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Tuesday, July 15, 2014

अधला

कपि‍लेश्वर राउत

जनम- गाम- बेरमा, भाया- तमुरि‍या, जि‍ला- मधुबनी, बि‍हार। जीवि‍कोपार्जन- कृषि‍।
साहि‍त्‍यि‍क कृति‍- उलहन (वि‍हनि‍/लघु कथा संग्रह) श्रुति‍ प्रकाशनसँ प्रकाशि‍त।

अधला


सुलोचना दादी जेहने कमासुत तेहने खिसक्करि‍, खिसक्करे नै गीतो गबैमे सेहो माहि‍र रस्ते-पेरे आकि पोखरि‍क घाटपर बिना कोनो समैमे जहाँ कि‍ महिला जमा भेली आ दादी जँ छथि तँ कोनो ने कोनो खिस्सा हेबेटा करत। छठि पावनिमे तँ घाटपर छठि मैयाक खिस्सा सुनैले भीड़ लाि‍ग जाइत।
सुलोचना दादीक उमेर पच्चपन-साइठ बर्खक। दूटा लड़का एकटा लड़की छेलनि लड़की सासुर बसैत रहनि‍। बेटा सभकेँ सेहो धिया-पुता भऽ गेल छेलनि पोता-पोतीसँ घर भड़ल-पुरल। परिवारमे ततेक मिलान बाँसक ओइद जकाँ आ गाछक डाइर पात जकाँ जे एक दोसरसँ जोड़ल। बिआह उपनायन वा कोनो मांगलिक काजमे बिना सुलोचना दादीक गीते नै पुड़ा होइए। गामक बूढ़-जवान धिया-पुता बेटी पुतोहु सभ दादी कहि‍ कऽ संबोधित करैत। परिवार किसानी जीवन जीबैत।
एक दिन साँझक समए छल सुलोचना दादी गाए-बरदक गोबर करसी उठा, थरि‍ खड़ैर‍ माल-जालकेँ कुट्टी-सानी लगा, घूर कऽ, पैर हाथ धो बीच आँगनमे मोथीक पटिया बिछा पड़ल छेली। पुतोहु सभ रौतुका भानसक जोगाड़मे छेली तखने धिया-पुता सभ (नैत-पोता-पोती) खेल धुप कऽ कऽ आएल छल। सभ तूर दादी लग बैस गेल आ कहए लागल दादी एकटा खिस्सा कहि ने। दादी बजली-
“ई देह जरूआ जनि‍पिट्टा बोंगमरौना सभ कखनो चैनसँ अराम नै करए देत।”
जहिना माइक थप्परमे प्रेम होइ छै तहिना धिया-पुता हँसि‍ कऽ गप्पेकेँ उड़ा देलक। दादी फेर बजली-
“पढ़बीही लिखबिही से नै जे खिस्सा-पिहानी सुनबीही। पढ़-लिख गऽ। छुट्टी दिन खिस्सा कहबौ।”
एक सुड़े धिया-पुता बाजल-
“नै दादी, आइ रबि दिन छिऐ छुट्टीओ छै। तँए खिस्सा कहै पड़तौ, कहि ने।”
“रौ रविन्दर, बिरेन्दर आइ थाकल-ठेहियाल छियौ देह-हाथ दुखाइत अछि, पड़ल रहए दे।”
एतेक बात सुनिते धिया-पुता सौंसे देह लुधकि‍ गेल आ जाँतए-पीचए लगल। दादीसँ पुछलक-
“दादी बुढ़मे किए गोबर-करसी आकि काज उदम करै छँह। बैस कऽ खेमे से नै। बाबू-कक्का, माए-काकी तँ कमाइते छौ?”
दादी बजली-
“रौ बौआ, जँ कियो कमाइ-खटाइबला नै रहए, अथबल भऽ जाए तइसँ नीक मरनाइए। तँए जाबत जीबै छी ताबत जे पैरूख अछि ततेक काज करैत रहै छी। जइसँ देहक खुन चलैत रहत। तँए तंदरूस्त रहै छी आ मनो खुशी रहैत अछि। तेकरा तूँ अधला बुझै छिही?”
कनीकालक बाद पोता-पोती कहलकनि-
“आब तँ ठीक छँह ने। कही ने खिस्सा?”
पुतोहु सभ फूट्टे हँसैत छेली।
सुलोचना दादी पुछलखिन-
“कोन खिस्सा सुनबिहिन?”
जेटका पोता रविन्दर बाजल-
“दादी कोनो खिस्सा कही नीकहा।”
दादी बजली-
बौआ, पहिने लोक बाजए जे उत्तम खेती मध्यम बैनि‍‍ निषिध चाकरी भीख निदान। मुदा आब एकर उनटा बुझैत अछि। उत्तम भीख मध्यम चाकरी निषिध बैनि खेती निदान। सुवि‍धा भोगी लोक भऽ गेल अछि। कामसँ देह चोरबैत अछि तँए देखबहक जे सभ एक दोसराक खिधाँसे करैत रहैत अछि। तँए नीक बेजए फुटेनाइ कठिन अछि। रौ रवीन्दर, अखुनका जुग वैज्ञानिक जुग छै अधलासँ अधला वस्तुक शोध करि‍ कऽ उपयोगी बना दइ छै। तँ सुन एकटा पुरना खिस्सा कहै छियौ अकबर-वीरबलक।”
