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Saturday, August 31, 2019

के मानत? (कथाकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डल)


के मानत?
भिनसुरका समय। चाह पीब विचारिये रहल छेलौं जे आइ कोन-कोन हलतलबी काज अछि। पहिने तेकरा पतिआनी लगा मनमे सहिआइर ली, पछाइत जे हएत से हएत। तइ बिच्चेमे पत्नी चारू-पाँचू बेटा-बेटीकेँ फुसला कऽ पनिया लेलैन आ टुसि देलखिन जे आइ शुक्र दिन छी जे तीनू बेरागनमे सभसँ नमहरो आ नीको अछिए, माने शुभ दिन अछि। तँए अदरा पाबैन कइये लेब।
अखाढ़ मास आर्द्रा नक्षत्रक समय, तँए एक पनरहिया अदरा पाबैन चलबे करत। भलेँ पियासल धरती पाइनिक अभावमे अपना देहसँ लू पैदा करैपर किए ने बीर्तमान हुअए...।
एक मुहेँ चारू-पाँचो धिया-पुता बाजल-
बाबू, आइ अदरा पाबैन हएत से आमक ओरियान करू।
धिया-पुताक बात सुनि मन मनाही करैत विचार देलक जे माइयक समदिया पाँचू छी, तँए चोरकेँ नहि पकैड़ चोरक माइकेँ पकड़ब ने बुधियारी छी, मुदा ऐठाम तँ आगूमे पाँचो धिया-पुता आबि गेल अछि जे दुनू परानीक सझिया छी..!
ओना, भीतरे-भीतर तामस सेहो उठैत रहए आ खींस सेहो उठिते रहए। मुदा से तामस कखनो धिया-पुतापर उठए तँ कखनो पत्नीपर, तँ कखनो आम आ अदरा पाबैनपर...।
कहू! जे भगवान अपन काज करबे ने केलैन माने बरखा भेबे ने कएल जे जमीन आर्द्र होइत, आ तइ भगवानकेँ अदराक आम आ खीर खुएबैन से एहेन खाइबला मुँहकेँ चुल्हिक खोंरनीसँ किए ने खोंरनाठयैन।
ओना, धिया-पुता एक्के बेर बाजल से भरिसक अपने जे नइ किछु बजलौं तँए आकि की, से नहि बुझि पेलौं। भरिसक ओ सभ ऐ धोखामे पड़ि गेल जे बाबू जखन किछु ने बजला तखन ओ ओरियानक पाछू लगि जेता। अखन भिनसर भेबे कएल अछि, पाबैन कहुना-कहुना तँ दुपहरमे ने हएत।
बाजए किछु ने कियो मुदा रहल सभटा लगेमे ठाढ़। मनक जे खींस रहए ओ खिखिर जकाँ खेंखियाइत पत्नीपर जा अँटैक गेल। पत्नीक सीमान लग खींस पहुँचते आरो खिसिया उठल।
खिसिया ई उठल जे समाजक जे देखौंस करब ओ हमरा छजत? एते दिन संग-संग रहला पछातियो जे मनुख पतिक जीवनकेँ नहि परेख सकली ओहन मनुख पति धर्मक पालन की कए सकै छैथ..! ओ अखनो तक ई नहि देख रहली अछि जे डॉक्टरसँ ओझा (मंत्र-तंत्रबला) तक अपन एजेंसी पसाइर नेने अछि, ओ अखन तक एतबो नहि बुझि पेली अछि जे असलीसँ नकली आ नकलीसँ असलीक संग असली-नकली दुनू संग मीलि अपन महजाल पसाइर नेने अछि..! तैठाम जँ ओकरा सबहक जिनगीक संग अपन परिवारक जीवनकेँ लऽ जाए चाहब तँ पहिने अपन ओकातिक विचार सेहो ने कऽ लेब अछि।
