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Tuesday, July 29, 2014

कटा-कटी

कटा-कटी




चैत मासक बेरुका समए। आने दि‍न आ आने जकाँ कामि‍नी काकी अँगना-घरक काज सम्‍हारि‍ घासक बेर होइत जाइत देखि‍ धड़फड़ाएल छथि‍। जाइक समए भेल जा रहल छन्‍हि‍। बेटी कबूतरी दि‍स तकलनि‍, तकलनि‍ ई जे आन दि‍न ओसाराक छाहरि‍ देखि‍ अपने रस्‍तापर पहुँच धूरा-गरदाकेँ चि‍क्कन बना, टोलक आनो-आन बच्‍चाक संग सभ दि‍न खेलाइए। आइ कि‍ए ने ससरि‍ रहल अछि‍, मुँह फुलौने बैसल अछि‍। लगमे पहुँच कामि‍नी काकी बजली-
कानि‍नी दायकेँ, आइ कि‍ए ने अँगनासँ आसन टुटै छन्‍हि‍। कखनि‍ आसन-बासनक ओरि‍यान करती।
धनि‍याँ-मि‍रचाय संग पीसल मसाला जहि‍ना चुल्हि‍क ताैपर लोहि‍यामे पड़ि‍ते आँखि‍मे कुट-कुटा कऽ लगैत तहि‍ना बाल-बोध कबूतरीकेँ माइक बात कुट-कुटा कऽ धेलक। बाजल-
खेलाइ ले नइ जाएब। कटा-कटी कऽ देलक।
‘कटा-कटी’ बजि‍ते जेना कबूतरीक वृन्‍दावन दहलि‍ उठल। ठुनकए लगल। जेना केते भारी राज-पाट कबूतरीक छीना गेल होइ तहि‍ना ठुनकी भरैत गेल। दुदि‍सि‍या माए कामि‍नी, आब की करती। बच्‍चा  जखनि‍ घरसँ नि‍कलि‍ खेलाइले चलि‍ जाइए आ टोलक बच्‍चाक संग साँझ धरि‍ कि‍शुन-कन्‍हैया जकाँ खेलाइत रहैए, तखने हमरो बाध-बोन जाइक समए भेटैए। बाध-बाेन नै जाएब से बनत, बाध-बोन जि‍नगी देने अछि‍ तेकरा केना छोड़ि‍ देब। मुदा जखनि‍ हँसैत बच्‍चा अँगनासँ नि‍कलि‍ रस्‍तापर खेलाइले जाइए तखनि‍ ई कहाँ बुझैए जे माए आँगनमे नै अछि‍। तँए बच्‍चाकेँ बि‍ना बौसने कामि‍नी काकी केना नि‍कलती। बजली-
दाइकेँ की भेलनि‍ जे एना फुफुआइ छथि‍न?”
माइक मुँहक बोल छीनि‍ फुफुआ कऽ कबूतरी बाजल-
हमरा कटा-कटी भऽ गेल। उ सब नइ खेलाय देत। हमर घर उजारि‍ कऽ फेक देलक। आब केतए घर बनाएब।
एके साँसमे कबूतरी अपन मनक सभ बेथा उगैल देलक। सुकुमारि‍ बेटी कबूतरीक बोल जेना कामि‍नी काकीक ब्रज मण्‍डलकेँ हि‍ला देलकनि‍। हि‍ला ई देलकनि‍ जे नान्‍हि‍टा बच्‍चा तहूमे अपन कोखि‍क तेकरा जँ नै कखि‍या राखब तँ घरक जात-ढेकी केना चलत। मुदा कबूतरीक प्रश्न तँ तकलीक एकटा सूत नै जे खुस दनि‍ टूटि‍ जाएत। ओ तँ मशीन लागल चरखाक सूत जकाँ अछि‍ जे एकेबेर महजाले तैयार कऽ लइए। टोलक सभ धि‍या-पुता घर उजारि‍ देलकै। तेहेन-तेहेन हरम-जि‍द्दी धि‍या-पुता सभ भऽ गेल अछि‍ जे केकर बात के सुनत। बात नै सूनत, कबूतरीकेँ खेलौ नै देतै, ओकर खेलाइक समए छि‍ऐ केना ओ खेलेनाइ बि‍सरि‍ जाएत। तखनि‍ तँ अपने खेलबि‍यौ, अपने जँ खेलै जोकर बच्‍चाकेँ खेलाएब तँ बाध-बोन केना चलत। नै बाध-बोन चलत तँ अन्नसँ लऽ कऽ जारनि‍ धरि‍ केतएसँ औत। कबूतरीक दोसर-तेसर बात तँ कामि‍नी काकीक मनमे पछुआएले रहनि‍ जे पहि‍लुके प्रश्न तेहेन ओझरी लगा देलकनि‍ जे सर्कसक बाघ जकाँ पि‍जरामे फँसि‍ गेली। ‘फँसि‍’ ई गेली जे अखनि‍ हमरेटा नै गामक सभकेँ बाध-बोन जाइक समए छी, बि‍ना अपन-माए-बापे कोनो बच्‍चा केकरो बात सुनत, जखनि‍ बाते नै सुनत तखनि‍ अपने बाध-बोन केना जा हएत। मुदा आन बच्‍चा हमरा बच्‍चाकेँ रस्‍तापर नै खेलए देत एकरा तँ कि‍यो उचि‍त नै कहि‍ सकैए। मुदा ईहो तँ अछि‍ए जे जँ सभ बच्‍चाक माए-बापकेँ संगोर करि‍ कऽ नि‍वारण करब तखनि‍ तँ एकक चलैत सबहक समए लूटा जाएत। वि‍चि‍त्र द्वन्‍दमे काि‍मनी काकी उलझि‍ गेली। हँ-नि‍हँस करैत कामि‍नी काकी पड़ोसि‍नीकेँ डेढ़ि‍यापर सँ सोर पाड़ि‍ कहलखि‍न-
ऐ पड़ोसि‍नी, अहाँ बेटी हमरा बेटीक घर-अँगना उजारि‍ कटा-कटी कऽ लेलक। बाध-बोनक समए भऽ गेल, अहूँ नै बरदाउ आ हमहूँ नै बरदाएब। अखनि‍ चलि‍ कऽ दुनू गोटे दुनूकेँ बहि‍ना लगा दि‍यौ जे एके अँगना-घरकेँ कनी नमहरसँ घेरि‍ दुनू खेलत।
कामि‍नी काकीक वि‍चारमे अपन वि‍चार सटबैत पड़ोसि‍नी बजली-
बाल-बोधक झगड़े की! तइले चेतनक समए नष्‍ट हुअए से नीक नै।  
ओना पड़ोसि‍नीक उत्तर पबैमे कामि‍नी काकीक मन ठहकलनि‍। ‘ठहकलनि‍’ ई जे कोन गाम आ कोन समाज एहेन नै अछि‍ जैठाम बाले-बोधक झगड़ामे सभ नै लागल रहैए। मुदा पड़ोसि‍नीक सुनटा बानि‍ देखि‍ कामि‍नी काकीक मन खुशि‍येलनि‍। दुनू पड़ोसि‍नी कामि‍नी काकी अपन-अपन बच्‍चाक बीच बहीना लगा एके स्‍वरे कहलखि‍न-
बुच्‍ची, अहाँ दुनू बहीना भेलौं, दुनू गोटेक सुख-दुख सझि‍या भऽ गेल तँए एक्के अँगना-घर बना दुनू गोरे खेलू।
दुनू माइक दुनू बच्‍चा मुँहक बोल छि‍नैत एके सुरे बाजल‍-
दुनू बहीना ओही अँगना-घरकेँ नहमर बना खेलाएब।
दुनू बच्‍चासँ दुनू माएकेँ अपन जान हल्‍लुक होइत देखि‍ खुशी भेलनि‍। खुशी होइत कामि‍नी काकी पड़ोसि‍नीकेँ कहलखि‍न-
कोन बाध दि‍स जाएब?”
कामि‍नी काकीक बोल सुनि‍ पड़ोसि‍नीक मनमे उठलनि‍ जहि‍ना दुनू बच्‍चा बहीना लगा एके अँगना-घर बना खेलत, तहि‍ना जँ चेतनो-सि‍यान जि‍नगीक खेल खेलए तँ केहेन वृन्‍दावनक रास लीला हएत।
बाल-बोधक झगड़ा सभ बच्‍चा बि‍सरि‍ गेल। बि‍सरबो वाजबीये ने भेल। आखि‍र बाल-बोधक मन ओते मलि‍न थोड़े अछि‍ जे पचास-साठि‍ बरख धरि‍ सि‍यान जकाँ रग्‍गड़ धेने रहत। ओ सभ धरबो केना नै करता, तेहेन बाँसक खुट्टामे खुटेसल छथि‍‍ जे हजारकेँ के कहए जे पाँचो हजारक उमेर जेना हाथेमे छन्‍हि‍ तहि‍ना। टोलक एगारहो बच्‍चा अपन-अपन हटवार जकाँ अपन-अपन अँगना पकड़ि‍ हाथेसँ गरदा बढ़बैत अपन-अपन अँगनाक टाट छहरदेबाली जकाँ लगबए लगल। अपने-अपने तेहेन-तेहेन राज-पाट छै जे सभ अपने-अपने अँगनामे घेरा गेल। कबूतरीक डीह खालीए रहल। कबूतरीकेँ काल्हि‍ये सभ मि‍लि‍ घर-आँगन उजारि‍ समाजसँ भगा देने रहै तँए ओइ समाजमे आब कबूतरी रहए नै चाहैए जे अपन पुरना-घर-घराड़ी काल्हि‍ छोड़ि‍ देने छल। मुदा दखलो केनि‍हार नहि‍येँ रहल। रहबो केना करैत जेते काज दि‍ल्‍ली सरकारकेँ छै तइसँ की कम काज एक-एक परि‍वारकेँ छै, तँए सभ अपने-घर अँगनामे ओझरा गेल, जइसँ दुनू बहीना कबूतरी मि‍लि‍ दुनू अँगनाकेँ जोड़ि‍ एक बना लेलक।