“...अकबर-वीरबलसँ कहलक सभसँ अधला कोन बस्तु छै। खोइज कऽ कहू। वीरबल खोजैले बिदा भेल खोजमे देखलक जेकरा हम खराब बुझै छी सएह वस्तु केकरो लेल नीक छै। कोनो वस्तु वीरबलकेँ खराब भेटबे नै करैत‍। हारि-थाकि कऽ देहातक एकटा चाहक दोकानपर बैस गेल आ वि‍चार-वि‍मर्श करए लगल। कच्ची रस्ता छल देखलक रस्ता पैखानासँ घिनौल अछि‍ जे कियो ओइ रस्ता धऽ कऽ चलैत सभ नाक मुँहपर गमछा दबने झटैक कऽ चलैत। वीरबल सोचलक ऐसँ अधला कोनो वस्तु नै अछि। सभ घृणे करैत अछि। वीरबल एकटा कुटक डिब्बा लऽ पैखाना उठबैले पहुँचल...।”
“...पैखाना हँसिकेँ बाजल-
“हौ बुड़ी, सभसँ अधला हमहीं बुझेलियह? हम कि सभ खा कऽ सिठ्ठी बनल छी से बुझैत छहक? हे सुनह भात-दालिसँ लऽ कऽ रसगुल्ला-लालमोहन, कलाकंद, किसमिस, छहोड़ा, सेब, संतरा, साग-पात तकसँ बनल सिठ्ठी छी। तेकरा तूँ अधला बुझै छहक? हमरे से खाद बनैए, हमरेसँ बिजली बनैए। केकरो लेल हम सभसँ नीक भोजन छिऐ।”
तखने सुगरक हेँज अबैत रहए। इशारा करैत वीरबलकेँ कहलक-
“हे दैखैत रहक हम केतेक नीक छी।”
जहिना दुरेसँ माछकेँ देखि‍ बौगुला झपटै छै तहिना सुगर एक दोसराकेँ पछारैत पैखानापर टुटि पड़ल।
वीरबलकेँ आत्म ज्ञान भेलै। दरबारमे जाऽ अकबरसँ कहलक-
“हजुर, सभ से अधला हम आ अहाँ छी। दुनियाँमे कोनो वस्तु अधला नै अछि‍। कोनो वस्तुकेँ आँले आँखि चाही, ज्ञान चाही, हमरा अहाँक मनक सोच जे हिनतासँ ग्रसित अछि तँए कोनो वस्तु खराब आ नीक बुझै छिऐ।”
“...वीरबल सोचए लागल।”
दादी धिया-पुतासँ पुछलखि‍न-
“केहेन लगलौ खिस्सा?
धिया-पुता बाजल-
“बड़ नीक, बड़ नीक।”
दादी कहखि‍न-
“सुनू, खुब पढ़ू-लिखू ज्ञानवान बनू। कोनो वस्तुकेँ अधला नै बुझू, किचरेमे कमल फुलाइ छै, गुलाबक फूलक गाछमे सौंसे देह काँटे रहै छै रक्षा लेल। खोजू खोइज कऽ दुनियाँमे महान बनू। महकारी फड़ जकाँ ऊपरसँ नीक भीतर कोनो काजक नै। तेहेन नै बनू बाहर-भीतर एक रंग रहक चाही ठीक छै ने?
धिया-पुता बाजल-
“ठीक छै। दादी, ठीक छै।”
समए साल बितैत गेल। दादी अस्सीकेँ पार केलनि एक दिन खाइकाल गाड़ा लगलनि आ स्वर्गबास सिधारि गेली।
एमहर रविन्दर दादीक खिस्साकेँ गीरह बान्हि लेने छल। बी.ए. पास केला पछाति‍ मनमे ठानि लेलक हम खेतीए-बाड़ी करब सहए केलन। बाप-दादा वा दादीसँ विरासतमे भेटल ज्ञानकेँ वैज्ञानिकक शोध केलहा सोचकेँ धारातलपर उतारए लगल। जइ गोबर-करसीकेँ रविन्दर दादीकेँ कहने छेलनि‍ जे ई काज छोड़ि देही ने। वहए गोबर-करसीकेँ सभसँ उत्तम खाध बूझि जैविक खाध बना खेती करए लगल।
आइ रविन्दरक दरबज्जापर कामधेनु गाए जरसी, बरदक बदला ट्रेक्टर, रोटाबेटर, धान रोपैबला मशीन, दौनीक मशीन, कमठानक मशीन, फसल काटैबला मशीन छन्‍हि‍। श्रीविधिसँ खेती करै छाथि। मधुबनी जिला भरिमे देखा देलक उन्नत खेती करि‍ कऽ। उपजामे तीन गुणा बढ़ोतरी भेलै। परोपट्टाक लोक सभ रविन्दरक खेतक उपजा देखैले खेतक आड़िपर ठाढ़ भेल, आ ठकमुड़ी लागि‍ जाइ गेलनि‍।
रविन्दरकेँ गेहुम आ धानक उपजामे जि‍ला भरि‍क सर्वक्षेष्‍ठ किसानक प्रथम पुरस्कारसँ कलक्टर साहैब सम्‍मानि‍त केलखिन।
सम्‍मानि‍त कालमे रविन्दरकेँ आँखि सँ नोर ढब-ढबा गेलै। आ मनमे सोचलनि जँ आइ दादी जीवैत रहि‍तथि‍ तँ ई पुरस्कार हम दादीएकेँ चरणमे समर्पित करिताैं।

जइ खेतीकेँ लोक अधला बूझि पंजाब, भदोही, हरियाना भागै छल, खेतीकेँ घाटाक सौदा बुझै छल से आब रवि‍न्‍द्रक खेतीकेँ देखि‍ नफ्फाक सौदा बुझए लगल। नीक-खरापक प्रति‍ वि‍चार बदलि‍ गेलै। बि‍सवास बढ़ि‍ गेलै।¦¦¦

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