Pages

Friday, October 18, 2013

(40) बि‍हरन

बि‍हरन

जहि‍ना बैशाख-जेठक लहकैत धरती, अगियाएल वायुमंडलक बीच हवाकेँ खसने अनासुरती मेघक छोट-छोट चद्दरि सुरूज ओढ़ए लगैत, रेलगाड़ीक हुमड़ैत अवाज दौगए लगैत, रहि‍-रहि‍ कऽ गुलाबी इजोतक संग छि‍टकए लगैत जइसँ अनुमानि‍त मन मानैले बेबस भऽ जाइत जे‍ पानि‍-पाथर-ठनका संग बि‍हाड़ि‍ आबि‍ रहल अछि‍ तहि‍ना रघुनन्दन आ सुलक्षणीक परि‍वारमे ज्‍योति‍ कुमारीक जनमसँ भेलनि‍।
भलहिं‍ं आइ-काल्हि‍ बेटी जनमने माए-बाप अपन सुभाग्‍यकेँ दुर्भाग्‍य मानि‍ मनकेँ केतबो किए ने कोसथि‍ जे परि‍वारमे बेटीक आगमन हि‍मालयसँ समुद्र दि‍स नि‍च्‍चाँ मुहेँ ससरब छी, मुदा से दुनू बेकती सुलक्षणीकेँ नै भेलनि‍। जहि‍ना गद्दा पाबि‍ कुरसी गदगर होइत तहि‍ना खुशीसँ दुनू परानी रघुनन्‍दनक मन गद-गद रहनि‍। से खाली परि‍वारे धरि‍ नै सर-समाज, कुटुम-परि‍वार धरि‍ सेहो छेलनि‍। ओना आन संगी जकाँ रघुनन्‍दन नै छला जे तीनि‍येँ मासक पेटक बच्‍चाक दुश्‍मन बनि‍ पुरुषार्थक मोँछ पिजबैत, आ ने अपन रसगर जुआनी छोलनी धीपा-धीपा दगैत। दुनू परानी बेहद खुशी! किए नै खुशी रहि‍तथि‍? मन जे मधुमाछी सदृश मधुक संग मधुर मुस्‍कान दइ छेलनि‍। पुरुष अपन वंश बढ़बै पाछू बेहाल आ नारीकेँ हाथ-पएर बान्‍हि‍ बौगली भरि‍ रौदमे ओंघरा देब केते उचि‍त छी? दुनू परानीक वंश बढ़ैत देखि‍ दुनू बेहाल। मन ति‍रपि‍त भऽ तरैप-तरैप नचैत रहनि‍।
आेना तीन भाँइक पछाति‍ ज्‍योति‍क जनम भेल, मुदा तइसँ पहि‍ने बेटीक आगमनो नै भेल छेलनि‍ जे दोखि‍यो बनि‍तथि‍। भगवानोक कि‍रदानी कि‍ नीक छन्‍हि‍? नीको केना रहतनि‍, काजक तेते भार कपारपर रखने छथि‍ जे जखनि टनकी धड़ै छन्‍हि‍ तखनि खि‍सि‍आ कऽ कि‍छु-सँ-कि‍छु कऽ दइ छथिन‍। मुदा से लोक थोड़े मानतनि‍, मानबो किए करतनि‍? जखनि अपने-अपने हाथ-पएर लाड़ि‍-चाड़ि‍ जीबैए तखनि अनेरे अनका दि‍स मुँहतक्कीक कोन जरूरति‍ छै। किए ने कहतनि‍ जे अहाँ ि‍नर्माता छी तखनि तराजूक पलड़ा एक रंग राखू, किए केकरो जेरक-जेर बेटा दइ छि‍ऐ आ केकरो जेरक-जेर बेटी। जौं देबे करै छि‍ऐ तँ बुधि किए भंगठा दइ छि‍ऐ जे बेटासँ धन अबै छै‍ आ बेटीसँ जाइ छै‍। जइसँ नीको घरमे चोंगराक खगता‍ भऽ जाइ छै।
उच्‍च अफसरक परि‍वार तँए पारि‍वारि‍क स्‍तर सेहो उच्‍च। भलहिं‍ं किए ने माए-बाप छाँटि‍ परि‍वार होन्‍हि। खगल परि‍वार जकाँ सदति‍ गरजू नै। परि‍वारक खर्च समटल तइसँ खुलल बजारक कोनो असरि‍ नै। सरकारी दरपर सभ सुवि‍धा उपलब्‍ध, जइसँ खाइ-पि‍ऐसँ लऽ कऽ मनोरंजनक ओसार चकमकाइत। भलहिं‍ं जेकर अफसर तेकर बात बुझैमे फेर होन्‍हि। जइसँ महगी-सस्‍ती बुझैमे सेहो फेर भऽ जाइत होन्‍हि‍। मुदा परोछक बात छी चारू बच्‍चाक प्रति‍ समान सि‍नेह रहलनि‍। परि‍वारमे सभसँ छोट बच्‍चा रहने ज्‍योति‍ सबहक मनोरंजनक वस्‍तु। मुदा गुरुआइ तँ ओहि‍ना नै होइ छै, तँए सभ अपन-अपन महि‍क्का