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Friday, October 18, 2013

(27) डंका

डंका
चुड़लाइ, तिलकुट आ चूड़ा-मुरही गमछाक एक भागमे बान्हि दोसर भाग दहिना हाथे पकड़ि लटकौने जीवानन्द उत्तर मुहेँक रस्‍ता डेग झाड़ने जाइत रहए। दरबज्जाक ओसारक दछि‍‍नबरिया अखड़े चौकीपर बाँहिक सोंगरक कान्हपर माथ अड़कौने भैयाकाका रस्ते दिस देखैत रहथि कि नजरि पड़िते जीवानन्दकेँ किछु पुछए चाहलनि मुदा मन रोकए लगलनि। सोगाएल मन। मुदा जीवानन्दक आकर्षित रूप देखि‍ मन धिक्कारलकनि‍ जे सभ दिन एकठीम बैस नीक-बेजाए, गप-सप्‍प करैत एलौं। आइ तँ सहजे तिलासंक्रान्ति सन पावनि छी। तहन जौं नै टोकब तँ केहेन हएत। गंभीर मन मुदा मुस्की दैत पुछलखिन-
केतए एते हड़बड़ाएल जाइ छह जीवानन्द?”
भैयाकाकाक टोकबकेँ अनठा आगू बढ़ि जाएब जीवानन्द उचित नै बूझि रस्तेपर ठाढ़ भऽ कहलकनि-
की कहौं काका! ऐबेरक पावनि रीब-रीबेमे रहि गेल।
जीवानन्दक परेशानी मिलल बात सुनि भैयाकाकाक मनमे गुदगुदी लगलनि। जहिना आत्मा खुट्टा आकि‍ रस्सी सदृश ब्रह्मसँ मिलैत तहिना भैयाकाकाक मन जीवानन्दक बेथा-कथा सुनैले सुरसुरेलनि। चौअन्नियाँ मुस्की दैत पुछलखिन-
तिलासंक्रान्ति सन खाइ-पीऐबला पावनि, तहन तोरा केना रीब-रीबेमे जा रहल छह?”
भैयाकाकाक बातमे जीवानन्द ओझरा गेल। मनमे उपकलै नीक काज भेने खुशीसँ हँसी लगैए मुदा अधला काज भेने की हँसी नै लगै छै। रस्तापर ठाढ़ भेल जीवानन्दकेँ किछु फुड़बे ने करै। जहिना खेतमे हाल कम रहने अँकुड़ नै जनमैत तहिना जीवानन्दोकेँ भेल। असमंजसमे पड़ल मन सोचलकै जे भोरसँ अखनि धरिक अपने बात सुना दियनि। जौं किछु कहबनि नै तँ मनमे हेतनि जे कोनो उकड़ू काज केने अछि। मुस्‍कीआइत कहए लगलनि-
काका, की पुछै छी। चारि बजे भोरे पोखरिक घाट परहक पी-पाह सुनि निन्न टूटि गेल। उठैक विचार करिते रही आकि पत्नी आबि कऽ कहलनि जे रतुपारवाली दीदीकेँ भरिसक दर्द उपकि गेलनि। पूर मासो छियनि। भरिसक वएह कुहड़ै छथि। सुनिते मन खुशी भऽ गेल जे खूब पावनि हएत? मुदा अपन दियाद नै रहने असथिर भेलौं। उठि कऽ गेलौं तँ देखलिऐ जनानी सभ घेड़ने। मुदा हमरा देखि‍ते सिबावालीकाकी कहलनि जे बौआ गामपर नै सम्‍हरतह, डाकडर लग लऽ जाहक। डाक्टरक नाओं सुनि लगमे गेलौं तँ देखलिऐ जे गाए-महिंस जकाँ देहो-टाँग छिड़ियौने आ अड़ऽ-बोऽऽऽ करैत। एक्को क्षण विलंब करब उचित नै बूझि खाटक ओरियान केलौं आ तमोरिया लए गेलौं। केकर मुँह देखि‍ कऽ उठलौं जे अखनि धरि‍ दू कप चाहेटा पीने छी। दतमनिओ पछुआएले अछि।
की भेलनि?”
