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Monday, May 16, 2016

गैत-बीध

गैत-वीध


पोती बिआहक छअ मासक पछाइत, बेरुका समए, जुआएल रौद, हवा खसल, दरबज्‍जाक ओसारक मोथीक ओछाइन बिछौल चौकीपर असगरे चिन्‍तू काका बैसल अपन वीर्तमानसँ भविस दिस चिन्‍त्‍यमे पड़ल छैथ। ने आगूक समटल-समतल कोनो बाट देख रहला अछि आ ने पाछू घुसकब उचित बूझि रहल छैथ। पाछू उनैट जखन अपन जीवन-क्रिया दिस तकै छैथ तँ विचार समतले बूझि पड़ै छैन, मुदा एना जिनगी बीच धारमे डूमि जाएत, से अनुमान नइ छेलैन। तखन एना किए परिवारक गाड़ीक धुरिये टुटि गेल जे एकाएक जीवन मरणमे बदलैक रूप पकड़ने जा रहल अछि? नजैर आगू घुसैकते मन कहलकैन»
यएह परिवार छी जे सालो भरि खाइ-पीबैक चिन्‍ता कहियो ने मनमे आबए देलक, आ आइ देख रहल छी जे रातियो चुल्‍हि जरत कि नइ, सेहो अन्‍देशा अछि..!”
चिन्‍तू कक्काक लगमे दोसर कियो ने, जे कहबो करथिन आ रस्‍तो तकताह। असगरे बैसल चिन्‍तू काका चिन्‍तामे डुमल चिन्‍त्‍य करए चाहै छला मुदा चिन्‍ताक पन्ना भेटिये ने रहल छेलैन जे एना भेल किए। समाजमे बेटी बिआहक जे धार फोड़ि रहल अछि ओ पाँच लाखक संस्‍कार जरूर भऽ गेल अछि। ओना, मिथिलांचलमे मिथि-मालिनिक कमी नइ, तँए ने मथि-मथि कहै छैथ जे बेटीकेँ जेते नीक शिक्षा दिअबैमे, जेतेक नीक खर्च करब, तेते नीक ओरियान तँ बिआहो-संस्‍कार-ले करए पड़त। डाक्‍टर बरक मोल पनरह लाख मुदा डाक्‍टर कन्‍याँक मोल केते? वएह ने- माइनस पनरह लाख? वाह रे साँझ पराती आ भोर वसंत गौनिहार बुधियार समाज..!
पोती बिआहक खर्च–पाँच लाख–पर नजैर पहुँचते पाँचो लाखक बेवस्‍थापर चिन्‍तू कक्काक नजैर अँटकलैन। दू-लाख रूपैआक ओरियान अपन असथिर सम्‍पैतोसँ आ खेतोक उपजासँ भेल मुदा तीन लाख तँ लोकेसँ कर्ज लिअ पड़त।एक तँ एते पाइक लेन-देन कर्ता गाममे नहि, दोसर जँ कियो परदेशी चोरनुकबा जगबो कएल तँ ओकरा पाँच रूपैआ महीना सुइद चाही! जे सुइद बाँसक कोंपर जकाँ एगो-दूगो बिआन नहि करैत, ओ तँ पानिक-केचली जकाँ सत-सतटा बिआन करैए! एक तँ ने नोकरी-चाकरीक आमदनी अछि आ ने वणिज-बेपारक, छेहा किसान भेलौं, तैठाम पाँच लाख खर्चक काज बाल-बोधक खेल नइ ने छी।
