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Friday, October 18, 2013

(23) तिलासंक्रान्तिक लाइ

तिलासंक्रान्तिक लाइ

धानक लड़ती-चड़ती पतराइते गमैया विद्यालयमे तिलासंक्रान्तिक पढ़ाइ शुरू भऽ गेल। विद्यालय लेल ने जगहक कमी आ ने पढ़ौनिहारक। इनार-पोखरिक घाट सन पवित्र स्थान आ बिनु आरक्षणवाली महिला शिक्षि‍का। शिक्षि‍को सभ इमानदार। ने ट्यूशन फीस लैत आ ने दरमाहा। पढ़बैले एते उताहुल जे खेनाइओ-पि‍नाइक चिन्ता नै। छोट दिन होइतो भानस-भातक कौड़ीओ भरि ढेकार नै। पावनिक विषय नम्‍हर तँए पूरा विषयक शिक्षक तँ नै मुदा टुकड़ी-टुकड़ी करि कऽ अपना-अपना ढंगसँ अपन हिस्साक विषय पढ़बए लगली।
पाँच दिन पहिनहि केदार कलकत्तासँ गाम आबि गेल। ओना ओ दुर्गोपूजामे सभ साल एबे करै छथि, तिलोसंक्रान्ति सेहो नहियेँ छोड़ै छथि। केना छोड़ता? आब कि कलकत्ता ओ कलकत्ता रहल जे तीन-तीन दिन गाड़ीमे बैसल-बैसल देह-हाथ अकड़ि जाएत। आब तँ छह घंटाक रस्ता अछि‍। तहूमे केदार अपन गाड़ी रखने छथि, चाह-नास्ता कलकत्ताक डेरामे करै छथि आ कलौ गाममे। हुनके सबहक तँ ई दुनियाँ आ देश छी। एक तँ बैंकक मैनेजरक दरमाहा दोसर कुरसीक कमीशन आ तैपर सँ अपनो बैंकक शाखा खोलने छथि। कमीशने वेतन तँए स्टाफोक कमी नै। शहरे कलकत्ता सन जैठाम भीखमंगो करोड़पति अछि।
गाममे जौं कियो मरद छथि‍ तँ केदारे छथि। गाममे आँखि उठा कऽ हुनका दि‍स के तकतनि। तिलासंक्रान्तिमे अखनो सतरहटा अँचार, बीकानेरक पापड़ केदार छोड़ि के खाइत अछि? विधिपूर्वक जौं पावनि करैए तँ केदार छोड़ि दोसर के?” -पोखरिक घाटपर दतमनि करैत जगदरवाली कछुबीवालीकेँ कहलखिन।
साड़ी-साया रखि कछुबीवाली घाटपर बैस झुटकासँ पएर मजै छेली। मन चिन्तामे बाझल छेलनि। काल्हिए पावनि छी। ने चूड़ा कुटलौं हेन आ ने मुरही भुजलौं। जाबे चूड़ा-मुरही नै हएत ताबे लाइ कथीक बनाएब। गलती अपनो भेल जे अगते-ओरियान नै केलौं। फेर मनमे उठलनि- एक दिनक पावनि लेल मास दिन पहिनेसँ ओरियान करए लागब। एतबे काज अछि? काजक दुआरे एक्को दिन ने समैपर नहाइ छी आ ने खाइ छी। जेकरा काज नै छै सालो भरि पावनिए करए। कोनो की हम जनै छेलिऐ जे पनरह दिन पहिनेसँ शीतलहरि लादि देतै? चूड़ा-मुरहीक ताड़ल धान भारलो ने जाएत? जइ देवताकेँ पावनि करबनि हुनका एतबो बुत्ता नै छन्हि जे अपनो पावनिक ओरियानक चिन्ता करतथि। फेर मनमे एलनि जे चूड़ा-मुरही तँ दोकानो-दौरीमे बिकाइत अछि। कीनि‍ लेब। मुदा लाइ केना हएत? चूड़ा-मुरही तँ अखड़ा होइए। अमैनियाक जरूरति‍ नै अछि। मुदा लाइ? केहन-कहाँ हाथे, केहेन-कहाँ वर्तनमे बनौने हएत? तहूमे आइ-काल्हिक बनियाँ सभ तेहेन गैखोर भऽ गेल अछि जे गुड़क बदला छुएमे बना पाइ टलिया लैत अछि। दिनेमे मुरही-चूड़ा लऽ आनब आ रातिमे खएला-पीला पछाति‍ बना लेब। मन असथिर होइत रहनि आकि जगदरवालीक बात मन पड़लनि। क्रोध फेर आपसी रस्तासँ घूमि‍ गेलनि। तुरुछ भऽ उत्तर देलखिन-
सतरह रंगक आकि पचासे रंगक अँचार जे केदरबा खएत तइमे कछुबीवालीक जीहोक पानि मेटेतै?”
