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Friday, October 18, 2013

(53) न्‍याय चाही

न्‍याय चाही

झुनाएल धान जकाँ पचासी बरखक शंभु काकाकेँ ओछाइन छौड़ैसँ पहिने‍ मनमे उठलनि जे आब तँ चल-चलाैए छी से नै तँ जि‍नगीक अपन हि‍साब-कि‍ताब दइए दियनि‍, सएह नीक। नै तँ शासनक कोन बि‍सवास केकरो दोख गारा मढ़ि‍ सजा केकरो भेटै छै। मुदा सोझहामे एते तँ जरूर हएत जे अपन बात अपने रखि‍ सकै छी। तैपर जौं नै मानत तँ हमहूँ नै मानबै। लड़ि‍ मरी आकि‍ सड़ि; शेषे कथी बँचल अछि‍। जहि‍ना नम्‍हर काजमे समैओ अधि‍क लगैए‍ आ छोट काजमे थोर मुदा काज तँ दुनू कहबैए‍। कि‍यो काहू मगन कि‍यो काहू मगन, मगन तँ सभ अछि‍ए। गंभीर प्रश्नमे ओझराएल शंभु काका, तँए मन-चि‍त्त-देह एकबट्ट भेल रहनि‍।
पत्नी कुमुदनीक मनमे उठलनि‍ जे भरि‍सक सुतले तँ ने रहि‍ जेता। लगमे पहुँच‍‍ छाती डोलबैत पुछलकनि-
अखनि धरि‍ किए बि‍छान पकड़ने छी?”
पत्नीक स्‍वरलहरीमे लहराइत शंभु काका हलसि‍ बजला-
अखनि धरि‍ यएह बुझै छेलौं जे अपने केलहाक भागी कि‍यो बनैए, मुदा...?”
बजैत शंभु काका ओछाइनपरसँ उठि‍ जहि‍ना उगैत सुरूजक दर्शन लोक दुनू हाथ जोड़ि‍ प्रणाम करैत करैए तहि‍ना दुनू हाथ जोड़ि‍ पत्नी-कुमुदनीक आगूमे ठाढ़ होइत दोहरा कऽ बजला-
माफी मंगै छी। गल्‍ती भेल अछि‍ मुदा दोसराक गल्‍ती ऊपर मढ़ल गेल अछि‍।
अकचकाइत कुमुदनी, बि‍नु कि‍छु सोचनहि‍ बाजि‍ उठली-
से की, से की, एना किए भोरे-भोर पाप चढ़बै छी।
पाप नै चढ़बै छी जि‍नगीक जे घटल-घटना अछि‍, तइ नि‍मि‍त्ते मांगि‍ रहल छी।
जखनि एते कहबे केलौं तखनि किए ने मनो पाड़ि‍ देब। अहाँ तँ बुझि‍ते छि‍ऐ जे बसि‍आ भात खेनि‍हारि‍ बि‍सराह होइए मुदा रतुका उगड़ल अन्न फेकि‍ देब नीक हएत।
पतालसँ अबैत बलुआएल पानि‍ जहि‍ना छन-छनाइत पवि‍त्र भऽ अबैए‍ तहि‍ना कुमुदनीक वि‍चार सुनि‍ प्रोफेसर शंभु काकाकेँ भेलनि‍, बजला-
अपना दुनू गोटेक एक जि‍नगी ऐ धरतीपर रहल अछि‍। आकि‍ नै?”
हँ से तँ रहले अछि‍। तँए ने अर्द्धांगि‍नी छी।
हमर देहक अर्द्धांगि‍नी छी आकि‍ जि‍नगीक?”
ई बात अहाँ बुझेलौं कहि‍या जे पुछै छी।
पत्नीक प्रश्न सुनि‍ प्रोफेसर शंभु काका सकदम भऽ गेला। मुदा लगले मनमे उठलनि‍ जे टटको घटना बसि‍आ जाइ छै आ बसि‍यो घटना टटका भऽ जाइ छै। ई ि‍नर्भर करैए कारीगरपर। जेहेन कारीगर रहत तेहेन टटकाकेँ बसि‍आ आ बसि‍आकेँ टटका बनबैत रहत। खएर जे होउ। पत्नीकेँ पुछलखि‍न-
अपना दुनू गोटे एकठाम केना भेलि‍ऐ?”