समाजमे खर्चक जे धार बेटी बिआहक फुटि गेल अछि, ओकरा थोड़े रोकि पएब। तखन तँ जीबैले ओइ धारमे बहए पड़त। आब कि ओ विचार आकि ओ काज थोड़े रहल जे सृष्‍टिक सृजन-ले पुरुख-नारीक सम्‍बन्‍ध स्‍थापित हुअए, जे एक चुटकी भुसना सेनुर आ कनगुरिया आँगुरक एक बून खून-सँ-खून मिला सिनेह स्‍थापित कएल जाएत। आब तँ समाजमे ओ प्रतिष्‍ठित बेकती भेला जे बेटा बिआहमे सभसँ ऊपर चढ़ि नगद-नारायण पौलैन आ बेटी बिआहमे नगद-नारायण गनलैन। मुदा ऐठाम तँ विचारणीय बात ईहो ऐछे जे एहेन प्रतिष्‍ठाकेँ समाज अंगीकार करैथ वा नइ करैथ। समाजो तँ समाज छी। ओना समाजोक भीतर तेते विचारक समाज पनैप गेल अछि, जेकरा समरस बना चलब, खेल नहियेँ छी। खेलो केना रहत, जहिना रंग-रंगक समाज, गामक-समाजक पेटमे समाएल अछि तहिना समाजक बीच जातिक सेहो ऐछे। जातियो तँ जाति छी, केकरा आगू कहबै आ केकरा पाछू, बेराएब कठिन अछि। धारीनुमा एहेन धार जकाँ बनल अछि जे पकड़ब कठिन ऐछे। एक तँ ओहिना सएक-सए जाति, तइमे एक-एक जातिक बीच सए तँ नइ मुदा गण्‍डा, गाही, दर्जन, सोरे आ कौरीक हिसावसँ सबहक उपजाति अछि। जेकरा बीच आगू-पाछूक सीढ़ी बनल छै। जइक चलैत ने एक-दोसराक अन्न-पानि खाइ-पीबैए आ ने बेटा-बेटीक बिआह-दान एक संग करैए। ओना बेटी बिआह सभ जातिक बीच अखनो एके रंग सस्‍त कि महग सेहो नहियेँ अछि। अखनो खास-खास जातिक लेन-देनमे किछ-ने-किछ अन्‍तर देखमे अबिते अछि, तैपर जातियोक बीच नव-नव उठाइन भेने, आरो दूरी पैदा काइए रहल अछि।
चिन्‍तू कक्काक नजैर अपन पोतीक बिआहक खर्चक ओरियानपर पुन: पहुँचलैन। तीन लाख रूपैआमे तीन बीघा खेत जे जोतसीम अछि, भरना लगा लेलौं। जइकेँ चलैत एको कनमा ने धान भेल आ ने ऐगला आशा देख रहल छी। धारक पतराएल धारा जकाँ मध्‍यम् किसान आ छोट किसानक जिनगी चलि रहल अछि, तेकरो[1] जेना आगूसँ घेर तेना रोकि रहल अछि, जइसँ दिन पहाड़ जकाँ बनि रहल अछि..!