श्यामाकाकी चुपचाप नहा कऽ घर दिसक रस्ता धेली। अपना धुनिमे श्यामाकाकी। ने समाजसँ कोनो मतलब आ ने समाजक काजसँ। समाजक काजे बेढंग अछि। केकरो कोनो ठेकान नै। की बाजत आ की करत तेकर कोन ठेकान। एक्के मुँह जेते लोकसँ गप करत, एक्के गपकेँ तेते रंगसँ बाजत। लगले किछु लगले किछु। तहूमे आब तेहेन-तेहेन अगिमुत्तू सभ भेल हेन जे, जूरशीतलक मुइल नढ़ियाकेँ जहिना कुत्ता सभ अपना-अपना दिस दाँतसँ पकड़ि-पकड़ि घिचैत अछि‍, तहि‍ना भऽ गेल अछि नै तँ केतौ एना हुअए जे एक्के गाममे एक्के पावनि दूदिना, तीनदिना दुनू होइ। तहन तँ जेकरा जे मन फुड़ै छै से करैए। सभ करत अपना मने आ हम करब लोकक मने। अपन जिनगी अछि अपन दुख-सुख अछि। अपनासँ पलखति हएत तँ दोसरो बच्चा दि‍स देखब। नै तँ अपन के सम्हारि देत? यएह विचार सभ श्यामाकाकीक मनमे नचैत रहनि। चूड़ो-मुरहीक लाइ भइए गेल। तिलबो बनाइए लेलौं। कुरथीओ-तेबखाक दालि ऐछि‍ए। लोको सभ जीहक चसकी दुआरे कियो खेरही तँ कियो राहड़ि तँ कियो बदामक दालिक खिच्‍चड़ि‍ बनबैए। एते बात मनमे उठिते काकीक विचार रूकि‍ गेलनि। कुरथीक तुलना राहड़ि, खेरहीसँ करए लगली। पूसक संक्रान्तिक दिन पावनि होइए‍। राहड़ि चैत-बैशाखमे जहनकि बदाम फागुन आ खेरही जेठ-अखाढ़मे होइए, तइ हिसाबे कुरथीए ने नवकी कनियाँ बनि घर एली। ई बात मनमे अबि‍ते काकीक मन आगू बढ़लनि। हमरा सन दही केकर हेतै? कियो लोहा महिंसक दूध पौरने हएत तँ कियो पोखरिक पानिक। मुहसँ हँसी निकललनि। जेहने लोक सभ ठक भऽ गेल अछि तहने देवीओ-देवता सभ। अनदिना कियो दूधमे पानि फेँटि‍ कऽ बेचैए तँ बेचैए, पावनिमे जे हुनको सभकेँ खुअबै छन्हि से ओ नै बुझै छथिन। किएक ने हड़हरी बज्जर खसा दइ छथिन। एते दिन हुनको सभकेँ शक्ति छेलनि आब ओहो सभ डलडाक मधुर खा पेट बिगाड़ि लेलन्हि अछि। फेर मन अपना दिस घुमलनि। खिच्‍चड़ि‍मे जम्बीरी नेबो नीक आकि घीउ। मुदा ऐ प्रश्नपर मन नै अँटकलनि। खाइबेरमे बूझल जाएत। फेर मनमे खुशी एलनि। मुस्की दैत आँखि उठा कऽ तकलनि तँ दि‍नकरपर नजरि‍ पड़लनि। मने-मन प्रणाम कऽ कहए लगलखिन-
एहनो जाड़मे अहाँ चास-वासकेँ भरि देने छिऐ। अपना लेल कोठी माल-जाल लेल टाल, खेतक-खेत तरकारी, बाधक-बाध गहुम, दलिहन-तेलहनसँ सजल खेत। हे दि‍नकर बहुत जाड़ सहि जीब रहल छी, कल्लह फेरू।
आँखि निच्चाँ होइते मनमे एलनि। आइए ने सीमापर (मकर रेखा) जेता। काल्हिसँ तँ तिले-तिल बढ़बे करता
