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Thursday, June 7, 2012

अनेरुआ बेटा :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल



तेसरि साँझ। अन्हरियाक चौठ रहने चान तँ नञि उगल छै मुदा पूब दिस धाही छिटकए लगल छलै। सुनसान अन्हार देखि किछु क्षण पहिनहि एकटा कुमारि, समाजमे लोक-लाज बँचबैक खियालसँ दस दिनक जनमल बच्चाकेँ रस्ताक किनछरिमेे राखि अढ़े-अढ़ आंगन चलि गेलि। बच्चाकेँ नओ दिन तँ झाँपि-तोपि कऽ बीमारीक बहाना बना रखलक। मुदा घटना खुलैक दुआरे दसम दिन जी-जाँति कऽ फेकलक नहि, रस्ताक कातमे ओरिया कऽ रखि देलक। पाँचे-सात मिनटक पछाति गंगाराम हाटसँ घर अबैत रहए। जनमौटी बच्चाक जे रुदन गंगाराम सुनलक, एकाएक ओकर पएर अस्थिर भऽ गेलै। बीच बाटपर ठाढ़ भऽ ओ अवाज अकानए लगल। ई अवाज तँ कोनो जानवर वा जन्तुक वा चिड़ैक तँ नहि थिक। मनुक्खक बच्चाकेँ बोली बूझि पड़ैत अछि। मुदा ऐठाम मनुक्खक बच्चाकेँ बोली भऽ केना सकैत अछि? तहूमे केकरो देखबो ने करै छिऐ। बाँसक गारल खूँटा जकाँ गंगाराम बीच बाटपर ठाढ़। कने काल ठाढ़ रहि ओ आस्ते-आस्ते बच्चा दिस पएर बढ़बए लगल। झल-अन्हार रहने अधिक दूर देखबो ने करैत छल। खेतमे जेना कीड़ी-मकोड़ी। क्यो अपन माए-बापकेँ सोर पाड़ैत तँ क्यो अरामसँ गीत गबैत। तहिसँ सौंसे बाध अनघोल होइत रहै। बच्चाक लग पहुँचि गंगाराम बैसि बच्चाकेँ निहारै लगल। एकटा मन कहलकै- ई तँ मनुक्खक बच्चा छी। मुदा दोसर मन कहलकै- ऐठाम बच्चा आएल केना? तरकारीक झोरा दूबिपर रखि, दहिना हाथ बच्चाक देहपर दऽ हसोथै लगल। देह सिहरि गेलै। रोंइयाँ-रोंइयाँ ठाढ़ भऽ गेलै। मुदा मनमे खुशी उपकलै। मन थीर कऽ बच्चाकेँ दुनू हाथे उठा लेलक। उठा कऽ बच्चाकेँ पेटमे साटि, वामा हाथे बच्चाकेँ थाम्हि दहिना हाथे खढ़-पात पोछए लगल। बच्चा ओहिना पूर्ववते कनैत रहए। खढ़ पोछि गंगाराम कान्हपर सँ गमछा उतारि बच्चाकेँ लपेट लेलक। तरकारीक झोरा कान्हमे टाँगि छाती लगौने बच्चाकेँ अपना ओइठाम अनलक।
आंगन आबि गंगाराम हँसैत घरवालीकेँ कहलक- “आइ भगवान खुश भऽ एकटा बेटा देलनि।
पतिक बात सुनि अकचकाइत भुलिया लगमे दौगल आबि पतिक कोरासँ बच्चा अपना कोरामे लैत पुछलक- “कतए ई बच्चा भेटल? आ-हा-हा, बच्चा तँ बड़ दीव अछि।
“हाटसँ घुमैत काल बाटपर भेटल। एकर सेवा करु। जँ अप्पन बनि कऽ
आएल हएत तँ जीवे करत नञि तँ जहिना रस्ते-रस्ते आएल तहिना चलि
जाएत।
पतिक बात सुनि भुलिया मने-मन सोचए लागलि जे अपना तँ ने गाए अछि आ ने बकरी, जेकर दूध पिया बच्चाकेँ पालितहँु। अपने तँ दूध हेबे नञि करत किएक तँ बुढ़ाड़ीमे सभ अंग सुखा गेल। निराश मनमे भुलियाक आशा जगलै। मनमे अएलै जे अपन ने छाती सुखि गेल मुदा पितिऔत दियादनी तँ चिलकौर अछि। मन पड़िते भुलिया भगवानकेँ धन्यवाद दैत बाजलि- “जहिना भगवान सुखाएल बोनमे फूल फुलौलनि तहिना ओकर अहारोक ओरियान तँ वएह करथिन।
