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Sunday, February 10, 2013

डॉ. प्रेम शंकर सिंहकेँ समर्पित कथा ''बलजोर''

राज-दरबारसँ घूमि‍ कऽ अबि‍ते बड़का-भैया हाँइ-हाँइ बैग रखि‍ जुत्ता नि‍कालि‍ बेसुधि जकाँ पलंगपर चारूनाल चीत भऽ ओंघरा गेला। एतेक सुधि‍ नै रहलनि‍ जे तरबा पसीनासँ पसीज पैताबाक संग देहक घामक भीजल गोलगला नि‍कालितथि‍। आँगनमे बड़की-भौजी‍ चुल्हि‍ लग बैस भानस करैत पुतोहुकेँ कहैत रहथि‍न-
कनि‍याँ, भगवान जौं ससुर देलनि‍ तँ अहाँकेँ देलनि‍, अपनो ऐ बुढ़ाड़ी तक पहुँचैमे कहि‍यो खाइ-पीऐ आकि‍ कोनो मन-मनोरथक दुख बेकल नहि‍येँ भेल अछि‍।
सासुक (बड़की-भौजी) बात सुनि‍ पुतोहु (रेखा) जे ति‍लकोरक पात छाँटि‍-छाँटि‍ तहि‍या-तहि‍या सासु-ससुर लेल रखि‍ अपना लेल लोहि‍यामे देल उनटबैले छोलनी दि‍स आँखि‍ उठबैत बजली-
कहै तँ छथि‍न बड़ सुन्नर बात माए, मुदा गाममे हि‍या कऽ देखथुन जे हि‍नका एते उमेरक केते गोटे घरक गारजनी अपना हाथे चुहुटि‍ कऽ पकड़ने अछि। खाएल-पीअल पोसल देह छन्‍हि‍ नोकरनी जकाँ रखने छथि‍। ई कहाँ कहि‍यो मनमे होइ छन्‍हि‍ जे पोता-पोती बि‍आह-दुरागमन करै जोकर भऽ गेल। अपनो उमेर पचास-पचपनक तँ भइए गेल हएत मुदा हाथ-मुट्ठी केना चलै छै से सोचै-वि‍चारैक मौका अखनि तक कहाँ देलनि‍। जहि‍ना दुरागमन कऽ ऐ घर प्रवेश केलौं तहि‍ना अखनो छी। पाकल आम जकाँ दुनू बेकती भेली, कखनि ढन दे आँखि‍ मुनि‍ लेती तेकर कोनो ठीक छन्‍हि‍। कि‍छु दि‍न पछाति‍ बेटा-पुतोहु घर सम्हारत। तखनि यएह कहथु जे हि‍नका जकाँ कहि‍या हएब?”
अपन मलि‍कि‍यतपर पुतोहुक व्‍यंग्‍यवाणक आक्रमण देखि‍ बड़की भौजी ति‍लकोर उनटबैत पुतोहुक बोल सुनि‍ ति‍लमि‍लाए लगली। ढोढ़ साँप जकाँ मन सनकए लगलनि‍ मुदा वि‍चार रोकि‍ मनमे उठलनि‍, घरवाली घर लेती दाइ जेती छुच्‍छे, तइले लक्कड़-झक्कर करब नीक नै। चारि‍ पएरक हाथी हूसि‍ जाइए मनुख तँ सहजे‍ दुइए पएरक होइ छै। आगि‍क ताउ लग मन तबधि‍ गेल हेतनि‍, भरि‍सक तँए एहेन बात बजली। मुदा लगले वि‍चार घूमि‍ गेलनि‍। एहेन बात पुतोहुकेँ बाजक चाहि‍यनि‍? एतबो नै होश रहलनि‍ जे मुँहपर एहेन बात बजली। घर-दुआर केतौ पड़ाएल जाइ छै। एहेन उचि‍त भेल जे पाकल आम जकाँ बुझै छथि? जि‍नगीक कोनो ठेकान छै, जौं कहीं हमरासँ पहिने अपने चलि‍ जाथि‍ तँ पोत-पुतोहुक गारजनी केहेन हएत? छौड़ा-मारड़ि‍क गारजनी आ पटुआ सागक झोरमे की भेद छै। मुदा कि‍छु बजली नै। नजरि‍ दुनूक ति‍लकोरक तरूआपर सेहो रहनि, एहेन ने हुअए जे कोनो लहकि‍ जाए आ कोनो असि‍झू भऽ नरमे रहि‍ जाए। एक हुकुमदारनी दोसर केनि‍हारि‍।
बड़का-भैयाक असल नाओं सुलोचन आ बड़की भौजीक शान्‍ती छियनि‍। परि‍वारक बाबा समाजक भैयारीमे सुलोचन बड़के भैया आ शान्‍ती बड़कीए भौजीक रूपमे रहि‍ गेली। ओना दुनू बेकतीक उमेर अस्‍सीसँ ऊपरेक छन्‍हि‍। मुदा ऊपरका खाड़ीक लाटमे धि‍यो-पुतो बड़के-भैया आ बड़कीए भौजी कहै छन्‍हि‍।