ओना, भीतरे-भीतर मन आमक गाछी सभ दिस सेहो औनाइत रहए। किए तँ कोनो उपरारि गाम एहेन नइ अछि जइ गामक एक चौथाइसँ बेसी जमीनमे आमक खेती–गाछी-कलम–लगल अछि। सालमे एक बेर आम फड़ैए, जे भेल ओइ खेतक उपज, से एकोटा गामक गाछी-कलम ऐ साल एहेन नहि बँचल रहल जे फड़ल हुअए। साए रूपैये किलो बाहरी आम आबि-आबि गाम-घरमे बिकाइए।
जखने गाम-गामक गाछी-कलम नहि फड़ल तखने मनकेँ मना लेलौं जे ऐबेर एकोटा आम नइ खाएब। सालमे एक दिन जामुन खाइ छी से ऐबेर दू दिन खा लेब। आ जँ सम्भव हएत तँ ओकर आँठियो बीछ कऽ घर-वैद रखि लेब। बेरपर काज एबे करत। किए तँ सर्दी-खाँसी जकाँ डायविटीज सेहो अनिवार्ये जकाँ भइये गेल अछि।
तरे-तर पत्नीपर मन खींससँ अरखींस दिस सेहो बढ़ए लगल मुदा तेकरा रोकि-रोकि थतमारि कऽ जॉंति-जॉंति मनेमे रखने रही।
आगूमे धिया-पुता सभ ठाढ़ भेल मुँह दिस देखैत रहए।
मुहसँ जखन कोनो बकार नहि निकलैत रहए तखन पत्नी सोहरदे लगमे आबि बजली-
अधासँ बेसी अदरा नछतर बीत गेल, मुदा अखन तक पाबैन नहि भेल अछि तँए आइ पाबैन कइये लइतौं।
एक तँ ओहिना भीतरे-भीतर मन तामसे कोयला भेल जाइत रहए, तइ परसँ पत्नीक विचार आरो मनकेँ खोंचारि देलक। तामसे देह लहैरते रहए मुदा भिनसुरका समय रहने तामसकेँ पेटसँ नहि निकालि पेटेमे दबने रही। किए तँ मन ईहो कहैत रहए जे भिनसुरके मुहूर्त्तसँ ने दिन भरिक मुहूर्त्त चलैए। माने ई जे जखने भोरे-भोर मुहाँ-ठुठी करब तखने भरि दिन अहिना होइते रहत।
खिसिया कऽ दरबज्जापर सँ उठि पढ़ुआ काका ऐठाम मन बदलैले विदा भेलौं। मनक विचार बदलैले की जइतौं तँ मनक तामस मिझबैले आगू बढ़लौं।
दरबज्जापर बैसल पढ़ुआ काकाकेँ देखते प्रणाम नइ केलिऐन। किए तँ जहिना पढ़ुआ कक्काक मन विसाइन-विसाइन बुझि पड़ल तहिना घोघ सेहो लटकल देखलयैन।
भाय, प्रणामो-पाती तँ सम-गम स्थितिक विचारेमे ने नीक होइए, जँ कियो बेथित, चिन्तित वा दुखी होइथ तैकालक प्रणाम-पाती तँ व्यंग्य सेहो पैदा करैए जेकर माने विपरीतो दिशा दिस बढ़िते अछि।
मने-मन हँसियो लागए जे अन्हराकेँ अन्हारसँ भेँट भेल..! मुदा की करितौं, तँ जहिना मरण-हरणमे जिज्ञासु घरबैयाक संग धौना खसा चुप-चाप मुड़ी गोंति बैस जाइ छैथ तहिना हमहूँ पढ़ुआ कक्काक आगूमे धौना खसा बइस गेलौं।
विचारवान पढ़ुआ कक्काक मनमे बर्खाक बून जकाँ बुना-बुनी झहैरतो रहैन आ अपने पानिसँ उठि पानियेँमे फुटि-फुटि विलीन सेहो होइत रहैन। पाइनिक बुलबुला जहिना बर्खाक समय धरतीपर अपने जनमबो करैए आ फुटबो करैए तहिना पढ़ुआ कक्काक मनक विचारमे सेहो भरिसक होइत रहैन। बुलबुला चाहे झीसी-फुहीक मकैया वा जनेरैये किए ने हुअए आकि रबड़क बैलून जकाँ नम्हरे किए ने हुअए मुदा फुटैमे कियो-केकरो आशा थोड़े तकैए आकि अपने मुहेँ कहियौ आकि सौंसे धड़े कहियौ, फुटम-फुट भइये जाइए...।
कनियेँकालक पछाइत पढ़ुआ काका बजला-
बुझलहक गोकुल, देखले दिनमे इज्जत जा रहल अछि!”
