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Monday, January 18, 2016

एते दिन अपना-ले आब अनका-ले

एते दिन अपना-ले आब अनका-ले
पहिल पृष्‍ठ-
सात सालक पछाइत परदेशसँ गाम एलौं। सेहो ओहिना नइ एलौं, अमेरिकामे एकटा संगी रहै छैथ, वएह अपन बेटाक उपनैन करता, ओही निमंत्रणमे एलौं। ओना बेटाक जन्‍म भेलैन, जइसँ ओ ओतुका जन्‍मगत नागरिक भऽ गेल, मुदा बाप-दादाक देल सुकृत्‍यो आ विचारो सोल्‍होअना मरि गेल सेहो तँ नहियेँ कहल जा सकैए, ओहो तँ जीवित ऐछे। ओना मनमे एहेन बात उठि गेल रहए जे जैठाम बच्‍चाक जन्‍म हुअए, नागरिक जीवनक अधिकार भेट जाए तैठामक जँ संस्‍कार-संस्‍कृति भेटत तँ ओ अनुकूलता पेब अधिक पुष्‍पित-फलित हएत। मुदा अनेरे मनकेँ खींच-तानसँ परहेज केलौं आ बीस बर्खक विद्यालयक संगीक बेटाक उपनैनमे गाम आबि गेलौं...।
ओना, गाम अबैक दोसरो कारण भेल जे मनमे उठि गेल– जखन गाममे कोनो लज्‍जतिये ने अछि तखन लाज केतए जनमत आ लज्‍जैत केतए औत। तँए परदेशसँ दूरदेशपर नजैर ई चलि गेल जे जखन लज्‍जैत विहीन गाम छोड़ि देलौं, तखैन जेतए लज्‍जैतगर देखबै तेतए ने रहब। तँए जँ संगीक जोगारसँ अमेरिकेमे गोड़ा बैस जाए तँ किए ने अमेरिके चलि जाएब। ओना, संगी ओइठामक शिक्षा-विभागमे पैघ अधिकारीक पदपर छैथ।
...हँ तँ कहै छेलौं जे गाममे लज्‍जतिये ने अछि तखन लाज केतए जनमत आ लाजबन्‍त बनि लजबन्‍ती बनब तँ ओहने ने हएत जे ‘सुती खढ़पर आ सपना देखी नअ लाखक।’ जहिना गामक अधिकांश मनुखो, मालो-जाल आ गाछो-बिरीछक जिनगी गामक माटिपर ठाढ़ अछि, तहिना कि ओकर रक्‍छो भऽ रहल अछि जे ओ ओहन तगतगर भऽ जाए जइसँ लहलहाइत रंग ओकरा ऊपर सदिकाल नचैत रहइ, से कहाँ अछि..? मरि गेल माटि आ मरि गेल अछि माटिक उपज! खेतीए-पथारी आकि किसाने-बोनिहारक की लज्‍जैत अछि ओ केकरा आँखिसँ हटल अछि। आ खेतीए-पथरीए किए, आनो-आन साधनक ओहन गति की नइ अछि। जे भूमि समुद्र-पहाड़ सभसँ सुरक्षित अछि ओ भूमि मरनासन्न भऽ जाए, तँ की ओ मरणदाता नइ बनत..? खैर जे से...।
अन्‍तिम पृष्‍ठ-
बनबैत देखने। मन पड़लै सिजिने-सिजिने मोरंग जा कऽ धानो काटै छेलौं आ ओइ परिवारमे जा-जा देखबो करै छेलौं। ओही परिवारमे ने बाँसक सभ चीज बनेनाइ सीखलौं आ ओम्‍हरेसँ एकटा खुखड़ी कीनने आबि मोरंग जाएब छोड़ि गामेमे बाँसक कारोबार केलौं। ओना बाँसक हजारो रंगक कारोबार अछि, मुदा से नइ छिट्टा-पथिया इत्‍यादि-इत्‍यादि बनाएब शुरू केलौं...।
ओना समाजमे बेसी लोक बेसी लोकक जिनगीक बाट रोकैये पाछू लागल अछि मुदा एकरो नकारल नइ जा सकैए जे आगू दिस बढ़ौनिहार नइ अछि। परिवारसँ समाज धरि एहेन संस्‍कार बनि गेल अछि जे माइयो-बाप ओही बेटा-बेटीकेँ कोनो काज अढ़बैत जे दौड़-दौड़ करैत आ जे से नइ करैत तेकरा अढ़ाएबो छोड़ि दइत। रचनोक क्षेत्र लिअ। अहाँ कविता लिखै छी तँ सइयो-हजारो रचनाकार शुभ बात कहबे करता जे अहाँक पेनी कलम अछि, जँ कथो आ उपन्‍यासो दिस बढ़ैत तँ समाजमे धमगज्‍जर भऽ जाइत।
दोहरबैत बजलौं–
“निरधन, परिवारक बात नइ बजलह?”
समगम होइत निरधन बाजल–
“भाय सहाएब, की कहब..!”
निरधन चुप भऽ गेल। अगुताइत बजलौं–
“रिनधन भाय, जाइ छी। आब फेर कहिया भेँट हएब कहिया नइ। आकि नहियेँ हएब तेकरो ठेकान नहियेँ अछि, मुदा हमर बात बाँकीए रहि गेल।”
‘बाँकीए रहि गेल’ सुनि निरधन बाजल–
“भाय सहाएब, की कहब अपन आ की समाजेक कहब। लुल्‍ह-पांगुर बूझि दुनू भाँइ कात कऽ देलक मुदा समाजमे कियो किछ ने बाजल आ ने भाइए भाए बुझलक। असगरक पेट बेसी भारियो ने अछि, कोनो कि हाथी-घोड़ाक छी, लऽ दऽ कऽ एक बीतक अछि, अपन भार अपने उठा अखनो जीबै छी...।”
बिच्‍चेमे मुहसँ निकैल गेल–
“तखन तँ देशक एकटा परिवारक भार असगरे उठौने छह।”
हँसैत निरधन बाजल–
“इन्‍दिरो अवासक घर ऐ दुआरे ने भेल जे सभ कहलक ओ बबाजी आदमी छी, घर लऽ कऽ की करत।”

