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Thursday, October 23, 2014

माघक घूर

माघक घूर

 माघक घूर





नरक नि‍वारण पावनि अन्‍हरिया चतुरदसीक दिन, सतैहिया शीतलहरी अपन कड़कड़ाएल मस्‍त जुआनी पाबि पछिया हवाक संग बि‍हुँसैत गतिये गुनगुनाइत बहि रहल छल। ओना दुनू मीलि‍ दिन-राति‍ बहैत मुदा भोरहरबामे आबि‍ आरो वि‍कराल रूप पकड़ि‍ लैत। वि‍करालक पाछू तेज हवा बहब नै मौसमक अपन सकल-सरूप अछि। दि‍नमे कनी-मनी तँ सुरूजक असरि‍ पाबि‍ कमबो करैत मुदा राति‍क चारि‍म पहर अबैत-अबैत ऊहो असरि‍ हारि‍-थाकि‍, जहिना धारक कि‍नछरि‍क मरि‍याएल पानि‍ कतवाहि‍ पकडि‍ चलैत तहि‍ना कतवाहि‍ पकड़ि‍ नेने अछि। पाँच थान मालबला रघवा कक्काक सिरसिराएल मन सीरको तरमे सिरसि कऽ तरसि‍ रहल छन्‍हि‍। कनारथपर असुआएल बैसल नजरि‍ नोर सि‍रजि‍ रहल छन्‍हि‍। सि‍रजि‍ रहल छन्‍हि‍ अपन जि‍नगीक बेथा-कथा। तेहेन बीखाह समए भऽ गेल अछि जे जहि‍ना माटि‍क पँखाएल दि‍वारकेँ कुदि‍-कुदि‍ बेंग मुहसँ पकड़ि‍ सुगबुगाइओ ने दैत तहि‍ना अन्‍हार इजोत बीछि‍-बीछि‍ बि‍छौन केने जा रहल अछि‍।
देह परहक सीरक उतारि‍ रघवा काका जि‍नगीक समर भूमि‍ लेल मन बनबए लगला। जँ लड़ि‍ मरब तैयो दुखेक नि‍वारण जँ जीवि‍त रहब तैयो सएह। आखि‍र पाँचो थानक पोसि‍निहारो तँ छीहे। ओकरा मुँहमे कोनो बाेल छै जे अपन बेथाक कथा कहत। ओना कहि‍यो काल खेबा-पीबा लेल आकि‍ अनठि‍या जीव-जन्‍तु देखि‍ आकि‍ दुहै-गाड़ै काल मुँह खोलैए मुदा मनुख जकाँ तँ नै कहि‍ सकैए। नहि‍योँ कहत तैयो तँ एते बुझबे करै छी जे अखनि‍ जे दुरकाल समए अछि‍ तइमे की सभ शक्‍ति‍शाली अछि‍। जाधरि‍ हथि‍यार नै पकड़ाइ छै ताधरि‍ शक्‍ति‍हीनो शक्‍ति‍शाली होइते अछि। सुकाल पाबि‍ भलहिं वएह शक्‍ति‍हीन शक्‍ति‍शाली कि‍ए ने बनि‍ जाए मुदा कुकाल तँ कुकाल छि‍ऐ जेकरा मुँहमे अवाज भलहिं होउ, मुदा जेकरा बोल नै छै ओ अपन बेथाक कथा कहि‍ये केकरा सकैए। देह लगा मारब छोड़ि‍ उपैये दोसर की छै। मुदा जानसँ जाए आकि‍ सोग-रोगसँ पकड़ाए, अपन जि‍नगीक संग हमरो जि‍नगी तँ तोड़बे करत। टुटैत जि‍नगी देखि‍ मन थकथकेलनि‍। थकथकाएल मन बुदबुदेलनि‍। जि‍नगी टुटि‍ कऽ फेरि‍ ओहि‍ना खसि‍ पड़त जहि‍ना दस बरख पहि‍ने छल। जे दस बर्खक बीच ज्ञान-कर्मक संग कठि‍न श्रम केला पछाति‍ भेटल, ओ छीना रहल अछि‍, छीना जाएत। मुदा बँचाइओ तँ नहि‍येँ सकै छी। टुटैत मनकेँ हुथैत वि‍चार कहलकनि‍-
की यएह सोचि‍ एते समैओ आ श्रमो गमेलौं जे छनेमे छनाक भऽ जाए? जखनि‍ जि‍नगीए टुटि‍ कऽ खसि पड़त तखनि‍ कोन जि‍नगी लऽ कऽ ठाढ़ रहब!” 


अंतिम    पेजसँ.................................................



सुगि‍या काकीक जनगर बात सुनि‍ रघवा काका गुम भऽ गेला, मुदा लगले मनमे फुड़लनि‍-
कौल्हुका चि‍न्‍ता आइ कि‍ए करै छी, काल्हि‍ले काल्हि‍ छै। कोनो ठेकान अछि‍ जे एहने समए कौल्हुको हएत।
दूटा गोरहा आ चारि‍-पाँचटा चि‍पड़ी उठा, मटि‍या तेलक डि‍बि‍या आ सलाइ आनि‍ आगू-आगू सुगि‍या काकी आ पाछू-पाछू रघवा काका आबि‍ मालक घरमे घूर केलनि। सूखल गोइठा, तइमे ढाड़ल मटि‍या तेल सलाइक लपकी पकड़िते लपकि‍ लेलक। घूर धधकि‍ गेल।¦१६८३¦
 
०६ फरवरी २०१४ 

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