पचास बर्खक गंगाराम। अड़तालीस बर्खक भुलिया। मुदा जते थेहगर गंगाराम तहिसँ कम भुलिया। अड़तालीस बर्खक भुलिया साठि बर्खसँ उपर बूझि पड़ैत छलि। झुनकुट बूढ़ि जकाँ। बूढ़िक सभ लक्षण भुलियामे आबि गेल छलै मुदा कोरामे बच्चा देखि भुलियाक शरीरमे जुआनीक खून दौड़ए लगलै। नव उत्साह, नव-जीवन। आनन्दसँ विह्वल नजरिसँ भुलिया पतिकेँ देखैत आ गंगाराम पत्नीकेँ। दुनूक मनमे खुशीक हिलोर उठैत रहै। पानिक गुब्बारा जकाँ खुशी मँुहसँ निकलए चाहैत रहै। बच्चाकेँ चुप रहै दुआरे भुलिया अपन छातीमे बच्चाकेँ लगा लेलक। कनी काल बच्चा छातीमे लगि मुँह बन्न केलक मुदा दूध नहि भेटने फेर ओहिना कानए लगल।
गंगारामक घरक बगलेमे पितिऔत भाए रूपलालक घर। बच्चाकेँ छाती लगौने भुलिया रूपलालक आंगन पहुँचलि। रूपलालक स्त्री कबूतरी अपना बच्चाकेँ दूध पीयबैत रहए। तीन मासक बच्चा रहै कबूतरीक। भुलियाक कोरामे बच्चाकेँ कनैत देखि अपना बच्चाकेँ ओछाइनपर सुता भुलियाक कोरासँ बच्चाकेँ कोरामे लैत दूध पीयबए लागलि। भुखल बच्चा, हपसि-हपसि दूध पीबए लगल। बच्चाकेँ दूध पीबैत देखि भुलिया कबूतरी दियादनीकेँ कहलक- “भगवान तोरा सात गो बेटा आउरो देथुन।
भुलियाक बातकेँ हँसीमे उड़बैत कबूतरी बाजलि- “चारियेटा मे तँ अकछि गेलौं आ सातटा आरो पोसब पार लागत। अपन असिरवाद घुमा लौथु। जेतबे अछि तेकरे निमेरा होए तेहीसँ बहुत हएत। फेर बात बदलैत बाजलि- दीदी, बुढ़ाढ़ियोमे जे हिनका बेटा भेलनि से केहेन पोरगर छन्‍हि‍। हिनके जकाँ आँखि, मुँह, नाक लगै छन्‍हि‍। भैया जकाँ किछु ने बूझि पड़ैए।
भुलिया- “सभ दिन तू एक्के रंग रहि गेलैं। कहियो तोरा बजै-भुकैक लूरि नञि भेलौ। जेठ-छोटक विचार तँ बुझबे ने करै छीही। केकरो किछु कहि दै छीही। कोनो गत्तरमे लाज-सरम तँ छौहे नै।
हँसैत कबूतरी दोहरबैत बाजलि- “एँह दीदी, हिनका अखन की भेलनिहेँ, एकटा के कहाए जे जोड़ो लगि जेतनि।
कबूतरीक बातसँ भुलियाकेँ तामस नै उठै। बच्चाक आनन्द हृदएकेँ पानि जकाँ कोमल बना देने छलै। भुलिया- “तोरे भैयाकेँ हाटसँ अबै काल रस्तामे ई बच्चा भेटलै।
कबूतरी- “भेटुआ बच्चाक मँुह हिनका मुहसँ किअए मिलै छै। ई हमरासँ छिपबै छथि।
खौंझा कऽ भुलिया बाजलि- “अच्छा हो, हमरे भेल। आब तँ मनमे सबुर भेलौ।
बात बदलैत कबूतरी बाजलि- “दीदी, जहिना एकटा बच्चाकेँ दूध पीयबै छी तहिना अहू बच्चाकेँ दूध पिया देबनि। कोनो कि हमरा घरमे मौसरी नै अछि जे बच्चाकेँ दुधकट्टू हुअए देबनि। लोकेक काज समाजमे लोककेँ होइ छै किने। हिनका अन्हार घरमे दीप जरलनि। तइसँ कि हमरा खुशी नञि होइए।
कबूतरीक बात सुनि भुलियाक मन गद-गद भऽ गेलै। भुखाइल बच्चाकेँ पेट भरिते निन्न आबि गेलै। बच्चाकेँ बिछौनपर सुतबैत कबूतरी बाजलि- “दीदी, बच्चाकेँ एतै रहए देथुन। राति-विराति जखन भुख लगतै पिया देबै।