बेटा।
बेसी तबाही ने तँ भेलह?”
एह की कहूँ काका, जनीजाति तेहेन भाैनी होइए जे एकबर हेतै आ सातबर भभटपन करत। जखनि खाटपर चढ़बैत रहि‍यनि‍ तखनि‍ तेना ने हाथ- पएर कठुआ लेलनि जे बूझि पड़ल दाँती लगि गेलनि। मुदा मुँहमे बोल रहबे करनि। पकड़ि-पकड़ि हाथ-पएर सेरियौलियनि। मन तेहेन लहरि गेल जे हुअए दू एँड़ ऊपरोसँ लगा दियनि। मुदा फेर भेल जे अधिक दर्द भेने लोकक बुधि‍ओ बाइ‍त जाए छै। हो-ने-हो कहीं सएह भऽ गेल होइन।
मुस्की दैत भैयाकाका-
डाक्‍टर लग ने तँ बेसी भँगठी लगलह?”
नै। संयोग नीक रहल जे एकमुहरी काज सुढ़ियाइत गेल। साते बजे निकास भऽ गेलनि। मुदा तेते ने काजक ओझरी रहए जे सम्हारैत-सम्हारैत डेढ़ बजे विदा भेलौं।
पवनौट केतए लऽ कऽ जाइ छह?”
तीन पुश्‍तसँ यूनूसक परिवारसँ आवाजाही अछि। आइ भोरे हुनकर छोटकी बेटी एक मुजेला तरकारी दऽ गेल छेलए। सभ साल दइ छथि‍। अपने कारोबार छन्हि। ओना पावनि सभमे सेहो पवनौट दइ छथि। तहिना हमहूँ दइ छियनि। सएह छी। आन बेर आठे-नअ बजे दऽ अबै छेलियनि। मुदा आइ तँ दोसरे भाँजमे पड़ि गेलौं।
हमर तिल-चाउर कखनि खेबह, आकि अपने ताले-बेताल रहबह?”
की कहूँ काका, मरैओक पलखति नइए। निचेन भऽ कऽ आएब। अखनि ओहो बच्चा सभ बाट तकैत हएत। सभ भोरे नहाएल आ हम दतमनिओ नै केलौं हेन।
अच्छा जाह। बाट तकबह?” कहि‍‍ भैयाकाका चुप भऽ गेला।
जीवानन्‍द फुसफुसाइत विदा भेल-
तेहेन माया-जालक झमेल अछि जे विचारकेँ घुसका-फुसका दैत अछि, जइसँ समैक झुट्ठा बनि जाइ छी। काजक अपन गति छै। समैक गतिसँ मि‍लि‍ कऽ चलैले ओकरा केना छोड़ब?”
