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Wednesday, October 5, 2016

अनेरूआ बेटा (चारि संस्‍करण)

तेसर साँझ। अन्हरियाक चौठ रहने चान तँ नइ उगल रहै मुदा पूबसँ धाही छिटकए लगल छेलइ। सुनसान अन्हार देख किछु क्षण पहिनहि एकटा कुमारि-कन्‍याँ, समाजमे लोक-लाज बँचबैक खिआलसँ अपन दस दिनक जन्‍मल बच्चाकेँ रस्ताक किनछैरमे रखि अढ़े-अढ़ आँगन चलि गेल। बच्चाकेँ नअ दिन तँ झाँपि-तोपि कऽ बेमारीक बहन्ना बना रखलक। मुदा घटना खुलै दुआरे दसम दिन जी-जाँति कऽ फेकलक नहि, रस्ताक कातमे ओरिया कऽ रखि‍ देलक।
पाँचे-सात मिनटक पछाइत गंगाराम हाटसँ घर अबैत रहए। जनमौटी बच्चाक रुदन सुनलक, एकाएक पएर अस्थिर भऽ गेलइ। बीच बाटपर ठाढ़ भऽ अवाजकेँ अकानए लगल। ई अवाज तँ कोनो जानवर-जन्तुक वा चिड़ै-चुनमुनीक तँ नइ छी! मनुखक बच्चाक बोली बुझि पड़ैए..!
अकचकाइत गंगारामक मनमे उठलै, ऐठाम मनुखक बच्चाकेँ बोली भऽ केना सकैए? तहूमे केकरो देखबो ने करै छिऐ। ..बाँसक गाड़ल खुट्टा जकाँ गंगाराम बीच बाटपर ठाढ़ भऽ गेल। कनी काल ठाढ़ रहि ओ आस्ते-आस्ते बच्चा दिस पएर बढ़ौलक। झल-अन्हार रहने अधिक दूर देखबो ने करै छल। अगल-बगलक खेतसँ लऽ सौंसे बाधमे कीड़ी-मकोड़ी सभ अपन-अपन स्‍वरमे कि‍यो माए-बापकेँ हाक पाड़ैत, तँ कि‍यो अरामसँ गीत गबैत। जइसँ सौंसे बाधमे अनघोल मचल।
लग पहुँच‍ गंगाराम बच्चाकेँ निहारए लगल। एक मन कहलकै-
ई तँ मनुखक बच्चा छी।
लगले दोसर मन कहलकै-
ऐठाम बच्चा आएल केना?’
तरकारीबला झोरा दुभिपर रखि‍, दहिना हाथ बच्चाक देहपर दऽ हसोंथए लगल। देह सिहैर गेलइ। सगर देहक रोइयाँ ठाढ़ भऽ गेलइ। मुदा मनमे खुशी उपकलै। मन थीर कऽ बच्चाकेँ दुनू हाथे उठा लेलक। उठा कऽ पेटमे साटि, बामा हाथे बच्चाकेँ थाम्हि दहिना हाथे खढ़-पात पोछए लगल। बच्चा ओहिना पूर्ववते कनैत रहए। खढ़ पोछि गंगाराम कान्हपर सँ गमछा उतारि बच्चाकेँ ओइमे लपैट लेलक। तरकारीक झोरा कान्हमे टाँगि छाती लगौने बच्चाकेँ अपना ऐठाम अनलक।
आँगन आबि गंगाराम हँसैत घरवालीकेँ कहलक-
“आइ भगवान खुश भऽ एकटा बेटा देलैन!
बेटा देलैन सुनिते भुलिया अकचकाइत दौगल आबि पतिक कोरासँ अपना कोरामे बच्‍चाकेँ लैत बच्‍चा दिस निंगहारि-निंगहारि देखैत बाजल-
“केतए ई बच्चा भेटल! आ-हा-हा, बच्चा तँ बड़ दीब अछि!