सुलोचनक पलंगक मचमचीक अवाज आँगन धरि‍ पहुँच‍‍ दुनू बेकतीक कानमे ओहि‍ना पहुँचल छल जहि‍ना मलकार ि‍कसान परि‍वारमे बाधसँ अबैत माल-जालक आवाज अबैत। अकानि‍-अकानि‍ अनुमान लगौली जे भरि‍सक बुढ़ा पहुँच‍‍ गेला। अनुमानो ठीके रहलनि‍।
बड़की भौजी रेखासँ बेसी पनि‍गर। देहो हल्‍लुक। तँए जाबे रेखा छोलनी रखि‍ पल्‍था सम्‍हारि‍ दुनू हाथ रोपि‍ उठैत-उठैत ताबे बुढ़ी (बड़की भौजी) तीनि‍ए डेगमे पति‍ -बड़काभैया- लग पहुँच‍‍ गेली। पहुँचि‍ते आँखि‍ मूनि‍ चारूनाल चीत, दुनू हाथ सि‍रमा दि‍स बढ़ौने देखि‍ अर्द्धचेत जकाँ हुअ लगली। मुदा हाेश सम्हारि‍ दहि‍ना हाथक आँगुर नाक लग भि‍रौलनि‍। साँस नीके चलैत रहनि‍ मुदा रस्‍ताक झमारसँ कि‍छु गरम तँ रहबे करनि‍। पंखा हौंकलासँ भक्क टूटि‍ जेतनि‍। पाछू उनटि‍ तकली तँ डाँड़पर हाथ नेने रेखाकेँ मौकनी हाथी नहाँति‍ लुदुर-लुदुर अबैत देखलनि‍। लग अबैसँ पहि‍नहि‍ जोससँ हुकुम फेकलनि‍-
कनी पंखा नेने आउ।
एक तँ राकश दोसर नतल, दस डेग आगू बढ़बसँ रेखा हुकुमेकेँ नीक बुझलनि‍। घूमि‍ तँ गेली मुदा मन बि‍साइन जकाँ हुअ लगलनि‍। जेते वि‍ष-विस्‍सी बढ़ल जान्हि‍ तेते मनक हौंर सेहो तेज होइत जाइ छेलनि‍। ई केहेन भेल जे नैनसँ देखैक बदला पंखा अनैले घुमा देलनि‍। भलहिं डाक्‍टर नै छी मुदा डाक्‍टरक परि‍वारक बेटी तँ छीहे। पढ़ल-लि‍खल छीहे, तखनि किए बुढ़ी अपचंग भेल छथि‍। एक तँ बुढ़ा खेलाड़ जे एते दूरसँ पएरे एला से भेलनि‍ मुदा बजि‍तथि‍ से नै भेलनि‍। लोककेँ कोनो बिमारी होइ छै तँ बजैए आ हि‍नकर पहने बकारे बन्न भऽ गेलनि‍। तेहने खेलाड़ि‍ बुढ़ी छथि‍न। जेना लूटि‍ लैति‍यनि‍ तहि‍ना दुरेसँ हुकुम चला देलनि‍। हमरासँ बेसी पनि‍गर तँ अपने छथि‍ए किए ने दौग कऽ पंखा लऽ गेली। मन ठमकलनि‍। परबस जीव...। मनमे ठहैकि‍ते रेखाक सभ वि‍चार, पानि‍ पड़ल झोलीक आगि‍ जकाँ सि‍मसि‍ गेलनि‍। जौं बात कटि‍ति‍यनि‍ तँ पीड़ि‍त-सँ-वि‍परीत भऽ जइतथि‍, जौं नै कटलि‍यनि‍ तँ बुढ़ाक जान-परान नि‍कलि‍ रहल छन्‍हि‍। अजीब लीला बुढ़ीक छन्‍हि‍। हड़पटाहि‍ गाए जकाँ दूधक काल छड़पि‍ उठती आ डोरी तोड़ि‍ आड़ि‍-धूर कुदि‍ कऽ टपै बेर खलीफा भऽ जेती। इहए छी परि‍वार? बाबा-दादी, बाबी-दादी, दीदी-पीसा, मौसी-मौसा, काका-काकी, भाय-भौजाइक सम्‍बन्‍धक कोनो महत नै, मुदा...। केतए बि‍ला गेल बाबा-दादीक सम्‍पतिक‍ गुण, जे पेट-काटि उपार्जित केने रहथि‍। उचि‍त-अनुचि‍त जि‍नगीक दि‍शा बोध करबैत अछि‍ तैठाम मंत्र बनि‍ ढोलक-झालि‍क संग हवामे रमैत रहै छै।
 पंखाक आदेश पुतोहुकेँ दैत बड़की-भौजी कान लग मुँह सटा बड़का-भैयाकेँ पुछलखि‍न-
कि‍छु खेबो-पीबोक मन होइए?”