शब्‍द संख्‍या : 3407, तिथि : 16 जनवरी 2016

एक घोंट पानि

एक घोंट पानि
पहिल पृष्‍ठसँ- 

बहत्तैर बर्खक वयसमे विलास बाबू अपन पैंतीस बर्खक संसदीय जिनगीक संग पचपन बर्खक राजनीतिक जिनगीकेँ तिलांजलि दैत, बिना किछु केकरो कहने घरसँ निकैल गेला। जेना गाम-घरमे होइए जे कोनो बाते दुनू परानीमे झगड़ा भेने एक परानी नैहरक बाट पकैड़ नैहर दिस विदा ई सोचि भऽ जाइ छैथ जे भीखो-दुख मांगि माइयो-बापक सेवा करब, मुदा एहेन घर आ घरबलाक मुँह नइ देखब। ओना विलास बाबूकेँ से नइ भेलैन, मुदा एते तँ भेबे केलैन जे एतेटा दुनियाँ अछि, तइमे एते बड़का-बड़का समुद्र अछि, पानिक भण्‍डार अछि तखन हमरा एक घोंट पानि नइ भेटत जे मरि जाएब, तखन अनेरे किए एहेन जिनगी बनौने जा रहल छी जे जैठाम मनुखक सेवाक उदेससँ कौलेजक जिनगीमे राजनीतिक जिनगीक बीच पएर रोपलौं, जे अबैत-अबैत आइ ने लगमे एकोटा लोक बिसवास पात्र अछि आ ने लोके आकि परिवारेक बिसवास पात्र अपने बनल रहलौं..!
यएह सभ विचार विलास बाबूक मनकेँ तेना ने ममोरि देलकैन जे एक घोंट पानिक आशा करैत वेरागी-सन्‍यासी जकाँ घरसँ निकैल गेला।
ओना, ने केकरो–समाजसँ लऽ कऽ राजनीतिक संगी तक–ऐ बातक जानकारीए देलखिन आ ने केकरोसँ विचारबे केलैन। तइसँ कियो किए बुझत जे विलास बाबू पैछला जिनगीक सभ किछु छोड़ि नव जिनगीक खोजमे घरसँ निकैल गेला। तँए अपना मनमे नव विचारक नव दशा-दिशा रहितो आन लेल–माने अखन धरिक संगियोँ-साथी आ कुटुमो-परिवार–ओहिना छैथ जहिना अखन धरिक जिनगी अङैजने आबि रहल छला...।
घरसँ निकलला पछाइत विलास बाबूक मनमे एलैन जे जखन पैछला जिनगीक सभ किछु छोड़ि देब तखन केकरो ऐठाम जाएब उचित नहि। ओना, जिनगी जेहेन हुअए मुदा खाइ-पीबैले अन्न-पानि, रहैले घर, पहिरैले वस्‍त्र चाहबे करी, से तँ सभठाम राखल नइ अछि, जे जेतै मन फुड़त तेतै रहि जाउ आ सभ किछु आगूमे मौजूद रहत। ओना दुनियॉं अही सभसँ भरल अछि मुदा तैयो तँ अपना–ले सभकेँ अपन-अपन ठौर-ठेकान बनबैए पड़ै छै।
घरसँ निकैल रस्‍ता टपैत विलास बाबूक मनमे उठलैन जखन सभ किछु छोड़ि एक घोंट पानिक आधार बना जीबैले ठानि लेलौं, तखन अनेरे किए छिछिआएल घुमब। से नइ तँ भने पीपरक गाछ रस्‍तापर ऐछे, ऑक्‍सीजनक भण्‍डार छीहे, एतै किए ने चैनसँ अरामो करब आ रस्‍तो ताकब...। 