एना अरथा-अरथा किए पुछै छी। जे कहैक अछि‍ से सोझ डारि‍ए कहू। एना जे हरसीकार दीरघीकार लगा-लगा बजै छी से नै बाजू। जेकरा नीक बुझबै तेकरा नीक कहब आ जेकरा अधला बुझबै तेकरा अधला कहब। अहाँ लग जे कनी दबो-उनार भऽ जाएत तँ हारि‍ मानि‍ लेब। सएह ने हएत आकि‍ छाउर-गोबर जकाँ छि‍ट्टामे उठा बाध दऽ आएब।
जहि‍ना पोखरि‍क पवि‍त्र जलमे स्‍नान कऽ पूजाक मूर्ति गढ़ि‍ मंत्र पढ़ैत दान कएल जाइत तहि‍ना शंभु काका बड़बड़ाए लगला-
जखनि हम चौबीस बरखक रही तखनि अहाँ चौदह बरखक छेलौं। दस बरखक अन्‍तर। आइ धरि‍ कहाँ केतौ देखि‍ पेलौं जे पुरुष-नारीक बीच उमरोक वि‍भाजन भेल। जौं से नै तँ...? जौं एको औरूदे दुनू गोटे जीब तैयो तँ अहाँ दस बरख वि‍धवे बनि‍ रहब। ऐ वि‍धवाक सर्जक के? समाजमे कलंकक मोटरी देनि‍हार के? की ई बात झूठ जे जइ घरमे जेते कम वस्‍तु रहै छै आगि‍ लगलापर ओतबे कम जरै छै मुदा जइ घरमे अधि‍क वस्‍तु रहै छै, आगि‍ लगलापर जरबो बेसी करै छै। पचास बरखक तपल-तपाएल जि‍नगीक अन्‍त केना हएत।
दुनू हाथ जोड़ि‍ पत्नीसँ माफी मंगलनि‍। मुदा जहि‍ना बच्‍चाकेँ नव दाँत रहने अधि‍क-सँ-अधि‍क काज लि‍अए चाहैत, नव औजार हाथमे एने अधि‍क-सँ-अधि‍क काजो आ अधि‍क-सँ-अधि‍क समेओ संग मि‍लि‍ बि‍तबए चाहैत तहि‍ना कुमुदनीक सि‍नेह आरो जगलनि‍। बजली-
माँफी-ताँफी नै मानब? पति‍ छी तँए पुछै छी। एहन गल्‍ती भेल किए, से जाबे‍ नै कहब ताबे‍ कि‍छु ने मानब।
पत्नीक प्रश्न सुनि‍ शंभु काका स्‍तब्‍ध भऽ गेला। मन कछमछाए लगलनि‍। सत् बड़ कटु होइत अछि‍। मुदा जौं पत्नीओ लग सत्यक उद्घाटन नै कऽ सकब तँ दुनि‍याँमे दोसरठाम कइए केतए सकै छी। शम्‍भुकाका साँप-छुछुनरि‍क स्‍थि‍ति‍मे पड़ि‍ गेला। एहेन कोनो वि‍चार मनमे उठबे ने करनि‍ जइसँ मन मानि‍ लइतनि‍ जे ऐसँ पत्नी मानि‍ जेती। अल्ल-बल्ल कि‍छु बच्‍चाकेँ कहल जाइ छै, एक तँ सि‍आन कि जे सि‍आनोक अगि‍ला खाड़ीमे पहुँचल छथि‍ दोसर अर्द्धांगि‍नी सेहो छथि‍। कोनो वि‍चारकेँ बलजोरी थोपि‍ नै सकै छि‍यनि‍, जौं थोपि‍ओ देबनि‍ तँ मानि‍ए लेती सेहो नै कहल जा सकैए। जेते दबाब दऽ कऽ बजैक अधि‍कार हमरा अछि‍ तेते तँ हुनको छन्‍हि‍ए। जौं कि‍छु नै कहबनि‍ तखनि तँ आरो स्‍थि‍ति‍ बि‍गड़ि‍ जाएत। जहि‍ना हुनका मनमे