एकाएक चिन्‍तू कक्काक खसैत मन पनपलैन। पनैपते चिन्‍तू काका अपन सोचै-विचारैक समीक्षा करए लगला। समीक्षा शुरू करिते मन बुदबुदेलैन»
बेटा-बेटीक बिआह तँ जेहने मनुखक वंश बेवस्‍था-ले तेहने तँ समाजो-ले छीहे। आब तँ ओ जुग नै रहल जे पशु-वत रूपमे चलत। आब तँ समाज-बेवस्‍था एते आगू बढ़ि छिड़िया रहल अछि जे समृद्ध समाजमे बसब असम्‍भव तँ नहि मुदा कठिन तँ भाइए गेल अछि। बेकता-बेकती आगू बढ़ैक होर पकड़ने जा रहल अछि जइसँ संयुक्‍त परिवार तँ छिन्न-भिन्न भाइए रहल अछि जे समाजोक रूप-रंगकेँ बिगाड़ि रहल अछि। समाज उठने परिवार आ परिवार उठने, बेकती उठैए। मुदा एहेन धारणा धरियाइत-धरियाइत धैड़-किनछैर पकैड़ रहल अछि। बीच धारमे यएह विचार तरंगित भऽ रहल अछि, जे अढ़ाइ-तीन सालक जखन बेटा-बेटी हएत तखने माल-जाल आकि कुत्ता-बिलाइ जकाँ परिवारसँ अलग शिक्षण संस्‍थानमे दाखिला करा, छोड़ि दियौ, मासे-मास पाइ-पठबैत रहू आ बेटा-बेटी आगू बढ़ैत रहत। एहेने सम्‍बन्‍ध बनने ने मातो-पिताक अपन पसरल जिनगी सम्‍हारमे नइ औत, तखन ऐगला पीढ़ी- बेटा-बेटी-क खगता महसूस हएत। तैठाम जँ मासे-मास पाइ पठा वा अपने पेन्‍शन भरोसे छोड़ि देब, आकि पूर्वजक देल खेत-पथार, जइसँ जीवन-जापन करैत चलि आबि रहल छी वा बेटाक भिनौजीसँ तेसर-चारम-पाँचम भागमे जिनगी टुटि ऐने रहह, टुटैत परिवारिक सम्‍बन्‍धेटा पिता-पुत्रक वा पति-पत्नीक नइ ने छी, मनुखक जिनगी छी किने, जइमे मनुखताक वृक्ष अँकुरैत बढ़ैत, चतरैत, फुलाइत, फड़ैत दुनियाँक बीचमे ठाढ़ भऽ दुनियोँ देखै आ ओहो देखए...।
क्‍लेशसँ कलशैत मनमे मनुखता अबिते चिन्‍तू कक्काक विचार आगू ससरलैन। आगू ससैरते विचार उठलैन- जखन परिवारक बीच समस्‍या उठि गेल अछि तखन परिवारमे जे कियो छैथ, सबहक सोझ एने अपन माथक बोझ तँ कमबे करत। अनेरे परिवारक समस्‍याकेँ जबूरगर बना मनकेँ बोझिल बनौने छी। बेटो-पुतोहु बुझनुक भाइये गेल छैथ तँए किए ने सबहक बीच सभ किछु रहह। पत्नियोँ सहजे एक उमेरिये छैथ। जिनगीक कोनो ठेकान अछि, कखनो माता-पिता तँ कखनो पिता-माता सेहो होइते छै। अखने आँखि मूनि लेब तँ हमरा जगह तँ वएह ने पिता-माता कहौती...। पत्नी लग आबि चिन्‍तू कक्काक मन अँटैक गेलैन। अँटैकते अपन पत्नीक चेहरा झलकलैन। गप-सर्रक्का जेते लिअ, सोहर-समदौन जेते सुनी, हाट-बजार जेते घूमि ली, सिनुर-टिकुलीक ओरियान जेतेक कऽ ली, सिनेमा-सरकस जेतेक घूमि-फिरि कऽ देख ली, मुदा परिवारक आमद-खर्चक रस्‍ता छोड़ि कऽ..! चिन्‍तू कक्काक मनमे खौंझ उठलैन, खौंझ उठिते विचार जगलैन जे सीढ़ी-दर-सीढ़ीमे पत्नीक गिनती जोड़मे होइए, अखन अपने जब छीहे तखन घटाएबे नीक। कोनो विचार करैमे जेते जड़ि सक्कत रहत, ओते ओ आगू बढ़ैत ने शक्तिशाली बनैत जाएत?
