नवयुवककेँ पुछलयनि‍-
बाउ, की नाओं छी, अही गाम रहै छी?”
नवयुवक बालज- हँ। रमेश नाम छी।
हम पुछलयनि‍- गामक की हाल-चाल अछि‍?”
प्रश्न सुनि‍ रमेश ठमकि‍ गेल। कि‍अए नै ठमकैत। लम्‍वाइ (नमती) भलहि‍ं नै बढ़ल हुअए मुदा रंग आ चौराइ तँ जरूर चतरि‍ये गेल अछि‍। भरि‍सक चेहरा देखि‍ डरा गेल अछि‍। मुदा डर तँ ओतए बढ़ैत जतए डरनि‍हारकेँ आरो डेराएल जाइत। से तँ नै अछि‍। मधुआएल मन मुस्‍कुराइत मुँह खोलि‍ नि‍कलल-
बौआ, चालीस बर्ख पूर्व अही माटि‍-पानि‍क बीच डॉक्‍टर बनि‍ वि‍देश गेलौं......।
मधुर बोली सुनि‍ रमेश बाजल-
गाममे के सभ छथि‍?”
कहलि‍ऐ- कि‍यो नै। जेहो हेताह, हुनको छोड़ि‍ देलि‍यनि‍। जखन छोड़ि‍ देलि‍यनि‍ तँ वएह कि‍अए पकड़ता।
तखन रमेश पुछलक- रहबै कतए.......।
हम बजलौं- सएह गुनधुनमे छी।
रमेश बाजल- हम तँ महि‍सवारि‍ करै छी, आन कि‍छु जनै नै छी। चलु वस्‍तीपर पहुँचा दइ छी।
वस्‍तीपर पहुँचा रमेश चलि‍ गेल। हम ठमकि‍ गेलौं। पूबारि‍ भागक घरवारीक नजरि‍ पड़ि‍ते, ओतैसँ पुछलनि‍-
कतए जाएब?”
कहलि‍यनि‍- ब्रह्मपुर।
घरवारी कहलनि‍- यएह छी। इमहर आउ।
मनमे सबुर भेल। हूबा बढ़ल। अपन गामक चालि‍ बढ़ल। लफड़ि‍ कऽ दरबज्‍जापर पहुँचलौं। घरवारी कहलनि‍-
थाकल-ठहि‍आएल आएल छी, पहि‍ने पएर धोउ। चाह बनौने अबै छी, तावत कपड़ा बदलि‍ आराम करू। आइ भरि‍क तँ अभ्‍यागत भेलौं काल्हि‍क वि‍चार काल्हि‍ करब।
कहि‍ आंगन जा चाह अनलक। दुनू गोटे पीबैत कहलि‍यनि‍-
हमहूँ अही गामक वासी छी। नोकरी करए बाहर गेल रही। अपन घराड़ि‍‍यो अछि‍ आ दस बीघा चासो।
ओ बाजल- हमहूँ आने गामक वासी छी। नानाक दोखतरीपर छी। तँए, ने गामक आँट-पेट जनै छी आ ने पुरना लोक सभकेँ।
कहलि‍यनि‍- हम डॉक्‍टर छी।
ओ बजलाह- तखन तँ गामक देवते भेलौं। जाबे अपन ठर नै बनि‍ जाइए ताबे एतै रहू। अति‍थि‍-अभ्‍यागतकेँ खुऔने आरो बढ़ै छै।
ठौर पाबि‍ मन खुशी भेल। जीबैक आशा देखि‍ पत्नीकेँ फोन लगेलौं-
हेलो..
पत्नी उत्तर देलनि‍- हँ, हँ, हेलो।
हम कहलि‍यनि‍-
गामसँ बजै छी। पुन: घुरि‍ कऽ पेरि‍स नै आएब। अहाँ जँ आबए चाही तँ चलि‍ आउ।
पत्नी कहलनि‍-
चूक भेल जे संगे नै गेलौं। जाधरि‍ अहाँ छलौं ताधरि‍ आ अखनमे जीवन-मृत्‍युक अन्‍तर आबि‍ गेल अछि‍।
हम कहलि‍यनि‍- जखने मन हुअए तखने चलि‍ आएब।
ओ बजलीह- फोन रखै छी..?”

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