रस्तेपर जीवानन्दकेँ यूनूसक कोरैला बेटा आ छोटकी बेटी देखलक। देखि‍ते दुनू दुआरपर सँ आँगन जाए माएकेँ कहलक-
जीवानन्द काका अबै छथिन। बड़ीटा मोटरी हाथमे छन्हि।
हाटक कोबी सेरियौनाइ छोड़ि यूनूसक पत्नी अँगनाक मुहथरिपर आबि, देखलनि। तैबीच भाए-बहि‍नकेँ कहलक-
बड़का लाइ हम लेबौ।
बेटाक बात सुनि माए किछु बाजलि नै। मुस्‍कीआ कऽ रहि गेल। जीवानन्दकेँ पहुँचि‍ते माए बेटीकेँ कहलक-
काका एलखुन, प्लास्‍टि‍कबला ओछाइन बैसैले ओछा दहुन।
हाथक गमछा दैत जीवानन्द कहलक-
नै दाइ, अखनि नै बैसब। झब दए गमछा अजबारि कऽ लाबह।
जीवानन्दकेँ गेलोपर भैयाकाकाक नजरि जीवानन्देक बात मरैओक पलखति नै अछि पर नचैत। पावनिओ रहने दतमनि करैक पलखति जेकरा नै छै, ओकरा लेल पावनिए की? मन आगू बढ़लनि, ई दुनियाँ विचित्र रंगमंच छी। जेहने कलाकार तेहने ई रंगमंच। सुपात्र लेल जौं इन्द्रासन सदृश अछि तँ कुपात्र लेल गंध करैत नर्क जकाँ सेहो अछि। वीर लेल वीरभूमि, तपस्वी लेल तपोभूमि, साधक लेल साधना भूमि तँ चोर-डकैत लेल सोनाक चिड़ै। मधु चढ़ौनिहार लेल मधुशाला तँ इज्जतखोर लेल वेश्यालय सेहो छी। पार्ट खेलेनिहार सेहो अजीब अछि। केतौ पुरुख महिला बनि कलाप्रदर्शित करैए तँ केतौ महिला पुरुख बनि सेहो करैए। मुदा तँए कि पुरुख पुरुख बनि आ महिला महिला बनि अपन पार्ट अदा नै करै छथि। जरूर करै छथि। मन आगू बढ़ि रामायण दिस बढ़लनि। हँसी लगलनि। जे मर्यादा पुरुषोत्तम राम दसमुहाँ रावणकेँ मारलनि (नाश केलनि) वएह वोन जाइकाल कौशल्याक सम्‍बन्‍धमे की केलनि। माएक सेवा बेटाक धर्म नै छी? पितासँ कम माए होइत? मन ओझराए लगलनि। मुदा कनी घुसुकि कृष्ण दि‍स चलि गेलनि। कृष्णपर जाइते हँसी लगलनि। ठोर पटपटेलनि जे नान्हि-नान्हिटा छौड़ा बड़का-बड़का जहलक छहरदेबाली तोड़ि बहरा जाइत अछि मुदा जे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकेँ नचौनिहार छथि, हुनका बुते उक्‍खरि‍क बन्‍हन -ऊखल बन्धन- नै टुटलनि। भैयाकाकाकेँ छगुन्तासँ नजरि निच्चाँ भेलनि मुदा लगले बदलि‍ गेलनि। नजरि बदलिते जोरसँ हँसी लगलनि। मनमे एलनि शिवजी। हद केलनि ओहो, शिवसँ शिवानीओ बनैमे देरी नै लगलनि।
फेर घूमि कऽ भैयाकाकाक मन जीवानन्देपर चलि एलनि। जाधरि जीवानन्द सन-सन बेटा समाजमे नै जनम लेत ताधरि समाजक उन्नति कागतपर बनौल फूल-फलक गाछ सदृश रहत। जइ समाजक लोक पावनिक पाछू पनरह-पनरह दिन पहिनेसँ लगल रहैए। तहूमे एकटा नै कतेको पावनि सालक भीतर अछि, खर्चाक बाट तँ चौड़गर देखै छिऐ मुदा आमदनीक बाटपर नजरिए नै जाइ छै। कियो चारि बजे भोरे स्नान कऽ लाइ-मुरही खेलक तँ कियो चारि बजे बेर झूकैत तदमनि करत। की चारि बजे भोरक सुरूज चारि बजे अपराह्नोमे रहै छथि? सुरूज तँ महाविशाल छथि। तहन मौसम किएक बदलैए? की तइ सदृश मनुखक नै अछि?
रस्ते कातक बँसबीटीमे दतमनि तोड़ि रस्तेसँ दतमनि करैत जीवानन्द आँगन आबि बाल्टीन-लोटा लऽ सोझहे कलपर पहुँचल। हाँइ-हाँह कुड़ुड़ कऽ अदहे-छिदहे नहा आँगन आबि पीढ़ीपर बैस पत्नीकेँ कहलकनि‍-
पहिने लाइ-मुरही आ तिलबा नेने आउ?”
आब कलौ खाएब आकि भुज्जा-भरड़ी खाएब।
हद करै छी अहूँ, भोरुका स्नान अखनि केलौं आ खाइबेरमे साँझ पड़ि गेल। सभ सखी सासुर गेल हमरा लेखे चैत पड़ि गेल। ठीके लोक कहै छै। भिनसरसँ बारह बजे धरि लोक जलखैबेर बुझैए आ बारह बजेसँ पहिल साँझ धरि कलौक समए। जइ समैक काज पछुआ गेल पहिने ओकरा ने पुराएब। जौं से नै करब तँ दुनियाँक संग केना चलि सकब?”
जीवानन्दक बात सुनि पत्नी सुधा भरि थारी चूड़ा-मुरही लाइक संग-संग तरुओ-तरकारी घरसँ आनि आगूमे रखि ठाढ़ भऽ गेली। भरल थारी देखि‍ मुस्‍कीआइत जीवानन्द बाजल-
एते किए अनलौं। वीधे पुरबैक अछि। जहिना नै पान तँ पानक डंटीओसँ काज चलैए तहिना लाइ-मुरहीक वीधे पुराएब। मुदा खि‍चड़ीओ तँ लइए भऽ गेल हएत?”
पतिक बात कटैत सुधा बजली-
नै, जखनि अबैक चाल-चूल पेलौं तखनि खिचड़ी बनेलौं। धि‍पले अछि।
तखनि तरुआ किए पानि भेल अछि?”
तरकारी आ तरुआ सबेरे बनेलौं। तँए सेराए गेल अछि।
दू- तीन फँक्का फकि‍ते जीवानन्दकेँ तरास जोर केलक। गिलास भरि पानि पीब निच्चाँमे रखिते रहए आकि‍ तखने सुधा पुछलकनि-
तिलासंक्रान्तिमे सभ अपन-अपन बहि‍न ऐठाम पवनौट लऽ कऽ जाइए। अहाँ छोड़ि देबै?”
पत्नीक बात सुनि जीवानन्दक मन थारीसँ हटि बहि‍नपर पहुँच‍‍ गेल। सासुर बसैसँ पहुलका बहि‍नपर नजरि पड़िते मन पड़लै, गठुलाक टाटपर सँ केना तिलकोरक पात तोड़ि आनि माएकेँ तड़ैले दइ छलि। जहन भानस करै जोकर भेल तहन केते सिनेहसँ तरुआ तरि खुअाबै छलि। उझूक मारि-मारि पत्नीक बात मनमे उठैत। सोचए लगल, जौं एक्के दिन अपनो बेटाक बि‍आह आ साढ़ूओक बेटाकेँ बि‍आह होइ, तहन की करैक चाही। विचारमे अबिते अपना दिस तकलक। पावनिक दिन छी, बेर झूकि‍ गेल मुदा नहाइओक छुट्टी नै भेल छेलए। अखनो धरि चैन नै भेलौं। भैयाकाकाक तिल-चाउर पछुआएले छन्हि। की हमरा हिस्सामे पैघ लोक लग बैस एक्को घंटा बुझै-सुझैले नै अछि? सदिखन काजक टिकटिकिया कपारपर चढ़ले रहैए। मन घूमि कऽ भरदुतियापर पहुँचल। ठाँउ कऽ अरिपन बना पीढ़ी धोइ केहेन आसन बनबैए। तैपर बैस जोड़ल दुनू हाथ धोइ सि‍नुर-पिठार लगा फूल-पान रखि आराधना करैए। की