 “बड़बढ़ियाकहि भुलिया अपना आंगन आबि पतिकेँ कहलक- “आब बच्चा जीबे करत। बड़ दूध गोधनपुरवालीकेँ होइ छै। दुनू बच्चाकेँ पालि‍ लेत।
बच्चाक लेल गंगारामक मन कनैत। मुदा भुलियाक बात सुनि मन हरिया गेलै। मनमे एकटा शंका जरुर उठलै- “बच्चाकेँ अपना अंगना किअए ने नेने अएलौं? आन तँ आने छी।
पतिकेँ चोहटैत भुलिया कहलक- “अहाँ पुरुख छी, तँ की बुझबै? माएक की मासचर्ज होइ छै से स्त्रीगणे बूझि सकैए। जे माए एक दिन बच्चाकेँ छातीसँ लगा लेत ओ जिनगीमे कहियो ओइ बच्चाक अधला नै सोचत।
गंगाराम चुप भऽ गेल। मुदा एकटा बात मन पड़लै। बाजल- “अपने दुनू गोरे ने ओकर बाप-माए हेबै, तेँ कोनो नाम तँ रखि देबै कि ने।
पतिक बात सुनि भुलियाक मनमे छठियारक दृश्य आबि गेलै। मुस्की दैत बाजलि- “आन बच्चाकेँ तँ स्त्रीगण सभ मिलि कऽ नाओँ रखै छै। मुदा से तँ ऐ बच्चाकेँ नै भेलै। अपने दुनू गोरे मिलि कऽ नाम रखि दियौ।
भुलियाक विचार सुनि पति बिहुँसैत बाजल- “मंगल नाम रखि दिऔ।
सात मासक उपरान्त बच्चाक मुँहमे दाँतो जनमए लगल आ ठाढ़ भऽ कऽ डेगा-डेगी चलौ लगल। अन्न सेहो चाटए लगल आ पानि सेहो पीबए लगल। बच्चाक सिनेह एते अधिक दुनू परानीमे रहै जे कखनो आँखिक परोछ होअय, से नहि चाहए। भुलिया बोइन करब छोड़ि देलक। अंगना-घरक काज सम्हारि साबेक जौर ओसारेपर बैसि बॉंटए लागलि। ओकरे बेचि-बेचि दू पाइ कमा लैत छलि। अपना तँ साबे नहि रहै मुदा अधियापर बँटैक लेल गाममे साबे भेटै। दुनू परानी गंगारामकेँ एते उत्साह बढ़ि गेलै जते दस बर्ख पहिने छलै। भरि-भरि दिन काज करैत मुदा थाकनि बुझिये ने पड़ै। भुलियाकेँ जैखन मंगल माए कहए तैखन आनन्दसँ ओ उन्मत भऽ जाए।
पाँच बर्खक अवस्थामे मंगलक नाम पिता स्कूलमे लिखा देलक। मंगल पढ़ए लगल। पाँचे किलास तक पढ़ाइ गामक स्कूलमे होइत रहै। पँचमा तक मंगल पढ़ि लेलक। दस बर्खक भइयो गेल। मुदा दुनू परानीमे गंगारामक देह एत्ते अव्वल भऽ गेलै जे काज करैले लोक अढ़ौनाइ छोड़ि देलकै। कहुना-कहुना दुनू परानी जौर बाँटि-बाँटि गुजर करए। जिनगी भारी लागए लगलै। मुदा दसे बर्खक मंगलमे ज्ञानक उदए कनी-मनी भऽ गेलै। जहिना बच्चेमे हनुमान बाल सुर्जकेँ गीरि गेल छलाह, तहिना। मंगल बापकेँ कहलक- “बाबू अहाँ दुनू गोरे काज करै जोकर नै रहलौं। हमरा मन होइए जे चाहक दोकान खोली। अपने डेढ़ियापर एकटा एकचारी बान्हि दिअ, ओइमे हम दोकान खोलब।
गंगारामक मनमे जँचलै। मुदा चाह तँ गामक लोक पीबैत नहि अछि, तखन दोकान चलतै केना? मुदा तैयो एकचारी बान्हि देलक। बाड़ीमे एकटा जीमरक गाछ रहै ओकरा पच्चीस रूपैयामे बेचि, चाह बनबैक बरतन-वासन मंगल कीनि लेलक।
