Pages

Monday, March 24, 2014

श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल जीक लघुकथा ''चैन-बेचैन''। स्‍व. मायानन्‍द मि‍श्र आ स्‍व. जीवकान्‍त केर स्‍मृतमे समरपि‍त 81म ''सगर राति‍ दीप जरए'' (सगर अज्ञानीमे ज्ञानक दीप जरौ) कथा गोष्‍ठी देवघरमे ऐ कथाक पाठ कएल गेल। पाठ करैत फोटो संलग्‍न अछि‍ जइमे मैथि‍लाक अनुपम बेकती श्री ओम प्रकाश झा सेहो छथि‍। फोटो, इन्‍टरनेशनल ई जनरल वि‍देह के सम्‍पादकक वालसँ साभार... -उमेश मण्‍डल।

श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल जीक लघुकथा ''चैन-बेचैन''। स्‍व. मायानन्‍द मि‍श्र आ स्‍व. जीवकान्‍त केर स्‍मृतमे समरपि‍त 81म ''सगर राति‍ दीप जरए'' (सगर अज्ञानीमे ज्ञानक दीप जरौ) कथा गोष्‍ठी देवघरमे ऐ कथाक पाठ कएल गेल। पाठ करैत फोटो संलग्‍न अछि‍ जइमे मैथि‍लाक अनुपम बेकती श्री ओम प्रकाश झा सेहो छथि‍। फोटो, इन्‍टरनेशनल ई जनरल वि‍देह के सम्‍पादकक वालसँ साभार... -उमेश मण्‍डल।


नव हवाक वेगमे गौआँ सभकेँ मन फुड़फुडेलनि‍। फुड़फुड़ेबोक चाही। फुड़फुड़ेलनि‍ ई जे वृन्‍दावनमे गीताक जानकार ज्ञानी दास छथि‍, हुनकासँ पनरह दि‍न प्रवचन करौल जाए। गामक धर्मक काज तँ गौंएक भेल तँए सबहक भागीदारी होइ। अद्रा नक्षत्रक मेघ जकाँ समाजमे हुमरल। ओना ज्ञानी दास भागवतो आ गीतो-रामायण कहि‍ते छथि‍ तँए हुनके आनल जाए। चंदाक गुम-गुमी चलि‍ते छल आकि‍ एक गोटे बाजि‍ गेला-
“सोलहन्नी खर्च देब, अहाँ बेवस्‍था करैक भार लि‍अ।”