मनक टेमीसँ सदति‍ देखथि‍, जप करथि‍। आखि‍र के एहेन छथि‍ जे ऐ धरतीपर ज्ञानदानी नै छथि‍। भलहिं‍ं ओ अधखि‍जुए वा अधपकुए किए ने होथि‍। जहि‍ना कोनो माइलिक बच्‍चा  पि‍ताक संग जामंतो रंगक फूलक फुलवाड़ीमे जि‍नगीक अनेको अवस्‍था देखि‍ चमकैत तहि‍ना भरल-पूरल परि‍वारमे ज्‍योति‍योकेँ भेल‍। देखलनि‍ कलीमे जहि‍ना अबैत-अबैत रंगो, सौन्‍दर्यो आ महको अबैए तहि‍ना ने जि‍नगी छी। जौं मनुखकेँ डोरीसँ बान्‍हल जाए तँ डोरी तोड़ैक उपएओ तँ हुनके करए पड़तनि‍।
समुचि‍त वातावरण रहने ज्‍योति‍ संगी-साथीक बीच नीकक श्रेणीमे आबि‍ गेली। जहि‍ना संगीक सि‍नेह तहि‍ना शि‍क्षकोक सि‍नेह भेटए लगलनि‍। टि‍कट कटौल यात्री जहि‍ना नि‍श्चि‍न्‍तसँ गाड़ीमे सफर करैत तहि‍ना समतल जि‍नगी पाबि‍ ज्‍योति‍ आगू बढ़ए लगली‍। जि‍नगीमे बधो अबै छै तइसँ पूर्ण अनभि‍ज्ञ ज्‍योति‍। जेना कर्मकेँ धर्म बना‍ जि‍नगीक बाट बनौने हुअए।
थम्‍हसँ नि‍कलैत केराक कोसा जहि‍ना अपन घौरक संग हत्‍थो आ छीमि‍ओक अनुमानि‍त परि‍चए दैत, फूलक कोढ़ी फूलक दैत तहि‍ना बच्‍चेसँ कुमारि‍ ज्‍योति‍ सुफल जि‍नगीक अनुमानि‍त परि‍चए दि‍अए लगली‍। जेना-जेना बौद्धि‍क वि‍कास होइत गेलनि‍ तेना-तेना तीनू भाँइयो बुझए लगला जे ज्‍योति‍ तेहेन चन्‍सगर‍ अछि‍ जे आगू कि‍छु जरूर करत। जइसँ भैयारीए जकाँ ज्‍योति‍क संग बेवहार करए लगला। लैंगि‍क प्रभाव ओतए अधि‍क देखि‍ पड़ैत जेतए भाए-बहि‍न‍क दूरी जेते अधि‍क रहै छै। से रघुनन्‍दनक परि‍वारमे नै छेलनि‍ दोसर कारण ईहो छेलनि‍ जे वैचारि‍क दूरी जेना आन-आन परि‍वारमे रहैत तेना सेहो नहि‍येँ जकाँ छेलनि‍। परि‍वारक सभ अपन-अपन दायि‍त्‍व बूझि‍ अपन-अपन काजमे दि‍न-राति‍ लगल रहैत। ओना ज्‍योति‍केँ सभ अपना-अपना नजरि‍ए देखैत रहथि‍। गुरुक रूप रघुनन्‍दन देखथि‍ तँ जगत-जननी जानकीक सुनैनापुर रूप माए देखै छेलखिन‍। जइसँ एक-एक लूरि‍-बुधि‍केँ धरोहर जकाँ सजबै छेली। भाएक मन सामा-चकेबाक सम्‍बन्‍धमे ओझराएल। केना नै ओझराइत रहता? आइ धरि‍क इति‍हासक दूरी जे मेटाइत देखथि‍! केतेक प्रति‍शत परि‍वार अखनि धरि‍ इति‍हासक पन्नामे लि‍खाएल अछि‍ जइमे भाए-बहि‍न‍क शि‍क्षाक दूरी समतल हुअए? तँए सबहक सि‍नेहक अपन-अपन कारण। जनकपुरमे जहि‍ना रामकेँ आ मथुरामे कृष्‍णकेँ देखि‍, देखि‍नि‍हारकेँ भेलनि‍ तहि‍ना ज्‍योति‍योक परि‍वारमे।
बाल-बोध जहि‍ना अपन मनोनुकूल वस्‍तु पाबि‍ छाती लगबैत, हृदैसँ खुशी होइत तहि‍ना वि‍ज्ञान वि‍षयसँ ज्‍योति‍ सटि‍ गेली। नीक -वि‍ज्ञानक वि‍षयमे- नम्‍बर आनि‍‍ बि‍जलोका जकाँ ज्‍योति‍ संगीओ-साथी, शि‍क्षको आ मातो-पि‍ताकेँ चमकाबए लगली। हाइ स्‍कूल पएर दैते जेना अपन आँट-पेट बूझि‍ कोनो वि‍द्यार्थी साइंस तँ कोनो कामर्स तँ कोनो आर्ट वि‍षय चुनि‍ आगू बढ़ैत तहि‍ना ज्‍योति‍यो साइंस चुनि‍ नेने छेली। घरसँ बाहर धरि‍ सर्वत्र बहारे-बहार। ऋृषि‍-मुनि‍ लेल दुनि‍याँ जहि‍ना समतल देखि‍ पड़ैत, तहि‍ना स्कूलक शि‍क्षकक संग दू-दूटा भाए पाबि‍ ज्‍योति‍क दुनि‍याँ सेहो समतल। जइसँ कोनो तरहक असोकर्ज घरसँ बाहर धरि‍ नहि‍येँ। असोकर्ज तँ ओइठाम होइत जेतए एकपेरि‍या-चरि‍पेरि‍याक -चौबट्टी- मि‍लैक भौक होइ छै। भौक तँ ओतए ने बेसी बूझि‍ पड़ैत जेतए जेहेन चलनि‍हार होइत। जैठाम बेसी चलनि‍हार रहैत ओतए कच्‍चीओ सड़क पक्की‍ए जकाँ सक्कत आ पक्कीओ कच्‍चीए जकाँ बनि‍ जाइत।
साइंस कौलेजसँ ज्‍योति‍ फि‍जि‍क्‍ससँ नीक नम्‍वर पाबि‍ एम.एस.सी. केलक‍नि‍। जहि‍ना अखराहापर लपटैत-लपटैत पहलवानक कश बनि‍ जाइत तहि‍ना ज्‍योति‍योकेँ भेल‍।
‘नारी मुक्‍ति‍ संघ’क स्‍थापि‍त अध्‍यक्ष होइक नाते पि‍ता रघुनन्‍दनक सि‍नेह आरो बेसी ज्‍योति‍पर। ज्‍योति‍केँ कौलेज पहुँचैत-पहुँचैत तेसरो भाए नोकरी पकड़ि‍ लेलनि‍ जइसँ आरो बेसी सुवि‍धा भेटलनि‍। ओना काजकेँ कर्म बना करैक अभ्‍यास सुलक्षणी बच्‍चेसँ लगबैत आएल रहनि‍। जइसँ घरक काजक जहैन‍ ज्‍योति‍क जेहन तक पकड़ि‍ लेने तँए जहि‍नगर। सदति‍ कर्मकेँ सहयोगी प्रेमी जकाँ दुलरबैत, प्रेम करैत। तँए कि‍ ज्‍योति‍ सुलक्षणीक बेटी नै?, परि‍वारक सभसँ बेसी सि‍नेही बेटी छि‍यनि‍। मुदा सुलक्षनीक मनमे सदति‍ एकटा कचोट कचोटि‍ते रहनि‍ जे कुल कन्‍या की? कुल तँ अनेको अछि‍- गुरुकुल, पि‍तृकुल, मातृकुल इत्‍यादि‍। जे पश्न अखनो धरि‍ नै सोझरेलनि‍।
एम.एस.सी. करि‍ते दुनू बेकती रघुनन्‍दनकेँ जहि‍ना बि‍नु हवोक पीपरक पात‍ डोलए लगैत, तहि‍ना ज्‍योति‍क प्रति‍ सि‍नेह डोलए लगलनि‍। अनासुरती दुनूक मनमे प्रश्न-पर-प्रश्न उठए लगलनि‍। बीस बरखक बेटी भऽ गेलि‍, बि‍आह करब माए-बापक कर्तव्‍य कर्म छी। कौलेजक अंति‍म सीढ़ीक आगू टपि‍ चुकल‍, संग ईहो जे पारदर्शी सीसा जकाँ ज्‍योति‍क शरीर देखथि‍ जे जुआनीक रंग सगतरि‍ चमकि‍ रहल छै। ओना कौलेजक आन छात्रा जकाँ नै, मि‍थि‍लाक धरोहरि‍ कुल-कन्‍या जकाँ। जे गुरुकुलमे वि‍द्याध्‍ययन करैत। दुनू परानीक दायि‍त्व बूझि‍ रघुनन्‍दन पत्नीकेँ पुछलखिन-
ज्‍योति‍ बि‍आहै जोकर भेल जाइए से की वि‍चार?”
संयासि‍नी जकाँ सुलक्षणी उत्तर देलखि‍न-
अपन कोनो काज पछुआ कऽ नै रखने छी, जे बाँकी अछि‍ अहाँकेँ छी। तैबीच की वि‍चार देब।
पत्नीक उत्तर सुनि‍ रघुनन्‍दन ति‍लमि‍लाइत वि‍चार करए लगला। एहेन उटपटांग उत्तर किए देलनि‍? मुदा सोलहो आना तँ अनुमानोसँ कोनो बात नै बूझल जा सकैए‍। नीक हएत जे पुन: प्रश्न उठा आगू बजबाबी। ई तँ नि‍श्चि‍त जे एको परि‍वारमे काजक हि‍साबे सबहक सोचै-वि‍चारै आ बुझैक ढंग फुट-फुट भऽ जाइ छै। भलहिं‍ं सासुसँ ऊपर किए ने जेठ सासु मानल जाए, मुदा सासु तँ सासु होइत। जहि‍ना देवालयक कपाट लग ठाढ़ भक्‍त हाथ जोड़ि‍ अपन दुखरा भगवानसँ सुनबैत तहि‍ना तड़पैत रघुनन्‍दन पत्नीकेँ पुछलखि‍न-
संयासि‍नी जकाँ किए घरसँ पड़ाए चाहै छी। बिसरि रहल छी जे घरनी सेहो छी?”
