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Monday, October 31, 2016

केना जीब?‍ (कथाकार- जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

केना जीब?

सेवा निवृत्तिक सातम सालक सातम मास, सातम मासक सातम दिन, सात बजे साँझमे दू-जनियाँ सोफापर दुनू परानी प्रोफेसर शंकर कुमार ओंघराएल छला। दुनू बेकतीक मन खटाएल रहैन। दस बजेक करीब दिनेमे सुनने छला जे संगीक संगिनी चूल्हिक गैसक रिसावसँ झड़ैक अस्पतालक सीटपर चिकैर-चिकैर कानि रहल छैथ। सत्तैर बर्खक अवस्थामे संगी अपने दौग-धूप कऽ रहल छैथ‍! मुदा अस्पतालक डाक्टर, नर्स आ कम्पाउण्डरो जी-जानसँ रोगीकेँ बँचबै पाछू लगल छथिन! तेकर कारण अछि जे एक तँ पाइक कमी नहि, आ दोसर पहुँचो नीके छैन। संगिनीक घटनाकेँ सरस्वती लगसँ तँ नइ देखने छेली मुदा समाचारक रूपमे सुनने छेली। सुनिते करेज तेना दहैल गेलैन जे साँसक गतिसँ छातीक धुकधुकी बढ़लैन ओ असथिरे ने भऽ रहल छेलैन। जेना नस-नसमे भयक भूत समा गेलैन। अन्हारक वाण जकाँ चारू कातसँ मृत्‍युक तीर बेधए लगलैन। जहिना वैरागी रागसँ डरैत आ जोगी भोगसँ तहिना मृत्‍युक भयसँ सरस्‍वती डरए लगली।
पाँच साए एम.एल.बला ह्वि‍स्कीक बोतल प्रोफेसर शंकर कुमारकेँ बेअसर बुझि‍ पड़लैन। मनक चिन्ता रूपी तीर ह्वि‍स्कीक असरकेँ रस्तेमे रोकने छल। लग अबै ने दैन‍। कछ-मछ करैत शंकर पत्नीकेँ कहलखिन-
एकबेर चाह...।
सरस्वतीक मन चाह पीऐसँ सुरक्षित चूल्हि नै जराएब बुझैन। अपन अज्ञाक उल्लंघन होइत देख‍ शंकरक मन महुराए लगलैन। जहिना भोज्य-पदार्थक बरतनमे गिरगिट खसि महुरबैत तहिना। बेअसर सरस्‍वतीकेँ देख डेग भरि पाछू घुसैक शंकर मुस्की दैत दोहरा कऽ बजला-
चलू, हमहीं चाह बनाएब। कीचेनक तँ सभ किछु देखल नै अछि, खाली अहाँ देखा-देखा देब।
जिनगीक अन्‍तिम अवस्थामे पतिपर जीत‍ देख‍ ढेंग सन देहकेँ उठा सरस्‍वती कीचेन दिस बढ़ली।
चाह बना शंकर कीचेनेमे पीबए लगला। मुदा तैयो गप-सप्‍प करैक मन किनको ने होइन। मनक सोग नव विषयकेँ मनमे अबै ने दैन। जहिना घी नइ अरघनिहारकेँ थारीमे देख‍ते जीह ओकिऐ लगैत तहिना नव विचार अबि‍ते जी-मन पचपचाए लगैन। चाह पीब दुनू गोरे कोठरीमे आबि फेर सोफेपर पड़ि‍ रहला। गुम-सुम्‍म! जहिना साधक साधनामे लीन भऽ समाधिस्‍थ होइ छैथ‍‍ तहिना दुनू गोरे अपन-अपन विचारक दुनियाँमे औनाए लगला।
सरस्वतीक नजैर पाँच बर्खक अवस्थापर पहुँचलैन। की छेलए माए-बापक राज..! खेनाइ, खेलनाइ, पढ़नाइक संग पाबैनमे उपास केनाइ आ फूल तोड़ि पूजा केनाइ.., बस यएह छल जिनगी। मनमे सुख-दुखक जन्‍मो कहाँ भेल छल। सोहनगर वातावरणमे बि‍आह भेल। नैहरसँ सेवा करए नोकरनी आएल छल। सासुरो सम्पन्ने रहए। कथुक अभाव नहि। नोकरे पानियोँ भरै छल आ भानसो करै छल। अपनो प्रोफेसरे छला। पाइक संग प्रतिष्ठो