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Friday, October 18, 2013

(43) मातृभूमि

मातृभूमि

जि‍नगीक अंति‍म चरणमे आइ अपन मातृभूमि‍क दर्शन भेल। ओ भूमि‍ जैठामसँ माए सदति‍ नजरि‍ उठा-उठा देखैत रहैत, ओ प्‍यारी, सि‍नेही, प्रेमी, जीवनदायि‍नी, जीवन रक्‍छि‍नी भूमि, मातृभूमि‍। दर्शन पबि‍ते कमल मन कलपि‍ उठल मुदा असीम उत्‍साहक संग उमंग संचारि‍त भेल। काल्हि‍ धरि‍क जि‍नगी आँखसँ छि‍पए लगल, ओझल हुअ लगल, मुँह नुकबए लगल। जइ दि‍न अपन जीवनदायि‍नी भूमि‍सँ वि‍दा हुअ लगल रही पूर्ण जुवा रही। नस-नसमे नव खूनक संचार होइत रहए। समुद्री जुआर जकाँ जुआनी उठैत रहए। आशा-अभि‍लाशाक संग पकड़ैले उत्‍साहि‍त रहए। बाट नै‍ भेटने मातृभूमि‍क दर्शन लाखो कोस दूर दुर्गमे छि‍पल रहए। मुदा दर्शन पबि‍ते सत्-चि‍त्त-आनन्‍दसँ खेलैत देखि‍, नमन केलि‍यनि‍।
डाक्‍टरीक डि‍ग्री प्राप्‍त करि‍ते बि‍आह भेल। नीक गाम, नीक कन्‍या नीक कुल-मूलक संग नीक दहेज भेटल। केना नै भेटैत, जइ डि‍ग्रीक मांग देश-वि‍देशमे अछि‍ ओइमे बेकारी केतएसँ औत। मुदा इंजीनियर जकाँ तँ नै जे डि‍ग्री पेलोपर काज नै! तइले तँ साधनक जरूरति‍ अछि‍ से अछि‍ केतए। जुआनीक उमंग उठि‍ते गेल। संयोगो नीक रहल जे बाइस बरखक अवस्‍थामे ओइ फ्रान्‍समे जइमे महान्-महान् दार्शनि‍क, तत्‍व चि‍न्‍तक वैज्ञानि‍क, कलाकार, साहि‍त्‍यकार, देशभक्‍त जनम लेने छथि‍, काज करैक अवसर भेटल। रंगीनी दुनि‍याँक स्‍वर्ग, जेहेन ओतए सड़क तेहेन एतए घर नै, ओइ पेरि‍समे। बि‍सरि‍ गेलौं अपन भूमि‍, अपन मातृभूमि‍। ओना सोलहन्नी बि‍‍सरि‍ नै गेल रही, मुदा वि‍चारक आलमारीक पोथी जाकमे, तर जरूर पड़ि‍ गेलैं। अखनो मन अछि‍, गामक वि‍द्यालयक देश वन्‍दना। हृदैमे नै पहुँचल छल गंगा सन पवि‍त्र जलधाराक सरि‍ता, नै जनै छेलौं माटि‍क सुगंध आ गाछी-बि‍‍रछीक फल-फूलक महमही।
अनुकूल हवा पाबि‍ मन मोहि‍त भऽ गेल। जी तोड़ि‍ जि‍नगीक पाछू पड़ि‍ गेलौं। करमेसँ जि‍नगी तँ हमरा किए नै। नीक स्‍तरक परि‍वार बनेलौं, नीक बैंक बैलेन्‍स अछि‍। अपनोसँ बेसी खुशी परि‍वारक सभ रहै छथि‍। कारणो स्‍पष्‍ट अछि‍। वाल-बच्‍चाक जन्‍मे भेल, पत्नी अनके घरमे रहैवाली। मुदा आइ मन वेकल किए लगैए। बौराइ किए अछि‍? एकाग्रचि‍त्त सभ दि‍न रहलौं तखनि बान्‍हल मन पड़ाए केतए चाहैए। की ‘आएल पानि‍ गेल पानि‍ बाटे-बि‍लाएल पाि‍न।’ जइ मातृभूमि‍क गुणगान बच्‍चा, वृद्ध सभ करै छथि,‍ तैठाम केतए छी। बढ़ैत-बढ़ैत जहि‍ना धन बढ़ैए, गाछ-बिरिछ बढ़ैए तहि‍ना ने वि‍चारो बढ़ैए। मुदा एना किए भऽ रहल अछि‍ जे आब ऐठाम, माने पेरि‍समे नै‍ रहि अपन मातृभूमि‍क रजकण बनब।