“हाटसँ घुमैत काल बाटपर भेटल। एकर सेवा करू। जँ अप्पन बनि कऽ आएल हएत तँ जीबे करत, नहि तँ जहिना रस्ते-रस्ते आएल तहिना चलि जाएत।
पतिक बात सुनि भुलिया मने-मन सोचए लगल, अपना तँ ने गाए अछि आ ने बकरी, जेकर दूध पिआ बच्चाकेँ पालब। अपने तँ दूध हेबे ने करत किएक तँ बुढ़ाड़ीमे सभ अंग सुखा गेल। भुलिया निराश भऽ गेल। मुदा थोड़े कालक पछाइत भुलियाकेँ आशा जगल। मनमे एलै- अपन ने छाती सुखि गेल मुदा पितियौत दियादनी तँ चिलकौर ऐछे। ..मन पड़िते भुलिया भगवानकेँ धैनवाद दैत बाजल-
“जहिना भगवान सुखाएल बोनमे फूल फुलौलैन तहिना ओकर अहारोक ओरियान तँ वएह करथिन।
पचास बर्खक गंगाराम। अड़तालीस बर्खक भुलिया। मुदा जेते थेहगर गंगाराम तइसँ कम भुलिया। अड़तालीस बर्खक भुलिया साठि बर्खसँ ऊपर बुझि पड़ैत अछि‍। झुनकुट बुढ़ जकाँ। बुढ़क सभ लक्षण भुलियामे आबि गेल अछि‍, मुदा कोरामे बच्चा देख भुलियाक शरीरमे जुआनीक खून दौगए लगलै। नव उत्साह, नव-जीवन। आनन्दि‍त भऽ विह्वल होइत भुलिया पतिकेँ देखैत आ गंगाराम पत्नीकेँ। दुनूक मनमे खुशीक हिलोर उठए लगलै, पानिक गुब्बारा जकाँ खुशी मुहसँ निकलए चाहइ..। बच्चाकेँ चुप रहै दुआरे भुलिया अपन छातीमे लगा लेलक। कनी काल बच्चा छातीमे लागि‍ मुँह बन्न केलक मुदा दूध नइ भेटने फेर ओहिना कानए लगल।
गंगारामक घरक बगलेमे पितियौत भाए-रूपलालक घर। बच्चाकेँ छाती लगौने भुलिया रूपलालक आँगन पहुँचल। रूपलालक स्‍त्री-कबुतरी अपना बच्चाकेँ दूध पि‍अबैत रहए। तीन मासक बच्चा रहइ। ..भुलियाक कोरामे बच्चाकेँ कनैत देख अपना बच्चाकेँ ओछाइनपर सुता कबुतरी भुलिया कोरासँ बच्चाकेँ लैत दूध पीयाबए लगल। भूखल बच्चा, हपैस-हपैस कऽ दूध पीबए लगल। बच्चाकेँ दूध पिबैत देख भुलिया कबुतरीकेँ कहलक-
“भगवान तोरा सातगो बेटा औरो देथुन।
भुलियाक बातकेँ हँसीमे उड़बैत कबुतरी बाजल-
चारिए-टा मे तँ अकैछ गेलौं आ सातटा आरो पोसब पार लगत। अपन असिरवाद घुमा लौथु। जेतबे अछि तेकरे निमेड़ा होइ तहीसँ बहुत हएत।”
बात बदलैत कबुतरी फेर बाजल-
“दीदी, बुढ़ाड़ियोमे जे हिनका बेटा भेलैन से केहेन पोरगर छैन‍‍। हि‍नके जकाँ आँखि, मुँह, नाक लगै छैन‍‍। भैया जकाँ किछु ने बुझि पड़ैए।
भुलिया-
“सभ दिन तूँ एक्के रंग रहि गेलेँ। कहियो तोरा बजै-भुकैक लूरि‍ नइ भेलौ। जेठ-छोटक विचार तँ बुझबे ने करै छीही। केकरो किछु कहि दइ छीही। कोनो गत्तरमे लाज-सरम तँ छौहे नहि।
हँसैत कबुतरी तेहरौलक-
“एँह दीदी, हिनका अखन की भेलैन हेन, एकटाकेँ के कहाए जे जोड़ो लगि‍ जेतैन।
कबुतरीक बातसँ भुलियाकेँ तामस नै उठइ। बच्चाक आनन्द हृदैकेँ पानि जकाँ कोमल बना देने छेलइ। बच्‍चाक उद्गार भुलियाक कोमल हृदैकेँ खोलि‍ देलक-
“तोरे भैयाकेँ हाटसँ अबै काल रस्तामे ई बच्चा भेटलै।
कबुतरी-
“भेटुआ बच्चाक मुँह हिनका मुहसँ किए मिलै छैन‍‍? ई हमरासँ छिपबै छैथ।
खौंझाइत भुलिया बाजल-
“अच्छा हो, हमरे भेल। आब तँ मनमे सबुर भेलौ ने।