पावनिक छुट्टीमे ज्योतिषीकाका गाम नै एला कि काकीकेँ आफद भऽ गेलखिन। ओना साल भरिसँ काकीओक मन बदलि‍ रहल छन्हि। काकी जेते बुधियार भेल जाइ छथिन तेते काकासँ मन-भेद भेल जाइ छन्हि। ज्योतिषीकाकाकेँ काकीक ओइ‍ किरदानीसँ हृदैमे चोट लगलनि। जइ दिन काकी काकाक कमाएल रूपैआ चोरा कऽ बुइधिक सर्टिफिकेट कीनि‍ लेलखिन, ओही दिनसँ काकीक आफद काका आ काकाक आफद काकी भऽ गेलखिन। विद्यालयसँ अबैतखिन बाटेमे पावनिपर नजरि गेलनि। कनीकाल गुम्म भऽ उत्तर-दछि‍नक सीमापर आँखि रोपलनि। आँखि रोपिते हृदैमे हँसी उठलनि। जे लोक दक्षिणायणमे मरैत अछि तँ नर्क जाइत अछि आ उत्तरायणमे मुइलापर स्वर्ग। स्वर्ग तँ मनुख निर्मित छी जहनकि मकर संक्रान्ति ग्रह-नक्षत्रक प्रक्रिया छी। दुनू एकठीम केना भऽ गेल। बाटेसँ ज्योतिषीकक्काक मनकेँ हौंड़ने रहनि। आँगनमे पएर रखि‍ते काकी टोकि देलखिन-
तलब भेटल कि नै? अखनि धरि कोनो ओरियान नै भेल अछि।
काकीक बात सुनि काकाक मन लहरि‍ गेलनि। आँखि गुड़रि काकीकेँ देखि‍ ओसारक चौकीपर झोरा रखि हाथ-पएर धोइले कल दि‍स बढ़ला। काका मने-मन सोचथि‍ जे सभ काजक बेर‍ फँड़बन्ही करती आ टाका बेरमे काका मन पड़ै छन्हि। काका अप्पन धुनिमे आ काकी पावनिक धुनिमे। तिलासंक्रान्ति सन पावनि दंगलक अखाड़ापर उतरैबला अछि, ओइ‍ लेल अखनि धरि हाथ-पर-हाथ जोड़ि बैसल छी...। मुदा पहुलके नजरि काकीकेँ डोला देलकनि। करेज काँपि गेलनि। मन निर्णए कऽ लेलकनि जे परिवारक गारजन पुरुख होइ छथि‍, मान-अपमान पुरुखक कपारपर चढ़त। हम तँ अनेरे तबाह छी। जे आनि कऽ देता ओ बना कऽ आगूमे धऽ देबनि।
कलपर पानि पीब, आँगन आबि ज्योतिषीकाका चौकीपर बैस तमाकुल चुनबए लगला। अपन भलाइ सोचि काकी बाड़ी दिस टहलि गेली। मुँहमे तमाकुल लैत काका आँखि घुमा कऽ पत्नी दिस देखलखिन। मन खुट-खुट करनि जे फेर ने किम्हरोसँ आबि किछु फरमा देथि। मुदा सोझमे नै देखि‍ मन असथिर भेलनि। मनमे उठलनि, काल्हि मकर संक्रान्ति छी। जैठामसँ सुरूज दछि‍‍न मुहेँ नै बढ़ि उत्तर मुहेँ घुमता। सुरूजकेँ उत्तरायण होइते जीव-जन्तुमे सुरूजक प्रकाश नव स्फूर्ति पैदा करैए। मौसमक बदलाव हुअ लगैए। ऐसँ परिवर्त्तनक रूप देखि‍ पड़ैए मुदा लोकमे परिवर्त्तन की आैत? जे दछि‍‍नपंथी विचार बेवहारिक रूपमे पर्वत सदृश अपन रूप बनौने अछि से चूड़ा-लाइ खेने भेट जाएत?
