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Tuesday, May 19, 2015

नहरकन्‍हा (जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

नहरकन्‍हा

कातिक मास। काल्हिये दीयावाती छी। रौदमे ने जेठुआ जलनि अछि आ ने माघक सिरसिरी। ने हथियाक झाँट अछि आ ने मघ-असरेसक गर्जन-तर्जन। मुदा बिनु बरखो-बुन्नीक सौनक सुहावन तँ अछिए। भलहिं सौनमे गरम-ठंढाक घोर किए ने बनैत हउ, मुदा कातिकोमे तँ पानि-रौदक घोरमे ओसक मिश्रण बनिते अछि...।
बेरुका समए, गोसाँइ लहसैत दिन। चेतन काका हाथ-पएर मारि दरबज्‍जापर बैसल अपन बीर्तमान भविस दिस देखि रहल छथि। मनमे उठलनि, पनरह कातिक तीस अखाढ़ जे सूतल से गेल बजार! मुदा हम सूतल कहाँ छी, सुता देल गेल छी। तहूमे आइ चौदहम कातिक तँ छीहे। तही बीच रधिया काकी चाह नेने पहुँचलनि।
काकीक पएरक धमकसँ चेतन कक्काक भक् खुजलनि। भक् खुजिते तकलनि तँ आगूमे पत्नीकेँ चाह नेने ठाढ़ देखलनि। आँखिमे आँखि सटिते चेतन कक्काक मन अश्रु मिश्रित भऽ सिहरि गेलनि। सिहरलनि ऐ दुआरे जे पत्नीक पियासल आँखिमे पानिक तरास बूझि पड़लनि। मुदा भूख-पियास कोनो आइए भेल आ कि सभ दिनसँ रहल। जखने देहधारी जीव हएत तखने ओकरा जीबैत चलै-फिड़ैले अन्न-पानिक खगता हेबे करत। मुदा ओइ खगताक पूर्ति तँ अपने केने हएत। पत्नीक हाथमे चाहक गिलास देखि चेतन काका हाथ बढ़ा गिलास पकड़ि बजला-
काल्हिए ने उका-वाती छी?”
ओना रधिया काकीकेँ सेहो बूझल रहनि। कोनो पावनि परिवारमे पुरुख-पात्रसँ पहिने बाले-बोध आ जनिजातियेक कानमे पहुँचैए, आ ओ पहुँचैए आन परिवारसँ, समाजसँ। काल्हिए पावनि छी सुनि रधिया काकीक मन थकमका गेलनि। थकमकाइते मनमे की उठलनि से तँ ओ जानथि मुदा पतिक सोझासँ हटि, माने दरबज्‍जापर सँ आँगन दिस बढ़ि गेली। भऽ सकैए चुल्हि लग अपन छनाएल चाह ठण्‍ढाइ दुआरे बढ़ि गेल हेती चाहे पतिक सिनेहिल मन जगबै दुआरे सेहो। सिनेहिल मन ई जे जखन तबधल पेटमे चाह पड़तनि तखन पेटक ताप आ चाहक तापक संयोग होइते सिनेहिल विचार पनैपिते सिनेहिल मन बनतनि। आकि अखनो पतिक सोझमे चाह नै पीबैत होथि, तहू दुआरे हटल हेती चाहे आने कारणे...। 
चुपचाप पत्नीकेँ लगसँ हटैत देखि चेतन कक्काक मनमे अनेको प्रश्न एक संग उठलनि, उठलनि ई जे अपनो तँ जनिते छी जे घरमे किछु ने अछि, जखनि कि काल्हि ज्‍योतिक पावनि- दीपावली-क संग काली पूजा सेहो छी। लगले परसू गोबरधनक संग गाए-महींसिक चुमौन माने पखेब-सुकराती-हुरियाहा सेहो छी, तेकर सटले तरसू भाए-बहिनिक पावनि भरदुतियाक संग चित्रगुप्‍त-दवात पूजा सेहो छी। तैसंग सटले छठि पावनिक बीजवपन सेहो भऽ जाएत...,
...भरिसक यएह सभ सुइख ने तँ मनकेँ सता रहल छन्‍हि जइसँ मुँह छिपबै दुआरे परोछ भऽ गेली। मुदा लगले मनमे उठलनि जे किछु छथि तँ अर्द्धांगिनीए छथि ने, किए ने हुनकर मनक तरसैत ताप तरासि दिअनि। जे समए बनि गेल अछि, जेकर भुक्‍तभोगी अपना संग परिवार सेहो बनि गेल अछि। एहेन स्‍थितिमे तँ यएह ने नीक हएत जे सभ बात-विचार जी-खोलि दुनू गोरे जीसँ निकालि जीहक भिरानी करैत जिनगीक आगूक बाट हेरब...।