बात बदलैत कबुतरी बाजल-
“दीदी, जहिना एकटा बच्चाकेँ दूध पीअबै छी तहिना अहू बच्चाकेँ दूध पिआ देबैन। कोनो कि हमरा घरमे मौसरी नै अछि जे बच्चाकेँ दूधकटू हुअ देबैन। लोकेक काज समाजमे लोककेँ होइ छै किने। हिनका अन्हार घरमे दीप जरलैन तइसँ कि हमरा खुशी नै होइए।
कबुतरीक बात सुनि भुलियाक मन गदगद भऽ गेल। भुखाएल बच्चाकेँ पेट भरिते निन्न आबि गेलइ। बच्चाकेँ बिछौनपर सुतबैत कबुतरी बाजल-
“दीदी, बच्चाकेँ एतै रहए देथुन। राति-बि‍राति जहन‍‍ भूख लगतै, पिया देबइ।
“बड़बढ़ियाँ।
कहि भुलिया अपना आँगन आबि पतिकेँ कहलक-
“आब बच्चा जीबे करत। बड़ दूध गोधनपुरवालीकेँ होइ छइ। दुनू बच्चाकेँ पालि‍ लेत।
बच्चा-ले गंगारामक मन कनैत। मुदा भुलियाक बात सुनि मन हरिया गेलै मुदा शंको उठलै। बाजल-
“बच्चाकेँ अपना अँगना किए ने नेने अएलौं। आन तँ आने छी।
पतिकेँ चोहटैत भुलिया कहलक-
“अहाँ पुरुख छी, तँए की बुझबै जे माइक की मासचर्ज होइ छइ? से स्‍त्रीगणे बुझि सकैए। जे माए एक दिन बच्चाकेँ छातीसँ लगा लेत ओ जिनगीमे कहियो ओइ बच्चाक अधला नै सोचत।
गंगाराम चुप भऽ गेल। एकटा बात मन पड़लै। पुछलक-
“अपने दुनू गोरे ने ओकर बाप-माए हेबै, तँए कोनो नाओं तँ रखि‍ देबै किने।
पतिक बात सुनि भुलियाक मनमे छठियारक दृश्य आबि गेलइ। मुस्‍कियाइत बाजल-
“आन बच्चाकेँ तँ स्‍त्रीगण सभ मिलि कऽ नाओँ रखै छइ। मुदा से तँ ऐ बच्चाकेँ नइ भेल। अपने दुनू गोरे मिलि कऽ नाओं रखि‍ दियौ।
पत्नीक विचार सुनि गंगाराम बिहुँसैत बाजल-
“मंगल नाओं रखि‍ दियौ।
सात मासक पछाइत‍ बच्चाक मुँहमे दाँतो जन्‍मए लगल आ ठाढ़ भऽ कऽ डेगा-डेगी चलौ लगल। अन्न सेहो चाटए लगल आ पानि सेहो पीबए लगल। बच्चाक सिनेह एते अधिक दुनू परानी-गंगारामक हृदैमे रहै जे कखनो आँखिक परोछ हुअए, से नै चाहए। भुलिया बोइन करब छोड़ि, अँगना-घरक काज सम्हारि साबेक जौड़ ओसारेपर बैस बाँटए लगल। ओकरे बेच-बेच दू पाइ कमा लइत। अपना तँ साबे नै रहै मुदा अधियापर बँटैले गाममे साबे भेटइ। दुनू परानी गंगाराम ओहन उत्‍साहित भऽ गेल जेना दस बर्ख पहिने होइत छल। भरि-भरि दिन काज करैत मुदा थाकैन बुझिए ने पड़इ। भुलियाकेँ जखन मंगल माए कहैत तखन‍ आनन्दसँ ओ उन्मत भऽ जाए।
पाँच बर्खक अवस्थामे मंगलक नाओं पिता स्कूलमे लिखा देलक। मंगल पढ़ए लगल। पाँचे किलास तक पढ़ाइ गामक स्कूलमे होइत रहइ। पँचमा तक मंगल पढ़ि लेलक। दस बर्खक भइयो गेल। मुदा दुनू परानीमे गंगारामक देह एते अब्‍बल भऽ गेलै जे काज करैले लोक अढ़ौनाइ छोड़ि देलकै। कहुना-कहुना दुनू परानी जौड़ बाँटि-बाँटि गुजर करए। जिनगी भारी लगए लगलै। मुदा दसे बर्खक मंगलमे ज्ञानक उदए कनी-मनी भऽ गेल। जहिना बच्चेमे हनुमान बाल सुरूजकेँ गीर गेल छला, तहिना। मंगल पिताकेँ कहलक-
“बाबू अहाँ दुनू गोरे काज करै-जोकर  आब नइ रहलौं। हमरा मन होइए जे चाहक दोकान खोली। अपने डेढ़ियापर एकटा एकचारी बान्हि दिअ, दोकान खोलब।