संक्रान्तिक पहिल संध्या अबैत-अबैत भोरमे नहेबाक कार्यक्रम तैयार भऽ गेल। ऐ प्रश्नपर विद्यालयक सभ शिक्षिका एकमत भऽ गेली। ऐ कार्यक्रममे एकटा फनिगा आबि गेल। फनिगाक गंधसँ वातावरणमे गंध पसरि गेल। गंध ई जे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरी (कमलेश्वरी) महरानी चुड़लाइक छिट्टा रखने छथिन। जे पहिने नहाइले जाएत ओकरा देथिन।
टेल्हुक धि‍या-पुतासँ लऽ कऽ ढेरबा धरि अपन दावा ठोकए लगल जे पहिने हम नहाएब आ कमलेसरी महरानीक चुड़-लाइक छिट्टा आनब। अपन-अपन शक्तिकेँ जगबैत संकल्पित सभ हुअ लगल।
जारनि‍ तोड़ि कऽ अबैकाल अझप्पे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरीक चुड़लाइक छिट्टा गोपला सुनलक। मुदा किछु दोहरा कऽ नै बुझए चाहलक। माथपर ठहुरीक बोझ रहै। मुदा भार मनसँ हटि‍ चूड़ा-लाइक छिट्टापर पड़लै। बड़का छिट्टा, जेहेन भत-भोजमे भात झँकै लेल होइ छै। भरिए दिन ने पावनि छै। केते खाएब। मनमे खुशीक अँकुड़ा उगलै। घरपर आबि जारनि‍क बोझ रखि मने-मन संकल्प केलक जे सभसँ पहिने हम घाटपर जाएब। गहींर गोपला, विचारकेँ गोपनीय रखलक। माएओ-बापकेँ नै कहलक।
बारह बजे रातिमे नीन टुटिते गोपला माए-बापकेँ बिनु किछु कहनै पोखरि दिस विदा भेल। माए बुझलनि जे लघी-तघी करए निकलल। बुधू (पिता) नीनभेर‍, तँए बुझबे ने केलनि‍। जहिना प्रेमीकेँ अपन प्रिय छोड़ि दुनियाँमे किछु नै देखि‍ पड़ै छै, तहिना लाइक छिट्टा छोड़ि गोपला किछु नै देखैत। दुलकी मारैत पोखरि दिस बढ़बो करै आ आँखि-कान उठा-उठा आगुओ ताकै जे क्यो दोसर ने तँ बढ़ि गेल। ने कानसँ कोनो भनक बूझि पड़ै आ ने अन्हारमे किछु देखए। किछु काल देखि‍ माए बान्हपर आबि तकलक तँ गोपलाकेँ नै देखलक। मनमे टराटक लगए लगलै, जे एते अन्हारमे केतए चलि गेल। भरिसक भकुआएलमे किम्हरो चलि ने तँ गेल। मुदा अन्हारमे देखबे केते दूर करब। ओह! से नै तँ हुनको (पति) उठा दुनू गोटे चोरबत्तीक हाथे तकबै। सएह कैलक।