ओइ‍ बहि‍नकेँ बि‍सरि जाएब? कथमपि नै। मुदा बहिनो की हमरासँ अधला जिनगी जीबैए। सभ तरहेँ ओ नीक अछि। भागिन कौलेजमे पढ़ैए। केहेन ठाठसँ भगिनिओक बि‍आह केलक। अपन सभ लूरि‍ सिखा माए अपने जकाँ बना देने छै। कोनो चीजक कमी छै। ओ कि हमरे पवनौटक भरोसे हएत। मनमे खुशी एलै। मुस्की दैत बाजल-
आइ तँ सभठाम पावनि छीहे। कोनो कि दुइर होइबला बौस अछि। काल्हि भोरे गेलासँ एते तँ हएत जे सबहक एकदिना तरुआ हमरा दू दिना हएत।कहि हाँइ-हाँइ खा कऽ जीवानन्द भैयाकाका ऐठाम विदा भेल।
अखनि धरि भैयाकाका आँखि बन्न कऽ चौकीपर वि‍चारमे डुमले रहथि। फड़िक्केसँ जीवानन्द टोकलकनि-
गोड़ लगै छी काका। तिल-चाउर खाइले एलौं हेन।
जीवानन्दक बोली सुनि भैयाकाका आँखि खोलि असिरवाद दैत कहलखिन-
बहुत दिन जीवह जीवानन्द। हम तँ लटकि गेलिअ। देहसँ कम्मो लटकलौं मुदा मनसँ बेसी लटकि गेलौं। बूझि पड़ैए जे लहास ढोइ छी। अनेरे अनकर हिस्सा अन्न-पानि दूरि करै छी। मुदा तरे-तर गणेशजी जकाँ पेट फुलल जाइए। भने तूँ आबिए गेलह। होइए जे टन दनि पराण तियागि दी। मुदा पेटक जे औंकुरी सभ अछि ओ जाधरि नै निकलत ताधरि पराणो केना छोड़त?”
हँसैत जीवानन्द कहलकनि-
औंकुरी तँ लोक छठिमे घाटपर खाइए। अहाँ आइओ खुआएब तँ खुआ दिअ।
भैयाकाका कहलखि‍न-
जहिना जनमौटी बच्चाक मल मृत्‍युकाल निकलैए तहिना छोटका बाबाक खुऔल औंकरी तोरा दऽ दइ छिअ। अपन गामक चारिम बसान छी। शुरूमे दू परिवार धारक मुँह बदलने आबि कऽ बसल। खेती शुरू भेल। जानवरक उपद्रवक संग-संग मनुक्खोक उपद्रव शुरू भेल। अपन रच्‍छा लेल उपजौनिहार तैयार भेल। मुदा सोलहन्नी रच्‍छा तैयो नै भऽ सकल। पानिक सुविधा दुआरे गाम धुधुआ कऽ बढ़ल। जानवरो आ मनुक्खोक उपद्रवसँ बँचैले बलक जरूरति‍ भेल। गाम-गाममे अखड़ाहा बनए लगल। लोक कुश्ती लड़ि अपन शक्तिक परिचए दिअ लगल रहए। गामे-गाम डंको पड़ए लगल रहए। तहिएसँ तिलासंक्रान्तिक दिन अपनो गाममे डंका शुरू भेल।
भैयाकाका बजिते रहथि कि जीवानन्दक मुँह बाजि उठल-
काका, अपन बात कनी रोकि कऽ राखू। हम बिसरि जाएब।
मुस्की दैत भैयाकाका पुछलखि‍न-
बाजह?”