गंगारामक मनमे जँचलै। मुदा चाह तँ गामक लोक पिबैत नहि, तखन‍‍ दोकान चलतै केना। मुदा तैयो एकचारी बान्हि देलक। बाड़ीमे एकटा जीमहर-गाछ रहै ओकरा पच्चीस रूपैआमे बेच, चाह बनबैक बरतन-बासन सेहो कीनि देलक।
चाहक दोकान मंगल शुरू केलक। नव वस्तुक दोकान गाममे। मुदा पहिल दोकानकेँ तँ मोनोपोली होइते छइ। शुरूमे गामक लोक नव चीज पेय बुझि सि‍हन्ते पिनाइ शुरू केलक। मुदा धीरे-धीरे दोकान जमि गेल। जइसँ एतेक कमाइ हुअ लगलै जे कहुना-कहुना गुजर चलि‍ जाइ।
तीन साल बितैत-बितैत दुनू परानी गंगाराम मरि गेल। जाधैर गंगाराम जीबै छला ताधैर गाममे मंगलक प्रति केकरो कोनो तरहक घृणा नै छेलै मुदा गंगारामक मरला पछाइत‍ लोकमे घृणा जागए लगलै। मुदा तैयो दोकानक बिकरीमे कमी नै एलै, किएक तँ समाजक लोक चाह-पानि पीअब शुरू कऽ देने छल।
चाहक दोकान केला उपरान्तो मंगलक मनमे पढ़ैक जिज्ञासा जीविते। खाइ-पीबैसँ जे पाइ उगरै ओइसँ किताब-कागत-कलम कीनि-कीनि पढ़बौ करए आ लिखबो करए।
मरै काल गंगाराम मंगलकेँ जन्‍मक इतिहास सुना देने रहथि‍न। जइसँ समाजक कुरीति-कुबेवस्‍था जे करमी लत्ती जकाँ छाड़ने अछि, ओइ बिन्दुपर मंगलक नजैर पहुँच‍ गेल छेलइ। तँए किताबक अध्ययनक संग-संग समाजक बेवहारक अध्ययन सेहो करए लगल। मंगल चाहक दोकान चलबैत तँए दस गोरे संग गप-सप्‍प करैक लूरि‍ सेहो सीखि लेलक। तेतबे नहि, साँझू-पहर, जखन एक झोँक चाहक बिकरी खूब होइ, तेकर पछाइत, जखन गहिंकी पतरा जाइ तँ‍ रूपचन मंगलक दोकानपर अबइ। अबिते दू गिलास चाह पिया मंगल रूपचनक दिमाग साफ कऽ दइ। रूपचन गामक खिसक्कर। मुदा बड़ गरीब। दू-चारिटा पछुएलहा गहिंकियो रहै, तैबीच रूपचन पुरना खिस्सा उठबै। एक घन्‍टा, दू घन्‍टा, तीन-तीन घन्‍टा तक रूपचन खिस्सा मंगलकेँ सुनबै। खिस्सा सभ दिन बदैल-बदैल कऽ कहइ। कहियो राजा-रानी, तँ कहियो रानी-सरंगा, तँ कहियो रजनी-सजनीक। तहिना कहियो गोनू झाक, तँ कहियो डाकक, कहियो अल्हा-रुदलक, तँ कहियो दीना-भदरीक, कहियो लोरिक, तँ कहियो सलहेसक।
ऐ तरहेँ मंगलक बुधि‍क बखाड़ीमे किताबक ज्ञान, समाजक ज्ञान आ खिस्साक ज्ञान जमा हुअ लगलै। रातिमे जे खिस्सा सुनै ओ दिनमे जखन‍ समए भेटै, लिखि लिअए। लिखैत-लिखैत पाँति सेहो सोझ-साझ हुअ लगलै आ जिज्ञासो बढ़ए लगलै।
एक दिन बेर टगैत एक गोरे मंगलक ऐठाम चाह पीबए आएल। देह-दशासँ बिल्कुल साधारण। हाथमे एकटा चमड़ाक बैग रहइ। ओ आदमी “भारत जागरणपत्रिकाक सम्पादक छला। गामक दशा-दिशाक अध्ययन करैले गाम दिस आएल रहैथ। ..मंगलसँ गप-सप्‍प करैत ओ सम्पादक जेना हेरा गेला। उन्मत्त भऽ गेला। जेना मंगलक हृदए आ सम्पादकक हृदए एकठाम भऽ केतौ सफरमे निकैल गेल हुअए, तहिना।
भक्क टुटिते दुनू गोरे हँसए लगला। सम्पादक कहलखिन-
“बौआ, चाह बनाउ। पहिने चाह पीअब अखन धरि नै पीने छेलौं। आइ हम रहब, निचेनसँ गप-सप्‍प करब।
मंगल चाह बनबए लगल। चाह बना दुनू गोरे पीलैन‍।
