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Friday, October 18, 2013

(64) सनेस

सनेस

लक्ष्‍मण रेखाक बीच सीता नहाँति‍ बैसल सनक काका, प्रेम रस पीब प्रेमीक संग अधरूपि‍या चालि‍ पकड़ि‍, अधखि‍लू फूलक गंधमे गमियाइते मुँहक मुस्‍कीया सौझुका सि‍ंगहार जकाँ महमहेलनि‍। अजीब ईहो दुनि‍याँ अछि‍। ने सतीए अछि‍ आ ने वेश्‍ये अछि‍। बनौनि‍हारकेँ धैनवाद दी जे एक दि‍स वि‍वेकक वि‍न्‍यास बाँटि‍ पाँति‍ए-पाँति‍, पाते-पात परसि‍‍ देलनि‍ तँ दोसर दिन-राति‍ बना आगूमे ठाढ़ कऽ देलनि‍। धरमक संग पाप, सुकर्मक संग कुकर्म, वि‍द्वानक संग मुरूख आ पुरुष मौगीक जोड़ा लगा-लगा, पतियानी बीच पात्रेक पत्ते-पत्ते सेहो परसि देलनि‍। जेते आगू दि‍स सनक काका देखै छला ओते छगुन्‍ता लगै छेलनि‍। एक दि‍स पानि‍क ठोप चन्‍द्रोदक कहबैत, तँ दोसर दि‍स असीम अथाह क्षीरसागर, मुदा चन्‍द्रोदको तँ केतौ दूधक तँ केतौ पानि‍क तँ केतौ दूधपनि‍या सेहो होइते अछि‍। कहू जे ई केहेन दुनि‍याँक खेल छी जे कि‍यो असकरेमे सोलहो ताल धऽ नचबो करैत, गेबो करैत आ देखबो करैत‍ तँ कि‍यो भीड़-भाड़ तकैत। जेते देखि‍नि‍हार तेते नीक नाच। दुनि‍याँक चक्कर-भक्कर देखि सनक कक्काक मन तरे-तर उदास भेल जाइत रहनि‍। जहि‍ना घुमती बरियाती रंग-रंगक बात करैत तहि‍ना मनमे उठैत रहनि‍। अनेरे मनुख बनि‍ जनम लेलौं। मनुखपना जखनि एबे ने कएल तखनि मनुख किए भेलौं। मुदा पना औत केना? बाँसक पना ओधि‍ होइत अबै छै, केरा-मोथी-अड़ि‍कोच इत्‍यादि‍क सेहो ओहि‍ना अबैत, मुदा मनुखमे से कहाँ भेल। बि‍नु पनेक मनुख ठाढ़ हएत। ठाढ़ तँ हएत मुदा शुद्ध ठाढ़ हएत आकि अशुद्ध? जखनि जानवरोमे फेंट-फाँट होइते छै, तखनि अपन हि‍स्‍सा मनुखे किए छोड़ि‍ देत। अनेरे दुनि‍याँक महजालमे फँसि‍ मरैले छड़पटाइ छी। दुनि‍याँमे के एहेन अछि‍ जे सुख-सागरमे बैस आनन्‍द नै चाहैए मुदा दुनि‍योँ तँ दुनि‍येँ छी कि‍ने? रंग-बि‍रंगक सागर सभ सेहो बसल अछि‍। क्षीर सागर, सुख सागर, लाल सागर, कारी सागर। सनक कक्काक मन ठमकलनि‍। जीबैतमे जेतए बौआइ मुदा समाधि‍ तँ ठौरपर लेब। जौं से नै तँ हि‍टलर जकाँ थूकक धारमे भँसियाइत रहब। उदास मन, बि‍रहाइत बगए सनक कक्काक रहनि‍। तखने भातीज-मनमोहन पोलीथि‍नक झोरामे अदहा किलो कि‍लो अंगूर आ सेब आगूमे रखि‍ देलकनि। झोरा आगूमे देखि‍ते ठहाका मारि‍ काका हँसला। कक्काक ठहाकाक चोट मनमोहनकेँ नै लगलनि‍, जेना आमक गाछपर गोला फेकलापर कोनोकेँ खसने गोलवाहकेँ खुसी होइत सहए खुशी मनमोहनकेँ भेल। मुदा नि‍शान साधल आमक महत कि‍छु आरो। ठहाका मारि‍ बाजल-
काका, ई अहींक सनेस छी।
सनेस सुनि‍ सनक काका चौंकला जे सनेस कहि‍ की कहैए। पुछलखि‍न-
केतक सनेस छी?”
मनमोहन कहलकनि-
कश्‍मीरी सेब छी आ पूनाक चमन अंगूर।
सनक काकाकेँ मन तरे-तर सनकल जाइत जे ई छौड़ा कि‍ बूझि‍ मजाक करए आएल। जहि‍ना बाप एकोटा कुकर्म नै छोड़लकै तही उतारक अपनो भेल अछि‍ आ सेव-अंगूर देखबए आएल अछि‍। तामसकेँ तरेमे दबैत काका कहलखि‍न-
हौ मनमोहन, एक दि‍नक भोजे की आ एक दि‍नक राजे की! बच्‍चा सभकेँ दऽ दि‍हक। अपने अनरनेबा आ लताम दुइर होइए। जेते तोहर लेब तेते अपन दुरि‍ए हएत। अच्‍छा बौआ, एकर भाउ की छै?”