पढ़ुआ कक्काक बात सुनि मन धड़फड़ा गेल। धड़फड़ाइते फुटल-
काका, अखन जाइयेपर अछि ने, गेल नइ ने अछि? सुइयाक नोकपर जेते जमीन चढ़ैए तेते जमीन ले तँ अठारह दिनक घमासान महाभारतक लड़ाइ भऽ गेल, अपनेक तँ इज्जतक प्रश्न अछि।
ओना, अपना जनैत विचारकेँ वेगबान बनबए चाहलौं मुदा होशगर नैया जकाँ जहिना बीच धारोमे अपन नाहक धारा बदैल लइए, तहिना पढ़ुआ काका अपन विचारकेँ बदलैत बजला-
बौआ, तोहर विचारपर पछाइत विचार करब, अखन अप्पन बात सुनेबह।
अखन तक जे मनमे पत्नीपर पीत लहरल छल ओ प्रीत बनि पिताशयमे पचि गेल। पढ़ुआ कक्काक मुहसँ निकललैन- अखन अपन बात सुनेबहसुनि केना कहितिऐन जे पहिने हमरे सुनू।
अखन तक जे प्रणाम करब पछुआ गेल छल तेकरा पुरबैत बजलौं-
काका, अपने तँ..!”
अपने तँपर धियान नहि अँटका पढ़आ काका बजला-
बौआ, की कहबह! इज्जत बाँचब कठिन भऽ गेल अछि। परुकाँखन बौआकेँ माने ओइ बेटाकेँ जे अमेरिकामे दस सालसँ रहि रहल अछि, आम खाइले आबए कहलयैन। छुट्टीक दुआरे नहि आबि सकला। ऐबेर फोन-पर-फोन अबैए जे आठम दिन गाम पहुँच रहल छी। ओइठाम कि अपना सभ जकाँ अछि जे जखन मन हुअए बैग लिअ आ विदा होउ। ओइठाम तँ लोक कमाइले जाइए तँए खटब छइहे।
की मनमे आबि गेल की नहि, से अखनो तक नहि बुझि पेलौं अछि, अनेरे हँसा गेल।
हमर हँसीकेँ हँसिया नहि बुझि पढ़ुआ काका की बुझलैन से तँ वएह जनता मुदा सौनक बदराएल मेघ जकाँ बजला-
बौआ, अरामसँ सुतैले अपना सबहक देश-दुनियाँ अछिए, तइले लोक अमेरिका किए जाएत। अखन एहेन स्थिति बनि गेल अछि जे जँ बौआकेँ नइ अबैले कहबैन तँ कहता जे दस बर्खपर दस दिन-ले ऐबेर आमक मासमे गर भेटल अछि, तहूमे अबैसँ बाबू मनाही करै छैथ। आ जँ अबैले कहबैन आ आम नइ देखता तँ अनेरे कहता जे पिताजियो सेहो ठकि लेलैन।
पढ़ुआ कक्काक बात सुनि मन मनाही केलक जे अनेरे अपन दुनू परानीक बीचक बात दुनियाँमे पसार करए चाहै छी आ दुनियाँक बात बुझैले छुटीए ने भेटैए। आब कि ओ जुग-जमाना रहल जे लोक दुनियाँकेँ घुमि-घुमि कऽ देखैले जाएत आकि दुनियाँकेँ मोबाइलमे समेटि पेंटक जेबीमे सदिकाल रखने रहैए। मुहकेँ बन्न केने रहलौं।
तैबीच पढ़ुआ कक्काक मनक पाशा जेना बदैल गेलैन तहिना बजला-
बौआ, अपना सभ जखन गाममे रहै छी, तँ गामे ने अपना सबहक देश-दुनियाँ सभ किछु भेल।
ओना, नीक जकाँ पढ़ुआ कक्काक विचार नहि बुझि पेलौं मुदा गाम जँ देश-दुनियाँ बनि जाए तँ केकरा अधला लगतै? अपनो नीके बुझि पड़ल! बजलौं-
उचिते किने..!”
बिनु लक्ष्य कएल गोला गाछपर फेकलासँ जहिना कोनो पाकल आम टुटि कऽ आगूमे खसिते मन उत्साहित होइए जे अर्जुन[i] सँ की हमर लक्ष्यवाण कमजोर अछि, तहिना मनमे भेल।
तैबीच गम्भीर होइत पढ़ुआ काका बजला-
बौआ, शरीर-ले पौष्टिक आहारो तँ जरूरीए अछि किने।
सह पबिते सहटैत बजलौं-
एकरा के काटत।
आरो गम्भीर होइत पढ़ुआ काका बजला-
सन्तुलित भोजनमे फलोक अनिवार्यता तँ अछिए किने?”