जीवानन्द कहए लगलनि-
पावनिक दिन रहने मन छनगल रहए। तमोरिया (डाक्‍टर एेठाम) मे इलाज शुरू होइते भौजी (रतुपारवाली) केँ खलास भऽ किछु सुढ़ियाएल देखि‍ ड्योढ़वालीकाकीकेँ गाम पठा देलियनि। मन खुशी रहबे करनि। होइन जे के पहिने भेँट हएत जेकरा सोझहामे पेटक गुदगुदी बोकरि दियनि। संयोगो नीक रहलनि। मदनावालीकेँ आँगनसँ मुड़ियारी दैत देखलखिन। छुतका (अशौच) दुआरे हाँइ-हाँइ अँगनेक चूल्हिपर लोहियामे तरकारी तड़ै छेली। सोझहामे देखि‍ ड्योढ़वालीकाकी ससरि कऽ आँगन बढ़ली! नजरि पड़िते मदनावाली भौजी आग्रह करैत कहलकनि-
एत्तै आबथु काकी।
बिना पएर-हाथ धोनहि चूल्हिक पाछूमे बैस गेली। तीनसल्ला अरूआक तरुआ बढ़बैत कहलकनि-
काकी कनी नून देखि‍ लेथुन।
दुनू गोटे चूल्हिए लग बैस खाए लगली।
जीवानन्दक बात सुनि ठहाका दैत भैयाकाका कहए लगलखिन-
अच्छा, तोहर बात भऽ गेलह। आगूक सुनह। केवल अपने गामटा मे नै आनो-आनो गाममे डंका होइ छेलए। तीन बजे भोरेसँ ढोलिया गाछपर चढ़ि वा बड़की पोखरिक महारपर सँ ढोल बजबए लगैत रहए। बेरुका समए डंका होइ छेलए। किछु दिन पछाति रूपैआक प्रवेश भेने डंका दंगलमे बदलि‍ गेल।
बिच्चेमे जीवानन्द बाजल-
दू साल पहिने तक तँ होइ छेलैए।
जीवानन्दक बात सुनि कनीकाल गुम्म रहि भैयाकाका कहए लगलखिन-
जाधरि मालिक (जमीन्दार) केँ मालगुजारीए धरि होइ ताधरि गाम शान्त छेलए। मुदा जखनि मालगुजारी तरे लोकक खेत निलाम हुअ लगलै तहन ओ पएर पसारए लगल। महाजनी सेहो करए लगल। छपरिया सिपाहीक आगमन गाममे भेल। पहिने तँ ओ कचहरीएक हातामे माने हातामे अखड़ाहा ख्ुनि लडै़। मुदा किछु दिन पछाति गामक डंका अपना अखड़ाहापर लए गेल। साले-साल डंका करबए लगल। एकाएकी परोपट्टाक खलीफा पीठ देखबए लगल। अपन इज्जत बचा हम मकरक रविकेँ डंका करबैत रहलौं। मुदा ओ सभ (छपरिया) डंकामे बलउमकी करए लगल। साले-साल झंझटि हुअ लगल।
भैयाकाकाक बात सुनि जीवानन्दक आँखि भरि गेलै। जीवानन्‍दक भरल आँखि देखि‍ भैयाकाका पुन: बजला-
जाधरि छोटका बाबा छला ताधरि कोनो गम नै छेलए। ओना समैओ करोट लेलक। समैकेँ दहिन होइते शक्ति बढ़ए लगल। तिला-संक्रान्तिसँ अढ़ाइ मास पहिने मन बेकाबू भऽ गेल। पुरने अखड़ाहाकेँ छील-छालि खुनलौं। लपटनिहार सभ संग दिअ लगल। मालिकक खलीफाकेँ माटि पठा कहलिऐ जे जौं एक माएक दूध पीने हुअए तँ कचहरीक हातासँ बाहर आबि जेतए ओकरा फड़ियबैक होइ, फड़िया लैत। देशक हवा देखि‍ बूझि पड़ल जे सभ जागल अछि, केवल हमहींटा मुरदा भेल छी।
जीवानन्द बिच्‍चेमे टोकलकनि-
तहन की भेल?”