बनौने छला। विद्यार्थीसँ शिक्षक धरिक बीच सम्मानित छला। अपनासँ बीसे बेटोक पढ़ैपर खर्च केलैन। आब जे महगाइ शिक्षामे आबि गेल अछि तइसँ इमानदार कमेनिहारक धि‍या-पुता-ले शि‍क्षा असंभव भऽ गेल अछि। दरमाहासँ तँ नहियेँ मुदा पिताक देल सम्‍पैतसँ एते जरूर केलैन। अमेरिकामे बेटाकेँ पढ़ा लिलसा मेटौलैन। मुदा अखन की देखै छी? ऐ अवस्थामे दिन-राति तीन मंजिलापर उतरब-चढ़ब पार लगत? ओहि‍ना तँ हाथ-पएर बिनबिनाइत रहैए। देह भारी बुझि‍ पड़ैए। तैपर परिवारक सभ काज! ऐ उमेरमे बुढ़-कनियाँ बनि जीब रहल छी। ..तरे-तर सरस्‍वतीक देहसँ पसेना चलए लगलैन। अनासुरती मुहसँ निकललैन-  
ऐ जीवनसँ मरब नीक।
पत्नीक बात सुनि शंकर कुमारक भक्क टुटलैन। अखन धरि चेतनाहीन भेल शंकरो अपन पैछला जिनगी देखै छला। गामक स्कूल...। केते सिनेहसँ पिताजी घरक देवताकेँ गोड़ लगा, कन्हापर चढ़ा सरस्वती माताक जयकहि‍ आँगनसँ निकैल सरस्वतीक मन्‍दिरमे लऽ गेल छला। की हम ओइ‍सँ  कम अपना बेटाकेँ केलौं? कथमपि नहि। डेरामे गाड़ल देवता तँ नइ अछि मुदा देबालमे टाँगल फोटो आ अष्टद्रव्यक बनौल मुरती तँ ऐछे। बाड़ीक वसन्ती गुलाब तँ नहि, मुदा मह-मह करैत भकराड़ रूपमे बनल प्लास्टिकक फूल तँ चढ़ौनहि छिऐन। धुमन-सररक धूपक बदला गुगुल आ अगरबत्ती तँ चढ़ैबते छिऐन। मोटर-साइकिलपर चढ़ा शहरक सभसँ नीक विद्यालयमे पढ़ेबे केलिऐन। पिताजी जेतेक हमरा पढ़ौलैन आ एक सीमा धरि पहुँचा देलैन, तहिना तँ हमहूँ केलिऐन। नोकरी भेलापर ताधैर पत्नी गाममे रहली जाधैर‍ बाबू-माए जीबैत रहला। मरि‍तोकाल धरि माए संगे खाइले कहैथ। संगे तँ नहि खाइ, मुदा एकठीम बैस कऽ जरूर खाइ। मुदा बेटाकेँ जहिए-सँ कनभेन्‍टमे नाओं लिखेलौं तहिए-सँ एके शहरमे रहनौं फुट-फुट रहए लगलौं! समैक संग शिक्षो बदलल। ..एकाएक शंकरक नजैर आगू बढ़ि अपन जिनगीक अवस्थापर पड़लैन। चारिम अवस्था। जइ अवस्थामे सभ कथूसँ सम्पन्न भऽ अभावकेँ निर्मूल-नष्ट कऽ परिवारसँ ऊपर उठि समाजमे मि‍लि‍ जाएब होइ छइ। हमर समाज केहेन? जइ समाजमे मनुखक संग-संग जीव-जन्तु, माटि-पानि, घर-दुआर धरि एक-दोसरकेँ नीक-अधला, सुख-दुखमे संग दैत अछि। जैठाम एकठीम बैस सभ भोज-काजमे खेबो करैए, दसगरदा उत्सवो हँसी-खुशीसँ मनबैए, ढोल-डम्फापर होरी गाबि-गाबि नचबो करैए, जुड़शीतलमे इनार-पोखैर उड़ाहबो करैए, शिव-पार्वती बना बजाक संग गामो घुमैए...।  
बेटाकेँ अमेरिकामे पढ़ेलौं। ओ ओइ‍ समाज आ संस्कृतिमे तेना मि‍लि‍ गेल जे अपन सभटा बिसैर गेल। आइ जँ हम अमेरिका जा रहए लगी तँ ओइ‍ठामक जिनगी दुनू बेकतीकेँ केतेक दिन जीबए देत? की दुनियाँमे मृत्‍यु छोड़ि हमरा-ले सभ-ले किछु शेष नै बँचल अछि! निराश मनमे एलैन करनी देखिहह मरनी बेर।जिनगीमे केतए चूक भेल? जँ चूक नइ भेल तँ ऐ अवस्थामे पहुँच‍ केना गेल छी?  