खेला-पीला पछाइत, रातिमे दुनू गोरे एक्के बिछानपर बैस गप-सप्‍प करए लगला। जे किछु खिस्सा-पिहानी मंगल लिखने छल ओ हुनका आगूमे रखि‍ देलकैन‍। उनटा-पुनटा सम्पादकजी देखए लगला। भाषा-शैली तँ नइ जँचलैन मुदा विषय-वस्तु हृदैकेँ पकैड़ लेलकैन...।
हँसैत सम्‍पादक बजला-
“बड़ सुन्दर वस्तु सभ अछि। एकरे तकैले हम आएल छी।
कहि बैग खोलि किछु पत्रिका आ किछु किताब दैत कहलखिन-
“ऐमे लिखैक तौर-तरीका निर्धारित कएल अछि। एकरा ठीकसँ पढ़ि जे अधार निर्धारित अछि, ओइ अधारपर लिखब। हम सम्पादक छी। मासिक पत्रिका चलबै छी। अहाँक एक-एक कथा सभ मासक पत्रिकामे छापब आ एक कॉपी अहूँकेँ पठा देल करब।
तीन-चारि घन्‍टा धरि सम्पादकजी मंगलकेँ बुझबैत रहलखिन। भोरे सुति उठि चाह पीब सम्‍पादक चलि गेला।
मंगलक कथा पत्रिकामे मासे-मास छापए लगल। मंगलक अनेको पाठकमे एकटा लड़की सेहो। नाओं सुनयना। दर्शन शास्‍त्रसँ एम.ए.मे पढ़ैत। पाँचम मासक पत्रिकामे सम्पादकजी मंगलक परिचए-मे एकटा उपन्यासक चर्चा सेहो कऽ देलखिन, नाओं छेलै “मरल गाम। सुनयनाक पिता ओकील। सुनयनाक मन “मरल गाम नाओं पढ़ि नाचए लगल। मनमे आबए लगलै, हमर देश तँ गामक देश छी। जहन‍‍ गामे मरल अछि तहन‍‍ देशकेँ की कहबै? ..ई विचार सुनयनाक मनमे उड़ी-बीड़ी लगा देलक। जे सुनयना, पिताक सोझाँमे भरि मुँह कहि‍यो बजैत नहि, ओ सुनयना आइ पितासँ डिस्कस करैले तैयार भऽ गेल।
कोर्टसँ आबि ओकील साहैब चाह पीब टहलैले गेला। टहैल-बूलि कऽ दोसर साँझमे आबि कौल्हुका केसक तैयारी-ले फाइल निकाललैन। पत्नी चाह आनि कऽ देलखिन। चाह पीब, पान खा फाइल खोलैत रहैथ कि सुनयना आबि कऽ आगूक कुरसीपर बैसते कहलकैन-
“बाबूजी, एकटा सवाल मनमे घुरिया रहल अछि। ओ कनी बुझा दिअ?”
“की?”
“आइ पत्रिकामे पढ़ने छेलौं जे सचमुच गाम मरल अछि। जँ गामे मरल अछि, आ देश गामक छी, तखन देशकेँ की कहबै?”
सुनयनाक प्रश्‍नक गंभीरतापर नजैर नइ दऽ ओकील साहैब बजला-
“ई साहित्यकार सबहक समझ छिऐन, तँए ऐ पर किछु नै कहि सकै छिअ।
“साहित्यकारो तँ अही समाजक लोक होइ छैथ। हुनको आने लोक जकाँ जिनगी छैन‍। तहन‍‍ ओ एहेन विचार किए लिखलैन?”
“साहित्यकारक बात साहित्यकारे बुझि सकै छैथ। हम तँ ओकील छी, कानूनक बात बुझै छिऐ। अखन तूँ जा, हम एकटा केसक तैयारी करब।
सुनयना उठि कऽ चलि गेल। अपना कोठरीमे बैस कऽ विचार करए लगल। जइ देशक गाममे ने पानि पीबैक ओरियान छै, ने खाइले सभकेँ संतुलित भोजन भेटै छै, ने भरि देह कपड़ा भेटै छै आ ने रहैले घर छै, ओइ देशकेँ मरल नै कहबै तँ की कहबै? अखनो लोक सरल पानि पीबैए, कहुना किछु खा दिन कटैए, गाछक निच्चाँमे आगि तापि समए बितबैए, हजारो रंगक रोग-वियादि‍सँ घेरल अछि। जइ देशक मनुखक जिनगी एहेन अछि ओइ देशकेँ की कहबै? तेतबे नहि, हजारो बर्खक मनुखक इतिहासमे जेतए अखनो धरि सरस्वतीक आगमन सभ मनुख धरि नइ भेल अछि, ओइ देशकेँ की कहबै..?