पति‍क गंभीर वि‍चारकेँ अँकि‍ते सुलक्षणीक करेज कलपि‍ गेलनि‍ मुदा पानि‍क बोहैत बेगमे जहि‍ना गोरसँ गोरि‍या-गोरि‍या‍ गोर उठौल जाइत तहि‍ना सुलक्षणी ज्‍योति‍क जि‍नगीक धारामे ठाढ़ भऽ बजली-
अहूँ कोनो हूसल नै छी, सभ माए-बाप बेटा-बेटीकेँ बच्‍चे बुझैए। मुदा एतए से बात नै छै। अहाँ लि‍ए भलहिं‍ं ज्‍योति‍ बच्‍चा हुअए मुदा ओ आेइ सीढ़ीपर पहुँच गेल अछि‍ जेतए मनुख अपन जि‍नगीक बाट चुनैक गुण प्राप्‍त कऽ लइए। तँए दुइए परानी नै, बेटाे-पुतोहुसँ वि‍चारि‍ लिअ।
सेन्‍ट्रल बैंकक ब्रान्च मैनेजर भोगेश्वरक संग ज्‍योति‍क बि‍आहक बात पक्का भऽ गेल। जहि‍ना ज्‍योति‍ तहि‍ना भोगेश्वर। अद्भुत मि‍लानी। वि‍षुवत रेखाक समान दूरीपर जहि‍ना उत्तरो आ दछि‍नो समान मौसम, समान उपजा- वाड़ी होइत अछि,‍ तहि‍ना दुनूक बीच। अलेल कमाइ तँए छि‍ड़ियाएल जि‍नगी भोगेश्वरक। हजारो कोस हटि‍ भोगेश्वर अपन परि‍वारसँ रहैत। नव-नव वस्‍तुसँ भरल बजार, जे दुनि‍याँक एक कोणसँ दोसर कोण पहुँचैत, भोगेश्वर चकाचौंधमे हरा अपन माएओ-बाप आ भाएओ-भौजाइसँ दूर भऽ गेल। किए ने हएत? जखनि सभकेँ अपन कर्मक फल भोगैक अधि‍कार छै तँ भोगेश्वरो किए ने भोगत। एक तँ दि‍न राति‍ रूपैआक पेंच-पाँचक गुत्‍थी खोलैक क्षमता तैपर जेकरे माए मरै तेकरे पात नै भात?
नीक बर पाबि‍ रघुनन्‍दन चंदाक ति‍जोरी -नारी मुक्‍ति‍ संघक कोष- खोलि‍ देलनि‍। कोनो अनचि‍तो तँ नहि‍येँ केलनि‍। चंदो तँ मुक्‍तीए लेल अछि‍। एक तँ मनी-ग्रुप अर्थशास्‍त्रसँ पी.चए.डी. तैपर सँ सेन्‍ट्रल बैकक शाखा-प्रबंधक, किए नै भोगेश्वर अपन अधि‍कारक उपयोग करत। बि‍आहक दि‍न तँइ भऽ गेल। तैबीच ज्‍योति‍केँ, मास दि‍न पूर्व देल आवेदनक, इन्‍टर-भ्यूक चि‍ट्ठी भेटलनि‍। तहूमे बि‍आहक दि‍नसँ तीन दि‍न पूर्वक दोहरी काज परि‍वारमे बजरि‍ गेलनि‍। छोड़ैबला कोनो नै। तैपर ज्‍योति‍ सेहो बि‍आहकेँ माइनस आ इन्‍टर-भ्‍यूकेँ पलसमे हि‍साब लगबैत। बि‍आहक ओरि‍यानक धुमसाही परि‍वारमे। मुदा ज्‍योति‍ वि‍परीत दि‍शामे मुड़ि‍ इन्‍टर-भ्‍यू दइले अड़ि‍ गेली। इन्‍टर-भ्‍यूओ तँ लगमे नहि‍येँ जे दू-चारि‍ घंटा समए लगा पुरौल जा सकैए। दछि‍न भारत लऽग नै। केतबो तेज दौगैबला गाड़ी भेल तैयो चौबीस घंटासँ पहि‍ने नै पहुँच‍ सकैए। तहूमे बि‍आह सन शुभ काजमे बर-कन्‍याकेँ सुरक्षि‍त रहब जरूरी अछि‍। सीमा केना पार कएल जा सकैए। गाड़ी-सवारीक कोन ठेकान। ज्‍योति‍क प्रश्न परि‍वारकेँ स्‍तब्‍ध केने। जेठ भाय प्रेमकुमारक सि‍नेह ज्‍योति‍पर उमड़ि‍ पड़लनि‍। हि‍साब लगबैत पि‍ताकेँ कहलखि‍न-
बि‍आहक दि‍नसँ चौबीस घंटा पहि‍ने अबस्‍स पहुँच‍‍ जाएब। अहाँ सभ बि‍आहक ओरि‍यान करू ज्‍योति‍क संग जाइ छी।
प्रेम कुमारक वि‍चारसँ रघुनन्‍दन दुनू काज होइत देखि‍ खुशी भेला। मुदा सुलक्षणीक मन आरो बेसी करुआए लगलनि‍। खोलि‍ कऽ बजती केना? एक तँ पुरुष-प्रधान परि‍वार तैपर सभ बापूतक एक वि‍चार। स्‍त्रीगणक कोनो ठेकाने नै। कहैले ने चारि‍ गोरे परि‍वारमे छी मुदा ननदि‍-भौजाइक सम्‍बन्‍ध केहेन होइ छै से की‍ केकरोसँ छि‍पल छै। नीक हएत जे पोल्हा कऽ बेटीएसँ पूछि‍ ली। मुदा वि‍ध-बेवहारपर नजरि‍ पड़ि‍ते पुन: मन भगंठि‍ गेलनि‍। बि‍नु वि‍धि‍-बेवहारक बि‍आह केहेन हएत। रस्‍ते पेरे तँ सेहो लोक बि‍आह कऽ लइए मुदा परि‍वार केहेन बनै छै। आठो दि‍न तँ कम-सँ-कम वि‍ध-बेवहारमे लगबे करत।