पत्नीक बात ऐ जीवनसँ मरब नीकसुनि धड़फड़ा कऽ उठि प्रोफेसर शंकर कुमार बजला-
अखन सुतैबेर अछि जे सुति रहलौं?”
सूतल कहाँ छी। भानस करैसँ मन असकताइत अछि।
तँ की भुखले रहब?”
शंकर कुमार बाजि तँ गेला मुदा मन पाछू घुमि‍ कऽ तकलकैन। एक तँ ओहिना मरैक बाट धेने छी, तहूमे जे दस-बीस बरख जीबो करितौं से तेहेन रोग भेल जाइ छैन जे भुखले मरब। जँ खाएब नइ तँ रातिमे नीन केना हएत? जँ नीन नइ हएत तँ जीब केतेक दिन?
पत्नी-
केता-दिन कहलौं जे नोकर रखि लिअ?”
नोकर सुनि शंकर अमती काँटक ओझरीमे पड़ि गेला। देखैमे नान्हि-नान्हिटा मुदा छाँह जकाँ छोड़ैले तैयार नहि। मनमे जोर मारलकैन जे अपने जिनगी भरि नोकरी केलौं। बेटो-पुतोहु–दुनू इंजीनियर–अनके नोकरी करैए आ अपने नोकर रक्खू। जहन ड्यूटी करै छेलौं, बेसी तलब उठबै छेलौं तहन नोकरे ने रखलौं। कारणो छल जे पत्नी थेहगर छेली आ बेटो-पुतोहुक आशा छल। सरस्‍वती थोड़े बुझै छेली जे बुढ़ाड़ी एहेन हएत। आइ-काल्हि नोकर केते महग भऽ गेल अछि से थोड़े बुझै छैथ। तकलीफ हेतैन तँ बजबे करती। भलेँ हमरा बुते पुरौल हुअए वा नहि। पहिले जकाँ पाँच-रूपैआ-दस-रूपैआमे नोकर भेटत? तहूमे बाल-बोधकेँ थोड़े रखि सकै छी। अनेरे लेनी-के-देनी पड़त। घरक सुख जहलमे भेटत। जँ सिआन राखब तँ तीन हजारसँ कम लेत? तहूमे कि कोनो स्कूल-कौलेज आकि मि‍ल-फैक्टरीक नोकरी हेतइ। घरमे काज करत तँ खाइले नै देबै से हएत? तहूमे नीक-निकुत बेसी वएह खाएत। तेहेन समए आबि गेल जे कहीं सम्‍पैते ने दुनू बेकतीक जानो लऽ लिअए! ..जानपर नजैर पड़िते शंकरक आँखि ढबढबाए लगलैन। जाने नइ तँ जहान की? ..जहिना वीणाक तार टुटलापर अवाज खनखना कऽ निकलै छै तहिना टुटल जिनगीक स्वरमे शंकर कुमार सरस्‍वतीकेँ कहलखिन-
अहाँक मन असकताइत अछि तँ पड़ू। कहुना-कहुना कऽ क्षुधा तृप्त करै-जोकर अपनेसँ टभका लइ छी।  
मने-मन सरस्वती बजली-  
केना जीब?”
¦¦
शब्‍द संख्‍या : 1039 
अर्द्धांगिनी लधु कथा संग्रहक दोसर संस्‍करणसँ साभार...।

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