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Monday, February 15, 2016

बाबाक लोटा कथाकार- ललन कुमार कामत

ललन कुमार कामतजीक एकटा लघु कथा-
बाबाक लोटा
जेठक दुपहरियाक समए, टहटहाएत रौद, उपर ताकैते ऑंखि चोन्‍हराइत रहिन। कछुआ बाबा दलानपर काठक खुर्शिपर बैसल छथिन्‍ह आ गामक उफॉंइट नबतुरिया सभकेँ बिखनि-बिखनिक गारि पैर रहल छ‍िथन्‍ह। गामक दु-चारिटा छौड़ोसभ मारिते बदमाश छेलैन, कछुआबाबाकेँ देखैते इत्‍यादि तरहक अमर्यादित बात बाइज ‘झामलाल-बुड़बा घाम किए चुबैछ?’, ‘बाबा झल कटेलहक?’, ‘बाबा ढे़का खसलऽ, ढेका खोंसऽ’, ‘चेशमामे भुड़ छै।’ इत्‍यादि तरहक बातसँ कछुआबाबाकेँ पिनकाबैत रहैए आ माजा लुटैत रहैए। मजाकक पात्र बनि, कछुआेबाबा, अकट-बकट बाजैत रहै छथिन्‍ह।
कछुआबाबाक नअ बर्खक पोता, बिरखा सेहो वएह संगतक रिझल-खिझल शैतानक जरि रहिन, बाबाक फुलही लोटामे आगि भरिकेँ अंगनाक ओसाि‍रपर बैस स्‍कूलक पोसाकमे आइरन करि रहल छल, ताहि समए कछुआबाबाकेँ जोरसँ मैदान लागि गेल। कछुआबाबाक ऑंख कमजोर रहिन, अपन झलफलाइत नजैरसँ लोटा तकैत दुआरि परसँ ऑंगन एलनि, चारू दिशा नजरि घुमेलखिन मुदा कतौ लोटापर नजरि नै पड़ल। कछुआबाबाक आदैत छेलनि अपन जरूरीक चीज-बीत अपने संग राखैक, मुदा बिरखाक शैतानीसँ अवगत छेलैन, हिनका बुझना गेल जे बिरखे हुनक चीत-बीतमे हाथ लगाबैत अछि। घुरि-फिरकेँ बाबाक नजरि बिरखापर अटकल, जे कछुआबाबाक लोटामे आगि भरिकेँ कपराक आइरन करैत रहिन। बाबा चिकैरकेँ पुछलखिन-
“के छी बिरखाऽऽ? एऽइह बाजे किए नै छै, छिनरीक सॉंए, मँुहक मालगुजारी लागैछौ?”
बिरखा उचैककेँ बाजल-
“की भेलऽ हौ? देखै नै छहक, काम करैछी? सदिखन बड़-बड़, चड़-चड़ करैत रहैत अछि।”
कछुआबाबा-
“ऊँऽ हँ! बोलीमे तेना एकोरति लैशे नै अछि। पुछै छियौ हमर लोटा देखलीहीं केतौ?”
बिरखा लोटा परसँ हाथ ढ़ील्‍ला करैत बाजल-
“कोए तोहर लोटा खेने नै जाइ छऽ। रूकि जा कनीए कला भऽ गेलै।”
खिसियाएल कछुआबाबा छड़ी उपर तानि जोड़सँ बाजलखिन-
“देखै छिही ठेंगा, ठॉंएसिन माथपर बजारि देबो? सब खेल-बेल तोहर बाहर करि देबो। हमरा पेखाना जोड़सँ लागल अछि आ तूँ मजाक करै छी?”
बिरखाक पोसाकक आइरन पुरा नै भेल रहिन मुदा इहो बुझैत रहिन जे आब लोटा नै देब तँ मारि खाए परत। बिरखा अपन अंगाक आइरन केनाइ छाेरि, भरल लोटा आगि बाबाक हाथमे धराए देलक।
“लाए, तोहर प्राण किए छुटल जाए छऽ?”
एक दिश जेठक तपैत गर्मी, तैपरसँ आगिसँ भरल लोटा, बाबाक हाथमे परैते सटसीन बैस गेल। कछुआबाबा जोरसँ हाथ झमारैत लोटा फेकलखिन, आ धुँसि सीन जमीनपर खसल, छरपटाए लागल। कछुआबाबाक चेशमा हाइ पाबरक रहिन सेहो ऑंखिसँ फेका गेल आ दू टुकरी भऽ गेल।
पाकल हाथक लहैर आ तमशएल मन, कछुआबाबा छड़ी उठा दौरल बारैले, मुदा बिरखा माथपर पैर लेने नऽ दू एगारह भऽ गेल। कछुआबाबा घोलाइत रहल। कनीए समेक पछाति बाबाक मन हलुक भेल, तब मैदान कैर एलनि, हाथ-मुँह धोए, दलानक नींचा दरबज्‍जापर छहारिमे बैसल रहिन। तखैने घुटरा, मनुआ आ मखना आएल आ कछुआबाबाक मजाक उड़ाबे लागल...
घुटरा- “चेश्‍मा कि भेलह बाबा हौ?”
कछुआबाबा-
“चेश्‍माकेँ खेलकै हँ बिरखा, ई छौरा हमरा जिए नै देत! सभ पराणी मारैमे लागल अछि।”
मनुआ- “बाबा, धोतीमे कि लागल छऽ हौ? खोखना बाजैत रहै, जे  कछुआबाबा कपड़े-बस्‍त्रमे पैखाना कऽ देलकै!”
ई बात सुनैते मातैर कछुआबाबा तमताए उठल आ माइए-बहिने उकटे लागल। इहो चारूगाोटे इएह चाहैत रहिन जे बुढबा गैर दिए आ सभगोटे माजा लुटी। तखैने मखनाकेँ एकटा अटपटाएल बात फुराएल आ कछुआबाबाक पछारि जाएकेँ जोड़सँ बाजल-
“भागऽ बाबा भागऽ, पाछामे नेंगड़ा सड़हा आबि रहल छ!”
घुटरा, मनुआ सेहो हँ मे हँ मिलाबैत बाइज उठल-
“हँ हौ बाबा भागऽ, फैर हेऽ हुरर्रऽ हुरर्रऽ हे!”
कछुआबाबाकेँ बुझना गेल साइत ठीके सढहा आइब गेल, हाथमे लोटा उठेलक आ भॉंजे लागल। कछुआबाबा- “तुहेसभ सढहाकेँ रेबाने एलँ कतौ सँ। फैर हेऽ भागले कि नै? हुल्‍लेऽ... हुल्‍लेऽ...”
मखना कछुआबाबाक पछा जाएकेँ जोड़सँ चिकैर बाजल-
“बाबा तोरे पाछारिमे छऽ हौ! भागऽ नऽ!”
कछुआबाबा पछा उलटिकेँ फुलहीक लोटा जोड़सँ फेकलक... लोटा सिधा मखनाक मँुहपर जाए थप्‍पसिन लागल, धुस्‍सऽ सिन मखना जमीनपर खसल आ तिलमिलाए लागल। मखनाकेँ ऑंखिक आगु अन्‍हार भऽ गेल आ अधरातिक तारा देखाए लागल। गामक आरो किछु लोकसभ जमा भेल अा बाजे लागल-

“नीके भेलौ तोरा सभक संग। जे किओ बुढ-पुरानसँ मसखड़ी करत तकरा मजाकमे एहने सुजाक हेबक चाही।”

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