अनायासे मुहसँ निकैल गेल-
से तँ अछिए।
पढ़ुआ काका बजला-
आमो ने फल छीहे।
अपने बजा गेल-
अमृत फल छी, भलेँ सालक एके-डेढ़ मास किए ने भेटए मुदा एहेन मीठगर-सुअदगर आ रसगर आन कोन फल अछि।
जहिना चौबट्टीपर पूबसँ अबैत यात्री, पच्छिम दिसक रस्ता छोड़ि जँ दच्छिन मुहेँ विदा होइए वा उत्तरसँ अबैत यात्री मुड़ि कऽ पूब मुहेँ विदा होइए तहिना पढ़ुआ काका मुड़ैत बजला-
पाँच हजार लोक अपना गाममे अछि। बारह साए बीघा गामक रकबो अछिए। तइमे चारि साए बीघासँ ऊपर गाछिए-कलम ने अछि।
पढ़ुआ कक्काक बात पाँच हजार गामक जनसंख्यासुनि मन आगू सुनैसँ पछुआ गेल। किए तँ गाममे जे टोले-टोल लोक अछि मन तेमहर चलि गेल। तँए आगूक बात कान लग तक आबि ओहिना ठाढ़े रहल मुदा नहि सुनि पेलौं। बजा गेल-
काका, लोकेटा नइ अछि, ओही हिसाबसँ परिवारो अछि। तहूमे आब तँ सहजे सुतपुतिया भट्टा जकाँ घौंदा-घौंदे परिवारो फड़ए सेहो लगल अछि।
हमर बात पढ़ुआ काकाकेँ अधला नइ लगलैन। ओ भरिसक थाहि लेलैन जे चीनीक रसक बोरमे डुमल जिलेबी जहिना रसा जाइए तहिना गोकुल सेहो विचारक रसमे रसपूर्ण भऽ गेल अछि तँए एना बचकन बोल मुहसँ निकैल रहल छइ।
अजमा कऽ पढ़़आ काका आगू बजला-
बौआ, हमहीं-तूहीं ने गामक लोक होइक नाते गामक कर्त्ता-धर्त्ता सेहो भेलिऐ।
आगू बजैक क्रम पढ़ुआ काकाकेँ रहबे करैन मुदा वायु गुदगुदा कऽ पेटसँ निकैलते बजा गेल-
गामकेँ नीक बनाउ कि अधला बनाउ, गामक विधाता-ब्रह्म अपने सभ ने भेलिऐ।  
हमरा बाजबसँ भरिसक पढ़ुआ काका आँकि लेलैन जे जइ चीजक संग केकरो अपनत्व बढ़ै छै आ प्रेमपूर्ण ढंगसँ समर्पित होइत–बिसवास करैत–प्रेमपन जीवन बीतबए लगैए, तही आसक बाट-बटोही ने अपनो सभ भेलिऐ।
चीनीक बोरमे जहिना रस पीब जिलेबी रसभर बनैए तहिना पढ़ुआ काका सेहो रसाइत रसमे डुमल बात बजला-
बौआ, गामक जेते नीक जमीन अछि–माने बारहो मास उपज दइबला–तइमे अपना सभ फलक खेती, खास कऽ आमक गाछी-कलम, लगौने छी!”
बिच्चेमे बजा गेल-
हँ, से तँ लगौनहि छी!”
पढ़ुआ काका बजला-
चारि साए बीघासँ कम गाछी-कलम अपना गाममे नहियेँ हएत?”
पढ़ुआ काका की बाजए चाहै छला आ की बाजि देलैन तइ बीचमे पड़िते अकबका गेलौं, जइसँ नाटक खेलेनिहार लोक जकाँ एकाएक चेहराक भाव बदैल गेल, जे पढ़ुआ काका आँकि लेलैन।
अपन विचारक भाव बदलैत पढ़ुआ काका बजला-
बौआ गोकुल! गाम-गामक गाछी-कलम–आमक–मिला कऽ लाखो बीघाक खेती सालो भरिक मरा गेल आ हम अपनाकेँ दोबर होइक चेहरा ऐनामे देख रहल छी..!”
एक तँ पहिनहि पढ़ुआ कक्काक बात सुनि मन विधुआ गेले छल तैपर तेहेन आरो लदगर विचार लादि देलैन जे विधुर जकाँ आरो मन बिधुआ गेल
थोड़ेकाल धरि चुप रहि हारल-मारल बटोही जकाँ बजलौं-
से की काका?”
पढ़ुआ काका जेना निर्णायक दौड़मे पहुँच गेल छला तहिना बजला-
जइ फलक खेतीमे सइयो बीघा जमीन बरदाएल अछि तइ गामक लोककेँ उचितो आहार भरि फल-सेवन नइ हुअए ई केते उचित छी?”
मन अकछा गेले छल। बजलौं-
अहाँक बात के मानत?”
q शब्द संख्या : 1721, तिथि : 29 जून 2019


[i] महाभारतक अर्जुन माछक आँखि छेदनिहार

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