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Friday, May 31, 2019

काजक मोल_Jagdish Prasad Mandal_बेरमा, मधुबनी_सम्पादन एवम् संकलन- Umesh Mandal


काजक मोल
बैशाख मास। करीब चारि बजे बेरुपहरमे रामलोचन बससँ उतैर घर लग पहुँचले छला कि आगू दिससँ पढ़ुआ काकाकेँ अबैत देखलैन। घरक आगूक रस्तेपर रूकि अभिवादन करैत रामलोचन बजला-
गोड़ लगै छी, काका।
गोड़ लगै छी काकातेकर असिरवादी उत्तर पढ़ुआ काका देलखिन आकि अपन मनक अनुकूल देलखिन से पढ़ुआ काका जानैथ मुदा बजला यएह- काजक मोल ने ते गमबै छह!”
पढ़ुआ काकाकेँ जहिना समाजक लोक तहिना रामलोचन सेहो बुझिते छैन जे पढ़ुआ काका अपन मनक लोक छैथ तँए अपना ढंगक बोलियो-वाणी आ कामो-धाम छैन्हे। अपना मनक लोक पढ़ुआ काकाकेँ सभकियो ऐ दुआरे कहै छैन जे अपनो मुहेँ कतादिन बजला हेन जे शास्त्र-पुराण एकोटा झूठ नहि अछि, जीवन्त बातक विचार सभ केने अछि। जखन हमहींटा नहि संसारक सभ कियो बुझै छी जे जिनगी कखन खूस-दे चलि जाएत तेकर ठेकान नहि, माने भेल जे जिनगीकेँ नगदा-नगदी लेन-देन करैत चलू जइसँ मनमे शंके ने रहत जे जखन केकरो एक पाइ करजा लऽ कऽ नइ मरब तखन मुइला पछाइत जे नरकक मुँहपर कियो ढेका पकैड़ खिंचत जे तूँ कर्जखौक छह तँए तोरा नरकक बास हेतह!’ तेकरा हमहूँ ने मुहेँपर कहबै जे तूँ झूठ बजै छह, नरकक बासक कारणो ने देखेबह...।
पढ़ुआ काका अपन मन-मतलबक लोक छैथ, अपना विचारक अनुकूल बाजल छला। जिनगीक जे क्रिया अछि ओकरा ओ काजेक रूपमे बुझि काजे कहै छैथ। ओना, ऐठाम ईहो अछि जे जहिना काजक रूप अनन्त अछि तहिना काजक रंगो अनन्त अछिए। मुदा से बुझनिहारक लेल। पढ़ुआ काका जहिना पढ़ैक समय निर्धारित केने छैथ जे सरस्वतीक चालिमे पड़ि लक्ष्मीक चालि बिसरब नीक नहि, तँए शब्दक अभावक कारणे पढ़ुआ काका काजे-शब्दक प्रयोग केलैन। ओना, पढ़ुआ कक्काक नगदा-नगदी, माने वर्त्तमानक बीर्तमान जिनगीक मतलब यएह छैन जे ने केकरो पैछला किछु खेने छिऐ जे से बाँकी अछि आ ने ऐगला किछु खेबै जे सएह बॉंकी रहत। ऐठाम लेन-देनक माने खाली चीजे-वस्तुक लेन-देनटा नहि, विचारोक आदान-प्रदान अछि। जँ केकरो हमर किछु बात मनमे उपजल वा बॉंकी होइ से कहि दिअ आ हमरो