चिन्‍तू कक्काक मनमे फेर भेलैन- पोतीक सेवा जेते पत्नी केने छेली, तेते अपने तँ नहियेँ केने छेलौं, जेकरे बिआहक समस्‍याक समाधान करैक अछि, तँए हुनकोसँ विचारब जरूरी ऐछे।
एकाएक जेना चिन्‍तू कक्काक चिन्‍ता चुनिया गेलैन। चुनियाइते मनमे उठलैन- आइक सम समैमे, जेते अपन पुश्‍तैनी लगा अपनो अरजल सम्‍पैत अछि, ओकर मूल्‍य केतेको लाख अछि। हरा-हरी, घराड़ीसँ चौक तक जँ पचासो हजार रूपैये कट्ठा जोड़ै छी तैयो दस लाख एके बीघाक भेल। तखन एते चिन्‍तामे किए छी? मुदा जहिना पूरबा हवामे छोट-छोट मेघक टुकड़ी उड़ैत सूर्जकेँ झाँपि दइए, तहिना चिन्‍तूओ कक्काक विचार झँपा गेलैन। झँपाइते रंग मलिन भऽ गेलैन। मुदा ओ मलिनता लगले छँटि गेलैन।
काजमे चूक केतए भेल? ऐपर चिन्‍तू कक्काक मन पहुँच गेलैन। ओ छी जमीनक बिकरी-दाम आ भरना-दाम। तीन बीघा जमीन पाँच हजार रूपैये कट्ठा भरना लगा अपन सभ उपजाउ खेत फँसा देलौं, जइसँ परिवारक आमदनियेँ बाधित भऽ गेल, जइसँ हाथक काज सेहो छीना गेल। माने जिनका हाथे खेत भरना लगौलैन ओ अपने खेती करता। दिन-रातिक चिन्‍ता चिन्‍तू कक्काक मनकेँ तेना घेर लेलकैन जे टक-टक तकैत आँखि ज्‍योति विहीन भऽ आगू-पाछू किछु ने देखैत, दूरक कोन बात जे लगोक अवाजकेँ कान सुनि नहि पबैत। जेना चिन्‍तासँ चिन्‍तू काका चेतन-शून्‍य भेल जा रहल छला। तखने काकी दरबज्‍जापर एली। पतिक टकटकी देख चिन्‍तित भेली। एहेन रूप किए बनि गेल छैन? अपन मनक समस्‍याक समाधान लछमी काकी ऐ ताकमे ताकए लगली जे जखन लगेमे छिऐन तखन तँ मुँह खोलि किछ बजबे करता, जखने किछ बजता तखने ने चिन्‍ता घटए लगतैन।
मुदा चिन्तू काका गुम-सुम भेल अपन परिवारक चिन्‍तामे डुमल डुमकी मारि रहल छला। दुनू बेकती अपन-अपन ताकमे ताकि रहल छला तँए चुपा-चुपी पसरल जा रहल छेलैन।
एकाएक लछमी काकीक मनमे उठलैन जे भरिसक चाहक ने तँ तिसना जगल छैन? जइसँ देह-तेह ने तँ ज्‍वरित भऽ गेलैन अछि?
बिना किछु बजने काकी दरबज्‍जापर सँ ऑंगन आबि पुतोहुकेँ कहली»
कनियाँ, बुड़हाकेँ चाहक बेर भऽ गेलैन।
ओना सुचितो बेरुका चाह बना नेनी छेली। चाहक गिलास सासुक हाथमे देली। कुशेसर ओसारेक खुट्टामे ओंगैठ चाहक आशामे बैसल। हाथमे चाहक गिलास नेने लछमी दरबज्‍जा दिस बढ़ैत बेटाकेँ कहलखिन»
बौआ, चाह पीब दरबज्‍जेपर अबिहह।
चिन्‍तू कक्काक आगूमे चाहक गिलास रखैत लछमी काकी बजली»
अँगनासँ अबै छी ताबे अहाँ चाह पीबू।
खग जानए खगक भाषा, चिन्‍तू काका बूझि गेला जे चाह पीबए जा रहल छैथ। बजला»
बेसी देरी नइ करब।एकटा विचार करैक अछि।