  ज्‍योति‍क इन्‍टर-भ्‍यूओ आ बि‍आहो भऽ गेलनि‍। अद्भुत बि‍आह तँए समाजमे चर्चाक वि‍षय। चर्चो मुँह देखि‍ मुंगबा परसैत। जेहेन मुँह तेहेन मुंगबा। कि‍यो दुनू बेकतीक -बर-कन्‍याक- शि‍क्षाक चर्च करैत तँ कि‍यो युगक अनुकूल बर-कन्‍याक जोड़ाक। कि‍यो वि‍ध-बेवहारक लहासक चर्च करैत तँ कि‍यो समाजक अगुआएल नारी जाि‍तक। केतौ भोज-भातक चर्च चलैत, तँ केतौ गमैया बरि‍यातीक संग बजरूआ बरि‍यातीक। मेल-पाँच बरि‍याती तँए सबहक बात दमगर। इनार पोखरि‍क घाटसँ लऽ कऽ दुआर-दरबज्‍जा धरि‍ संसद चलैत। मुदा सबहक मन ओइ ि‍बन्‍दुपर अँटकि‍ जाइत जेतए भोगेश्वर आ ज्‍योति‍क वैवाहि‍क बंधन रहए।
बि‍आहक तीन दि‍न पछाति‍ भोगेश्वर दुरागमनक प्रस्‍ताव केलनि‍। प्रस्‍ताव सुनि‍ परि‍वारक सबहक मनमे सभ रंगक वि‍चारक संग उत्तरो उठलनि‍। मुदा आगू बढ़ि‍ कि‍यो बजैले तैयार नै। मने-मन सुलक्षणी सोचथि‍ जे बि‍आहक साल तँ बर-कनि‍याँक वि‍ध-बेवहार होइ छै। जौं वि‍धि‍-बेवहारक कारण नै होइ छै तँ किए साैन-भादो आ पूस-माघ बेटीक वि‍दागरी नै होइए। बि‍नु वि‍धि‍-बेवहारक बि‍आह तँ ओहने होइत जेहेन बि‍नु मसल्‍लाक तरकारी। कहैले ने लोक बजैए‍ जे फल्‍लां चीजक तरकारी खेलौं मुदा की‍ बि‍नु मसल्‍लेक बनल छेलै। जौं मसल्‍लोक सागि‍रदीसँ तरकारी बनल तँ ओकर चर्च किए ने होइ छै। तर-ऊपर मनकेँ होइतो कंठसँ नि‍च्‍चे सुलक्षणी अपन ि‍वचारकेँ अँटका रखली। रघुनन्‍दनक मनमे भि‍न्ने वि‍चार औंढ़ मारैत रहनि‍। मुदा गारजनक हैसि‍यतसँ औगता कऽ बाजबो उचि‍त नै बूझि‍ सुरखुराइत मनकेँ रोकने रहला। मुदा तैयो होन्‍हि‍ जे बि‍नु कहने बुझता केना? भीतरे-भीतर मन बजैत रहनि‍ जे जहि‍ना बीजू -आँठी-सँ जनमल साल-दू सालक आमक गाछ- गाछ कलमी डारि‍मे छीलि‍ कऽ डोरीसँ बान्‍हि‍ कि‍छु मास जुटैले छोड़ि‍ देल जाइत तहि‍ना ने बि‍आहो छी। फागुनक कनि‍याँ जौं फागुनेमे सासुर चलि‍ जाथि‍ तँ समन जरैत देखब सासुरमे नीक हेतनि‍? चैताबरक टाँहि‍ सासुरमे नव-कनि‍याँक देब उचि‍त हएत? तखनि, आमक गाछीक मचकीक बरहमासा आ साैनक राधा-कृष्‍णक कदमक गाछक झुलाक अर्थे की रहत? तहीले ने बि‍आह-दुरागमनक बीच समैक फाँक रहैए‍। भलहिं‍ं नै बनैबला रहत तँ पान साल आकि तीन साल नै, मुदा सालो तँ टपबए पड़त। जौं से नै टपत तँ केना सासु-ससुर, सारि‍-सरहोजि‍, सार-बहनोइ, सर-समाजक बीच सम्‍बन्‍ध बनत। परि‍वारक बीच कम्‍मो दि‍नमे सम्‍बन्‍ध स्‍थापि‍त भऽ सकैए मुदा समाज तँ नम्‍हरो आ गहींरगरो होइ छै। कोनो धारक पानि‍क पैमाना तँ तखनि ने नपाएत जाएत जखनि भादोक बढ़ल आ जेठक सटकल पेटक पानि‍ नापल जाए। तहि‍ना ने समाजो छी। अपना गरजे लोक थोड़े जुड़शीतल आ फगुआ आन मासमे कऽ लेत। जौं से करत तँ चरि‍टंगा आ दूटंगामे कि‍ अन्‍तर भेलै? एतबे ने, बि‍नु सिंह-नांगरिक रहत...। मन ममोड़ि‍ कऽ रहि‍ गेला। अनेको कारण अनेको मनकेँ घेर‍ लेलकनि‍। ज्‍योति‍क भाए-भौजाइ‍ अखनि धरि‍ धर्मसूत्र आ गृहसूत्र पढ़नहि ने तँए कोनो ि‍चन्‍ता मनमे रहबे ने करनि‍। नोकरि‍या रहने होइत रहनि‍ जे जेते जल्‍दी काज फरि‍या जाएत ओते जान हल्‍लुक हएत। अनेरे सी.