जे बात केकरो कहैक अछि से हमहूँ ठाँहि-पठाँहि मुहेँपर कहबै। अनेरे जे मनक उपजल विचारक बात मनेमे गुमसड़ाएब से नीक नहि। ओना, कहि सकै छी जे सभ बात सभठाम बाजब उचितो नहि आ वर्जितो अछि, सेहो अपना जगहपर नीके अछि। मुदा ओकरो तँ ओ ने नीक जगह भेल जे जगहानुकूल होइ, मुदा जे जगहानुकूल नइ अछि ओ..? जेना, आम खाइ छी जइमे एकटा आँठी होइ छै आ कहि दिऐ जे लताममे बहुत बीआ होइ छै तँए सक्कत लगैए’, एहेन विचार जगहानुकूल नइ भेल, मुदा जँ आम खाइकाल आमक ऑंठीक चर्च करै छी तँ ओ अनुकूल भेबे कएल किने...।
अही तरहक विचारमे पढ़ुआ काकाकेँ बिसवासो छैन आ श्रद्धापूर्वक ओकरा निमाहबो करिते छैथ।
आजुक जेहेन परिवेश–पढ़ै-लिखैक–बनल जा रहल अछि ओ एहेन बनल जा रहल अछि जइसँ एक-दोसराक बीचक सम्बन्धक दूरी प्रतिकूल दिशानुमुख भेल जा रहल अछि। अपना ऐठामक जे वैचारिक धाराक धरातल रहल–ऐठाम वैचारिकक चर्च अछि तँए सोल्होअना बेवहारिक नहि मानल जा सकैत–अछि ओ एहेन रहल अछि जे एक-दोसराक सम्बन्धक दूरी अनुकूल दिशामे रहलो अछि आ अखनो अछिए। जँ से नइ अछि तँ किए गाम-समाजमे अखनो आनो-आनकेँ बाबा, दादी, काका, काकी, भैया, भौजी इत्यादि शब्दक प्रयोगो होइए आ किछु बेवहारिक सेहो अछिए। बेवहारिक रूपमे एक्के-दुइये नहि, प्राय: सभ-केँ-सभ मानवीय सम्बन्ध आ मानवीय विचारक बात बुझितो छैथ आ आनो-आनकेँ बुझैबतो छथिए, खाएर जे जेतए अछि से तेतए रहअ, ओइसँ पढ़ुआ काकाकेँ कोन मललब छैन।
तहीकाल हमहूँ ओही रस्ते पार करैत रही। एक दिस जहिना रामलोचनकेँ दहिना हाथमे बैग नेने ठकठकाएल ठाढ़ देखलयैन तहिना दोसर दिस पढ़ुआ काकाकेँ सेहो देखलयैन। किछु बुझैक विचारसँ मकमका कऽ अपनो ठाढ़ भेलौं। ओना, रामलोचनक विषयमे नीक जकाँ नहि बुझै छी, किए तँ ओ पटनामे पढ़ितो छैथ आ ओत्तै रहितो छैथ, मुदा पढ़ुआ काका तँ गाममे रहनिहार गामक लोक छैथ, तँए कखनो-ने-कखनो भेँटो भइये जाइ छैथ। तैसंग सोलहन्नी एकरंगा लोक सेहो छथिए तँए कोनो काजे वा विचारेकेँ तेना कटकटा कऽ पकड़ै छैथ जे निर्णय (फल) तक पहुँचा, हँ वा नहि’, ‘नीकवा अधलाक सीमा तक पहुँचाइये दइ छथिन...। तँए, रामलोचनकेँ किछु नहि कहि पढ़ुआ काकाकेँ कहलयैन-
काका, बड़ निचेन देखै छी?”
