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Thursday, September 4, 2014

कुलच्छनी (कथाकार- ओमप्रकाश झा)

कुलच्छनी


ऐबेर फेरसँ श्रीधरक कनिञाँकेँ बेटीए भेलै, ई समाचार पूरा टोलमे पसरि गेल छल। भोज खेबाक आस रखनिहार सज्जन लोकनिक मँुह बिधुआ गेल। किएक तँ आब भोज नहियेँ हेतै। श्रीधरक बाबू गदाधर पोताक आसमे पछिला तीन बरखसँ की की नै करबौलथि। यज्ञ भेलै, हवन भेलै, दान आ पुन्न तँ पूछू नै। एकबेर बुड़हा आ बुड़ही कामर लऽ कऽ बाबाधामसँ सेहो भऽ एला। मुदा एतेक उपय आ जतनक कोनोे प्रतिफल नै। सबहक मँुह लटकल छल, जेना घरमे कोनो मरनी-हरनी भऽ गेल होइ। गदाधर दलान परहक कोठलीमे चुपचाप बैसल छला आ अपन भाग्य आ विधाताक ऊपर प्रलाप केने जाइत छला। हुनकर कनिञाँ आँगनमे कोनटा धेने उपासपर छेली, जे सभ जतन आ प्रयोजन विफल भऽ गेल। ‘पोताक मुँह देखनाइ भाग्यमे नै लिखल अछि’ ई बाजि-बाजि अपन पुतोहुकेँ कोसै छेली। श्रीधर अपनो मुँह लटकेने दलानसँ आँगन एला आ मुड़ी झुकौने सोइरी घर तक एला आ दरबज्जासँ हुलकी मारलथि। कनिञाँ बिछौनपर चुपचाप निश्‍चेश्‍ट पड़ल छेलै आ बड़की बेटी सुनैना जे तीन बर्खक छेलै, ओही चौकीपर बैसि माएसँ नवका बच्चा दियए किछु-सँ-किछु सवाल करै छेलै। कनिञाँ ऐ सोचमे छल जे घरक सभ लोक फेरसँ बेटी होइक कारणेँ हुनके दोख लगाैत। बड़की बच्चियाक जन्मक समए सेहो ओकरा सभसँ यएह सुनऽ पड़ल छेलै। नब बच्चा पूरा दुनियाँ आ दुनियाँक सोचसँ बेखबर भऽ अपन क्रन्दनमे तल्लीन भऽ सभकेँ अपना दिस आकर्शित करै छल। बापकेँ देखैत देरी सुनैना बिछौनपर सँ उतरि कऽ लपकल आ श्रीधरक जांघमे लटपटाइत बाजल-
“बाबू, हमरा भूख लगल अछि। कियो हमरा खाइले नै दइए।”
श्रीधर ओकरा धकलैत कहलक-
“चल कुलच्छनी, के देतौ खाइले। पहिनेसँ तूँ की कम बोझ छेलेँ हमर माथपर जे पाछूसँ एकटा आर बहि‍न लऽ आनलेँ।”
सुनैना ऐ सभ बातसँ अनभिज्ञ छल। ओ हठ करैत कहलक-
“बाबू हमरा बिस्कुट आ दालमोट आनि दियऽ बड्ड भूख लगल अछि।”
ऐबेर श्रीधर तमसा गेल आ सुनैनाकेँ जोरसँ धकेलि‍ देलक। सुनैना नि‍च्‍चाँ खसि पड़ल, खसि‍ते कानए लगल आ श्रीधरक मुँह दिस टुकुर-टुकुर ताकए लगल। ओकर माथमे चौकीक कोणसँ चोट लगि गेल छेलै। ओकर माए चौकीपर सँ उठैक कोशि‍श केलक मुदा नै उठि सकल तँ श्रीधरकेँ कहलक जे ऐमे ऐ बचियाक कोन दोख छै जे अहाँ ओकरापर तमसा गेलिऐ। देखियौ तँ केना हिचकि-हिचकि कऽ कानि रहल छै। कनी ओकरा उठा लियौ ने। ताबत सुनैना अपने उठि गेल आ फेरसँ श्रीधर दिस बढ़ए लगल कानैत आँखि‍सँ टुकुर-टुकुर तकैत रहए। श्रीधरक आँखि ओकर आँखिसँ टकड़ाएल तँ श्रीधरकेँ ई आभास भेलै जे ओइ निर्दोख आँखिसँ अवाज आबि रहल छेलै जे ‘बाबू हमर कोन गलती। हम तँ अहींक अंश छी, अहींक सन्‍तान।’
श्रीधर ओइ निर्दोख आँखिक सवालसँ सन्न भऽ गेल। ओकर करेज फाटऽ लगलै। ओ सोझहे सुनैनाकेँ उठौलक आ कोरामे लऽ कऽ चुम्मा लेबए लगल आ ओकर माथ हँसौथऽ लगल। ओ अपने मोने बाजए लगल-
“तूँ हमर सन्‍तान छेँ। तूँ हमर अंश छेँ। तोहर छोटकी बहि‍न सेहो हमर सन्‍तान आ हमर अंश अछि। तूँ कुलच्छनी नै हमर कुलक सिंगार छेँ। हमर नाओं तोरेसँ हएत। तूँ नै कान बेटी। चल की खेबही हम तोरा अखने कीनि दैत छियौ।”
कहैत श्रीधर सुनैनाकेँ कोरामे लऽ कऽ दोकान दिस विदा भऽ गेल।

ओमप्रकाश झा

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