ढेरो प्रश्‍न सुनयनाक आगूमे ठाढ़ भऽ मनकेँ घोर-घोर कऽ देलकै। अचेत जकाँ सुनयना कुरसीपर ओंगैठ सोचए लगल। सोचैत-विचारैत अन्‍तमे ऐ प्रश्‍नपर आबि अँटकल जे मरल गाम केँ पहिने पढ़ब। मुदा किताब भेटत केतए? फेर मनमे एलै- लिखनिहारे लग पहुँच‍ किताबक भाँज लगाएब।
..पत्रिका निकालि सुनयना लेखकक पता पुरजीपर लिखलक।
दोसर दिन सुनयना मंगलक भाँज लगबैले विदा भेल। नअ बजेक समए। भिनसुरका गहिंकीकेँ सम्हारि मंगल केतली, टोपिया, ससपेन, गिलास इत्यादिकेँ दोकानक आगूमे रखि‍, चुल्हिसँ छाउर निकालि चुल्हि निपैत रहए। सुनयना चाहक दोकानपर ऐ दुआरे पहुँचल जे ऐठामसँ सौंसे गामक लोकक भाँज लगि सकैए। ..दोकानपर पहुँच‍ सुनयना मंगलकेँ पुछलक-
“ऐ गाममे मंगल नामक एक बेकती छैथ हुनकर घर बता दिअ।
अपन नाओं सुनि मंगल चौंक गेल। मुदा चुप्पे रहल। जेना मने-मन गाममे मंगलकेँ तकैत रहए। सुनयनो सएह बुझलक। कनी काल गुम्म रहि मंगल बाजल-
“बहि‍नजी, अगर मंगल ऐ गाममे हएत तँ जरूर भाँज लगा देब। मुदा अखन हमरा ऐठाम आएल छी तँए बिनु खेने-पीने केना जाएब, बैसू। ई तँ मिथिला छिऐ। जहिना घरवारी-ले स्वागत करब अनिवार्य अछि तहिना तँ अतिथो लेल...।
मंगलक बात सुनि सुनयनाक मनमे जेना पियासलकेँ शीतल पानि भेट गेने होइत तहिना भेल। बाँसक फट्ठाक बनौल ब्रेंचपर सुनयना बैस गेल। हाथ धोइ मंगल सस्पेन अखारि, चुल्हि पजारि चाह बनबए लगल। ब्रेंचपर सँ उठि सुनयना चुल्हि लग जाए चाहलक कि कुर्तीक निचला कोण फट्टीमे फँसि गेलै, जइसँ कनी फाटि गेलइ। मुदा तेकर चिन्ता नै कऽ सुनयना मंगल लग जा बैसए लगल। ..लगमे सुनयनाकेँ बैसैत देख मंगल बाजल-
“मंगलसँ कोन काज अछि?”
सुनयना-
“मंगल साहित्यकार छैथ। हुनकर लिखल एकटा उपन्यास मरल गामछैन‍। ओइ पोथीक भाँज हम बजारमे लगेलौं मुदा केतौ नइ भेटल, तँए लिखिनिहारेक भाँज लगबए एलौं।
सुनयनाक बात सुनि मंगल नमहर साँस छोड़ैत बाजल-
“मंगलकेँ अहाँ केना जनै छी?”
सुनयना-
“हुनकर लिखल कथा भारत जागरणमे पढ़ै छी। ओइमे मरल गामउपन्यासक चर्चा देखलिऐ। जेकरा पढ़ैक इच्छा मनमे भेल। तँए एलौं हेन।
मंगल बुझि गेल। खुशीसँ मन ओलैर गेलइ। मनमे एलै, पियासलकेँ पानि देब ओहने आवश्यक होइए जेना भूखलकेँ अन्न। मुदा हमरा तँ एक्के कॉपी अछि जे लिखने छी। जँ ई कॉपी दऽ देबै तँ अपन साल भरिक मेहनत‍ चलि जाएत। मुदा नै देनाइ तँ आरो महा पाप हएत। फेर मनमे एलै, कहि दिऐ जे जहिया हमर दिन-दुनियाँ घुमत तहिया छपाएब, अखन एके कॉपी लिखलेहेटा अछि। हँ, छपेला पछाइत‍ अहुँकेँ जरूर देब। ताबे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ।
तैबीच चाह बनल। दुनू गोरे पीलक। चाह पीब सुनयना बाजल-
“मंगलक भाँज लगा दिअ।
विस्‍मि‍त भऽ मंगल बाजल-
“हमरे नाओं मंगल छी। हमहीं उपन्यास लिखने छी। मुदा छपौल नै अछि। खाली लिखलेहेटा अछि। तँए हम आग्रह करब जे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ। जहिया छपाएब तहिया अहाँकेँ एक कॉपी जरूर देब।
मंगलक बात सुनि सुनयना अचम्‍भित भऽ गेल। पैरसँ माथ धरि मंगलकेँ निंगहारए लगल। ..आगिक धुआँ आ चुल्हिक कारीखसँ मंगल बेदरंग भेल। देहक वस्‍त्र परसौतीक वस्‍त्र जकाँ, सौंसे देहसँ गरीबी झक-झक करैत। मंगलक बगए देख सुनयनाक आँखि नोरा गेलइ। नोर पोछैत सुनयना बाजल-
“ऐठाम रहि कऽ हम उपन्यास नै पढ़ि सकब। किएक तँ कोनो पोथी पढ़ैक मतलब होइए जे ओइ पोथीक विषय-वस्तुकेँ नीक जकाँ बुझब। से धड़-फड़मे केना सम्‍भव हएत?”