चाहक दोकान मंगल शुरू केलक। नव वस्तुक दोकान गाममे। मुदा पहिल दोकानकेँ तँ मोनोपोली माने एकाधिकार होइ छै। शुरूमे तँ गामक लोक नव चीज पेय बूझि सेहन्ते पीनाइ शुरू केलक। मुदा धीरे-धीरे दोकान जमि गेलै। जइसँ एत्ते कमाइ हुअए लगलै जे कहुना-कहुना गुजर चलऽ लगलै। तीन साल बीतैत-बीतैत दुनू परानी गंगाराम मरि गेल। जाधरि गंगाराम जीबैत छल ताधरि गाममे मंगलक प्रति कोनो तरहक घिरना नञि छलै मुदा गंगारामक मरलाक बाद लोकमे धिरना जागए लगलै। मुदा तैयो दोकानक बिकरीमे कमी नञि अएलै, किएक तँ समाजक लोक चाह-पानि पीयब शुरू कऽ देने छल।
चाहक दोकान केलाक उपरान्तो मंगलक मनमे पढ़ैक जिज्ञासा जीबिते रहै। खाइ-पीबैसँ जे पाइ उगड़ै ओइसँ ओ किताब, कागज, कलम कीनि-कीनि पढ़बौ करए आ लिखबो करै। मरै काल गंगाराम मंगलकेँ जन्मक इतिहास सुना देने रहै। जइसँ मंगलमे समाजक कुरीति, कुव्यवस्था जे करमी लत्ती जकाँ छाड़ने अछि, ओइ बिन्दुपर नजरि पहुँचि गेल छलै। तेँ किताबक अध्ययनक संग-संग समाजोक बेवहारक अध्ययन करए लागल। चाहक दोकान चलबैत तेँ दस गोटेक संग गप-सप्‍प करैक लूरि सेहो सीखि लेलक। ततबे नहि रूपचन गामक खिसक्कर। मुदा बड़ गरीब। साँझू पहरकेँ एक झोँक चाहक बिकरी खूब होइ, बादमे गहिकी पतरा जाइ। जखन गहिकी पतरा जाइ तखन रूपचन मंगलक दोकानपर अबै। दू गिलास चाह पिया मंगल रूपचनक दिमाग साफ कऽ दै। दू-चारिटा पछुऐलहा गहिकियो रहै, तइ बीच रूपचन पुरना खिस्सा उठाबै। एक घंटा, दू घंटा, तीनि-तीनि घंटा तक रूपचन खिस्सा कहै। खिस्सा सभ दिन बदलि-बदलि कऽ कहै। कहियो राजा-रानी, तँ कहियो रानी सरंगा तँ कहियो रजनी-सजनीक। कहियो गोनू झा तँ कहियो डाकक। कहियो अल्हा-रुदल तँ कहियो दीना-भद्री। कहियो लोरिक तँ कहियो सलहेसक।
ऐ रुपे मंगलक बुधि‍क बखारीमे किताबक ज्ञान, समाजक ज्ञान आ खिस्साक ज्ञान जमा हुअए लगलै। रातिमे जे खिस्सा सुनै ओ दिनमे जखन समए भेटै, लिखि लिअए। लिखैत-लिखैत पाँतियो सोझ-साझ हुअए लगलै आ जिज्ञासो बढ़ए लगलै।
एक दिन बेरि टगैत, एक गोटे मंगलक ऐठाम चाह पीबए आएल। देह-दशासँ बिल्कुल साधारण। हाथमे एकटा चमड़ाक बैग। ओ आदमी “भारत जागरणपत्रिकाक सम्पादक। गामक दशा-दिशाक अध्ययन करैक लेल गाम दिस आएल छल। मंगलसँ गप-सप्‍प करैत ओ सम्पादक हेरा गेलाह। उन्मत्त भऽ गेल। जेना मंगलक हृदए आ सम्पादकक हृदए एक ठाम भऽ कतौ सफरमे निकलल हुअए, तहिना।
भक्क टुटिते दुनू गोरे हँसए लगल। सम्पादक कहलखिन- “बौआ, अहाँ चाह बनाउ। अखन धरि हमहुँ आइ चाह नै पीने छलौं। आइ हम रहब। निचेनसँ गप-सप्‍प करब।
मंगल चाह बनबए लगल। चाह बनल। दुनू गोटे पीलक।
खेला-पीलाक बाद, रातिमे दुनू गोटे एक्के बिछानपर बैसि गप-सप्‍प करए लगल। जे किछु खिस्सा-पिहानी मंगल लिखने छल ओ हुनका–-सम्पादककेँ- आगूमे रखि देलक। उनटा-पुनटा सम्पादक जी देखए लगलथि। भाषा-शैली तँ नहि जँचलनि मुदा विषए-वस्तु हृदएकेँ पकड़ि लेलकनि। हँसैत बजलाह- “बड़ सुन्दर वस्तु सभ अछि। एकरे तकैले हम आएल छी।
कहि बैग खोलि किछु पत्रिका आ किछु किताब दैत कहलखिन- “ऐ मे