बड़की-भौजीक आवाज कानमे पैसि‍ते ढोढ़ साँप जकाँ बड़का-भैया फुफकार छोड़लनि‍-
की खाएब की पीब, अह्लादि‍ कऽ पुछै छथि‍, बड़ हएत तँ यएह ने हएत जे एते दि‍न छानि‍-छानि‍ खाइ छेलौं आब झाड़ि‍-झाड़ि‍ खाएब।
तरे-तर जे बड़का-भैया बजैत रहथि‍ से बड़की-भौजी नीक जकाँ नै सुनि‍ पौलनि‍। अह्लाद-सँ-अह्लादि‍त होइत हाथीक सूढ़ जकाँ मजीराक ध्‍वनि‍मे बड़की-भौजीक गछाड़ देखि‍ बड़का-भैयाक मन सुगबुगेलनि‍। बजला-
कनी थम्‍हू। आँखि‍क पल उठबे ने करैए।
भक्‍ति‍ भावसँ बड़की भौजी धड़-फड़ाइत बजली-
अच्‍छा, पानि‍ आनि‍ आँखि‍ पोछि‍ दइ छी।
कहि‍ बड़की-भौजी जुआनीक जोशमे पलंगसँ कुदि‍ पानि‍ आनए दौगली। चौकठि‍क अढ़मे पुतोहु पंखा नेने अबैत रहथिन, अकासमे उड़ैत बड़की-भौजीक नजरि‍ रेखापर नै पड़लनि‍। एक गोटे असथि‍रसँ अबैत दोसर कुदैत-फुदैत ि‍नकलैत, मोखे लग भि‍ड़ंत भऽ गेलनि‍। कोनो एक-दोसर परि‍वारक भि‍ड़ंत नै तँए ने बड़की-भौजी कि‍छु बजली आ ने पुतोहु-रेखा। मन दुनूक टाँगल बुढ़ाक कोसलपर। चलचलौ जकाँ छथि‍, अखने जे पाबि‍ लेब से पाबि‍ लेब। बड़की भौजीक औगताइ देखि‍ रेखाक मनमे उठल, शान्‍त-चित्त रहैबला बुढ़ा एना वि‍स्‍मित जकाँ किए कऽ रहल छथि‍‍। जि‍न‍कामे एते दूरसँ अबैक शक्‍ति‍ छेलनि‍ मुदा घरक लोककेँ कहि‍तथि‍न से होश नै रहलनि‍। जरूर कोनो राजरोग छियनि‍। (राजरोग ओहन बिमारी होइत जे जड़ि‍-मूल नै छुटैत मुदा पथ-परहेजसँ जि‍नगी देने रहैए।)
  राजरोग मनमे अबि‍ते वि‍चार फुद-फुदाए लगलनि‍। जहि‍ना छठी राति‍क दूध जि‍नगीक अंति‍म क्षण धरि‍ स्‍मरण रहैत, जेकर सफर जि‍नगीमे सभसँ नम्‍हर होइ छै। कि‍छु रोग एहनो होइ छै जे चटपट जि‍नगीकेँ तोड़ि‍ दइ छै आ कि‍छु एहनो होइ छै जे मुसकारीक मूस जकाँ कुहि‍-कुहि‍ जि‍नगी लइ छै। भरि‍सक बुढ़होकेँ ने सएह पकड़ि‍ लेलकनि‍।
  चून जकाँ मन चुनि‍या गेलनि‍। ओना जखनि दुनू गोटेक (सासु-पुतोहु) कानमे बुढ़ाक पहि‍ल ध्‍वनि‍ एलनि‍ तखनि दुनूक अपन-अपन उत्‍साह रहनि‍। बड़की-भौजीक उत्‍साह रहनि‍ जे राज-दरबारसँ घुमलाहेँ‍। नीक जकाँ परि‍वारक वि‍दाइ भेले हेतनि‍, देखा चाही चाइन केहेन चमकैए।