जेना बिढ़नी काटल लोक छटपटाइत रहैए तहिना पढ़ुआ काकाकेँ काजक छटपटी लगले रहै छैन, यएह सोचि बाजल छेलौं। जेकर जवाब दैत ओंघाएल जकाँ पढ़ुआ काका बजला-
निचेने छी! भाय जेकर दुनियाँ छिऐ, जइले ओ हाय-हाय करैए, लिअ अपन दुनियाँ! हमरा कोन मतलब अछि। खाली हाथ एलौं खाली हाथ जाएब।
पढ़ुआ कक्काक बातक कोनो भाँजे ने लगल जे की कहलयैन आ की कहला। मुदा से धॉंइ-दे बजितौं केना? ओकर तँ सूत्र अछि जे खाली पढ़ुआ काकाकेँ टोकलासँ भेट जाइए। ओ तँ अपने तेहेन टोकनगर लोक छैथ जे टोकैत-टोकैत रहड़िक बुट्टी जकाँ सिर धरि निकालि देता। टोकारा दैत बजलौं-
हँ काका, से की कोनो चोराएल बात कहै छिऐ।
ओना, पढ़ुआ कक्काक मन आजुक जे समाजिक सरोकार बनल जा रहल अछि, जेकर असर सोझा-सोझी जिनगीपर जे पड़ि रहल अछि जइसँ जिनगीक सभ किछु–सभ्यता संस्कृति–प्रभावित जे भेल जा रहल अछि तइ दिस रामलोचनक नजैर ढुकल वा नहि से जानए चाहै छला। जेकरा ओ काज शब्दक रूपमे प्रयोग केने रहैथ। ओना, हुनकर नजैर ओहू दिस छेलैन जे जिनगीक दू धाराक धारमे एक किनार–माने एक छोर–जँ श्रमहीनक अछि तँ दोसर किनारक छोर श्रमशीलक सेहो अछिए। अही बीच ने जिनगीक धार बहैए। तइ दिशामे रामलोचनक नजैर उठल अछि वा नहि...।
अपन मन बदलल। बदलल ई जे पढ़ुआ काका जखन सभ दिन भेँट होइते छैथ तखन बिनु भेँट भेनिहारकेँ कुशलो-छेम नहि पुछि, हिनकेसँ–माने पढ़ुए काकासँ–गप-सप्प करैत रही सेहो तँ नीक नहियेँ हएत। तँए, रामलोचन दिस उनैट कऽ बजलौं-
बौआ, अपन की हाल-चाल अछि?”
जहिना सबालो सबाल छी, तहिना जवाबो तँ जवाब छीहे। मोटो होइए आ मेही सेहो तँ होइते अछि। जहिना अपने बजलौं, तहिना रामलोचन बजला- सभ नीके अछि।
सभ नीके अछिसुनि अपन बकारे बन्न भऽ गेल। जखन सभ नीके अछि तखन अनेरे अधला विचार करबे ने नकारात्मक सोच भेल। एतबो परहेजी तँ अपनाकेँ बनाबी...। ओना, रामलोचन बाघक मुँहपर पड़ि गेल छला, किए तँ पढ़ुआ कक्काक काजक अर्थ रामलोचनकेँ शिकारि रहल छेलैन। शिकारि ई रहल छेलैन जे पढ़बकेँ कियो पढ़ब बुझै छैथ आ कियो अध्ययन बुझै छैथ इत्यादि-इत्यादि अनेको रूप रंगमे बुझै छैथ, मुदा तँए पढ़बकेँ काज बुझनिहार लोक नहि छैथ सेहो तँ नहियेँ कहल जा सकैए।
मुदा रच्छ रहल, पढ़ुआ काकाकेँ कोनो अगुताएल काज जनु मन पड़ि गेलैन, एकाएक आगू बढ़ैत रामलोचनकेँ पुछलखिन- बौआ, कहिया तक गाममे रहबह?”
रामलोचन- काका, एलौं ने अपना विचारे मुदा जाएब तँ अहीं सबहक विचारे ने।
अहीं सबहक विचारे जाएबसुनि पढ़ुआ कक्काक मन जेना झुकलैन। झुकिते हमरा दिस तकैत बजला- रमेश, सौंझुका चाह रामलोचने ऐठाम पीब।
खरङ्गाह लोक लगमे तँ खरङ्गाहे जकाँ ने बाजब नीक, तँए बजलौं- सौंझुका माने की? हम महींस दूहि लेब तेकर पछाइतिक समय देब।”
ठीक छैकहैत पढ़ुआ काका बजला- तोहीं हमरा संग करबह।
q शब्द संख्या : 1090, तिथि : 16 मार्च 2019

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