अन्‍तिम पृष्‍ठसँ- 

लगले विलास बाबूक मन अनुचितसँ आगाँ बढ़ि उचितपर चलि गेलैन। आइ जेकरा अनुचित मन मानि रहल अछि ओ ओइ दिन किए ने बुझलौं। एम.ए. पास तँ तहू दिनमे रही। चूक केतए भेल..?
बोनमे वौआइत बटोही जकाँ विलास बाबूक मन अपन जिनगीक उचित-अनुचित रस्‍ताकेँ पकैड़ जखैन पैछला जिनगीमे किछु डेग आगू बढ़ला, तखन देखलैन जे समैयक हवाक धारमे भँसिया गेलौं। भँसिया ई गेलौं जे अपनासँ पछुआएल लोकक जिनगीकेँ अपना छातीमे नइ सटाएब तखन अपन प्रगतिशीलते की रहल। मुदा के केकरा छाती लगाबए ईहो तँ एकटा जटिल प्रश्‍न ऐछे। जँ अपना पत्नी, बाल-बच्‍चा नइ रहैत तखन जँ पछुआएलकेँ उठा छाती लगैबतौं तखन अपनो मन कहैत आ आनो कहैत जे एकटा गिरल (खसल) परिवारकेँ उठैक अवसर भेटल। मुदा से कहाँ भेल। तखन की भेल? मुदा, अखनो अपन मन ई कहाँ चाहैए जे अनुचित भेल। किछु लोक तँ नीक कहिते छैथ...।
थकिआइत विलास बाबूक मन थथमारि अपन जिनगीक विचार करए लगला। भकुआएल लोककेँ जहिना भक्क खुजिते करियाएल दुनियाँ फरिच देखैमे आबए लगै छै तहिना भेलैन। फरिच होइते मन कहलकैन
हर मनुखकेँ जिनगी चाही, तैबीच खाँच-खरोंच किछु-ने-किछु अधिकांशकेँ ऐछे, जइसँ अतीतक पतीतमे पहुँच गेल अछि, जँ ओकरा भविसक पवित्रक ढंग धरौल जाए तँ निसचित कल्‍याण हेबे करत।
मुहसँ निकैलते विलास बाबू नमहर साँस छोड़लैन। साँस छुटिते मनमे एलैन जे सही-गलतीक बीचक रस्‍तासँ जिनगी चलैए। जेते सही तागैतवर अछि तइसँ कनियेँ कम माने लंकाक उनचास हाथ गलतियो तँ तागैतवर अछि, तहूमे हवाक जे झोंक उठै छै, ओ मनुखक कोन बात जे देशक-देशकेँ कखनो सही दिशामे तँ कखनो विपरीत दिशामे तेना ठेल दइए जेकरा भरपाइ करैमे पीढ़ियो समाप्‍त भऽ जाइए। तखन?
अपन कृत्‍य तँ आइयो जीवित अछि जे ओहन छेड़खानी आजुक कौलेज-जिनगीमे नइ अछि। विकास भाय हमर बाल संगी छैथ, जँ हुनका ओतए जाएब तँ जरूर ओ छाती लगा एक घोंट पानिक आग्रह करबे करता...।
मनमे ऐबते विलास बाबू उत्‍कण्‍डित होइत उठि कऽ ठाढ़ भेला। ठाढ़ होइते बूझि पड़लैन जे भरिसक जिनगीक पहिल शुभ दिन छी...।
शब्‍द संख्‍या : 2522, तिथि : 10 जनवरी 2016