लिखैक तौर-तरीका निर्धारित कएल अछि। एकरा ठीकसँ पढ़ि जे आधार निर्धारित अछि, ओइ अधारपर लिखब। हम सम्पादक छी। मासिक पत्रिका चलबैत छी। अहाँक एक-एक कथा सभ मासक पत्रिकामे छापब। एक कॉपी अहूँकेँ पठा देल करब।
तीन-चारि घंटा धरि सम्पादक जी मंगलकेँ बुझबैत रहलखिन। भोरे सूति उठि चाह पीबि ओ चलि गेलाह।
मंगलक कथा पत्रिकामे मासे-मास छापए लगल। मंगलक अनेको पाठकमे एकटा लड़की सेहो। नाम सुनयना। दर्शन शास्त्रसँ एम.ए.मे पढ़ैत। पाँचम मासक पत्रिकामे सम्पादकजी मंगलक परिचएमे एकटा उपन्यासक चरचा सेहो कऽ देलखिन, नाम छलै “मरल गाम। सुनयनाक पिता वकील। सुनयनाक मन “मरल गाम नाम पढ़ि नाचए लागल। मनमे अाबए लगलै जे हमर देश तँ गामक देश छी। जखन गामे मरल अछि तखन देशकेँ की कहबै? ई विचार सुनयनाक मनमे उड़ी-बीड़ी लगा देलक। जे सुनयना पिताक सोझाँमे भरि मँुह बजैत नहि ओ सुनयना आइ पितासँ डिस्कस करैले तैयार भऽ गेलि।
कोर्टसँ आबि वकील सैहेब चाह पीबि टहलैले गेलाह। टहलि-बूलि कऽ दोसर साँझमे आबि कौल्हुका केसक तैयारीक लेल फाइल निकाललनि। पत्नी चाह आनि कऽ देलखिन। चाह पीबि, पान खा वकील सहाएब फाइल खोलैत रहथि आकि सुनयना आबि कऽ आगूक कुरसीपर बैसि बाजलि- “बाबूजी, एकटा सवाल मनमे घुरिया रहल अछि। ओ कने बुझा दिअ?”
 “की?”
“आइ पत्रिकामे पढ़ने छलौं जे सचमुच गाम मरल अछि? जँ गाम मरल अछि तँ देश गामक छी। देशकेँ की कहबै?”
सुनयनाक प्रश्नक गंभीरतापर नजरि नहि दऽ वकील सैहेब कहलखिन- “ई साहित्यकार लोकनिक समझ छि‍यनि‍, तेँ ऐ पर किछु नहि कहि सकै छिअह।
साहित्यकारो तँ अही समाजक लोक होइ छथि। हुनको आने लोक जकाँ जिनगी छन्‍हि‍। तखन ओ एहेन विचार किअए लिखलनि?”
“साहित्यकारक बात साहित्यकारे बूझि सकैत छथि। हम तँ बकील छी कानूनक बात बुझै छिऐ। अखन तूँ जा, हम एकटा केसक तैयारी करब।
सुनयना उठि कऽ चलि गेलि। अपना कोठरीमे बैसि कऽ विचार करए लागलि। जहि देशक गाममे ने पानि पीबैक ओरियान छै, ने खाइक लेल सभकेँ संतुलित भेाजन भेटै छै, ने भरि देह कपड़ा भेटै छै, ने रहैक लेल घर छै, ओइ देशकेँ मरल नै कहबै तँ की कहबै। एखनो लोक सरल पानि पीबैत अछि, कहुनाकेँ किछु खा दिन कटैत अछि, गाछक निच्चाँमे आगि तापि समए बितबैत अछि, हजारो रंगक रोग-व्याधिसँ घेरल अछि, ओइ देशकेँ की कहबै? हजारो बर्खक मनुक्खक इतिहासमे एखनो धरि सरस्वतीक आगमन सभ मनुक्ख धरि नै भेल अछि, ओइ देशकेँ की कहबै? ढेरो प्रश्न सुनयनाक आगूमे ठाढ़ भऽ गेल रहए। मन घोर-घोर हुअए लगलै। अचेत जकाँ सुनयना कुरसीपर ओंगठि सोचए लागलि। सोचैत-विचारैत अंतमे ऐ प्रश्नपर आबि अॅटकि गेलि जे किताबक भाँज लगा कऽ पढ़ी। मुदा किताब भेटत कत्तऽ। फेर मन एलै जे किताब लिखनिहारे लग पहुँचि किताबक भाँज लगाबी। पत्रिका निकालि लेखकक पता पुरजीपर लिखलक।