  रेखा कोठरी पहुँच‍‍ बुढ़ा लग बैस कि‍छु पुछैक ओरि‍यान करि‍ते रहथि‍ आकि‍ बड़की-भौजी लोटामे पानि‍ नेने पहुँचली। मनमे शंका जगलनि‍। शंका ई जे बुढ़ासँ कि‍छु कहा ने नेने होथि‍। मुदा बि‍नु सुनल बात बाजबो उचि‍त नै। तहूमे एक दि‍स मालि‍क (पति‍) छथि‍ दोसर दि‍स पुतोहु। जौं कहीं दुनू एकदि‍शाह भऽ जाथि‍ तखनि अपन गति‍ की हएत? गाड़ी उनार भेने चढ़नि‍हारक जान थोड़े बँचै छै। जौं बँचबो करै छै तैयो अबाह बनाइए दइ छै। मुदा मनक ताप-संताप बनले रहलनि‍। पुतोहुकेँ कहलखि‍न-
कनि‍याँ, अहाँ उन्‍टा घुट्ठी ऐँठ दियनु।
घुट्ठीक भार देला पछाति‍ बड़की-भौजीक मन रमकलनि‍- ओह, लगले दोहरा कऽ अढ़ाएब नीक नै तहूमे तीन गोटेक बीचमे। नै तँ करू तेलसँ तरबा रगड़ब नीक होइतनि‍। पानि‍सँ चानि‍ धुआ जइतनि‍ आ तेलसँ तरबा रगड़ा जइतनि‍ तँ अनेरे होशमे आबि‍ जइतथि‍। खैर, जे हूसल से हूसल। चानि‍पर पानि‍क फुहार पड़ि‍ते बड़का-भैया आँखि‍ खोललनि‍। आँखि‍-पर-आँखि‍ पड़ि‍ते बड़की-भौजीक आँखि‍मे ललकारीक रेगहा जगलनि‍। जगि‍ते सहमि‍ गेली। अनेरे बुढ़ाड़ीमे घी-ढारीक बात मन पाड़ै छी। लोककेँ अपनो उमेरक ठेकान करैक चाही। दुनि‍योँ तँ अजीबे छै, दुनि‍याँक एको प्रति‍शत लोक एहेन नै अछि‍ जे अपने माए-बहि‍न जकाँ दुनि‍योँक माए-बहि‍नक चर्च नै करैत अछि‍ मुदा एते अपराध किए होइ छै। नैति‍कताक महत जौं नै होइतै तँ माए-बहि‍नि‍क अपराध कहाँ केतौ होइ छै।
  पति‍क थरथराइत मन छाती डोला देलकनि‍। पँजरा उनटि‍ तकली तँ पुतोहुकेँ उन्‍टा घुट्ठी जोर-जोरसँ ससारैत देखली। मुदा शंका भेलनि‍, शंका ई जे जरूर कोनो बात हेतै। बुधियार आदमी काजे देखि‍ आदमी चि‍न्‍हैए। जौं कहीं घुट्ठीए पकड़ि‍ घोलटि‍या लेलकनि‍ तखनि अपने तँ बिच्‍चेमे रहि‍ जाएब। पुरुखक ठेकाने कोन। साँढ़-परा जकाँ कखनि की करत तेकर कोन ठेकान। कखनो भगत सि‍ंह बनि‍ जान फूकत तँ कखनो वेश्‍यालयमे दि‍ने-देखार लूटत-लूटाएत। मन पड़लनि घी-ढारि‍क मंत्र। मुदा आब ओ मंत्रक समए कहाँ रहल। गाछपर सँ खसैत लोक जकाँ भौजीक मन झुललनि‍ मुदा थाकल ठेहियाएल पति‍क सेवाकेँ प्रथम प्रश्रय दैत अपन बेथा बि‍सरि‍ भौजी पति‍ (बड़का भैया) केँ कहलखि‍न-
लोककेँ सौंसे देह गुड़-घा रहै छै से बरदास कऽ समैपर नहेबे-खेबे करैए आ अहाँ मुरदा जकाँ आरो धड़ खसौने जाइ छी।
भौजीक बात भैयाकेँ कठानि‍ नै लगलनि‍। पुरुखपना जगलनि‍। मरि‍तो धरि‍ पत्नी लग झूकि जाएब तँ केहेन पुरुख हएब। फुड़फुड़ा कऽ चि‍ड़ै जकाँ, उठि‍ बैस भौजीकेँ कहलखि‍न-
कनी कुर्ताक बटम खोलि‍ दिअ।
अहि‍ना उनटा-पुनटा बुझै छि‍ऐ।
झपटैत पति‍केँ भौजी कहि‍ रेखाकेँ आदेश देलखि‍न-
पहि‍ने पएरक पैताबा कनि‍याँ नि‍कालि‍ दियनु।
  ओना बड़का-भैया रंगा रूपैआक मुस्‍की देलनि‍ मुदा मनमे उठि‍ गेलनि‍ पत्नीक बात ‘उनटा-पुनटा काज।’ बजला कि‍छु ने। सभ बात स्‍त्रीगण लग बाजब उचि‍त नै। जौं ओकरा नाक नै रहि‍तै तँ की-की‍ ने करैत। मुदा छाती राँइ-बाँइ भेल जाइत रहनि‍। कुर्ताक बटम खोलि‍ते बड़की-भौजी राँइ-बाँइ भेल हृदए देखलनि‍। बजली कि‍छु ने। देह खलिआइते बड़का-भैया बजला-
कनी लेटरीनो जैतौं आ नहाइओ लैतौं।
एक राकश दाेसर नोतल भौजी आदेश फेकलनि‍-
कनि‍याँ, अहाँ चौका सम्‍हारू हम बाथ रूप सम्‍हारने अबै छी।
  दुनू गोटे माने साउसो आ पुतोहुओ अपना-अपना मोने खुशी जे खेबे कालक गप ने रस पाबि‍ मि‍ठौंस होइ छै। दुनूकेँ खुशी देखि‍ बड़को-भैया खुश। परि‍वार खुश तँ अपनो खुश। जौं खुशी नै तँ बजार घुमैकाल ओहि‍ना बाप बेटाकेँ आ माए बेटीकेँ कोरामे लऽ घुमैत रहैए?
  कोठरी छोड़ैक वि‍चार तीनू गोटे करि‍ते रहथि‍ आकि‍ शि‍व‍शंकर पहुँच‍‍ गेलखि‍न। कि‍नको लजेबाक प्रश्ने नै। बड़का-भैया बड़के-भैया भेला, भौजी भौजीए भेलखि‍न आ रेखा अंगीतेक बेटीओ आ कौलेजक वि‍द्यार्थीओ। कोठरी प्रवेश करि‍ते शि‍व‍शंकर पूछि‍ देलखि‍न-
भाय, केहेन यात्रा रहल?”