Wednesday, January 13, 2016

एगच्‍छा आमक गाछ (कथाकार- जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

एगच्‍छा आमक गाछ


सुन्‍दरपुर गाममे सोनमा बाध अछि। ओना चारू बाधक बीचमे गाम अछि मुदा दछिन-वरिया बाध माने गामक दछिन जे बाध अछि जइ बाधमे प्रवेश करिते दछिन मुँह डेग उठत, ओइ बाधमे एकटा आमक गाछ अछि जेकरा लोक एगच्‍छा सेहो कहैए।
ओना सोनमा बाध नमगर-चौड़गर अछि, नमगरे-चौड़गर नइ, ऊँचगर-नीचगर सेहो अछि। तेतबे किए, जहिना खेत-खेतक माटि एकरंगाहो अछि तहिना भटरंगाहो तँ ऐछे, तँए ने दसो-पनरह रंगक माटियो अछि आ नीचाँ-ऊपर रहने आड़ियो-सीढ़ियो तँ बनले अछि किने। खैर जे अछि मुदा एते तँ ऐछे जे गाछक कमी नइ रहितो वृक्षक कमी तँ बाधमे ऐछे, माने खेती-पथारीक तँए ऊँचगर खेत रहितो अन्नेक खेती होइए जइमे गाछियो-बिरछी तँ भाइए जाइए। से गाछी-बिरछी नहि। डेढ़ कट्ठा परतीपर मात्र एकटा आमक गाछ अछि। एकर माने ईहो नइ जे गाछ-पात नइ अछि। अन्नोक गाछो होइते छै, पातो होइते छै। तहूमे माटिक जे भटरंगीपन छै ओ तँ आरो बेसी रंगक गाछ-पात उगबैए। जँ एकरंगाह रहैत तँ किछु समटल कारोबार, माने माटिक अनुकूल उपजा रहितै, से नइ बेसी रंगक रहने बेसी रंगक होइते छै। खैर जे छै, मुदा बाधमे एकटा आमक गाछ तँ ऐछे। एकरा नकारलो नहियेँ जा सकैए।
बाधमे असगर एगच्‍छा आमक गाछ, खूब चतरलो अछि आ नम्‍हरो अछि। ओना ओ गाछ कियो रोपलक आकि अपने जनमल, से अखैन तक गौआँ नइ फरिछा सकल अछि। कियो कहै छै बाधक जे रखबार छल ओ रोपलक, मुदा ओ बुढ़बा तँ मरि गेल। रोपलाहा गाछे ने रहि गेल, मुदा से माननिहारो हुअए तब ने...।
किछु गोटे ईहो तँ कहिते अछि जे कौआ पाकल आम आनि गुद्दा खा लेलक आ आँठी-खोंइचा छोड़ि देलक, ओही आँठीक गाछ छी...। 
मुदा लोकक मनमे जे होइत हौउ, ओ परतीपर जनमल तँ ऐछे, केकरो खास जमीनमे छै नै, तँए सबहक छी, सबहक छीहे नइ सभ छाहैरमे छहरेबो करैए आ आमोकेँ चटनीसँ पाकल धरि खेबो करिते अछि। गाछो तँ सभ रंगक होइए मुदा से नइ, ओ आमक गाछ मनुखक केतेको पीढ़ी देखलक आ केते आगूओ देखत। ओना आगूक निसचित बिसवास नइ कएल जा सकैए, जेना पैछला अछि, मुदा बिसवास नहियोँ कएल जाए सेहो तँ उचित नहियेँ हएत।
ओना, जहिना सौंसे बाधमे एकटा गाछ रहने एगच्‍छा भेल, तहिना हजार बीघाक आमक गाछीमे एकटा बेलक गाछ सेहो तँ एगच्‍छा भेबे कएल। आमेक गाछी किए, तहिना फुलवाड़ियो सभमे होइते अछि...।
