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Thursday, January 1, 2015

खलओदार :: कथाकार- श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल

खलओदार






तिला-सकराॅइत पावनिसँ एक दिन पहिने, पावनिक ओरियानमे लगल रही। आइए नै ओरिया लेब तँ काल्हि पावनि केना हएत? तहूमे तेहेन मेठनियाँ पावनि अछि जे केतबो धड़फड़ी करब तैयो पार लगत कि नै। पावनियोँ तँ पावनियेँ छी। तहूमे तिला सकराॅइत। पावनि नै पावनिक गाछ छी। किछु एहनो पावनि होइए जे दिन-रातिकेँ एकरंग बना दइए, किछु एहनो होइए जे दिनकेँ नमहर बना राति कपचि लइए आ किछु एहनो तँ होइते अछि जइमे दिने कपचा कऽ घपचा जाइए। एक दिस शुर-शुर, तँ दाेसर दिस मूड़-मूड़। जे दुनू एके घाटपर अाबि पबैए। जँ आइए सभ किछु नै ओरिया कऽ रखि लेब तँ काल्हि ओरियाएब आकि बनाएब-सोनाएब आकि पाएब, पहपटि तँ बीचमे अछिए। मन मानि धकेल कहलक, काल्हि तँ भोरेसँ तजतरीन तड़ि-बगहारि, भोर मूड़-मूड़ दुपहर सुर-सुर आ साँझ फल पेब पावनिक विसर्जन करब किने? मने-मन गुनधुनो करी आ प्राप्‍तिक (पावनिक ओरियानक वस्‍तु) गरो अँटबैत रही। तही बीच रस्‍ता दिससँ दौगल आबि बारह बर्खक भातीज बाजल-
काका, निरजल बाबाकेँ देखैले नै गेलियनि, ओ तँ...।
फटफटहाक बोलक लहर जेना ठमकि गेलै। ठमकि ई गेलै जे ठनका जकाँ जेते जल्‍दी बाजए चाहै छल से नै भऽ पबै छेलै। होइतो अहिना छै, एक्के बेर बिजलोको आ ठनको उठि कऽ ठाढ़ होइए, मुदा रस्‍तामे अागू-पाछू भेने बिजलोका पहिने चलि अबैए आ ठनका पछाति पहुँचैए। पुछलिऐ-
बाउ, कोनो हलतलबी...।
ई बूझि बजलौं जे साल भरिक बच्‍चाकेँ जहिना माए, बाबू, भाए इत्‍यादि एक शब्‍द कहि सिखबैए आ जेकरा ओहो, ओहिना भात-रोटी कहि अपन विचार व्‍यक्‍त करैए। तैबीच व्‍याकरण जनैमितै रहैए। व्‍याकरण आएल नै रहै छै, पछाति अबै छै।
मुहसँ जहिना निकलल, तहिना ओहो- भातीजो- लोकैत बाजल-
अब-तबमे छथि?”
फटफटहाक बोल सुनि मन बेथा गेल। बेथए लगल जे पाकल जअमे कहीं पाथर ने खसए। अब-तबमे छथि जँ कहीं देरी भेल आ बिच्‍चेमे मरि गेला तँ अपन मन हुनके मनक पाछू ने बोन-झाड़मे औनाइत फीड़त। तइसँ नीक जे पहिने हुनके देख आबी। मुदा लगले भेल जे ओइठाम जाएब आ बिच्‍चेमे जँ पराण छूटि जेतनि तैठाम तँ समांग बनि हमहीं रहबनि, तखनि जँ असमसानक जोगार केने बिना, घरोपर केना घूरि कऽ आएब? मुदा जँ जीवैतमे अपन सम्‍बन्‍धक हिसाब-किताब नै फड़िछा नेने रहब तँ देखिते छिऐ केहेन फड़ेबी सभ अछि जे सामाजिक सम्‍बन्‍धकेँ तहस-नहस कऽ संस्‍कृति मेटबैपर लगल अछि।