जहि‍ना बाइस बरखक वएसमे अपन गाम, समाज, भूमि‍-मातृभूमि‍ छोड़ि‍ पेरि‍स आएल रही तहि‍ना आइ छोड़ि‍ अपन प्रेमी मातृभूमि‍, सि‍नेही मातृभूमि‍क कोरामे वि‍श्राम करब। मुदा नहि‍योँ बुझैत रही तैयौ अबैकाल सभसँ असि‍रवाद लऽ लेने रही तहि‍ना तँ एतौसँ असीरवाद लाइए लि‍अए पड़त। जरूर पड़त। मुदा केकरासँ? केकरोसँ नै! ने अपन गंगा-यमुनाक जलधारा, ने हि‍मालय-कैलाश सन पहाड़, ने गंगा-ब्रहमपुत्र सन धरती, ने समुद्र सदृश हृदए। जहि‍ना पत्नीक संग आएल रही तहि‍ना जाएब। जौं ओहो नै जाथि‍ तखनि? ओ नै जाए चाहती तेकर कारणो तँ कहती। पुछलयनि‍-
आब ऐठाम नै रहब।
पत्नी बजली-
तखनि?”
कहलि‍यनि‍-
अपन मातृभूमि‍क दर्शन भऽ गेल। ओतए जाएब।
पत्नी उत्तर देलनि‍-
सभ अपन-अपन मालि‍क होइए। जौं अहाँ जाएब तँ जाएब।
पुन: पुछलि‍यनि‍-
अहाँ?”
कहली-
अपन कारोबार अछि‍। बेटा-पुतोहु दुनू फ्रान्‍सक भऽ गेल। दुनि‍याँक स्‍वर्गमे रहि‍ रहल छी। तखनि की?”
मन पड़ल ओ दि‍न जइ दि‍न जि‍नगीक हि‍साब जोड़ि‍ आएल रही। पत्नी संगे रहथि‍। मुदा आइ? जुग बित गेल। जि‍नका सभसँ असीरवाद लऽ आएल रही भरि‍सक मरि‍-हरि‍ गेल हेता, गेलापर के हृदए लगौता। तखनि? तखनि की? कि‍छु ने। मुदा जाधरि‍ पहुँचब ता धरि‍क तँ उपए चाही। वि‍दा भऽ गेलाैं।
एक समुद्रसँ मि‍लैत दोसर समुद्रक वि‍शाल जलराशि‍क बीच जहाजसँ मद्रास पहुँचलौं। मद्रास बन्‍दरगाहमे उतरि‍‍ अपन धरती, अपन देश, अपन मातृभूमि‍केँ हृदैसँ नमन केलि‍यनि‍। मन पड़ल रामेश्वरम्। जखनि मद्रास आबि‍ गेल छी तखनि बि‍नु दर्शने जाएब बचपना...। वि‍दा भेलौं।
धरती-समुद्रक बीच बनल रामेश्वरमक मंदि‍र। एक दि‍स वि‍शाल जल-राशि‍क समुद्र तँ दोसर दि‍स खि‍लैत-इठलाइत मातृभूमि‍। ऊपर शून्‍य अकास। समुद्रेक लहरि‍‍मे स्‍नान कऽ दर्शन केलौं। मंदि‍रसँ नि‍कैलि‍‍ते खजुरीपर गबैत एकटा साधु मुहेँ सुनलौं, अवगुन चि‍त्त न धरो। जेना भूखकेँ अन्न, पि‍यासकेँ पानि‍ खिहारि दैत, तहि‍ना मनमे भेल। जलखै कऽ गाम लेल गाड़ी पकड़लौं।
जंगल, पहाड़, नदी, मैदानकेँ चिरैत गाड़ी गाम लग पहुँचल। जे गाम कहि‍यो नन्‍दन वोन सदृश सजल छल- लहलहाइत खेत, रस्‍ता-पेरा वि‍द्यालयसँ सजल छल, धारक कटावसँ वि‍रान बनि‍ गेल अछि‍। ने एकोटा सतघरि‍या पोखरि‍ बँचल अछि‍ आ ने पीपरक गाछक नि‍च्‍चाँक वि‍द्यालय। घराड़ी, खेत बनि‍ गेल अछि‍ आ पोखरि‍-झाँखड़ि‍ घराड़ी। मुदा तँए की, ने गामक परि‍वार कमल, ने लोक आ ने गामक नाअों।‍ गामक दछि‍नवरि‍या सीमापर पहुँचिते एकटा नवयुवककेँ पुछलयनि‍-
बाउ, की नाओं छी, अही गाम रहै छी?”