एगच्‍छा रहितो ओ आमक गाछ बुर्ड़ाक तँ ऐछे। अपन चालि-बाइन धेनहि अछि। बुर्ड़ाक ई जे अनरनेबा आ धात्री जकाँ बिनु जोड़े[1] जीबैक आशो नहियेँ रखने अछि, सेहो बात नहियेँ अछि। असगरे बाधमे अछि, फड़बो करैए, मोजरबो करैए, हरियेबो करैए, फतझड़ो होइए, मुदा जीबठ बान्‍हि जीबो तँ करिते अछि। नइ-ते असगरे जेना बाधमे अछि तेना अनरनेबा आकि धात्री जकाँ वंशो उपैट गेल रहितै। सभ बबाजीए बनि गेल रहितै। होइतो अहिना छै जे जे समैक मुकावला नइ करैए ओ मेटा जाइए। ओकर वंशक बाढ़ि रूकि जाइ छै, मटियामेट भऽ जाइ छै। पंचतत्वमे विलीन भऽ जाइए। 
द्वापर युगीन एकलव्‍य जकाँ ओ एगच्‍छा आमक गाछ अपनाकेँ बुझैत। जहिना शक्‍त-शील एकलव्‍य अपनाकेँ शक्‍तिवान बनबैले शक्‍तिशालिनीक आराधना केलैन तहिना ओहो आमक गाछ असगरे बाधक नीचला डेढ़-कट्ठबा परतीपर ठाढ़ भेल अपनाकेँ बुझैत। गाछो-बिरीछक दुनियाँ तँ ऐछे। हजारो-लाखो रंगक गाछ-बिरीछक बोनाएल दुनियाँमे की सबहक वंशो आ वंशवृद्धियो एके रंगक थोड़े अछि। कोनो बीआसँ जनमैए तँ कोनो फूलसँ, कोनो पत्तासँ जनमैए तँ कोनो गाछक सीरसँ...। केकरो सिर माटिक तरमे रहै छै तँ केकरो पानिक तरमे। केकरो डारियेमे सिर होइ छै तँ केकरो फुनगीपर...।
वेचारा आमक गाछकेँ मन ठहिअए लगलै। ठहियाइते मनमे उठलै अनेरे दुनियाँक बोनमे मनकेँ वौआबै छी। तइसँ नीक जे अपन दिन-दुनियाँक बात बजबो करब, करबो करब आ जीबो करब। मन फेर ठमैक गेलइ। मुदा ठमैकते जेना तीन-बट्टीपर दिशांश लगितो छै, जइसँ पूब-पछिम भऽ जाइए आ पछिम पूब, तहिना दिशांश, छुटबो करै छै, जइसँ उत्तर-दछिनक बोध हुअ लगै छै। जे केमहरसँ एलौं आ केमहर जाएब। तहिना आमोक भक्क कनी खुजल। खुजल ई जे अपनामे अनरनेबो आ धात्रियोसँ बेसी शक्‍ति ऐछे। ओकरा दुनूकेँ जे जोड़ नइ भेटतै तँ छेहा नंगा बबाजी जकाँ भऽ जाएत, वंशो रूकि जेतै आ दुनियोँ ओकरा बिसैर जेतइ। मुदा अपना तँ से नइ अछि, सभ किछु अछि...।
सभ किछु मनमे ऐबते एनामे जेना अपन मुँह अपने देखाइत तहिना अपन शक्‍ति अपना शकलमे देखलक।
अपना धुनिमे गाछ धुनियाँक धुनकी जकाँ जिनगीक रूइयाकेँ धुनए लगल। हजारो-लाखो रंगो, भटरंगो आ चितकाबरो वंशक गाछ सभ तँ ऐछे, तहीमे ने हमहूँ एकटा भेलिऐ। जखन एकटा भेलिऐ, तखन एकेटा ने भेलिऐ। तखन दोसराइत जे ताकब से अपने दोसराइतमे किए ने इजोते-इजोत जाएब...।
जिनगीक ओ बटोही जे नमहर जिनगीक बाट टपि आबि असोथकित भऽ जाइत तहिना वेचारा आमक गाछक मन असोथकित होइत ठमकल। देहमे शके ने बूझि पड़ै जे ठाढ़ रहत। हब टुटु साइकिल जकाँ मनक चक्का ने आगूए घुसकै आ ने पाछूए ससरै। जेना आइ ओ जिनगीक हारि कबूल कऽ लेत। मुदा से भेल नइ, भेल ई जे हुब टुटू मन बाजल-
आब, ई दुनियाँ देखब कठिन भऽ गेल।
पजरेमे हूब घटू बाजल-