...मनमे अबिते चेतन कक्काक मन पानिमे बनैत पाथर जकाँ थीर भऽ गेलनि। मुदा लगले भेलनि जे ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे अपन पीबैले चाह चुल्हि लग रखने होथि जे पीबैले चलि गेल हेती। अनेरे मन वौआ रहल अछि, जेते समए अपने चाह पीबैमे लगत तइसँ कनीयेँ बेसी अँटैक सोर पाड़ि गपियाइए किए ने लेब। तैबीच चाहो सधलनि। गिलासकेँ चौकी तरमे रखि, तमाकुलक सूर-सार करए लगला। मुदा तैबीचमे पत्नी पहुँच गेलखिन। आने मिथिलांगना जकाँ रधिया काकी अपन बेथाकेँ बेवस्‍थित ढंगसँ साजि, मुँहक मुस्‍कान साजैत बजली-
की पावनि हएत! बच्‍चाकेँ जँ कितावे ने रहतै तँ ओ की पढ़त! आ की पौत! चाहे किसानेकेँ जँ  बरद नइ रहत तँ ओ गोबरधन पूजा की करत!!”
बेथाएल मने रधिया काकी बजली, मुदा चेतन काका सुनि कऽ वौआ गेला। वौआ ई गेला जे एक दिस बच्‍चाक विद्याध्‍ययनक बात उठेलनि मुदा लगले किसानक गाए-बरदसँ जोड़ि देलनि। मर्र ई की भेल? गाइक नाङ्गरि घोड़ाकेँ आकि घोड़ेक नाङ्गरि गाएकेँ केना छजत। मुदा ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे बेथा-कथाक बखार भरल होन्‍हि, जे बहराइले मनमे उपरौंज केने होन्‍हि तँए गपक मुड़ीक ठेकाने ने रहल होन्‍हि। चेतन काका बजला-
पावनि छी काल्हि आ पीड़ाएल छी आइए? ऐ पीड़ेने नइ ने हएत। किए पीड़ाएल छी तेकर ने खोद-वेद करब।
चेतन कक्काक बोल रधिया काकीकेँ नीक लगलनि। सहटि कऽ लगमे एली। लगमे अबिते चेतन काका बजला-
आइ कातिकक चौदहम दिन छी, चौदहमी-चान सेहो उगत। काल्हिए गणेश-लछमी पूजाक संग घर-आँगन, दुआर-दरबज्‍जा, इनार-पोखरि, मालक थैरक संग चर-चौमासमे दीप जरत। तैसंग निसभेर रातिमे कालीक पूजा हेतनि।
पावनिक पावन विचार सुनि रधिया काकी विहुँसैत बजली-
हाइ रे कातिक! गिरहस्‍तक धरम-करम मास कातिक!”
कहि जेना मने-मन किछु विचारए लगली। विचारए लगली जे वृन्‍दावनक जमुना-कछेरक कदमक फूलक घुघरूक बीच फड़ केना छिपल रहैए...।
...मुदा दुनू गोरेक बीच चुपा-चुपी, धुपा-धुपी भऽ गेल। आँखिसँ नजरि धरि एक-दोसरपर चढ़ौने रहथि, मुदा मुँहमे बोल नहि, भाव रहितो अभावे-अभाव। परिवार छी, पति-पत्नीक सहयोगसँ संचालित होइए। चेतन काका बजला-
अपन गाम, अपन परिवार, अपन जिनगी कनाह भऽ गेल!”
कनाह सुनि रधिया काकी चौंकली। अछैते आँखिए कनाह! मुदा होइ तँ छैहे। आँखिक डेर-वार भेने सेहो लोक कनाह कहाइए। ओना एकटा आँखि नहियोँ रहने लोक कनाह कहबिते अछि, मुदा कनीयोँ ली-ओंच भेने तँ सेहो कनाहे कहबैए! खैर जे होउ। बजली-
की कनाह कहलिऐ?”
पत्नीक भाव पूर्ण प्रश्न सुनि चेतन काका बजला-
जहिना कोसिकन्‍हा भेल तहिना अपनो सभ नहरकन्‍हाक बासी भऽ गेलौं।