एकर भाउ बुझैक कोन जरूरति‍‍ पड़ि‍ गेल काका?” मनमोहन कहलकनि।
मोने-मन सनक काका सोचलनि‍ जे छौड़ा नम्‍हर छि‍नार-लूटार जकाँ बूझि‍ पड़ैए। कहलखि‍न-
बौआ, आब तँ सहजे‍ चल-चलौए छी मुदा अपनो देश-कोसक हाल बूझब कोनो अधला हएत?”
  एक तँ सनक कक्काक बदनामी शुरूहेसँ रहलनि‍ जे घरो लोक सनकले कहै छन्‍हि‍। केना नै कहनि‍ सभ अपन परि‍वारक बाल-बच्‍चा लेल करैए आ ई सनक काका से बुझबे ने करै छथि‍। परि‍वारोमे सनक कक्काक सनकी यएह रहनि‍ जे अपन-परि‍वार आ दोसर परि‍वारमे भेदे नै बुझथि‍न। जहि‍ना अपन परि‍वार तहि‍ना दोसराक। अखनि धरि‍ मनमोहन यएह बुझैत जे परि‍वारोसँ बाड़ले-बेरौले छथि‍ तँए सभ चीजक दुख-तकलीफ होइते छन्‍हि‍। मनमोहनक नजरि‍ करुआए लगल। सनक काका बुझैक कोशि‍श करए लगला, कारण की छै। मनमे मि‍सि‍ओ भरि‍ सन्‍देह अपनापर नै भेलनि‍। मन गवाही दैत रहनि‍ जे नि‍नानबे प्रति‍शत राक्षसक देश लंका तैठाम वि‍भीषण केना भक्‍ति‍-भजन करैत जि‍नगी गुदश करै छला। केहनो सघन बोन सुकाठ-कुकाठक किए ने होउ मुदा आमक गाछ आम आ लतामक गाछ लताम फड़ब बि‍सरि‍ जाएत! दोहरा कऽ मनमोहनकेँ पुछलखि‍न-
हौ बौआ, जहि‍ना एक्के गोरे डाक्‍टरो आ इंजीनि‍यरो नै भऽ सकैए कि‍एक तँ दुनूक दि‍शा अलग-अलग छै। मुदा सेबक जगह जौं अपनासँ नीक लताम आ अंगूरक जगह अनरनेबा नेने अबि‍तह तँ फले नै बीओ रोपि‍ देति‍ऐ।
सनक कक्काक प्रश्न सुनि‍ मनमोहन उछलैत कहलकनि-
काका, दुनि‍याँ आब घर-आँगन बनल जा रहल अछि‍। आ अहाँ पुश्‍तैनी वि‍चार रखनहि‍ छी।
मनमोहनक साँसक गरमीकेँ अंकैत सनक कक्काक सनकी तेज नै भेलनि‍। मि‍ड़मि‍ड़ाइत कहलखि‍न-
बौआ, जौं दुनि‍याँ घर-आँगन बनि‍ गेल तँ ओ नीक बात छी, मुदा ई तँ नीक बात नै जे कि‍यो नौड़ी-छौड़ी बना भाषा, साहि‍त्‍य-संस्‍कृति‍केँ ओझरा मटि‍या मेट कऽ दि‍अए। से कनी बुझा दाए जे की‍ भऽ रहल छै?”
गुम्‍हरैत मनमोहन कहलकनि-
काका, दुनि‍याँ आब नव पीढ़ीक अछि‍ तँए केतबो दुसबै ओ चढ़बे करत।
  मनमोहनक प्रश्नसँ सनक कक्काक सनकी पाछू मुहेँ ससरलनि‍। पछुआ पकड़ि‍ पुछलखिन-
बौआ, जर्मनी-जापानी आ अंग्रेजी शब्‍द ऐ लेल चढ़-चढ़ौ भऽ गेल जे ओकर वि‍कास अगुआ मशीनमे पहुँच‍‍ गेल आ मशीनक नाओं रखि‍-रखि‍ अहाँक घर-अँगनामे छि‍ड़ि‍या देलक। अहाँ ऋृषि‍-मुनि‍क राज मि‍थि‍ला कहि‍-कहि‍ ओतए पहुँच‍‍ गेलौं जे ओ सभ की कहलनि‍ तेकर डि‍क्‍शनरीए चोरा लेत। तखनि अहाँ बुझबै जे केहेन नव युगक नव लोक बनि‍ गेलौं?”
सनक कक्काक बात सुनि‍ मनमोहन ठमकल मुदा पाछू हटैले तैयार नै भेल। बाजल-
काका, बजारमे अखनि एक-सँ-एक खाइओ-पीबैक आ फलो-फलहरी तेहेन आबि‍ गेल अछि‍ जे अपना ऐठामक फल-फलहरीकेँ के पूछत?”