बुड़ि कहीं के रे! ब्रह्मा सन-सन केते ब्रह्माकेँ देखनिहार लोमस बाबा लोहिया ओढ़ि कऽ देखलैन आ तूँ एतबेमे धौना फेड़ै छेँ। एकटा पएरबला कनी नेंगरा कऽ चलत, मुदा चलत किए ने। कोनो कि लोथ छी।
हूब घटूक हब टुटु विचारकेँ वेचारा आमक गाछ विचारणीय बूझि विचारए लगल। मनमे एलै- गाछ-बिरीछक बोनाएले दुनियाँमे एकटा हमहूँ छी। रंग-रंगक रूप, रंग-रंगक चालि-ढालिक जिनगी सभकेँ अपन-अपन छै। कियो बीआसँ गाछ होइए, तँ कियो फूलसँ...।
फूलोसँ गाछ मनमे ऐबते एगच्‍छा आमक गाछ ठमैक गेल। ठमकल ई जे अपन वंशक रस्‍ता की अछि। एकटा भेल पाकल आमक सक्कत आँठीसँ, दोसर भेटबे ने करइ। मनमे उठै जे हमर वंश कि एक भग्‍गुए रहि गेल...। आगू-पाछू किछु भेटबे ने करइ। भेटबो केना करितै, अखन तकक नजैर बीये-बाइलिक देखल-सुनल छेलै। मुदा नजैर जखन आगू बढ़लै तखन बूझि पड़लै जे नै हमरो उपैतक दोसरो रस्‍ता अछि। ओ अछि बच्‍चा गाछक छातीसँ कलशल डारि सटा देने नव गाछ बनि नव जीवन सेहो तँ ऐछे। तखन जिनगीसँ निराश किए हएब। मुदा जिनगी लेल जे समए-शक्‍तिसँ मुकावला करए पड़ै छै ओकर अनेको रूपमे दूटा कारण प्रमुख अछि। एक अछि समए-शक्‍ति जइमे जिनगी निहीत अछि आ दोसर अछि दानब-मानब वृति...।
एका-एक ओइ एगच्‍छा आमक गाछक मन फुला गेल। फुलाइते अठ्लाइत बाजल-
हम लाल छी।
जुहियाइत जूही बाजल-
जेहने सतरंगी रंग तेहने सतरंगी चालियो ने छौ। मरदक लाल जहिया बनमेँ, तहिया बुझबौ।
मनमे उठैत खौंझकेँ रोकैत गाछ विचारए लगल। भाय सात अरब लोकमे केकरो एते फुरसैत छै, जे दोसरो दिस ताकत आकि देखत। बाप भरि दिन बेटा-ले पसेना छोड़बैए ओकरा तँ एते फुरसैते ने छै जे अपना बेटाकेँ कम-सँ-कम अपनो वंशक इतिहास आ समाजिक सरोकार बुझा सकत आ अनका कोन मतलब छै।
जहिना कोनो हरेलहा बात, सोचै-विचारै काल जखन मन पड़ै छै, तखन अनेरे अपनो मनमे फुलाइत हँसी उठै छै तहिना ओइ एगच्‍छा आमक गाछकेँ सेहो भेल। मन पड़लै अपन लगौनिहार रखबार, केना असकरे बाधमे ठाढ़ छी, जहिना सभ-ले अन्‍हर-विहाड़ि, झाँट-पाथर छै तहिना ने हमरो-ले अछि...।
एगच्‍छा आमक गाछक आगू घुसलक मन बुदबुदाएल-
अपन सर्वांग जिनगीक रक्‍छा अपने करैक लूरि-बूधि हएत तखन ने रकछित रहि सकै छी।
लगले दोसर मन टोकलक-
मातृभूमि केकरा कहै छै, ओकर रकछक के छी?”
अउत्तरित प्रश्‍न आमक गाछक मनमे उठए लगल। मुदा कलशक डारिक नव गाछक रोहानी देख मन रहैम गेलइ। रहैमते फुला गेलइ। फुलाइते उठलै-
अदौसँ जीव-जन्‍तुक संग रमैत एलौं अछि आ आगूओ अहिना रमता जोगी बनि रमैत एगच्‍छा नइ सत्-गच्‍छा बनि इन्‍द्रधनुष जकाँ अकासमे फुलाएब।
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शब्‍द संख्‍या : 1167, तिथि : 31 दिसम्‍बर 2015