जहि‍ना मुर्दा ऊपर अस्‍सी मन जारनि‍ लादि‍ जराैल जाइत तहि‍ना अस्‍सी मन पानि‍मे डुमल बड़का-भैया मि‍रमि‍राइत कहलखि‍न-
अशुभे रहल।
भैयाक बात सुनि‍ शि‍व‍शंकर कहलकनि-
पहि‍ने फ्रेस भऽ जाउ, नहा-खा लिअ तखनि नि‍चेनसँ आगूक गप हेतै। ताबे हम बैसै छी।
  शि‍व‍शंकरक मनमे रहनि‍ जे नव-नव रचना अनने हेता, सेहो देखि लेब आ दरबारक कागतो-पत्तर देखि लेब। एक्के वस्‍तुकेँ एक स्‍तरसँ गि‍रौलापर अनेक तरहक दबाब पड़ै छै। असथि‍रसँ गि‍रौलापर नरमो वस्‍तुकेँ बँचैक संभावना रहै छै, जखनि कि‍ जोरसँ गि‍रौलापर कड़ो वस्‍तुकेँ टुटै-फुटैक संभावना भऽ जाइ छै। बड़का-भैयाक स्‍थि‍ति‍ सएह रहनि‍। मुदा दबाबो देब उचि‍त नै बूझि‍ शि‍वशंकर चुपे रहला मुदा रेखाकेँ कहलखि‍न-
पान सए नम्‍बर जर्दा देल पान खुआ दिअ। एक झपकी ताबे मारि‍ लेब।
  जेते काज बड़का-भैया अदहा घंटामे करै छला तेतबे करैमे घंटोसँ ऊपर लागि‍ गेलनि‍। जहि‍ना पएरमे जात बान्हि‍ वा जहलमे डंडा-बेड़ी..., मुदा से शि‍व‍शंकर नै बूझि‍ सकला। कारण भेलनि‍ जे रेखा कौलेजमे खेल-कुदमे नम्‍बर एक छल आइ उठबो-बैसबोमे असोकर्ज भऽ रहल छन्‍हि‍। मनमे उठलनि‍ अखराहाक खलीफा पहि‍ने डण्‍ड-बैसक कऽ लपटैए, तखनि कुश्‍ती लड़ैए आ तेकर पछाति‍ छोट-छोट खलीफाकेँ लपटाबैए। पछाति‍ सवारी कसि‍ परीक्षा लइए। जि‍नगीओक अवस्‍था अहि‍ना होइ छै। बड़का-भैया ऐमे चुकला। भोगी-वि‍लासीक परि‍वार बना लेलनि‍ आ आशामे जीबै छथि‍ जे चाननक गाछी लगौने छी। सोचि‍ते-सोचैत आँखि‍ बन्न भऽ गेलनि‍। भकुआइत ओंघा गेला।
  बड़का-भैयाकेँ पहुँचि‍ते बड़की-भौजी पनबट्टी नेने पहुँच‍‍ गेलखि‍न। दुनू गोटे पान खेलनि‍। शि‍वशंकर पुछलखि‍न-
अशुभ की कहलि‍ऐ?”
शि‍वशंकरक प्रश्न सुनि‍ बड़का-भैया झमान भऽ जेना हजारो हाथ ऊपरसँ खसला-
मि‍सि‍ओ भरि‍ जेकर आशा नै छल से भेल मुदा...?”
  खेतक अकटा-मि‍सि‍याकेँ कि‍यो अन्न मानबे ने करैत तँ कि‍यो सागो आ रोटीओ बना खाइए। खेती भलहिं नै होउ मुदा ओहो (अकटा-मि‍सि‍या) मैदानमे डटल अछि‍। जौं कनियोँ नजरि‍ नै रखब तँ जजातेक छातीपर चढ़ि‍ धरतीकेँ अन्नमंडल बना दइए‍। बाट-घाट रोकने तीर्थ यात्रीकेँ कि‍छु नै बि‍गड़ै छै, देखै-सुनैक नव-नव स्‍थान भेटै छै। मानियौ वा नै मानियौ समैक शक्‍ति‍ सबल होइ छै।
  बड़का-भैयाक चेहराक क्रि‍या देखि‍ शि‍वशंकर सोचथि‍ जे चेहरा कहि‍ रहल छन्‍हि‍ जे जेना धमसुरक चोट लगल होन्‍हि‍। जटा-जटीनक बेंगकेँ जहि‍ना कुटनी कूटि‍ पेटसँ पानि‍ नि‍कालि‍ पानि‍क संग मुइल बेंगकेँ मटकुरमे नेने गीत गबैत केकरो ऐठाम फेक भरि‍ दि‍न फौतली सुनैक रस्‍ता बना लैत तहि‍ना गसि‍या कऽ शि‍वशंकर पकड़लनि‍। मुदा मनमे ईहो होन्हि‍ जे धमसुरक चोट कनियोँ खड़खड़ाएल नै। एकाएक एना किए भेल। जाबे अकासमे पाि‍न पानि‍सँ नै टकराएत ताबे बि‍जली केना बनतै आ बि‍जली नै बनत तँ ठनका केना बनत। भलहि‍ं अहाँ ओकरा सोनोसँ अमूल्‍य बुझैत होइऐ मुदा ने राधाकेँ नअ मन घी हेतनि‍ आ ने राधा नचती। केकरा बुते हएत जे ओकरा पकड़ि‍ हाथमे आनत। ओकरा पकड़ैले गोवरधन जकाँ गोबरक ढेरी बनबए पड़त, तैपर फुलही थारी राखए पड़त तखनि जब समए औतै समुद्रसँ करि‍या हवा उठि‍ अदलि‍-बदलि‍ वादल बनि‍ दोसर वादलसँ टकराएत, ओही टक्करसँ बि‍जली बनि‍ ठनका बनै छै। तखनि जा कऽ ओइ थारीपर ठनका खसत। केतबो ठनका जोर करतै मुदा गोबर की‍ ओकर शक्‍ति‍केँ शक्‍ति‍ मानतै? रस्‍ता रोकतै? भलहिं अश्वमेघ युद्ध किए ने होउ!!