सुनयनाक विचारमे गंभीरता देख मने-मन मंगल सोचए लगल। आत्माक उत्साह बढ़ए लगलै। सुनयना दिस तकलक। सुनयनाक आँखिमे पढ़ैक भूख जोर पकड़ने देखलक। मनमे एलै, हमहूँ तँ अनके-ले लिखने छी।  हँ तखन छपौलासँ हजारो हाथ जेतै मुदा अखन तँ एक्के हाथ जा रहल अछि। मनमे सबुर भेलै, कम-सँ-कम एक्कोटा पढ़निहारक हाथ तँ जाएत। तैबीच सुनयना बाजल-
“जहिना हम कॉपी ऐठामसँ लऽ जाएब तहिना पढ़ला पछाइत‍ घुमा देब। तँए पोथी हेराइक कोनो सम्‍भावने ने अछि। ऐठाम रहि पढ़ैमे हमरो लाचारी अछि। लाचारी ई अछि जे भरि दिन तँ हम केतौ रहि सकै छी मुदा सूर्यास्तक पछाइत‍ घर पहुँचब अनिवार्य अछि।
मंगलक विचारमे स्‍वत: सि‍नेह एलइ। बाजल-
“बड़बढ़ियाँ, हम अहाँकेँ पोथी दऽ दइ छी। आगूक बात अहाँ जानी।
हाथमे पोथी अबिते सुनयनाक मनमे खुशी एलइ। एक टकसँ पोथी देख मंगल दिस तकैत मुस्कियाए लगल। ..मने-मन मंगलो सुनयनाकेँ पढ़ैत रहल आ सुनयनो मंगलकेँ। हँसैत सुनयना विदा भऽ गेल।
सुनयना एम.ए. नीक जकाँ पास केलक। नारी अधिकारक सर्मथक ओकील साहैब। मुदा मन ओतए ओझरा जाइन‍ जेतए देखैथ जे नारी खाली एक्के-आध बिन्दुपर नहि, जीवनक सभ क्षेत्रमे जकड़ल अछि। जेकरा मेटाएब धिया-पुताक खेल नहि। कठिन संघर्षसँ हएत। केतौ वैचारिक संघर्ष करए पड़त तँ केतौ बलक...। अही विचारमे ओझराएल ओकील साहैब कुरसीपर बैसल छला। साँझक समए। पत्नी चाह बनौने एलखि‍न। टेबुलपर चाह रखि, बगलक खाली कुरसीपर बैस पत्नी कहलकैन-
“अपना सबहक पढ़ल-लिखल समाजक परिवारमे सुनयना अछि तँए ने, मुदा जँ एहेन बेटी किसानक घरमे रहैत तँ लोक एना उन्मुक्त रहए दतै!
चाहक चुसकी लैत ओकील साहैब बजला-
“अहाँ जे कहए चाहै छी ओ कनी खोलि कऽ बाजू।
“सुनयनाक बिआह कऽ लिअ, तहन‍‍ तँ मनोज रहत कि‍ने ओ तँ बेटा धन छी। बेटा-बेटीक बिआह करब माए-बापक अनिवार्य कर्तव्य छी।”
“हमरा मनमे एकटा नव विचार अछि, ओ ई जे सुनयनाकेँ सेहो पुछि लिऐ?
सुनयनासँ पुछैक बात सुनि पत्नी ढोढ़ साँप जकाँ हनहनाइत बजली-
“लोक की कहत? आइ धरि केकरा देखलिऐ जे माए-बाप बेटा-बेटीसँ पुछि कऽ बिआह करैए।
पत्नीक विचार सुनि ओकील साहैब मने-मन सोचए लगला जे नारीकेँ मात्र पुरुखे नै नारियो दाबि कऽ राखए चाहैए। अजीब घेरा-बन्‍दीमे नारी फँसल अछि। मुदा अपन विचारकेँ मनेमे रखि ओकील साहैब सुनयनाकेँ हाक पाड़लखिन।
अपना कोठरीसँ निकैल सुनयना आबि कुरसीपर बैसल। बैसते सुनयना माए दिस देखए लगल। तामसे माए पति दिस तकैत...।
ओकील साहैब सुनयनाकेँ कहलखि‍न-
“बाउ, आब तूँ एम.ए. पास कैये लेलह। माए-बापक दायित्व होइ छै बेटा-बेटीक बिआह करब। तँए हमहूँ अपन भार उतारए चाहै छी। तोरो किछु बजैक छह?