नहरकन्‍हा सुनि रधिया काकी मने-मन विचारए लगली जे ई की पावनिक जगह कहि रहला अछि। मुदा जे कहि रहल छथि तिनकेसँ किए ने खरियारि कऽ पूछि बूझि ली। पावनि काल्हि छी। विचार तँ हवाक गतिए चलैए। काज ने कटही गाड़ी जकाँ चर्र-चर्र करैत चलैए...। बजली-
की नहरकन्‍हा कहलिऐ?”
पत्नीक प्रश्न सुनि चेतन काका अपन मनक बेथा पत्नीपर आ पत्नीक बेथा अपनापर लैत बजला-
सम्‍पन्नता घटने विपन्नता अबै छै। अपन सभ किछु देखिते छी, तेहेन नहर गाममे बनि गेल, तैसंग सड़कसँ तेना घेरा गेल जे गामेक रूप कुरूप भऽ गेल। जहिना कोसीकातक सभ गाम कनाह नहि अछि मुदा ओहन गाम तँ कनाह अछिए जेकर चास-बास उकन-विपन भऽ गेल छै। तहिना देखबे करै छी जे धानक चास दहा गेल। पानिक जमाव रहने, गहुम, रब्‍बी-राइक संग वाड़ी-झाड़ीक तीमन-तरकारीक खेती छीना गेल, एहेन स्‍थितिमे...?”
एहेन स्‍थिति कहि चेतन काका बौक भऽ गेला! जेना दलदलमे फँसल हाथी बाहर निकलैले चीतकार करैत तहिना कक्काक चित्त चीत भऽ चीतकार करए लगलनि। बोल घौलाए लगलनि!
चेतन कक्काक विचार सुनिते रधिया काकीक भक् खुजलनि। बजली-
यएह दिवाली पावनि छी जइमे रंग-रंगक तीमनो-तरकारी आ अन्नो-पानि भरल रहै छेलए, अपनो खाइ छेलौं आ दोसरोकेँ पइत सम्‍हारै छेलिऐ। काल्हि पावनि छी आ आइ सुन्न घरमे ठाढ़ छी! केना दीप जरत?”
दुनू परानीक मुँहक बोल, ओइ पोखरि जकाँ सुखा गेल जेकर जाठिक समुच्‍चा देह उघार भेल बालु-माटिपर ठाढ़ भेल फटोफनमे पड़ल रहैए। एक-दोसरपर दुनू परानी नजरि दथि, मुदा लगले नीचाँ खसि पड़नि। ओना रधिया काकी अनभुआर जगहो आ अनभुआर रस्‍तो देखि सहमि कऽ सहजि गेली। सहजि ई गेली जे जखन नारी असगरो ब्रह्मचारिणी बनि सकै छथि तखन तँ हम पुरुखक संग छी। तहूमे ओहन पुरुख जे जीवन संगी छथिमन मचललनि, चल रे जीवन चलिते चल, सुख-दुखक संगे चल, जिनगी-मृत्‍युक सीमा धरि चल...।
...रधिया काकी विहुँसैत बजली-
अनेरे मनकेँ मारि रहल छी, यएह ने जे आनबेर भाँटिनक चारिटा तड़ूआसँ थारीक पारस सजाइ छल, ऐबेर नइ हएत। घर-अँगनामे दीप नइ जरत, तँए आगूओ नइ जराएब?”
पत्नीक बात सुनि चेतन कक्काक चेतन चनचनेलनि, मुदा लगले ठमैक गेलनि। ठमैक ई गेलनि जे बिनु तेल-वातीक दीया केना बड़त! बिनु शक्‍तिए ज्‍योति केना अनहारमे छिटकत! अपन के कहए, खाइ-पीबै दुआरे गामेसँ माल-जालक हरण भऽ गेल। केना गोबरधन पूजा करब! परात भने बहिन ऐठाम नैहराक की सनेस लऽ कऽ जाएब? भाव रहितो अभावे अभावक बीच चेतन काका बजला-
अपन मन हारि कहाँ कबूल करैए। मुदा फेर जिनगी हरण केना भेल?” 
कहि पत्नीक ओइ नजरिमे चेतन कक्काक नजरि घुसि दीवालीक दीप जरबए लगल जे सुख-दुखकेँ ओते नै जेते संगे-संग चलैत रहबकेँ महत दैत।¦¦
11 मार्च 2015, शब्‍द संख्‍या- 1209

साभार 
पसेनाक धरम कथा संग्रह...

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