एल. दुइर हएत। मुदा से सारेक मनमे नै रहनि‍ भोगेश्वरक मनमे सेहो रहनि‍। बैंकमे घंटाक कोन बात जे मि‍नटोक महत छै। हरि‍दम पाइएक बर्खा। अनेरे पा-भरि‍ खाइले दि‍न-राति‍ सासुर ओगरब कोन कबि‍ल्‍ती हएत। स्‍त्रीए लऽ कऽ ने सासुर, आ जे संगे रहत तँ सभदि‍ना सासुर नै भेल? जरूर भेल। अपना परि‍वारकेँ जौं सासुर बना सौंसे गाम जे ओझे बनि‍ जाएत तँ केकरा सोझहा जाइक आँखि‍-मुँह रहत। मुदा तीनू भाँइ प्रेमकुमार चुप्‍पी लादि लेलनि‍ जे अखनि घरक गारजन माए-बाबू छथि‍ तखनि कि‍छु बाजब उचि‍त नै। मुदा मनमे तीनू भाँइकेँ शंका जरूर होन्‍हि‍ जे स्‍त्रीगणक सोभाब होइत अछि‍ जे पुरुखक टीकपर चढ़ि‍ कऽ मुरगीक बाँग देब। तइ संग समाजोक डर। समाज तँ ओहन शक्‍ति‍ छी जे बि‍नु डोरी‍-पगहाक रहनौं चपरासीसँ लाट साहैब धरि‍ सजौने अछि‍। हाकि‍म-हुकुम आ रि‍नि‍याँ-महाजन रहै वा नै। भलहिं‍ं बि‍लाइ बाझकेँ खाए वा बि‍लाइकेँ बाझ।
जखनिसँ जमाइबाबूक दुरागमनक प्रस्‍ताव परि‍वारमे आएल तखनिसँ सभ सकदम! चुप्‍पा-चुप, धुप्‍पा-धुप। जइसँ धारक पानि‍ जकाँ बोहैत बोल ठमकि कऽ‍ भौर लि‍अए लगल। ओना बन्न मुँह रहि‍तो आँखि‍क नाच जोर पकड़नहि‍, मुदा सि‍रि‍फ मूक नाच। जेठुआ गरेक सूर-सार देखते जहि‍ना सचेत लोक पहि‍ने बाल-बच्‍चा आ माल-जालक उपए सोचि‍ आगू डेग उठबैए‍ तहि‍ना रघुनन्‍दनकेँ अपन भार परि‍वारक बीच उठबैक वि‍चार भेलनि‍। फुरलनि‍, ‘संग मि‍ल करी काज हारने-जीतने कोनो ने लाज।’ जाधरि‍ नीक-अधलाक बीचक सीमा-सरहद नै बूझल जाएत ताधरि‍ हारि‍-जीतक चर्चे बचकानी। मुदा समाजो आ परि‍वारोक तँ चलैक रस्‍ता अछि‍ए। मनमे खुशी उपकलनि‍। खुशी उपकि‍ते मुँह कलशलनि‍। मुदा पत्नी सुलक्षणीक मन महुराएले! किए ने महुराएल रहतनि‍? जेकरा मुँहमे ने थाल-कादो लगल अछि‍ आ ने पसीनाक सुखाएल टगहार अछि‍ ओ किए ने रूमालेसँ काज-चला लेत। मुदा जेकरा मुँहमे थालो आ तह-दर-तह सूखल पसीनोक टगहार छै ओ केना बि‍नु पानि‍ए धोनौं चि‍क्कन हएत। की अपनो मन मानत?
सहमत भऽ परि‍वारक सभ सुलक्षणीकेँ बजैक भार देलकनि‍। सुलक्षणी बजली-
ओना साल भरि‍ नै तँ छह मास, जौं सेहो नै तँ तीनि‍ओ मास, जौं सेहो नै तँ एको पनरहि‍या नै रूकता तँ केना हेतनि‍। जौं से नै मानता तँ हमहूँ नै मानबनि‍।
सासुक ि‍नर्णए सुनि‍ अपन शक्‍ति‍क प्रयोग करैत भोगेश्वर बजला-
अपन अधि‍कार क्षेत्रसँ अनचि‍न्‍ह भऽ बाजि‍ रहल छथि‍। तँए...?”
भोगेश्वरक बात सुनि‍ ज्‍योति‍क हृदैमे तरंग उठलनि‍। तरंगि‍त होइत मुँह तोड़ि‍ उत्तर दि‍अए चाहलनि‍। मुदा इन्‍टर-भ्यू मन पड़ि‍ते ठमकि‍ गेली। मुँह तँ बन्न रहलनि‍ मुदा मनमे तीन परि‍वारक टक्कर उठलनि‍। रूइ सदृश वादलक टक्करसँ ठनका बनि‍ सकैए तँ तीन परि‍वारक तीन जि‍नगीक रग्‍गर केते शक्‍ति‍शाली भऽ सकैए! दि‍न-राति‍क सीमा-सरहद तोड़ि‍ ज्‍योति‍ पति‍केँ कहलनि‍-
अधि‍कार आ कर्तव्‍य हर मनुखक धरोहरि‍ सम्‍पति‍‍ छि‍ऐ, नै कि‍ खास- बेकती‍क खास...?”