चारूकात सँ टाट लगबि‍ते एगारहो अपन-अपन जि‍नगीक गाड़ी ठाढ़ करए लगल। कि‍यो खेत-पथार, तँ कि‍यो चूल्हि‍-चौका, कि‍यो माल-जालक तँ कि‍यो आनो-आनमे गथा गेल। दू अँगनाकेँ एक भेने समाजमे जल्‍लाक जनम होइए। तेकरे उछाहीमे दुनू बहीना कबूतरी समाजकेँ आइ भोज खुऔत। जखनि‍ भोज खुऔत तखनि‍ सभसँ जरूरी काज समाजकेँ नौतब भेलै। जरूरी अइले भेलै जे आब भोजक कमी अछि‍ आब तँ खेनि‍हारक कमी भऽ गेल अछि‍। सभ अपने बेथे तेहेन बेथाएल अछि‍ जे कि‍यो कोनो रोग तँ कि‍यो कोनो, तेहेन-तेहेन सालतनी रोग पोसि‍ नेने अछि‍ जे लोक अपन जान बँचौत आकि‍ भोज खाएत। मुदा से बात कबूतरीक दुनू बहीनाक संग नै भेल। दुनू बहीना वि‍चारि‍ कऽ काज बाँटि‍ लेलक। सुगि‍या नौत दैत बजै-
घरवारी छी यौ, यौ घरवारी, औझुका नि‍मंत्रण अछि‍।
जँ कि‍यो पुछै जे ‘कथीक भोज?’ तँ अकासमे उड़ैत सुगि‍या बाजए-
बहीनदुति‍या भोज।
एक तँ ओहुना बेक्‍तीगतो बात आ समुहि‍को बातमे अन्‍तर होइ छै। बेक्‍तीगत मुद्दा तखनि‍ सामुहि‍क दि‍स बढ़ै छै, जखनि‍ सामुहि‍कताक सम्‍बन्‍ध रहल। मुदा ने फड़ि‍छौट भेल आ ने आरो-आरो बात सोझा आएल।
समए लहसल। भरि‍ दि‍नक मेहनति‍सँ दुनू बहीना कबूतरीओ आ सुगि‍यो समाजक भोजक ओरि‍यान केलक। पुरना नवका अँगनाक बीचक खरि‍हाँनमे पंच सबहक बैसैक ओरि‍यान भेल। भोजक सभ वि‍न्‍यास पंचेक अनुकूल, अनुकूलो कि‍ए ने जखनि‍ सभ सामग्री माटिएक।
पंचकेँ बैसि‍ते सुि‍गया बाजल-
हे पंच परमेसर, भोजनक सभ ओरि‍यान अछि‍ तँए धड़फड़ेबै नै।  
कहि‍ चुटकीसँ बालु उठा पहि‍ने पंचक आगू पवि‍त्र केलक। भातक चंगेरा नेने कबूतरी आँजुरसँ दैत बाजल-
भाय-बोन, भात की‍ आब कबीर दासक परसाद रहलनि‍ आकि‍ सोमनी दादीक बसि‍या भात, आब तँ ओ चाबल भऽ गेल तँए हम परसै छी अहाँ जे बुझि‍ऐ।
कबूतरीक बात सुनि‍ एकटा पंच टोनलक-
कहू भला एक कबूतर दोसर सुग्‍गा, तखनि‍ केतौ भोज अधला हुअए।
माटि‍एक भात-दालि‍-तरकारी हाथसँ उठा-उठा नीचका दाढ़ीमे भि‍रा-भि‍रा नि‍च्‍चेमे रखि‍ भोजक जश दैत सभ पंच एक मुहेँ बाजल-
घरबैयाकेँ धैनवाद।
दि‍न खसल। कामि‍नी काकी बाधसँ आबि‍ घूर पजारि‍ रहल छेली, तखने कबूतरी पहुँच बाजल-
माए, भोजमे खूब जश भेल।
कबूतरीक खुशि‍याएल मन देखि‍ कामि‍नी काकीक मन सेहो खुशि‍येलनि‍।
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३० जुलाई २०१४

कथाकार; श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल
'लजबि‍जी' लघुकथा संग्रहसँ साभार 

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