भैयाकाका कहए लगलखि‍न-
ओहो (छपरिया) लक्ष्मण रेखा (सरकारी हाता) छोड़ि बाहर अबैक मानि लेलक। डंका भेल मुदा बाह रे संतोष ढोलिया। ओइ‍ दिनक ओकरो हाथकेँ (बजबैक) धैनवाद दी जे जहिना कुरुक्षेत्रमे कृष्णक शंखक अवाज रहनि तइसँ मिसिओ भरि कम ढोलकक अवाज नै रहए। कहैले तँ अधिक गामक देखिनिहार (कुश्ती देखिनिहार) रहथि मुदा संख्या कम रहए। तहूमे ओहन देखिनिहार बेसी रहए जे ओइ‍ खलीफाक (छपरिया) पीठि ठोकैत। मुदा नजरि पड़िते देखि‍ लेलिऐ जे मुँहक ठोर कारी सिआह छै। मनमे एहेन उत्‍साह उठि गेल, जहिना आगिमे घीउ देलासँ उठैत, तहिना। लंगोटो नै पहि‍रए लगलौं, धोतीएक ढट्ठाकेँ बरहा जकाँ बाँटि कसि कऽ बान्हि लेलौं। इम्हर ढोलपर संतोष अवाज दिअ लगल- चट-धा, गिड़-धा, चट्-धा गिर-धा।
अवाज सुनि कूदि कऽ अखड़ाहापर गेलौं। मनमे उठल जे अनेरे हाथ की मिलाएब। बाँहि पकड़ि लेलौं।
ढोलिया हाथ बदललक। ढाक्-ढिना, ढाक-ढिना, ढाक-ढिना बजबए लगल। ढोलक अवाज तँ दहिन रहए मुदा देखिनिहारक अवाज वाम भऽ गेल। फेर ढोलिया हाथ बदलि‍-
चट्-गिड़-धा, चट-गिड़ धा, चट-गिर धाबजबए लगल। हमरो साहस बढ़ल। भय मनसँ निकलि गेल। मुदा माटिपर चलि गेलौं। माटिपर जाइते ढोलिया (संतोष) हाथ बदललक। मेही अवाजमे-
धाक्-धिना, तिरकट-तिना। धाक्-धिना, तिरकट-तिना।माटि परहक दाँवसँ ऊपर भेलौं। उठि‍ कऽ ठाढ़ भऽ गेलौं। देखिनिहारक आँखि सेहो बदलल। ऊपर होइते ढोलिया मोट अवाज आ भौड़ी अवाजमे बजबए लगल-
चटाक-चट-धा, चटाक-चट-धा।अवाजेक संग ओकरा उठा कऽ पटकि देलिऐ। मुदा पीठ गरे खसल। माटिपर खसिते ताल बदललक। बजबए लगल-
धिक-धिना, धिक-धिना।
अवाज सुनि धाँइ दऽ चित केलौं। चि‍त्त करिते ढोलसँ अवाज निकलए लगल-
धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़।
भैयाकाकाक बात सुनि जीवानन्द कहलकनि-
अहाँ एहेन चैनक समुद्रमे पहुँच‍‍ गेल छी जे मगन भऽ जीबैत हएब?”
मगन सुनि भैयाकाकाक हृदए, बाढ़िसँ उमड़ल गंगा जकाँ जे अपन घर (नदी) छोड़ि गाछी-बि‍रछी, खेत-पथार पहुँच‍‍ पवित्र (गंदा साफ) करए लगैत, तहिना भऽ गेलनि। विह्वल भऽ कहए लगलखिन-
बौआ, तोरा देखि‍ हृदए शान्तसँ प्रशान्त भऽ जाइत अछि आब तँ तोरे सभपर छहरो-महर हएत आ दारो-मदार अछि। मुदा हवाक गंदगी तेना ने विहारिमे पसरि गेल जे एक्को क्षण जीबैक मन नै होइए। लीला सभ जे देखै छी तँ शूल जकाँ सदिखन हृदैकेँ बेधैत रहैए। आजुक पीढ़ी जीवनक रस्‍तासँ एते दूर हटि रहल अछि जे मनुखक औरुदा सए बर्खसँ घटि कुत्ताक औरुदा (बारह बर्ख) मे बदलल जा रहल अछि। दुख एतबे नै होइए, जे औरुदेटा घटि रहल छै, मनुखक वृत्ति‍ओ टूटि-टूटि ओम्हरे जा रहल अछि। जइ रूपक बेवहार भऽ रहल छै ओइ‍ सभसँ आगम बूझि पड़ैए जे माए-बाप, भाए- बहि‍न सबहक सम्‍बन्‍ध आ शिष्टाचार ऐ रूपे नष्ट भऽ रहल अछि जे साधना भूमिकेँ मरुभूमि बनब अनिवार्य छै।

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