मुदा प्रस्‍तावपर सहमत नै बनल ‘जेकर चून तेकर पून’ भऽ जाएत। तखनि‍ ई हुअए जे ‘चंदा सौंसे गामसँ हुअए आ जे घटतै ओ देथुन।’
मुदा बि‍च्‍चेमे दोसर प्रश्न उठि‍ गेल जे घटतै तखनि‍ ने ओ देथुन मुदा जँ बढ़ि‍ जाए। घमरथन शुरू भेल, होइत-हबाइत फेरि सहमत बनल जे धर्मोक काजक कि‍ कमी छै, फेरि‍ दोबरा कऽ भऽ जाएत।
ज्ञानी दासक आगमन भेलनि‍। प्रवचन शुरू करैसँ पहि‍ने सामूहि‍क रूपे सभकेँ पूछि‍ लेलनि‍ जे भागवत सुनैसँ पहि‍ने गीता सुनि‍ लेब नीक हएत। ज्ञानी दासक प्रश्नपर घौंचाल शुरू भेल। घौंचाल ई जे नीक-अधला तँ वएह ने बूझि‍ सकैए जे दुनूकेँ जनैत होइ। जइ गाममे कहि‍यो भेबे ने कएल, तइ गाममे नीक-अधला कथी हएत। नीक हएत जे हुनकेपर माने ज्ञानीए दासपर छोड़ि‍ दि‍यनु, जड़ि‍सँ कहथि‍न।
कौलेजमे पढ़ैत रमेशकेँ इन्‍टरनेशनल वेपारी जकाँ बेसी लाभ बूझि‍ पड़ल। बेसी बुझैक कारण जे गीताक कर्म-ज्ञान जोगक बात घरे बैसल बूझि‍ लेब, सेहो समाजक बीचमे, तहूसँ नीक जँ परि‍वेशक अनुकूल प्रवचन होइ तँ सभसँ नीक। स्‍कूल-कौलेजक वि‍द्यार्थी जकाँ रमेश प्रवचन शुरू होइसँ दस मि‍नट पहि‍ने पहुँच गेल। पहि‍लुके प्रवचन सुनि‍ रमेशक मन जि‍नगी जीबैले तेना उताहुल भऽ गेलै जे नअ बजे राति‍मे जखनि‍ घरपर घुमती अबै छल तइ बि‍च्‍चेमे तीन बेर सप्‍पत खेलक। पहि‍ल सप्‍पत सुनि‍ते काल खेने छल जे ‘आइसँ जीवन-पद्धति‍ बदलि‍ लेब।’
घरपर आबि‍ रमेश मने-मन संकल्‍पो अजमाबै आ खाइओ ले गेल। गुम-सुम। जहि‍ना संकल्‍पी खेबा काल नै बजै छथि‍ तहि‍ना तीत-मीठक बात रमेश कि‍छु ने बजैत।
जहि‍ना कोयला-पानि‍ इंजनमे पड़ला पछाति‍ शक्‍ति‍क संचार हुअए लगैत तहि‍ना रमेशोक मनमे हुअए लगल। बि‍नु लछनक अनेको वि‍चार बर्खाक बुलबुला जकाँ उठै आ फुटै। दुनि‍याँ दि‍ससँ सूत ससारि‍, जलि‍वाहक जाल जकाँ, पत्नीपर एकाग्र केलक। साल भरि‍ पहि‍ने दुरागमन भेल। जेते काल पीढ़ीपर बैसि‍ भोजन करै छी जँ तेतबो काल दुनू परानी बैस वि‍चारी जे भोजनक कि‍‍ प्रयोजन जि‍नगीमे अछि‍, केना जुटा पएब? मुदा से कहाँ होइए। बुझलो बात, परि‍वारक हि‍साबसँ सि‍दहा लगै, जँ खेला-पीला पछाति‍ समगम भऽ जाए तँ नीक-बेजाए पुछैक प्रयोजने की? अधला जँ बनल रहैत तँ खेनि‍हारेक काजसँ ने पता चलि‍ जाइत। एक तँ अहुना चाहक दोकान जकाँ उलझल अछि‍ जहि‍ना एक केतलीमे बनल चाह एक रंग हएत, मुदा पीनि‍हार रंग-रंगक, तैबीच नीक-अधला बनबे करत। कि‍यो मीठगर पीबैए, तँ कि‍यो गाढ़ लीकर। तहि‍ना परि‍वारोमे अछि‍ए, कि‍यो मीठ नोन खेनि‍हार तँ कि‍यो नोनगर। वि‍चारक वि‍रामो नै भेल छेलै आकि‍ दोसर वि‍चार रमेशक मनमे उठि‍ गेलै। उठि‍ गेलै जे पुरुख सवल होइ छथि‍ आ नारी अवल। एहेन स्‍थि‍ति‍मे अवलकेँ केना सवल बनौल जाए? मुदा अवल सवल बनै-बनबैसँ पहि‍ने सवल अवलक बाट देखए पड़त। केना अवल आ केना सवल मानल जाए। रंग-रंगक अवलो होइए आ रंग-रंगक सवलो होइए। ज्ञान, धन, जन, मन सेवा तँ बीचमे अछि‍ए। पानि‍-मक्‍खन मि‍लल दूध घोड़ाएल घोड़ जकाँ रमेशक मन घोर-घोर भऽ गेल। बाजल कि‍छु ने चुपचाप खा कऽ ओछाइन ि‍दस बढ़ल।
ओछाइनपर अबि‍ते रमेशक मन रमेशकेँ पुछलक-
“जीवन पद्धति‍ की?”