दोसर दिन सुनयना मंगलक भाँज लगबै बिदा भेल। नओ बजेक समए। भिनसुरका गहिकीकेँ सम्हारि मंगल केतली, टोपिया, ससपेन, गिलास इत्यादि बरतन दोकानक आगूमे रखि, चुल्हिसँ छाउर निकालि चुल्हि निपैत। सुनयना चाहक दोकानपर ऐ दुआरे पहुँचल जे ऐठामसँ सौंसे गामक लोकक भाँज लगि सकैए। दोकानपर पहुँचि मंगलकेँ पुछलक- “ऐ गाममे मंगल नामक एक व्यक्ति छथि, हुनकर घर बता दिअ।
अपन नाम सुनि मंगल चौंकि गेल। मुदा चुप्पे रहल। जेना मने-मन गाममे मंगलकेँ तकैत रहए। सुनयनो सएह बुझलक। कनी काल गुम्म रहि बाजल- “बहि‍न जी, अगर मंगल ऐ गाममे हएत तँ जरुर भाँज लगा देब। मुदा अखन हमरा ऐठाम आएल छी, तेँ बिनु खेने-पीने केना जाएब? ई तँ मिथिला छिऐ। जहिना घरवारीक लेल स्वागत करब अनिवार्य अछि तहिना तँ अतिथियो लेल।
मंगलक बात सुनि सुनयनाक मनमे जेना पियासलकेँ शीतल पानि भेटि जाइत, तहिना भेल। बाँसक फट्ठाक बनौल बेंचपर सुनयना बैसि गेलि। हाथ धोए मंगल सस्पेन अखारि, चुल्हि पजारि चाह बनबए लगल। ब्रेंच परसँ उठि सुनयना चुल्हि लग जाए चाहलक आकि कुर्तीक निचला कोन फट्टीमे फँसि गेलै, जइसँ फटि गेलै। मुदा तेकर चिन्ता नहि कऽ सुनयना मंगल लग बैसि गेल। लगमे सुनयनाकेँ बैसैत देखि पुछलक- “मंगलसँ कोन काज अछि?”
सुनयना- “मंगल साहित्यकार छथि। हुनकर लिखल एकटा उपन्यास “मरल गामछन्‍हि‍। ओइ पोथीक भाँज हम बजारमे लगेलौं मुदा कतौ नहि भेटल। तेँ लिखिनिहारेक भाँज लगबए एलौं।
सुनयनाक बात सुनि मंगल नमहर साँस छोड़ि बाजल- “मंगलकेँ अहाँ केना जनैत छी?”
सुनयना- “हुनकर लिखल कथा हम “भारत जागरणमे पढ़ैत छी ओइमे “मरल गामउपन्यासक चरचा देखलिऐक। जेकरा पढ़ैक इच्छा मनमे भेल। तेँ एलौंहेँ।
मंगल बूझि गेल। खुशीसँ मन ओलरि गेलै। मनमे अएलै जे पियासलकेँ पानि देब ओहने आवश्यक होइत अछि जेना भूखलकेँ अन्न। मुदा हमरा तँ एक्के काॅपी अछि जे लिखने छी। जँ ई काॅपी दऽ देबै तँ अपन साल भरिक मेहनत चलि जाएत। मुदा नहि देब तँ आरो महापाप हएत। फेर मनमे अएलै जे अपना ऐठाम पढ़ैले दऽ दियै आ कहि दियै जे जहिया हमर दिन-दुनियाँ घुरत तहिया छपाएब। छपेलाक उपरान्त अहाँकेँ देब। ताबे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ।
तइ बीच चाह बनल। दुनू गोटे पीलक। चाह पीबि सुनयना बाजलि- “मंगलक भाँज लगा दिअ।
विस्मित भऽ मंगल बाजल- “हमरे नाम मंगल छी। हमहीं उपन्यास लिखने छी। मुदा छपाओल नहि अछि। सिर्फ लिखलेहे टा अछि। तेँ हम आग्रह करब जे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ। जहिया छपाएब तहिया अहाँकेँ एक काॅपी जरुर देब।
मंगलक बात सुनि सुनयना अचंभित भऽ गेलि। पएरसँ माथ धरि मंगलकेँ निङहारए लागलि। आगिक धुँआ, चुल्हिक कारीखसँ मंगल बेदरंग भेल। देहक वस्त्र परसौतीक वस्त्र जकाँ, सौंसे देहसँ गरीबी झक-झक करैत। मंगलक बगए देखि सुनयनाक आँखि नोरा गेलै। नोर पोछैत सुनयना बाजलि- “ऐठाम रहि कऽ हम उपन्यास नहि पढ़ि सकब। किएक तँ कोनो पोथी पढ़ैक मतलब होइत अछि जे ओइ पोथीक विषए-वस्तुकेँ नीक जकाँ बुझब। से धड़-फड़मे केना संभव अछि?”