पति-मुँहक विचार सुनि लछमी-काकीक मन क्‍लेशसँ कलैश गेलैन। कलशबो केना ने करितैन। पत्नीक अनेक रूपमे विचारी-रूप जे हाथ लगलैन। हाथ लगिते देहमे पानि चढ़ि गेलैन। उनटे डेगे दरबज्‍जासँ आँगन पहुँचली, चाहक गिलास भफाइते रहइ। हाँइ-हाँइ गिलास उठा दुखियाएल रोगी जहिना दवाइक खोराक बढ़ा कऽ खाए चाहैए, तहिना लछमी काकी चाहक खोराक सेहो बढ़ा लेलैन। होइतो अहिना छै जे काजक ताकक पाछू लोकक खेनाइयो-पीनाइ अबेवस्‍थित भाइये जाइ छै।
ओना सुचिता देवालक अढ़ेमे ठाढ़ भेली, किएक तँ सभ बात सुनै-बुझैक जिज्ञासा मनमे रहबे करैन। तीनू गोरे–माने चिन्‍तू काका, लछमी काकी आ कुशेसर–एक-दोसराक कोणा-कोणी चौकीपर बैसल रहैथ। जहिना कोनो ऑफिसमे एक-दोसराक हाथे काजक निष्‍पादन-ले भार बढ़ौल जाइए तहिना चिन्‍तू काका अपन भार बढ़बैत कुशेसरकेँ पुछलखिन»
बौआ, परिवारक गाड़ी एहेन लसकामे लसैक रहलह अछि जे जँ समए रहैत अखैन नइ चेतबह तँ आगूक दुर्दिनमे दुरकालक सामना करए पड़तह।
ओना पिताक बात सुनि कुशेसर चुपे रहल मुदा लछमी काकी टपैक पड़ली»
से की?”
पत्नीक प्रश्‍न सुनि चिन्‍तू कक्काक मनमे विराग नइ राग जगलैन। राग जगिते विचार भेलैन जे किए ने सभ बात सबहक बीचमे रखि परिवारिक जिनगीक ढाँचाक रूप-रेखा खींच दिऐ। ओना कुशेसर चुपे रहल मुदा मने-मन पिताक आक्रान्‍तक अंकन तँ करिते छल।
समझदार चिन्‍तू काका, मने-मन विचारलैन जे अखन परिवारक बीच सुदिन आ दुर्दिनक विचार करए बैसल छी। तँए कोनो समस्‍याक वर्तमाने रूप-टा नइ, ओ रूप बनैक जे पूर्व-पीठिका अछि, माने ओइ समस्‍याकेँ उठि कऽ ठाढ़ होइक जे कारण अछि, जँ ओकरा नीक जकाँ बुझब आ परिजनकेँ बुझा दिऐ तँ ओ आगू बढ़ैले बेसी कारगर हएत। पाछू दिस नजैर खिड़ा तकलासँ बूझि पड़लैन- परिवारमे जे संकट उपस्‍थित भऽ गेल अछि, ओकर जड़ि कारण भेल- पोतीक बिआह-काजकेँ ओकातिसँ नमहर बनाएब। ओना ओकातिसँ नमहर काजक दू कारण अछि- एकटा अछि परिस्‍थितिवश आ दोसर अछि बलउमकी। अपन काज तँ बलउमकीमे नइ भेल, ओ तँ भेल समाजक बीच बहैत बिआहक धारमे बहब। ओना धारमे बहैक सेहो दू कारण अछि, एक अछि भँसि कऽ डूमब आ दोसर अछि हेल कऽ पार हएब...।
..ऐठाम आबि चिन्‍तू कक्काक मन ठमैक गेलैन।
ओना लछमियो काकी, पतिक विचार सुनैले आ कुशेसरो, पिताक बात सुनैले कान ठाढ़ केने, मुदा बजनिहारोकेँ तँ अपन विचारक पतियानी लगबए पड़ै छै, तेही पतिअबैमे चिन्‍तू कक्काक मुँह बन्न रहैन। ओना टटका पीलहा चाहक लहकीसँ सबहक मन लहलहाइते रहैन मुदा किछु छी तँ परिवारक विचार छी, ठट्ठा नइ ने छी। आकि बैकवार्ड-फोरवार्ड ऑफिसक स्‍टाफ नइ ने छी, परिवार छी किने। कुशेसरो नजैर उठा पिताक आँखिपर देलक। आँखिपर नजैर फेकते कुशेसरकेँ बूझि पड़ल जे घनघोर घटाक बीच पिताजीक मन औना रहल छैन। औनेबो केना ने करितैन। जीन-मरूक बीच पड़ल जिनगीक नाह छैन।
चिन्‍तू काका कुशेसरकेँ कहलखिन»
बौआ, परिवारक जे स्‍थिति बनि गेलह अछि, ओ संकट ग्रस्‍त भऽ गेल छह, एकर निमरजना तँ अपने सभ ने करबह?”
