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Thursday, October 23, 2014

घर तोड़ि देलि‍ऐ‍

घर तोड़ि देलि‍ऐ











पति‍-पुत्रक दुरघटनाक तीन मास पछाति‍ प्रमि‍ला कोठरीमे असगरे बैसल अपन भवि‍तब दि‍स देखि‍ रहल छथि‍। ओना अखनि‍ तक प्रमि‍लाकेँ एहेन वि‍चार मनमे कहि‍यो ने उठल छेलनि‍। नव-नव वि‍चार मनमे उठलनि‍। ओना ईहो कहि‍ सकै छी जे जहि‍ना दुनि‍याँमे हजारो रोग-वि‍याधि‍ (दैहि‍क, मानसि‍क) पसरल अछि‍, मुदा भेँट तँ तहि‍ये ने होइए जइ दि‍न ओकर आक्रमण होइ छै। डाक्‍टर तँ बेवसायी भेला, तँए ओ अपन पूजी बढ़बै दुआरे अनको रोग-वि‍याधि‍क आ ओकर दवाइ-औषधि‍क अध्‍ययन करै छथि‍, मुदा रोगीकेँ ओइसँ आकि‍ जेकरा ओइसँ भेँट नै, तेकरा कोन मतलब छै जे अनेरे पेनक्रि‍याज‍क कैंसरक इलाज कथीसँ हएत, से बूझत। ओना बूझब जरूरी छै कि‍ नै छै ई अलग बात भेल। दुनू छै। बूझब ऐ दुआरे अछि‍ जे रोग-वि‍याधि‍क कोनो ठेकान अछि‍, केकरो भऽ सकै छै तँए बूझब जरूरीओ अछि‍, मुदा नहि‍योँ बुझने हानि‍ओ तँ नहि‍येँ अछि। हानि‍ ऐ दुआरे नै अछि‍ जे जँ ओइसँ भेँटे नै हुअए। ओना, जि‍नगी अमरलत्ती जकाँ जहि‍ना बि‍नु जड़ि‍-मुड़ीक होइए तहि‍ना दुनि‍योँ अछि‍। तखनि‍ तँ भेल जे ओतबे अध्‍ययनक ने जरूरति‍ अछि‍ जेतेकक जरूरत जि‍नगी चलैक क्रि‍यामे होइए। अखनि‍ तक जे प्रमि‍लाक जि‍नगी रहल ओ सपाट रहल। सपाट ई जे बि‍आहसँ पहि‍ने माता-पि‍ताक आश्रयमे रहली, आ सासुर बासक दौड़ान सरकारी भवनमे रहली, तँए घर बनबैक ने जरूरति‍ पड़ल आ ने मन बौएलनि‍। मोने बौएला पछाति‍ ने लोक बाड़ी-झाड़ीमे रंग-रंगक साग तोड़ि‍ पेटक आगि‍ दबैए। जँ से नै तँ अनेरे कि‍ए कि‍यो अल्‍लू-परोड़ छोड़ि‍, की-कहाँक साग खाएत। भलहिं पौष्‍टि‍क दृष्‍टि‍ए सागो अपन ओहेन कुबत बनौने हुअए जइमे अल्‍लुओ-परोड़सँ बेसी सुआदो आ शक्‍तीओ देहमे दाबि‍ कऽ रखने हुअए। परसू जखनि‍ प्रमि‍ला सरकारी भवनसँ नि‍कालि‍ देल गेली आ भाड़ाक घरमे एली तखनि‍ मनक अन्‍हरि‍याक एकादशी दि‍न वि‍चार उठलनि‍। अनायास मुहसँ नि‍कललनि‍-
परि‍वार तेना राँइ-वाँइ भऽ गेल जे केतए रहब। भाड़ा घर अपन थोड़े भेल चारि‍ दि‍न चान फेर अन्‍हरि‍या राति‍। मुदा नहि‍योँ भेने की हएत, केतौ तँ रहए पड़त।” 


अंतिम पेजसँ.........................................................




अखनि‍ धरि‍ मुरलीधरक मनमे यएह रहनि‍ जे गि‍रि‍धर भैया थोड़े खेत-पथारक आड़ि‍पर औता, तखनि‍ तँ कागजी बँटबारा भेल रहत। मुदा से भेलनि‍ नै। प्रमि‍ला अपन सभ कि‍छु अलग देखए चाहै छेली। बजली-
हमर सभ कि‍छु अलग करि‍ दि‍अ।
घरसँ लऽ कऽ वाड़ी-झाड़ी खेत-पथार सभ कि‍छु प्रमि‍ला अपन खँति‍या लेली। खँतेला पछाति‍ छोटकी दि‍यादि‍नी कहलकनि‍-
दीदी, सब कि‍छु तँ बँटाइए गेल। आन जे आबि‍ घराड़ीपर भाँटा रोपत आ अनेरो साँझ-भोर आबि‍ जे गरि‍औत से केहेन हएत। मनहुण्‍डे सब खेतक उपजा साले-साल दइत रहबनि‍, अनका नै देथुन।
जेना कोनो लाभ पौने लोककेँ खुशीए टा नै उत्‍साहो उमकै छै तहि‍ना प्रमि‍ला उमकैत बजली-
बाँटल भाए पड़ोसि‍या दाखि‍ल। अपना हि‍स्‍साक घरमे जेकरा मन फूड़त तेकरा बसाएब, तइले अहाँकेँ कि‍ए छाती फटैए।
जेठ दि‍यादि‍नी, मातृ तुल्‍य प्रमि‍लाक बात सुनि‍ सबरी आँखि‍ नि‍च्‍चाँ  कऽ लेलनि‍। मन कहलकनि‍-
‘एहेन लोकक मुँह देखब पाप छी।’¦१,५२७¦

१० अगस्‍त २०१४

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