जहि‍ना रोगक घरमे, अगि‍लगुआ घरक, पेटजरूआक नीन पड़ा जाइ छै तहि‍ना रमेशक नीन पड़ा गेल। पानि‍क बुलबुलामे इन्‍द्रधनुषी रंग देखैत मुदा लगले फुटि‍ गेने छि‍ड़ि‍या जाइ। कछ-मछ करैत ओछाइनपर लगले-लगले कर फेड़ैत। नीन अबैक केतौ दरस नै। फेर ज्ञानी दासक प्रवचनपर पहुँचल। आइसँ जीवन बदलत? मुदा जँ नीने अबैबेर नीन नै औत, आ जगै बेर नीन चलि‍ आैत तखनि‍ जागब केना? दस बजेक समए भऽ गेल, बारह बजे राति‍क पछाति‍ दि‍नक आगमन भऽ जाइ छै। करि‍याएल-कजड़ाएल अन्‍हारमे सुरूजक रोशनीक प्रवेश हुअए लगै छै। जि‍नगी बदलैक पाछू समए तँ पकड़ए पड़त। जँ से नै पकड़ाएत तँ जि‍नगी केना पकड़ाएत। राति‍क बारह बाजल। देवालमे टाँगल घड़ीकेँ देखि‍ते रमेश उठि‍ कऽ बैस गेल। घड़ीक सुइया नाचि‍ रहल छै। बारहक अन्‍त भऽ गेल मुदा रमेशकेँ अन्‍हारमे कि‍छु देखि‍ए ने पड़ैत जे की करत? अन्‍हार-अनहेरसँ भरल दुनि‍याँ। कोठरीक बीच लालटेनक टि‍मटि‍माइत इजोतमे रमेशकेँ कि‍छु सुझि‍ए ने रहल अछि‍ जे डेग केमहर उठौत। समैक संग घड़ीक सुइया नाचि‍‍ रहल अछि। घंटा-डेढ़ घंटा बीति‍ गेल मुदा रमेशकेँ कि‍छु फुड़ाएल नै! घरसँ बाहर कि‍छु करैक अनुकूल नै अछि‍ घरक भीतर काज नै अछि‍ तखनि‍? अतस-बि‍तस करैत वि‍चारलक, जे इजोत अछि‍ तेहीमे ने कि‍छु करैक जगहो अछि‍। ठमकि‍ते मनमे उठलै- लीढ़ वा समाढ़सँ भरल पोखरि‍मे केना स्‍नान कएल जाए? सोचैत-वि‍चारैत तँइ केलक जे जेते पानि‍क जरूरति‍ अछि‍ तेते दूरक घाटक लीढ़-केचली-समाढ़ हटा देने तँ नहाइक काज भाइए सकैए। मनमे आशा जगलै, आशा जगि‍ते वि‍चारल, जाबे‍ सुरूज धरतीपर देखाइ नै देत ताबे तक लालटेनेक इजोतमे पढ़बो करब आ पढ़लाहाक रस नि‍चोड़ि‍ लि‍खबो करब। काजक नक्‍शा बनि‍ते रमेशक मन प्रसन्न भेल।
पोथी खोलि‍ रमेश पढ़ब शुरू केलक। एक तँ जगरनाक आँखि‍-मन तैपर वि‍षयक गंभीरता, चाह पीबैक मन भेलै। बढ़ैत-बढ़ैत मन छुछुअए लगलै जे कखनि‍ चाह भेटत जे पीब। जहि‍ना बाढ़ि‍क पानि‍ नि‍च्‍चाँ दि‍स एकमुहरी बहए लगैए तहि‍ना चाहक भुख एकमुहरी भऽ गेलै। मुदा एते राति‍मे चाह औत केतएसँ। जँ पत्नीकेँ उठा चाह बनबए कहि‍यनि‍ तँ ओ रपटि‍ कऽ कहबे करती जे चाह कोन नीक पेय छी जे एती राति‍मे पराण छुटैए। पराण तँ नै छुटैए मुदा काजो तँ आगू नहि‍येँ कऽ पाइब सकै छी।
असोथकि‍त भऽ रमेश निर्णए करैत बाजल-
“काजक दौरमे जइ-जइ वस्‍तुक जरूरति‍ होइए ओकर ओरि‍यान शुरू करैसँ पहि‍ने जँ कऽ नेने रहब तखने ओइ काजकेँ बि‍सवासू बना सकै छी। नै तँ अभावगक आगि‍ मनकेँ थीरे ने हुअए देत।”

दोसर दि‍न जानिए कऽ प्रवचन सुनए रमेश नै गेल। अपने मन धि‍क्काड़ैत रहै जे जेतबो सुनि‍-बूझि‍ करैले डेग बढ़ेलौं, से तँ समहरि‍ए ने रहल अछि‍ आ तैपर सँ आरो सुनि‍ माथकेँ भरि‍याएब नीक नै।¦¦¦

रचनाक अंति‍म रूप ०९ मार्च २०१४

No comments:

Post a Comment