ज्‍योति‍क वि‍चार सुनि‍ भोगेश्वरक देह सि‍हरि‍ गेलनि‍। मुदा तैयो मनकेँ थीर करैत बजला-
साते दि‍नक छुट्टी अछि‍। एक तँ अहुना आन-आन वि‍भागसँ कम छुट्टी बैंकमे होइ छै, तहूमे एते सुवि‍धा भेटै छै जे काज केनि‍हार ओहो छुट्टी काजेमे लगबए चाहैए।
तैबीच ज्‍योति‍क मोबाइलि‍क घंटी टुनटुनाएल। मोबाइलि‍क अनभुआर नम्‍बर देखि‍ सावधानीसँ ज्‍योति‍ रि‍सीभ करैत बजली-
हेलो।
हेलो।
अपने केतएसँ बजै छी?”
वि‍ज्ञान शोध संस्‍थानसँ। सात दि‍नक भीतर आबि‍ ज्‍वाइन कऽ लिअ। ओना चि‍ट्ठीओ पठा देने छी।
ज्‍वाइनि‍ंगक समाचार सुनि‍ ज्‍योति‍क मन ओहि‍ना खि‍ल उठलनि‍ जहि‍ना फूलक कली कोनो वस्‍तुसँ दबा तरेतर तँ खि‍लैत रहैत, जे समए पाबि‍ फुड़फुड़ा कऽ फूलक रूपमे आबि‍ जाइत। अखनि धरि‍क वि‍चार ज्‍योति‍क तर पड़ि‍ गेलनि‍ आ नव दुनि‍याँक नव वि‍चार ऊपर चढ़ि‍ गेलनि‍। रघुनन्‍दनकेँ कहलनि‍-
बाबूजी, अपन कर्तव्‍य जइ रूपे अहाँ नि‍माहलौं से बहुत कम लोक नि‍माहि‍ पबैए। आग्रह करब जे केकरो जि‍नगीक रस्‍ताक बाधक नै बनि‍ऐ।
ज्‍योति‍क बात सुनि‍ जि‍ज्ञासा करैत जेठ भाय प्रेमकुमार प्रश्न उठौलनि‍-
की रस्‍ताक बाधा?”
भाय साहैब, अखनि जवाबक उचि‍त समए नै अछि‍। अखनि एतबे जे काल्हि‍ चलि‍ कऽ हमरा शोध संस्‍थान पहुँचा दिअ।
ज्‍योति‍क बात सुनि‍ सुलक्षणी पुछलखि‍न-
आइ तीनि‍येँ दि‍न बि‍आहक भेलह हेन, बहुत वि‍ध-बेवहार पछुआएल छह?”
जे पछुआएल अछि‍ ओ पाछू हएत। मुदा कोनो हालति‍मे काल्हि‍ जेबे करब। चाहे...?”
ज्‍योति‍क संकल्‍पि‍त वि‍चार सुनि‍ भोगेश्वर बजला-
भाय-साहैब, काल्हि‍ए हमहूँ चलि‍ जाएब। सभ संगे चलब, हम हाबड़ामे उतरि‍‍ जाएब आ ई सभ आगू बढ़ि‍ जइहथि‍।
सएह भेल। ज्‍योति‍केँ शोध संस्‍थान पहुँचा तीनू भाँइ प्रेमकुमार घूमि‍‍ कऽ घर आबि‍ गेला।
उर्वर भूमि‍क बनल परतीमे जहि‍ना जोत-कोर आ नमीक संग बीआ पड़ि‍ते, कि‍छुए दि‍न पछाति‍ हरिआ उठैत तहि‍ना ज्‍योति‍क उर्वर शक्‍ति‍मे अनुसंधानक नव-नव अँकुर पानि‍क हि‍लकोर जकाँ उठए लगलनि‍। एक नै अनेक। जहि‍ना पोखरि‍मे झि‍झरी जकाँ पानि‍क हि‍लकोर चलैत रहैत तहि‍ना ज्‍योति‍क मनमे सेहो चलए लगलनि‍। भूखल बेकती‍केँ अपन अन्नक भंडार भेने, वस्‍त्रहीनकेँ वस्‍त्र भेने, गृहविहिनकेँ गृह भेने जहि‍ना वि‍शाल जल-राशि‍ पाबि‍ नदी उफनि‍ जाइत तहि‍ना ज्‍योति‍क मन उफनि‍ गेलनि‍ आइ धरि‍क दुनि‍याँ। नव दुनि‍याँ, नव-नव सुरूज-चान, ग्रह-नक्षत्र, नव-नव वस्‍तुसँ सजल दुि‍नयाँ। ओ दुि‍नयाँ जैठाम पहुँच‍‍ मनुख सृजन शक्‍ति‍ प्राप्‍त कऽ सृजक बनि‍ सृजन करए लगैत। ज्‍योति‍ ज्‍योति‍ नै सृजक बनि‍ गेली।