  जहि‍ना छातीपर बैस कंठ पकड़ि‍ बलजोर मुँहसँ बजबा लैत, तहि‍ना बड़का-भैया बजला-
आशाक वि‍परीत अपना हाथे केलौं।
बड़का-भैयाक बात सुनि‍ शि‍वशंकर वि‍र्ड़ोक मोड़मे पड़ि‍ गेला। पुछलखि‍न-
एना किए?”
तीन गोटे कारबारी छेलौं। दू गोटे शि‍कारी छेलौं आ एक गोटे अनाड़ी छला। हुनका लि‍ए दि‍न-राति‍ बारहे-बारहे घंटाक होइ छै सहए बुझैत रहथिन। ओना जहि‍ना आदि‍ ऋृषि‍का सबहक परि‍वारकेँ जौं कोनो परि‍वार कहि‍ देबै तँ ई जल्‍दि‍वाजी भेल। इंजि‍न ि‍नर्माताक परि‍वार जौं इंजि‍न ि‍नर्मितक शक्‍ति‍ नै रखत तँ वंशक रक्‍छा केना हेतै।
हँ तखनि?”
प्रस्‍ताव देलि‍ऐ। दोसरो प्रस्‍ताव एलै। मुदा जेकर कल्‍पना नै छल से भेल!”
से...।
प्रस्‍ताव दइते जे दोसर छला, जि‍नकासँ मि‍सि‍ओ आशा नै छल जे ठनका जकाँ बनि‍ जेता। जहि‍ना अकासमे उड़ैत गीध अपन सहयोगी चीलकेँ देखा दैत आ हरड़ी-वि‍देशरक मकड़क मेलामे अरबा चाउरक चि‍क्कसमे, इनहोर देल पानि‍सँ बनल रोटी आ तैपर पँचफोरना देल अल्‍लूक दमक संग हाथमे रोटी लऽ मेलो देखैत आ खेबो करैत रहैए आ तखने जहि‍ना हाथक रोटी झपटि‍ चील पोखरि‍क महारक पीपरक गाछपर बैस कुचड़ए लगैए, तहि‍ना भेल। तेना झपटलक जे छाती छँहों-छित्त भऽ गेल। केतबो अपनाकेँ असथि‍र करी मुदा नै भऽ सकल। अन्‍त भेल जे संदेश तँ समाजमे जेबे करत। मुदा-संदेशो तँ सनेसे छी। केम्‍हर केहेन बि‍लहाएत से के कहलक।
आब?”
देखार होइ दुआरे बहुमत नै हुअए देलि‍ऐ। सर्वसम्‍मति‍ कऽ जान बँचा लेलौं।
  सुनि‍ दुनू गोटे मर्माहत भऽ गेला। मुदा दुनूक मनमे दू तरहक वि‍चार नाचए लगलनि‍। बड़का-भैयाक मनमे उठैत रहनि‍ जे ई उमेर सन्‍यासक छी। हमरा कोन ऐ दुनि‍याँ-दारीसँ मतलब अछि‍ जे अनेरे...।
शि‍वशंकरक मनमे उठैत रहनि‍ जे जाधरि‍ समए नै पकड़ि‍ चलब ताधरि‍ समए संग नै चलि‍ सकब। वि‍कासोक प्रक्रि‍या छै। ओहीमे गति‍-मति‍ संगे चलै छै। से नै भेल।
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(बलजोर कथा डाक्‍टर प्रेम शंकर सिंहकेँ लेल...)