गंेठी जकाँ जनमगाँठ पड़ि‍ जेतनि‍ तहि‍ना तँ अपनो मन नहि‍येँ बँचत। जौं से नै बँचत तँ आँखि‍ उठा देखि‍ केना पेबनि‍। जौं से नै देखि‍ पाएब तँ पति‍ कथीक। सि‍रि‍फ रंगे-रभसटा तँ पत्नीक सम्‍बन्‍ध नै छी। जौं ओतबे मानि‍ बुझबनि‍ तँ पति‍-पत्नीक सम्‍बन्‍ध बूझब थोड़े हएत। पति‍-पत्नीक सम्‍बन्‍ध तँ ओ छी, जहि‍ना जनकक एक हाथ हवन-कुंडमे आ दोसर पत्नीक करेजपर रहै छेलनि‍, मुदा जहि‍ना नव जीवनक दि‍शा विपतिक अंति‍म अवस्‍थामे भेटैए‍ तहि‍ना शंभुओकाकाकेँ भेटलनि‍। थालमे गड़ल मोती जहि‍ना जहुरी हाथमे देखि‍ते नयन कमलनयन बनि‍ जाइत तहि‍ना कक्कोक नजरि‍केँ भेलनि‍। मन मुस्‍कीएलनि‍। पति‍क मुस्‍की देखि‍ कुमुदनी मने-मन नमन केलकनि‍। जि‍ज्ञासु छात्र जकाँ पत्नीक जि‍ज्ञासु नजरि‍केँ देखि‍ प्रोफेसर शंभु कहलखि‍न-
देखू, प्रश्न एकेटा नै घनेरो अछि‍, जौं एक-एक प्रश्नक उत्तरो दि‍अए लगब तँ प्रश्ने छूटि‍ जाएत। जौं प्रश्ने छूटि‍ जाएत तखनि उत्तरे केना देब। कि‍छु नै, बुढ़ि‍या फूसि‍।
पति‍क वि‍चार सुनि‍ कुमुदनी अधखि‍ल्‍लू कुमुदनी जकाँ जइ अवस्‍थामे भौंरा फरि‍च्‍छ तँ देखैत मुदा अधखि‍ल्‍लू कपाटसँ नि‍कलि‍ नै पबैत तहि‍ना कुमुदि‍नी असमंजसमे पड़ि‍ गेली।
पत्नीकेँ असमंजसमे पड़ैत देरी प्रोफेसर शंभुक मनमे उठलनि‍ जे जहि‍ना माटि‍क ढेपा, गोला, चेका जोड़ि‍-जोड़ि‍ पैघसँ पैघ बान्‍ह बान्‍हल जाइए तहि‍ना जौं बान्‍हि‍ दि‍यनि‍ तँ जरूर ठमकि‍ जेती। मुदा मन नै मानलकनि‍। पत्नीक बातमे तँ अखनि धरि‍ ओझराएल रहलौं। जरूर माए-बापक काज मानल जाएत। मुदा, की‍ हमरे टा परि‍वारमे एना भेल आकि‍ दोसरो-तेसरो परि‍वारमे? जौं एक समाज नै, एक गाम नै अनेक समाज आ अनेक गाममे होइत अछि‍ तँ जरूर दोषक जड़ि‍ केतौ अन्‍तए छै। अन्‍तए केतए छै से कहि‍ देबनि‍, मानती तँ मानती नै तँ आगू कहबनि‍ नेति‍-नेति‍।
जहि‍ना उगैत गुज्‍जर, उगैत कलशकेँ कहैत जे दुनू गोटे संगे-संग रहि‍ दुनि‍याँ देखब। तहि‍ना प्रोफेसर शंभु पत्नीकेँ कहलखि‍न-
सुनू, सभ बात सबहक नजरि‍पर सदिकाल नै रहै छै, भऽ सकैए जे जे बात दस-बीस बरख पहि‍ने कहि‍ देबाक चाहै छल, से नै कहलौं। अपनो धि‍यानमे नै रहल। जहि‍ना असगरे धान तौलिनिहार गनि-गनि तौलबो करत आ उठि‍-उठि‍ लि‍खबो करत तँ गि‍नती-गि‍नतीमे झगड़ा हेबे करैत, जे जोरगर रहैत ओ मन रहैत जे अब्‍बल रहैत ओ हरा जाइत। तहि‍ना ने अपनो दुनू गोटेक बीच अछि‍।