मनमे भेल जे पत्नीकेँ कहि दियनि जे हमर कोनो भरोस नै करब, जँ अपनो ले आ परिवारो ले पावनि करए चाहै छी तँ अपन ओरियानमे लगि जाउ। मुदा कहबो केकरा करबै, सभ तँ अपने ताले बेहाल अछि, तैबीच चुपे रहब नीक। विदा भेलौं। 
निरजल काका ओछाइनपर, जाड़ दुआरे मोटगर ओढ़ना ओढ़ि मुँह उघारि पड़ल रहथि। आँखि मुनने रहथि। फक-फक साँस चलैत रहनि। झूकि कऽ मुँह लग कहलियनि-
काका, काका...।
निरजल काका आँखि खोललनि। शकल-सूरतसँ बूझि पड़ल जे लगले तँ नै मरैबला छथि मुदा बेसी दिन टिकबो ने करता। सौंसे देहक ऊपरका चमरा खोंइचा जकाँ तेना ओदरि गेल छेलनि जे अमेरिकन गोराइक रंग पकड़ि नेने छन्‍हि। मछियाहा मासमे माछीओ हेरान करिते हेतनि जइसँ बैशाखोमे चद्दरि ओढ़ए पड़ैत हेतनि। ओना निरजल काकाकेँ शिक्षा-प्रेमी कहियनु आकि विद्या-प्रेमी, ज्ञान-प्रेमी कहियनु आकि वुद्धि-प्रेमी, से तँ छथिए। देहक रोग तँ दैहिक छी, मुदा मनक रोगी नै छथि। निरजल काका बजला-
बौआ, आब तँ चलचलौ भेलियऽ, जे दिन छी से दिन, मुदा मनमे एकटा प्रश्न रहि गेल।
कक्काक प्रश्न रहि गेल सुनि नजरि चौकन्ना भेल। भेल ई जे अन्‍तिम अवस्‍थामे काका पड़ल छथि, जँ पूछि दियनि जे की, आ तही बीच कहीं दम टुटि जान्‍हि तखनि उतरी केकरा गरदनिमे पड़तै? मन छह-पाँच करए लगल। फेर भेल जे मरै बेरक प्रश्नक उत्तर सुनबैबला के रहता, जे किछु दिनक मेजमान छथि, दोसर दिनक समए लऽ लेब आ ठेकना कऽ आएब जखनि मरि गेल रहता। ने कियो पुछनिहार आ ने कियो कहनिहार, हिसाब राफ-साफ। जखने महाजन साफ, तखने खौदका राफ। दुनू हाथे छातीकेँ पकड़ि कहलियनि-
की प्रश्न रहि गेल काका?”
बजला-
बौआ संस्‍कृत भाषा समासक भाँजमे पड़ि दुरूह भऽ गेल, जइसँ आमजनकेँ बाधा उपस्‍थित केलक। मुदा भाषाक भीतर जे जिनगीक कला पद्धति नुकाएल अछि, जैपर सभ ठाढ़ छी ओकर की हएत? भँसियाइत लोक केमहर जाएत?”
कक्काक प्रश्नकेँ समर्थनमे मुड़ी झुला देलियनि। मुदा पछाति मन पड़ल जे आगूमे तँ हमहीं बैसल छियनि। जवाब तँ हमरे दिअ पड़त। उठिते मन सुक-पाक करए लगल। हुअए जे अखने मरि जैतथि तँ बेसी नीक होइत, कियो बुझबो ने करैत, जे कका की कहलनि। फेर भेल जे एहेन समए झूठ-फूइस नै बाजब। कहलियनि-
काका, काल्हि पावनि छी, तइ दिस मन ओझराएल अछि। पावनिक पछाति आएब, आ उत्तर देब। ताबे उधारी रहल।
निरजल काका बजला किछु ने मुदा नजरिसँ बूझि पड़ल जे मन सोगाएल जा रहल छन्‍हि।

¦७३१¦
१९ दिसम्‍बर २०१४

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