पिताक बात सुनि सुनयनाक देहमे कँप-कँपी आबि गेल। मनमे थोड़ेक ओज सेहो। मुदा असथिरसँ बाजल-
“बाबूजी, बि‍आह तँ सभ पुरुष-नारी-ले अनिवार्य प्रक्रिया छिऐ। जइसँ सृष्टिक विकास प्रक्रियामे सहयोग होइ छइ। रहल बात जे बि‍आह केहेन हुअए। अखन जे देख रहल छी ओ नब्बे-पनचानबे प्रतिशत अनमेल बिआह होइए। केतौ धनक मिलानीसँ तँ केतौ दहेजक चलैत, केतौ कुल-मुलक चलैत तँ केतौ किछु। मुदा हमरा विचारे बिआह हेबा चाही मनक मिलानीसँ। जे टिकाउए-टा नहि, आनन्दमय सेहो हएत।
सुनयनाक बात सुनि बिच्‍चेमे उत्तेजित होइत माए बजली-
“बेटी, हमरा सबहक मिथिलाक परम्परा रहल अछि जे ई काज माए-बापक विचारसँ होइ नइ कि‍ बेटा-बेटीक विचारे। नहि जँ बेटा-बेटीक विचारसँ बिआह हएत तँ समाज ढनमना जाएत।
सुनयना बाजल-
“बड़ सुन्नर बात कहलीही माए, मुदा परम्पराक भीतर जे दुरगुण छै ओहूपर नजैर देबए पड़तौ।
मुँहपर हाथ नेने ओकील साहैब चुप-चाप सुनैत रहैथ। सुनयना तर्कक आगू माए कमजोर पड़ैत गेली। मुदा तैयो चुप होइले तैयार नहि।
सामंजस करैत ओकील साहैब सुनयनाकेँ कहलखिन-
“बाउ, तूँ अप्पन विचार दएह?”
सुनयना बाजल-
“अहाँ खर्च केते करए चाहै छी, बाबूजी?”
खर्चक नाओं सुनि ओकील साहैब चौंकला। मुदा अपनाकेँ अस्थिर करैत मद्धिम स्‍वरमे बजला-
“बाउ, अप्पन की ओकाइत अछि से तहूँ जनिते छह। मुदा जे ओकाइत अछि ओइमे हम कंजूसी नइ करबह। दू भाए-बहि‍न छह, ई सम्‍पैत‍ तँ तोरे सबहक छिअ।
सुनयना बाजल-
“बाबूजी, मनुख देहे आ धने पैघ नहि होइए, पैघ होइए ज्ञान आ कर्तव्यसँ। सभ स्‍त्री चाहैए जे हमर जीवन-संगी बुधियार आ कर्मठ हुअए। अखन हम अहाँकेँ अन्‍तिम निर्णए नै दऽ रहल छी मुदा एते जरूर कहब जे सोनपुरमे मंगल नामक एकटा चाहक दोकानदार अछि। ओकरा कियो ने छइ। मुदा ओकर जे काज आ बुधि‍ छै, ओ ओकरा एक दिन महान साहित्यकारक रूपमे दुनियाँक बीच आनत। अखन ओकरा गरीबी जर्जर बनेने छइ। गरीबीक जालमे ओ तेना ओझरा गेल अछि जइसँ निकलब कठिन छइ, किन्तु जँ ओकरा ओइ गरीबीक जालसँ निकालल जाए तँ ओ जरूर उगैत सुरूज जकाँ अकासमे चमकए लगत।
ओकील साहैब-
“बाउ, यदि तूँ हृदैसँ ओकरा चाहै छह तँ हमरा दिससँ कोनो आपैत‍ नहि। मुदा अखन समए रहैत नीक जकाँ विचारि लएह।
सुनयना-
“अनेक विषमता रहितो हमरा दुनू गोरेक बीच आत्माक समता अछि। हमहूँ नारीक सम्बन्धमे किछु लिखए चाहै छी। किएक तँ अपना ऐठाम नारीक प्रति जे अदौसँ अखन धरि अन्याय होइत रहल अछि ओ हमरा हृदैकेँ दलमलित कऽ देने अछि। दुनियाँक सुन्दरसँ सुन्दर वस्तु हमरा फि‍क्का लगि‍ रहल अछि।
ओकील साहैब-
“बाउ, हम तोहर विचारकेँ मानि लेलिअ। तूँ अपनेसँ जा कऽ देख आबह जे केते मदैत‍सँ मंगल उठि कऽ ठाढ़ हएत। हम ओते मदैत कऽ देब।
पिताक विचार सुनि सुनयना हँसैत अपना कोठरी दिस विदा भेल। सुनयनाक विचारपर ओकील साहैब मने-मन गौर करए लगला। मुदा पत्नीक मनक तामस आरो बढ़िते गेलैन।
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शब्‍द संख्‍या : 3369

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