नन्‍दन बोनक माली जहि‍ना अपन जि‍नगी ओइ बोनकेँ उत्‍सर्ग कऽ नव-नव फूल-फलक गाछ आन-आन जगहसँ जोहि‍ आनि‍ फुलवाड़ी सृजैत, जेकरा देखि‍ माली पुत्र अपन भवि‍स बूझि‍ एक संग छि‍ड़ियाएल जामंतो जि‍नगी लोढ़ि‍, फुलडाली सजा, देवमंदि‍र लेल रखए चाहैत तहि‍ना ज्‍योति‍केँ, श्रृंगी ऋृषि‍क वि‍शाल उपवन भेट गेलनि‍। जइसँ ओइ माली पुत्र जकाँ अपन भवि‍स देखए लगली। दू धारक बीच महारपर ठाढ़ भऽ, एक दि‍स तरा-ऊपरी गि‍रल मनुख तँ दोसर दि‍स जि‍नगीक खेलौना हाथमे लेने समुद्र दि‍स पीह-पाह करैत धारमे उधियाएल जाइत। उगैत-डूमैत देखलनि‍ जे कि‍यो मात्र पति‍-पत्नीक जीवन लीलाकेँ जि‍नगी बूझि‍ तँ कि‍यो अमरलत्ती सदृश वंश-वृक्षपर लतरबकेँ, कि‍यो धार-समुद्रक बीच धरतीकेँ तँ कि‍यो अकास-पतालक बीचक वि‍शाल वसुदेवकेँ। देखैत-देखैत ज्‍योति‍क मन बेसम्‍हार भऽ गेलनि‍। अपन जुआनीक खि‍लैत कलीक संग चढ़ैत तन, ऊफनैत मनकेँ सम्‍हारि‍ धारमे कुदए चाहली। मुदा मनमे नचलनि‍ माए-बाप! धरतीक प्रथम गुरु! जहि‍ना शि‍क्षक सि‍लेटपर खाँत लि‍खि शि‍ष्‍यकेँ सि‍खबैत तहि‍ना शि‍ष्‍यो ने लि‍खि शि‍क्षकसँ शुद्ध करबैत। शुद्ध होइते ओहो खाँत ने खाॅत बनि‍ जाइत। रील जकाँ माता-पि‍ताक सटले पति देखलनि‍। मुदा कि‍छुए क्षण धरि‍ मनमे अँटकलनि‍। बि‍आहक वि‍धो तँ पछुआएले अछि‍! लगले फेर माता-पि‍ता आबि‍ आगूमे ठाढ़ भऽ गेलनि‍!
राति‍-दि‍न ज्‍योति‍क मन साैनक मेघ जकाँ उमड़ए-घुमड़ए लगलनि‍। धारमे चलैत नाह जकाँ डोलि‍-पत्ता हुअ लगलनि‍। आँखि‍ उठा तकली‍ तँ देखलनि‍ जे माता-पि‍ता छोड़ि‍ कहाँ कि‍यो छथि‍। फेर लगले मन घुमलनि‍ तँ सभ कि‍छु देखली। की नै अछि‍? मातृभूमि‍क संग पि‍तृभूमि‍ सेहो अछि‍। मनमे खुशी एलनि‍। होइत भोर कागत-कलम नि‍कालि‍ पि‍ताकेँ पत्र लि‍खए लगली-
माता-पि‍ता, सहस्र कोटि‍ प्रणाम।
एक जि‍नगीक आखरी आ दोसरक पहि‍ल पत्र लि‍खैत मन उमकि‍ रहल अछि‍। तँए केतौ शुद्ध-अशुद्ध लि‍खा जाए, से माफ करैत सुधारि‍ कऽ पढ़ि‍ लेब। अपने लोकनि‍क सेवा, शि‍खर सदृश शि‍ष्‍य जकाँ शि‍रोधार्य केने रहब। जहि‍ना वादलक बून धरतीपर अबि‍ते धरि‍या धार होइत समुद्र दि‍स बढ़ैत तहि‍ना अपने दुनू धरि‍या देलौं। कुल-कन्‍या वा कुल-कलंकि‍नी बनब हमर कर्म छी। मुदा बेटी तँ अहींक छी। हमहूँ तँ एतै बसब। तँए ताधरि‍क छुट्टी असीरवादक संग दिअ जे बास बना बसए लगी।
अहींक ज्‍योति
पत्र पहुँचिते अह्लादसँ दुनू बेकती रघुनन्‍दन आ सुलक्षणी, बेटी-ज्‍योति‍क पत्र पढ़ैक सुर-सार केलनि‍। पत्रपर नजरि‍ दौगबिते दुनू बेकती अलि‍सा गेला। आगूमे अन्‍हार पसरि‍ गेलनि‍। मुदा लगले मनक भक्‍क खोलि‍ रघुनन्‍दन पत्नीकेँ कहलखि‍न-
पत्रक उत्तर देब जरूरी अछि‍ मुदा की लि‍खब से फुरबे ने करैए।
जेहने गर्म-ठंढ़क बीचक सीमा असथि‍र रहैत तेहने चि‍त्ते सुलक्षणी पति‍केँ वि‍चार देलखि‍न-
कोन लपौड़ीमे पड़ल छी। माए-बाप केकरो जनम दइ छै। जीबैले अपने ने रौद-वसात सहए पड़तै। आब अहीं कहू जे एहनो बात पत्रमे लि‍खि वेचारीकेँ पढ़ैक समए बड़देबै? रहल असीरवादक तँ एतैसँ दुनू परानी मि‍ल दऽ दि‍यौ।
m m m
(ई कथा, युवा साहित्‍यकार- श्री आशीष अनचि‍नहार लेल)

No comments:

Post a Comment