सुनयनाक विचारमे गंभीरता देखि मने-मन मंगल सोचए लगल। आत्माक उत्साह बढ़ए लगलै। सुनयना दिस तकलक। सुनयनाक आँखिमे पढ़ैक भूख जोर पकड़ने देखलक। मनमे एलै जे हमहूँ तँ अनके लेल लिखने छी। तखन छपौलासँ हजारो हाथ जेतै मुदा अखन तँ एक्के हाथ जा रहल अछि। मनमे सबुर अएलै जे कमसँ कम एक्कोटा पढ़निहारक हाथ तँ जाएत। तइ बीच सुनयना बाजलि- “जहिना हम काॅपी ऐठामसँ लऽ जाएब तहिना पढ़लाक बाद घुमा देब। तेँ पोथी हरेबाक कोनो संभावने नै अछि। ऐठाम रहि पढ़ैमे हमरो लाचारी अछि। लाचारी ई अछि जे भरि दिन तँ हम कतौ रहि सकै छी मुदा सूर्यास्तक बाद घर पहुँचब जरुरी अछि।
मंगलक विचारमे कने सि‍नेह एलैै। बाजल- “बड़बढ़ियाँ, हम अहाँकेँ पोथी दऽ दै छी। आगूक बात अहाँ जानी।
हाथमे पोथी अबिते सुनयनाक मनमे खुशी अएलै। एक टकसँ पोथी देखि मंगल दिस ताकि मुस्किया देलक। मने-मन मंगल सुनयनाकेँ पढैत आ सुनयना मंगलकेँ। सुनयना हँसैत बिदा भऽ गेलि।
सुनयना एम.ए. नीक जकाँ पास केलक। नारी अधिकारक सर्मथक वकील साहेब। मुदा मन ओतए ओझरा जानि‍ जेतए देखथि जे नारी सिर्फ एक्के-आध बिन्दुपर नहि, जीवनक सभ क्षेत्रमे जकड़ल अछि। जेकरा मेटाएब धिया-पुताक खेल नहि। कठिन संघर्षसँ हएत। कतौ वैचारिक संघर्ष करै पड़त तँ कतौ बलक। ऐ विचारमे वकील साहब कुरसीपर बैसि सोचैत रहथि। साँझक समए। पत्नी चाह बनौने एेलखि‍न। टेबुलपर चाह राखि, बगलक खाली कुरसीपर बैसि कहलखि‍न- “अपना सबहक पढ़ल-लिखल समाजक परिवारमे सुनयना अछि तेँ ने मुदा जँ एहेन बेटी किसानक घरमे रहतै तँ लोक ओकरा एना उन्मुक्त रहए दैतै!चाहक चुसकी लैत वकील साहेब पुछलखिन- “अहाँ की कहए चाहैत छी, कने खोलि कऽ बाजू।
“सुनयनाक बिआह कऽ लिअ। तखन तँ मनोज रहत की ने ओ तँ बेटा धन छी। बेटा-बेटीक बिआह करब माए-बापक अनिवार्य कर्तव्य छी। मुदा हमरा मनमे एकटा नव विचार अछि। ओ ई जे सुनयनाकेँ सेहो पूछि लिऐ।
सुनयनासँ पूछैक बात सुनि पत्नी ढोढ़ साँप जकाँ हनहनाइत बाजलि- “लोक की कहत? आइ धरि केकरा देखलिऐ जे माए-बाप बेटा-बेटीसँ पूछि कऽ बिआह करैत अछि।
पत्नीक विचार सुनि वकील साहेब मने-मन सोचए लगलाह जे नारीकेँ मात्र पुरुखे नहि नारियो दाबि कऽ रखै चाहैत अछि। अजीब घेरा-बंदीमे नारी फँसल अछि। मुदा अपन विचारकेँ मनेमे राखि सुनयनाकेँ सोर पाड़लखिन। अपना कोठरीसँ निकलि सुनयना आएल। कुरसीपर बैसलि। सुनयना माए दिस देखए लागल। तामसे माए पति दिस देखैत। वकील साहेब सुनयनाकेँ कहलखि‍न- “बाउ, आब तूँ एम.ए. पास कइये लेलह। माए-बापक दायित्व होइत छैक बेटा-बेटीक बिआह करब। तेँ हमहूँ अपन भार उतारए चाहै छी। तोरो किछु बजैक छह।