दुनू गोटे सुनि‍ कुमुदनी कछमछेली। पाछू उनटि‍-उनटि‍ देखए लगली। प्रोफेसर शंभु बूझि‍ गेला जे शि‍कारीक वाण सटीक बैसल। जहि‍ना बाल-बोधक उनटा-पुनटा काज देख सि‍आनकेँ हँसी-लगैत तहि‍ना प्रोफेसर शंभुकेँ हँसी लगलनि‍। मुदा लगले मनमे उठलनि‍ जे अपनो पछि‍ला कएल काज मन पड़ने तँ से होइए। एकाएक मुँह बन्न भऽ गेलनि‍। आने-आन पुरुख जकाँ अपन पुरुषत्‍व देखबैत प्रोफेसर शंभु बजला-
आइ धरि‍, अखनि धरि‍ कहि‍यो हमरा मुहसँ फुटल जे हम न्‍यायालयसँ दण्‍डि‍त भेल जि‍नगी जीब रहल छी। कि‍यो एको दि‍न पुछाड़िओ करए आएल जे केना जीबै छी। समाजमे जाधरि‍ बूढ़-बुढ़ानुसक पूछ नै हएत, ताधरि‍ समाजक पछि‍ला पीढ़ी नागरि‍ पकड़ि‍ वैतरणी पार केना हएत। हँ ई जरूर जे साँपकेँ डोरी नै कही, मुदा वि‍चार तँ हेबाके चाही।
घरमे चौंकल बर्तनक ढनमनी जकाँ कुमुदनी ढनमनाइत बजली-
जखनि अहाँ दुनि‍याँक नजरि‍मे दण्‍डि‍त छी तखनि...?”
पत्नीक चि‍न्‍तासँ चि‍न्‍ति‍त भऽ प्रोफेसर शंभु कहलखि‍न-
अखनि धरि‍ तँ छि‍पेने रहलौं जे अपन दोख अहाँकेँ किए दी।
पति‍क बेथासँ बेथि‍त भऽ कुमुदनी बजली-
कनी फरि‍च्‍छा कऽ कहू?”
प्रोफेसर शंभु कहलकनि-
सेवा-ि‍नवृत्त होइसँ छह मास पहि‍ने प्रि‍ंसि‍पल बनाैल गेलौं। कौलेजक भार बढ़ल। परीक्षा वि‍भाग सेहो छै। सुननहि‍ हेबे जे केते हो-हल्‍ला भेल। मामला न्‍यायालय चलि‍ गेल। गोल-माल जरूर भेल रहए, जानकारीमे नै रहए। मुदा तैयो जवाबदेहक रूपमे फॅसलौं।
कुमुदनी पुछलखिन-
अहाँक कि‍छु दोष नै रहए?”
प्रोफेसर शंभु कहलकनि-
एकदम नै।
कुमुदनी पुछलखिन-
फैसला केना भेल?”
प्रोफेसर शंभु कहलखिन-
सेवा ि‍नवृत्त लग देखि‍ न्‍यायालय दोषी बना छोड़ि‍ देलक।
कुमुदनी पुछलखिन-
आ हुनका सभकेँ?”
प्रोफेसर शंभु कहलखिन-
कमो दोखबला बेसी सजा पौलक आ बेसीओ दोखबला कम सजा पौलक।
तैपर कुमुदनी पुछलखिन-
एना किए भेल?”
प्रोफेसर शंभु कहलखिन-
जौं पहि‍ने बुझि‍तौं तँ ऐ भीर जेबो ने करि‍तौं मुदा से नै भेल। जाधरि‍ लि‍खि‍त-मौखि‍क रूपमे बेवस्‍था चलत ताधरि‍ अहि‍ना हएत।

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