जहिना कुशेसरक मनमे पहिनहिसँ जबाव तैयार रहै तहिना बाजल»
हँ, से तँ करए पड़त।
जेना कोनो फलक गाछ रोपैसँ पहिने फल भेट गेने खुशी होइ छै, तहिना चिन्‍तू काकाकेँ भेलैन। अपन परिवारक जबाव-देहीक एहसास करैत बजला»
बौआ, बेटी बिआहक मोकर जे लोकक मनमे फूटल जा रहल अछि, तेकरा अखन छोड़ि दहक, अखन अपन जे समस्‍या छह तेतबे विचार करह।
बिच्‍चेमे लछमी काकी टपकली»
काजे कोन अछि जे से करए अखने जाएब आ तेकर औगुताइ रहत। जखन विचार करए बैसलौं तखन सभ विचार ने सेरिया कऽ कऽ लेब।
पत्नीक विचार चिन्‍तू काकाकेँ अदहा नीक लगलैन आ अदहा अनटोह लगलैन। नीक ई लगलैन जे काजे कोन अछि, भाय! काजे ने जिनगी छी आ अकाजे ने मृत्‍यु। मुदा आगूक जे बात रहैन, माने सभ विचार से अनटोह लगलैन। रिझैत-खिजैत चिन्‍तू काका बजला»
एहेन जे लाल-बुझक्कर बनब तखन तँ दुनियेँ आछन भऽ जाएत..!”
आगूक बात चिन्‍तू कक्काक पेटेमे रहैन कि बीच्‍चेमे लछमी काकी बजली»
से की?”
जहिना लछमी काकीक मुहसँ जिज्ञासु-वाण छुटलैन, तहिना चिन्‍तुओ काका समधाइन कऽ जबाव-वाण छोड़ला»
घर-अँगनामे जखन कोसी धारक बाढ़ि चलि औत, तखन पहिने बँचै-बँचबैक ओरियान करब आकि ई विचारए लगब जे कोसी नदीक छहरे-नहर इन्‍जीनियर कमजोर बनौलक!”
