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Sunday, June 14, 2015

अँगनेमे हेरा गेलौं

अँगनेमे हेरा गेलौं

कमला धारक छहर टुटने अपना गामकेँ के कहए जे समुच्‍चा इलाकामे बाढ़ि पसरि गेल। पोखरि-झॉंखरिसँ लऽ कऽ गाछी-बिरछी धरि समुद्र जकॉं एक रंग भऽ गेल। रस्‍ता-पेरा बन्न भेने अपनो आ गामोक लोककेँ चौ-अन्नीसँ बत्तीस-अन्नी धरि बैसारी भऽ गेल।
बैसारीमे गामक साहित्‍य प्रेमी सबहक विचार भेलनि जे अखन साहित्‍य सृजनक अनुकूल परिस्‍थिति अछि तँए साहित्‍यिक आयोजन गाममे हुअए। रस्‍ता-पेरा खुजल रहने ने बहबाड़ि जकॉं करैए, मुदा से तँ बढ़िसँ घेराएल अछि, तँए एकमुहरी युवजनक विचार भऽ गेल।
साहित्‍यिक आजोयजनक बीच कथा पाठ आ ओकर समीक्षाक विचार तॉंइ होइत पनरह तारीकक दिन निर्धारित भऽ गेल, जेकरा आइ सात दिन बॉंकी छै।
कोनो गाम आकि कोनो समाजमे नव काज भेने गामो आ समाजोक सभ किछु नव-नव रूप धारण करऽ लगैए जइसँ गामो नव आ समाजो नव देखैमे आबिए जाइए।
छह दिन बीतल, सातममे दिन आइ छी। आइए तीन बजे अपराहणसँ कार्यक्रम अछि। रंग-रंगक कथाकार एकठाम बैसि कथो सुनौता आ अपनो सुनता आ तैपर समीक्षा केनिहार समीक्षा करता। नवान पावनि जकॉं नवको अन्न आ पुरनो अन्न अग्‍नि-आहूत हेबे करत।
गामक जे पुरान लिखबैया छथि आ गाम-समाजमे साहित्‍यिक मञ्च नइ बनने मञ्चपर कथा वाचैक अवसर नहि भेटलनि हुनको तँ अवसर भेटबे करतनि। संगे जे नवतुरिया नानी-दादीक खिस्‍सा कागजपर कलमसँ लिखि तैयार करत ओहू नवतुरियाकेँ तँ मञ्च भेटबे करत, तँए पढ़ल-लिखल समाजमे आरो बेसी खुशी।
अपन बिआहक मरबा देखि जहिना बर-कन्‍याकेँ खुशी होइत तहिना रंगर मञ्च सजल आ सभ रंगक बेवस्‍था देखि सभ साहित्‍य प्रेमीकेँ खुशी भेलनि। जे साहित्‍यिक प्रति पगला गेल छथि सेहो पहुँचला, आ जे भाड़ा-किराया-फीस लऽ मञ्चपर जाइ-अबै छथि, सेहो पहुँचला। तहूमे बाढ़िक समए, मोटबरे ब्‍लौकेसँ राशनक उठाव भऽ गेल। तँए आमदनीओंक चकचकी रहबे करनि।
गोल-मोल मञ्च सजल जेकर अगिला पतियानीमे अपनो बैसल रही। भाषासँ प्रेम रहने साहित्‍योसँ कनी-मनी लगाव अछिए। से जँ नइ राखब तँ शब्‍दक ऑपरेशन करैक अपन रोजगारे बन्न भऽ जाएत, कारखाना जकॉं कच्‍चे मालक अभाव भऽ जाएत...।
...माने ई जे पारा मेडिकल जकॉं कथाक भाषेटा केँ ऑपरेशन करैक लूरि सीखि डाक्‍टर छी। तँए मजबूरीओ अछि, दूटा बातो सुनि कथेकारक लागि-भागिमे सटल रहै छी, सटल की रहै छी जे सटाएल रहै छी।
गामक कथाकारकेँ पहिल समैक अवसर कथा-पाठ करैक भेटल। दिनेश भाय, कथा वाचन शुरू केलनि, सोझहा-सोझहीमे हमहीं पड़ैत रहियनि, तँए हमरे दिस ताकि-ताकि कथा वाचन केलनि। एक तँ गौऑं तहूमे परिवारसँ जुड़ल, केना नइ दिनेश भायकेँ हमर अपेक्षा होइतनि। कियो बाहरक होथु आकि गामेक आन टोलक, तिनकासँ तँ हम लग छेलियनि। मुदा संजोग कहू कि दुर्जोग भाषाक ताकमे शीर्षकेमे हम हेरा गेलौं। शीर्षकेक ऑपरेशन करैमे बुधि, विवेक, मन, नजरि सभ समटा कऽ ऑपरेशनक पाछू लगि गेल। ऑंखि तँ दिनेश भाइक ऑंखिसँ मिलैत रहल मुदा शीर्षकेक शब्‍दमे तेना घुरिया गेलौं जे कानसँ धियान हटि गेल।  
समीक्षकक बीच समीक्षा शुरू भेल। पहिल समीक्षक दुतकारि देने छेलनि दिनेश भाइक कथाकेँ। दोसर कनी सम्‍हारलकनि मुदा तैयो वे-सम्‍हारे बूझि पड़ैत रहनि। तेसर नम्‍बरक समीक्षक हम रही। कथा तँ सुनलौं नइ, की समीक्षा करब! ठाढ़ होइत बजलौं-
दिनेश भाय, अखनो धरि अहॉं-कथाक शीर्षकक भॉंज नइ लगल, से कनी आबो फरिछा दिअ।
अपना विचारे दिनेश भाइक कथाक जड़िकेँ हम तर तक रोपैक कोशिश करैत बाजल रही। मुदा दिनेश भाइक मन खटमिट्ठी जकॉं रहनि। गुम्‍हरि कऽ बजला-
बड़ समीक्षक बनै छथि!”
दिनेश भाइक मन रूष्‍ट बूझि पड़ल। तँए कनी पाछू हटैत चुपे ऐ आशामे रहलौं जे दिनेश भाइक तामस कमलनि कि ओहिना छन्‍हि, आकि आरो चढ़ि गेलनि। से दोहरा कऽ किछु बजता तखने बुझब।
हमरासँ पहिलुका समीक्षकक समीक्षा मनकेँ घोर बना घोड़ैत रहनि जइसँ तामस कमितनि की जे आरो तेजे होइत गेलनि। बजला-
एहेन रही ते आगूमे नइ बैसी। एकोरती तोरा ऑंखिमे पानि रहलह, ओहिना ओतेकाल ऑंखि चढ़ा ऑंखि मिलौने रहलह!”
अपन हारल रही कि हेराएल रही से निरणाइए ने कऽ पबैत रही। दिनेश भाय मुहेँ-काने बोकिया देलनि, मुदा की करितौं। चुप-चाप सभटा घोंटैत अँगनेमे हेराएल रहलौं। ¦¦


14 जून 2015, शब्‍द संख्‍या- 605

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