पनरह-बीस दिनसँ शीतलहरी चलैत। लागल-लागल पछबो संग दैत। घूरक आगिओ मैलमुँह भेल। गोपलाकेँ ने रस्ता अन्हार बूझि पड़ै आ ने पोखरि दूर, ने जाड़ बूझि पड़ै आ ने पोखरिमे पानि। साक्षत् ब्रह्ममे लीन भक्त जकाँ गोपलो लाइमे लीन भऽ गेल। पोखरि पहुँच‍ घाटक तरमे गोपला हँथोरिया दिअ लगल। जाधरि लाइक आशा मनमे रहै ताधरि खूब हँथोड़लक। होंथरैत-होंथरैत देह बर्फ जकाँ जमि गेलै। जाड़ बूझि पड़ए लगलै। सौंसे देह थरथर काँपए लगलै। गोपालक मन मानि गेलै जे मरि जाएब। पोखरिसँ ऊपर भऽ घर दिसक रस्‍ता धेलक। ताधरि चोरबत्तीक हाथे आगू-आगू माए आ दू लग्गा पाछू पिता पेना नेने अबै छेलखि‍न। फड़िक्केसँ माए थर-थर कँपैत गोपलाकेँ पुछलक-
गोपाल।
गोपाल सुनि बुधबाकेँ खौंझ उठलै। बाजल-
मिरगी उठल छलौ जे पोखरि आएल छेलँह?”
थरथराइत गोपलाकेँ माए अपन आँचरसँ देह पोछए लगली। बेटाक दशा देखि‍ पिताक मन पघिलए लगलनि‍। जहिना गंगा स्नान पछाति‍ नीक विचार मनमे उपकैए तहिना बुधूक मनमे उपकलै। सोचए लगल, आइ जौं मरि जाइत तँ दिनमे केकरा तिल-चाउर दि‍तिऐ, के तिल बोहैत? दछि‍‍नबारि टोलमे सबहक बेटा-पुतोहु बाप-माएकेँ छोड़ि परदेश चलि गेल अछि। बुढ़िया सभ नवकी कनियाँ जकाँ अपनेसँ तिलकोर तडै़ जाइ छथि। तिलकोरक तरुआ केहेन होइ छै ई तँ बुढ़िए कनियाँ सभ बुझै छथिन। जिबठ बान्हि बुधबा गोपलाकेँ पजिया कऽ पकड़ि कोरामे लए डेगगरसँ आँगन दिस बढ़ए लगल। आँगन आबि पुआर धधकौलक।
जहिना गोपलाक देह भीजल तहिना देहमे सटल गंजी-पेन्टो। मुदा कपड़ा बदलैक साहस नै भेलै। देह कठुआएल, हाथ बिधुआएल, ओंगरी ठिठुरल। मुदा कनीएकाल पछाति‍ टनकल। दुनू परानी बुधबो जाड़सँ ठिठुरल रहए। तीनू टनगर भेल। टनगर होइते गोपाल माएकेँ कहलक-
अांङी-पेंट आनि दे।
गोपाल पेंट-शर्ट पहिरए लगल। तीनूक सिरसिराएल देह आगिक गरमी पाबि वसन्ती हवामे टहलए लगल। बुधबा पत्नी दिस देखि‍ हाथ पकड़ि, पहुँचल फकीर जकाँ बाजल-
आइ, गोपला हाथसँ चलि जाइत। सबहक आँगनमे पावनिक उत्साह रहितै आ अपना दुनू गोटे बेटाक सोगमे कनैत दि‍न बितबितौं।
पतिक बात सुनि आशा चौंकि‍ गेली। जेना भुमकमक धक्का धरतीकेँ लगैत तहिना आशाक हृदैमे धक्का लगल। औगता कऽ उठि कोठीपर रखल मुजेलासँ दूटा गोल-गोल लाइ लेने गोपलाक हाथमे देलक। हाथमे चूड़ाक लाइ अबिते गोपाल हबक मारलक। मुदा तेहेन सक्कत जे ठोर चँछा गेलै, मगर दाँतसँ लाइ नै कटलै। माएकेँ कहलक-
लाइ कहाँ टुटैए।
बेटाक बात सुनि आशाक मनमे खुशी उपकल। अपन कारीगरीकेँ परीक्षामे पास देखि‍ मुस्की दैत पति दि‍स देखि‍ बजली-
तेहेन पाकमे लाइ बनौने छी जे बिना सिलौट-लोढ़ीसँ सुनत?”