चिन्‍तू कक्काक विचार लछमी काकीक मनमे चुभलैन। चुभलैन ई जे कोनो समस्‍या, जैठामक रहए, ओकरा नीक जकाँ बुझैक कोशिश करी, जेते नीक जकाँ बुझैक परियास करब तेते ओकर तह-तहक बात बुझबै। ओना अढ़मे पुतोहु-सुचिता सेहो ठाढ़ छेली। हुनका मनमे कि चुभलैन से तँ ओ जानैथ, मुदा खिल-खिला-खिल-खिला हँसली से सभ सुनलैन। एहनो भऽ सकैए जे मनकेँ खींच काज लग आ काजक समस्‍या लग अनलासँ, किछ नव रोशनी सेहो भेटै छै, जइ रोशनाइसँ लोक अपन बेथा-कथा सेहो लिखि सकैए...।
सुचिताक हँसबसँ चिन्‍तू कक्काक चिन्‍ता जेना कमलैन, कमबो केना ने करितैन, हँसि कऽ समस्‍याक समाधान करैत हँसैत चली, यएह ने भेल जिनगी। मुदा लछमी काकीकेँ पुतोहुक हँसब नीक नइ लगलैन। भाय, कियो अपनापर हँसि दिअए, ई केकरा नीक लगतै जे लछमी काकीकेँ नीक लगितैन? हँ! जँ मन-बुधि आ हाथ-पएरसँ ओहन काज करी जे खुशीसँ हँसी पैदा करए, ओ ने नीक भेल। दाँत पीसैत लछमी काकी रहि गेली मुदा बजली किछु ने। ओना माइयो आ पत्नियोँक बीच कुशेसर, तँए थोड़े धर्म-संकटमे पड़िये गेल। धर्म-संकट ई जे माइक विचारकेँ खण्‍डित होइत देख पुतोहु हँसली, सासुपर थोड़े हँसली? विचारक एक टुकड़ीपर हँसली, सेहो अधलासँ नीकक बाटमे हँसली।
ओना अही तारतममे चुपा-चुपी सेहो पसैर गेल। चुपा-चुपी देख चिन्‍तू काका पाशा बदलैत बजला»
बौआ, बिआहमे जेना सभ उपजाउ खेत भरना लगा लेलौं..?”
कुशेसरोकेँ जेना सह भेटल। बाजल»
बाबू, ओना मुँह खोलि कऽ तँ नइ, मुदा जी दाबि कऽ तँ कहने रही ने जे..?”
खेतक भरना आ बिकरीक बात खुलि कऽ नइ उठल, मुदा लाल बुझक्कैर जकाँ लछमी काकी बूझि गेली। बजली»
बाप-माइक सम्‍पैतमे जखन बेटियोक हिस्‍सा छै, पचास हजार रूपैये कट्ठा जमीन अछि, छबे कट्ठा बेचने सभ भार हटि गेल रहैत, बाँकी जे खेत अछि ओकर उपजा तँ हेबे करैत। किए एहेन स्‍थिति होइतए।
ओना चिन्‍तू काका लछमी काकीक विचारकेँ महसूस केलैन, मुदा अपन जे विचार- भरना लगाएब छेलैन, सेहो सोलहन्नी मनसँ हटल नइ छेलैन, जे बात कुशेसर बूझि गेल। ओना कुशेसर पहिनेसँ बुझैत जे भरना-मूल्‍य खेतक उपजापर निर्भर करै छै, खेती पछुएने- माने किसानक दशा पछुएने- खेतक उपजो पछुआएल, तैपर रौदी-दही सेहो अनिवार्जे जकाँ भऽ गेल अछि, जइसँ भरनाक स्‍थिति बिगड़ल छै। तँए मूल्‍य, माने भरना-दर, कम अछि। बैंकक सुइदमे रौदी-दाही नइ छै, तैसंग बिसवासू सेहो अछि...।  
..आगूक जिनगीक आस लगा कुशेसर बाजल»
उपाय?”
बेटाक मुहसँ उपाय सुनिते चिन्‍तू कक्काक चिन्‍त-मन चिनमय भऽ गेलैन, चिनमय होइते बकार होइत मुहसँ फुटलैन»
बौआ, गनगुआरिक एकटा टाँग टुटने गनगुआरि नांगर थोड़े हएत। पाँच बीघा सम्‍पैतमे जे पान-छह कट्ठा चलिये जाएत तइसँ केते जिनगी प्रभावित हएत।
सह दैत कुशेसर बाजल»
जँ जिनगी प्रभावितो हएत तेकरो तँ लाखो उपाय ऐछे। जखन हाथ-पएरक संग धरतीपर छी तखन करै-चलैसँ केकरो कियो रोकि थोड़े देत?”
शब्‍द संख्‍या : 2424, तिथि : 21 अप्रैल 2016


[1] धारा

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