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Monday, January 18, 2016

एते दिन अपना-ले आब अनका-ले

एते दिन अपना-ले आब अनका-ले
पहिल पृष्‍ठ-
सात सालक पछाइत परदेशसँ गाम एलौं। सेहो ओहिना नइ एलौं, अमेरिकामे एकटा संगी रहै छैथ, वएह अपन बेटाक उपनैन करता, ओही निमंत्रणमे एलौं। ओना बेटाक जन्‍म भेलैन, जइसँ ओ ओतुका जन्‍मगत नागरिक भऽ गेल, मुदा बाप-दादाक देल सुकृत्‍यो आ विचारो सोल्‍होअना मरि गेल सेहो तँ नहियेँ कहल जा सकैए, ओहो तँ जीवित ऐछे। ओना मनमे एहेन बात उठि गेल रहए जे जैठाम बच्‍चाक जन्‍म हुअए, नागरिक जीवनक अधिकार भेट जाए तैठामक जँ संस्‍कार-संस्‍कृति भेटत तँ ओ अनुकूलता पेब अधिक पुष्‍पित-फलित हएत। मुदा अनेरे मनकेँ खींच-तानसँ परहेज केलौं आ बीस बर्खक विद्यालयक संगीक बेटाक उपनैनमे गाम आबि गेलौं...।
ओना, गाम अबैक दोसरो कारण भेल जे मनमे उठि गेल– जखन गाममे कोनो लज्‍जतिये ने अछि तखन लाज केतए जनमत आ लज्‍जैत केतए औत। तँए परदेशसँ दूरदेशपर नजैर ई चलि गेल जे जखन लज्‍जैत विहीन गाम छोड़ि देलौं, तखैन जेतए लज्‍जैतगर देखबै तेतए ने रहब। तँए जँ संगीक जोगारसँ अमेरिकेमे गोड़ा बैस जाए तँ किए ने अमेरिके चलि जाएब। ओना, संगी ओइठामक शिक्षा-विभागमे पैघ अधिकारीक पदपर छैथ।
...हँ तँ कहै छेलौं जे गाममे लज्‍जतिये ने अछि तखन लाज केतए जनमत आ लाजबन्‍त बनि लजबन्‍ती बनब तँ ओहने ने हएत जे ‘सुती खढ़पर आ सपना देखी नअ लाखक।’ जहिना गामक अधिकांश मनुखो, मालो-जाल आ गाछो-बिरीछक जिनगी गामक माटिपर ठाढ़ अछि, तहिना कि ओकर रक्‍छो भऽ रहल अछि जे ओ ओहन तगतगर भऽ जाए जइसँ लहलहाइत रंग ओकरा ऊपर सदिकाल नचैत रहइ, से कहाँ अछि..? मरि गेल माटि आ मरि गेल अछि माटिक उपज! खेतीए-पथारी आकि किसाने-बोनिहारक की लज्‍जैत अछि ओ केकरा आँखिसँ हटल अछि। आ खेतीए-पथरीए किए, आनो-आन साधनक ओहन गति की नइ अछि। जे भूमि समुद्र-पहाड़ सभसँ सुरक्षित अछि ओ भूमि मरनासन्न भऽ जाए, तँ की ओ मरणदाता नइ बनत..? खैर जे से...।
अन्‍तिम पृष्‍ठ-
बनबैत देखने। मन पड़लै सिजिने-सिजिने मोरंग जा कऽ धानो काटै छेलौं आ ओइ परिवारमे जा-जा देखबो करै छेलौं। ओही परिवारमे ने बाँसक सभ चीज बनेनाइ सीखलौं आ ओम्‍हरेसँ एकटा खुखड़ी कीनने आबि मोरंग जाएब छोड़ि गामेमे बाँसक कारोबार केलौं। ओना बाँसक हजारो रंगक कारोबार अछि, मुदा से नइ छिट्टा-पथिया इत्‍यादि-इत्‍यादि बनाएब शुरू केलौं...।
ओना समाजमे बेसी लोक बेसी लोकक जिनगीक बाट रोकैये पाछू लागल अछि मुदा एकरो नकारल नइ जा सकैए जे आगू दिस बढ़ौनिहार नइ अछि। परिवारसँ समाज धरि एहेन संस्‍कार बनि गेल अछि जे माइयो-बाप ओही बेटा-बेटीकेँ कोनो काज अढ़बैत जे दौड़-दौड़ करैत आ जे से नइ करैत तेकरा अढ़ाएबो छोड़ि दइत। रचनोक क्षेत्र लिअ। अहाँ कविता लिखै छी तँ सइयो-हजारो रचनाकार शुभ बात कहबे करता जे अहाँक पेनी कलम अछि, जँ कथो आ उपन्‍यासो दिस बढ़ैत तँ समाजमे धमगज्‍जर भऽ जाइत।
दोहरबैत बजलौं–
“निरधन, परिवारक बात नइ बजलह?”
समगम होइत निरधन बाजल–
“भाय सहाएब, की कहब..!”
निरधन चुप भऽ गेल। अगुताइत बजलौं–
“रिनधन भाय, जाइ छी। आब फेर कहिया भेँट हएब कहिया नइ। आकि नहियेँ हएब तेकरो ठेकान नहियेँ अछि, मुदा हमर बात बाँकीए रहि गेल।”
‘बाँकीए रहि गेल’ सुनि निरधन बाजल–
“भाय सहाएब, की कहब अपन आ की समाजेक कहब। लुल्‍ह-पांगुर बूझि दुनू भाँइ कात कऽ देलक मुदा समाजमे कियो किछ ने बाजल आ ने भाइए भाए बुझलक। असगरक पेट बेसी भारियो ने अछि, कोनो कि हाथी-घोड़ाक छी, लऽ दऽ कऽ एक बीतक अछि, अपन भार अपने उठा अखनो जीबै छी...।”
बिच्‍चेमे मुहसँ निकैल गेल–
“तखन तँ देशक एकटा परिवारक भार असगरे उठौने छह।”
हँसैत निरधन बाजल–
“इन्‍दिरो अवासक घर ऐ दुआरे ने भेल जे सभ कहलक ओ बबाजी आदमी छी, घर लऽ कऽ की करत।”

शब्‍द संख्‍या : 3407, तिथि : 16 जनवरी 2016

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