बेटाकेँ बुधू पुछलक-
आइ तँ केतौ नाचो-ताँच ने होइ छै तखनि किए तँू रातिमे एते दूर चलि गेलेँ।
बिच्चेमे आशा बजली-
लघी-तघी करैले उठल हेतै, भकुआएलमे बौआ गेल हेतै।
हाँइ-हाँइ गोपाल मुँहक लाइकेँ चिबा कऽ घोंटि माए दिस देखि‍ बाजल-
लोक सभ साँझमे बजै छेलै जे पोखरिक घाटक तरमे कमलेसरी महरानी लाइ रखै छथिन। उहए अनैले गेल रहौं।
गोपलाक बात सुनि बुधूक मन महुरा गेलै। मने-मन बाजल जे अपना कमेने नै हएत ओ भोला बाबा बड़दक...। मुदा क्रोधकेँ ऐ दुआरे मनमे दबने रहल जे गामक लीला सभ आँखिक सोझहामे नाचए लगल रहै। जे सभ जुआनीमे, मद-मस्त भोम्हरा जकाँ जिनगी बितौलनि, बेटा-पुतोहुक अछैत मुहसँ धुँआएल चूल्हि फूकए पड़ै छन्हि, जइसँ दुनू आँखिमे नोर टघरैत रहै छन्हि। मुदा ओ सभ तेकरा हृदैक बेथा नै, धुँआ लागब बुझै छथि। बुधूक हृदए पसीज गेलै। मुरखो अछि तैयो तँ बेटे छी। बरखे ने चौदहटा भऽ गेलै मुदा भरि दिन तँ असकरे लग्गी लऽ कऽ वोनाएल रहैए। ने खाइक ठेकान रहै छै आ ने नहाइक। तहन बुधि‍सँ भेँट केना हेतै?
बेटाक बात सुनि माएक मन उमड़ि गेलनि। बुझबैत बजली-
रौ बौआ! अपना की कोनो चीजक कमी अछि। जेते रंगक धान गिरहतकेँ होइ छै तेते अपनो ने होइए। सतरियाक चूड़ा कुटने छी, लाइ बनौने छी आ ओकरे खिच्‍चड़िओ रान्हब।
पछुआरक रस्तापर गल्ल-गुल्ल सुनि आशा घरसँ निकलि डेढ़ियापर पहुँचली कि महरैलवालीक बाजब सुनलनि। डेढ़िएपर ठाढ़ भऽ सुनए लगली। महरैलवाली हर्ड़ीवालीकेँ कहलखिन-
हम तँ आध पहर रातिए नहेलौं। अखनि धरि अहाँ पछुआएले छी।
हर्ड़ीवाली कहलकनि-
अहाँ जकाँ रातिमे कुकुर घिसिऔने छेलौं जे भोरे नहा कऽ पाक हएब।
दुनू गोटेक गपकेँ दबैत तमोरियावाली जोर-जोरसँ पुतोहुकेँ कहैत रहथिन-
तीन दिनसँ बोखार छेलह तहन एह समैमे भोरे किए नहेलह?”
मुदा पुतोहु उत्तर नै देलकनि। आशाकेँ मन पड़लनि जाड़सँ कँपैत गोपाल।

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