नवयुवक बाजल-
हँ। रमेश नाम छी।
पुछलयनि‍-
गामक की हाल-चाल अछि‍?”
प्रश्न सुनि‍ रमेश ठमकि‍ गेल। किए नै ठमकैत। नमती भलहिं‍ं नै बढ़ल हुअए मुदा रंग आ चौराइ तँ जरूर चतरि‍ए गेल अछि‍। भरि‍सक चेहरा देखि‍ डरा गेल अछि‍। मुदा डर तँ ओतए बढ़ैत जेतए डरनि‍हारकेँ आरो डेराएल जाइत। से तँ नै अछि‍। मधुआएल मन मुस्‍कीआइत मुँह खोलि‍ नि‍कलल-
बौआ, चालीस बरख पूर्व अही माटि‍-पानि‍क बीच डाक्‍टर बनि‍ वि‍देश गेलौं...।
मधुर बोली सुनि‍ रमेश बाजल-
गाममे के सभ छथि‍?”
कहलि‍ऐ-
कि‍यो नै। जेहो हेता, हुनको छोड़ि‍ देलि‍यनि‍। जखनि छोड़ि‍ देलि‍यनि‍ तँ वएह किए पकड़ता।
तखनि रमेश पुछलक-
रहबै केतए...?”
बजलौं-
सएह गुनधुनमे छी।
रमेश कहलक-
हम तँ महिंसवारि‍ करै छी, आन कि‍छु जनै नै छी। चलु वस्‍तीपर पहुँचा दइ छी।
वस्‍तीपर पहुँचा रमेश चलि‍ गेल। हम ठमकि‍ गेलौं। पूबारि‍ भागक घरवारीक नजरि‍ पड़ि‍ते, ओतैसँ पुछलनि‍-
केतए जाएब?”
कहलि‍यनि‍-
ब्रह्मपुर।
घरवारी कहलनि‍-
यएह छी। इम्‍हर आउ।
मनमे सबुर भेल। हूबा बढ़ल। अपन गामक चालि‍ बढ़ल। लफरि‍‍ कऽ दरबज्‍जापर पहुँचलौं। घरवारी कहलनि‍-
थाकल-ठेहियाएल आएल छी, पहि‍ने पएर धोउ। चाह बनौने अबै छी, तावत कपड़ा बदलि‍ आराम करू। आइ भरि‍क तँ अभ्‍यागत भेलौं काल्हि‍क वि‍चार काल्हि‍ करब।
कहि‍ आँगन जा चाह अनलक। दुनू गोटे पि‍ऐत कहलि‍यनि‍-
हमहूँ अही गामक वासी छी। नोकरी करए बाहर गेल रही। अपन घराड़ीओ अछि‍ आ दस बीघा चासो।
ओ बजला-
हमहूँ आने गामक वासी छी। नानाक दोखतरीपर छी। तँए, ने गामक आँट-पेट जनै छी आ ने पुरना लोक सभकेँ।
कहलि‍यनि‍-
हम डाक्‍टर छी।
ओ बजला-
तखनि तँ गामक देवते भेलौं। जाबे अपन ठर नै बनि‍ जाइए ताबे एतै रहू। अति‍थि‍-अभ्‍यागतकेँ खुऔने आरो बढ़ै छै।
ठौर पाबि‍ मन खुशी भेल। जीबैक आशा देखि‍ पत्नीकेँ फोन लगेलौं-
हेलो..
पत्नी उत्तर देलनि‍-
हँ, हँ, हेलो।
कहलि‍यनि‍-
गामसँ बजै छी। पुन: घूमि‍‍ कऽ पेरि‍स नै आएब। अहाँ जौं आबए चाही तँ चलि‍ आउ।
पत्नी कहलनि‍-
चूक भेल जे संगे नै गेलौं। जाधरि‍ अहाँ छेलौं ताधरिक आ अखनिमे जीवन-मृत्‍युक अन्‍तर आबि‍ गेल अछि‍।
कहलि‍यनि‍-
जखने मन हुअए तखने चलि‍ आएब।
ओ बजली-
फोन रखै छी..?”
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