मनमोहनक प्रश्न सुनि‍ सनक कक्काक, सनकी आगू मुहेँ ससरि‍ते, कहलखि‍न-
बौआ, कोनो देश-कोसक वि‍कासमे ओइठामक माटि‍, पानि‍, हवा इत्‍यादि‍ पंच भूत मुख्‍य तत्व भेल। अनुकूल गति‍ए सृष्‍टि‍ चलैए। अपना ऐठामक लताम वा कोनो आन फल अछि‍, ऐठामक काल-क्रि‍याक गति‍ए जे जरूरी छल ओ प्रकृति‍ पैदा केलक। अपना ऐठाम एकरे अभाव भेल, जइसँ पहाड़ी फलकेँ मैदानी क्षेत्रमे नीक मानल जाइए।
अपनाकेँ मनमोहन नि‍रुत्तर देखि‍ मैदानसँ हटैक वि‍चार करए लगल। मुदा सेव-अंगुरक पोलिथीन बीचक सीमा बनल। रूमाल चोर जकाँ सीमा पहि‍ने के टपत। पाछू हटैत मनमोहन बाजल-
काका, आशा लगा अनने छेलौं जे काकाकेँ नीक फल खुएबनि‍।
मनमोहनक बात सुनि‍ सनक काका तारतम्‍यमे पड़ि‍ गेला जे अखनि धरि‍ जे हम बुझै छेलि‍ऐ तइसँ भि‍न्न ने तँ मनमोहन अछि‍। आशाक दोहाइ लगा बजैए जे आशा लगा अनने छेलौं। आशा तँ सभकेँ अपन-अपन होइ छै। सबहक देहेटा अलग-अलग नै अछि‍, मनक उड़ान सेहो होइ छै। पि‍जरामे बन्न सुग्‍गोकेँ पोसि‍नि‍हार सि‍खबैए जे आत्‍मा राम पढ़़ू- चि‍त्रकूट के घाटपर, भए संतन के भीड़। तुलसी दास चानन रगड़े, ति‍लक करे रघुवीर...। मुदा सेहो तँ ने बूझि‍ पड़ैए। तखनि? ओ तँ पुछनहि‍ पता चलत। पुछलखिन-
हौ बौआ, जहि‍ना घरक लोक हमरा बताह कहैए तहि‍ना ने ओकरो सभकेँ सनकपनीए फल खुएबै। कहि‍ मोने-मन सोचए लगला। भाँग पीब कि‍यो बाजि‍ चुकल छथि‍ आकि‍ असथि‍र मोने सोचि‍ कहने छथि‍ जे जेहेन खाइ अन्न तेहेन बने मन। मुदा अहू छौड़ाकेँ तँ छि‍छा-बीछा नीक नहि‍येँ छै। भरि‍ दि‍न देखै छि‍ऐ जे ऐठामसँ ओइठाम, ओइठामसँ ऐठाम ढहनाइते रहैए। तैपरसँ दि‍नो-दि‍न आगूए मुहेँ ससरि‍ रहल अछि‍। से केना? बहुरूपि‍या ने तँ छी! सलाइ रि‍ंच जकाँ सभ नट पकड़ै बला! तही बीच मनमोहन बाजल-
काका, अहाँ अपने हाथे बाँटि‍ दियौ।
मनमोहनक बात सुनि‍ सनक काका ठमकि‍ गेला। जहि‍ना कोनो टपारि‍ कुदैले दू डेग पाछू हटि‍ दौग कऽ टपि‍ जाइत तहि‍ना काका पाछूसँ आगू बढ़ि‍ कहलखि‍न-
हौ बौआ, बतरसि‍या हाथ भऽ गेल, ओहुना हरिदम थरथराइए तैपर कोनो काज करै काल तँ आरो बेसी थरथराए लगैए। अपन चीज जे थोड़-थाड़ छि‍ड़ि‍आइओ गेल तँ नै कोनो, मुदा तोहर जे एकोटा अंगुर खसि‍ पड़त तँ तोरे मन की‍ कहतह। यएह ने जे सनकाहक ठेकान कोन। तँए हमरा चलैत तोरा मनकेँ ठेँस लगऽ से नीक नै बुझै छी।
कक्काक बात सुनि‍ मनमोहन बाजल-
तँ की काका, घुमा कऽ लऽ जाइ?”
अनेरे ओझरीमे ओझराएल अपनाकेँ देखि‍ सनक काका, ठाँहि‍-पठाँहि‍ कहलखि‍न-
ई तोहर खुशी छिअ जे घुमा कऽ घरपर लऽ जा वा दोकानदारेकेँ घुमा दहक वा रस्‍ता-पेरामे कोनो धि‍ए-पुतेकेँ दऽ दहक। हम कि‍छु ने कहबह। एते दि‍न पछाति‍‍ दरबज्‍जापर एलह सहए खुशी अछि‍।
  सनक काकक बात सुनि‍ जहि‍ना जाड़सँ कठुआ कि‍यो देह-हाथ तानि‍ अचेत भऽ जाइत तहि‍ना मनमोहनकेँ भेल। मुदा...?

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