पिताक बात सुनि सुनयनाक देहमे कँप-कँपी आबि गेलै। मनमे थोड़े ओज। मुदा असथिरसँ बाजलि- “बाबूजी, बि‍आह तँ सभ पुरुष-नारीक लेल अनिवार्य प्रक्रिया छिऐ। जइसँ सृष्टिक विकास प्रक्रियामे सहयोग होइ छै। रहल बात जे बि‍आह केहेन होअए। अखन जे देखि रहल छी ओ नब्बे-पनचानबे प्रतिशत अनमेल बिआह होइत अछि। कतौ धनक मिलानीसँ तँ कतौ दहेजक चलैत, कतौ कुल-मूलक चलैत तँ कतौ किछु। मुदा हमरा विचारसँ बिआह हेबाक चाही मनक मिलानीसँ। जे टिकाउएटा नहि आनन्दमय सेहो हएत।
सुनयनाक बात सुनि माए उत्तेजित होइत बाजलि- “बेटी, हमरा सबहक मिथिलाक परम्परा रहल अछि जे ई बि‍आह काज माए-बापक विचारसँ होइ नै की बेटा-बेटीक विचारे। किन्तु जँ बेटा-बेटीक विचारसँ बिआह हएत तँ समाज ढनमना जाएत।
सुनयना बाजलि- “बड़ सुन्नर बात कहलीही माए मुदा परम्पराक भीतर जे दुरगुण छैक ओहूपर नजरि देमए पड़तौ।
मुँहपर हाथ देने वकील सहाएब चुप-चाप सुनैत रहथि। सुनयनाक तर्कक आगू माए कमजोर पड़ैत गेलीह। मुदा तैयो चुप होइले तैयारे नहि छलीह। सामंजस्य करैत वकील सैहेब सुनयनाकेँ कहलखिन- “बाउ, तूँ अप्पन विचार दएह?”
सुनयना बाजलि- “अहाँ खर्च कत्ते करए चाहै छी बाबूजी?”
खर्चक नाम सुनि वकील सहाएब चौंकि गेलाह। मुदा अपनाकेँ स्थिर राखि कहलखिन- “बाउ, अप्पन की ओकाइत अछि से तोहूँ जनिते छह। मुदा जे ओकाइत अछि ओइमे हम कंजूसी नै करबह। दू भाए-बहि‍न छह। ई सम्पत्ति तँ तोरे सबहक छिअह।
सुनयना बाजलि- “बाबूजी, मनुक्ख देहे आ धने पैघ नहि होइए, पैघ होइए ज्ञान आ कर्तव्ये। सभ स्त्री चाहैए जे हमर जीवन-संगी बुधियार आ कर्मठ हुअए। अखन हम अहाँकेँ अंतिम निर्णए नहि दऽ रहल छी मुदा एते जरुर कहब जे सोनपुरमे मंगल नामक एकटा चाहक दोकानदार अछि। ओकरा कियो ने छै। मुदा ओकर जे काज आ बुधि‍ छैक ओ ओकरा एक दिन महान साहित्यकारक रूपमे दुनियाँक बीच अनतै। अखन ओकरा गरीबी जरजर बनौने छै। गरीबीक जालमे ओ एना ओझरा गेल अछि जइसँ निकलब कठिन छैक। किन्तु जँ ओकरा ओइ गरीबीक जालसँ निकालल जाए तँ ओ जरुर उगैत सूर्य जकाँ अकासमे चमकए लगत।
वकील सहाएब कहलखिन- “बाउ, यदि तूँ हृदएसँ ओकरा चाहैत छह तँ हमरा दिससँ कोनो आपत्ति नहि। मुदा अखन समए रहैत विचारि लैह।
सुनयना बाजलि- “अनेक विषमता रहितो हमरा दुनू गोटेक बीच आत्माक समता अछि। हमहूँ नारीक संबंधमे किछु लिखए चाहै छी। किएक तँ अपना ऐठाम नारीक प्रति जे अदौसँ अखन धरि अन्याय होइत रहल अछि ओ हमरा हृदएकेँ दलमलित कऽ देने अछि। दुनियाँक सुन्दरसँ सुन्दर वस्तु हमरा फीका लगि रहल अछि।
वकील सहाएब कहलखिन- “बाउ, हम तोहर विचारकेँ मानि लेलियह। तूँ अपनेसँ जा कऽ देखि आबह जे कते मदतिसँ ओ मंगल उठि कऽ ठाढ़ हएत। हम ओते मदति कऽ देबै।
पिताक विचार सुनि सुनयना हँसैत अपना कोठरी दिस बिदा भेल। सुनयनाक विचारपर वकील सहाएब मने-मन गौर करए लगलथि। मुदा पत्नीक मनक तामस आरो बढ़िते गेलनि।

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