[1] प्राग क्रिया

Sunday, January 3, 2016

...रामकृष्‍ण बाबूक विचारक सह पबैत धीरेन्‍द्र कहलकैन-
सर, अपने साहित्‍यक विद्वान विशेषज्ञ रचनाकार छिऐ, जे शैली आ जइ विषयकेँ कथा बनौलिऐ, ओ तँ ओहनो रचनाकार रचि सकै छैथ, जिनका अपने सन विशेषज्ञता नइ छैन।
धीरेन्‍द्रक विचारकेँ मोड़ैत रामकृष्‍ण बाबू बजला-
देखियौ धीरेन्‍द्र, रचना मौलिक हेबा चाही। जहिना दुनियाँ अछि, जे सभ दिनसँ अछि आ सभ दिन रहत। अहीमे सभ दिन घटनो घटैत रहैए आ घटबो करैत रहत। मुदा जे मौलिक अछि ओ मौलिक ऐछो आ रहबो करत।
रामकृष्‍ण बाबूक विचारकेँ धीरेन्‍द्र मने-मन विचारए लगला जे थोड़ेके शब्‍दमे बहुत बात बाजि गेला। मुदा सभ शब्‍दक एक लड़ी बनत तखने ने विचारक झड़ी झड़त। तेकरा जोड़ै-गुणैमे धीरेन्‍द्रक मन ठमैक गेलैन। ओना धीरेन्‍द्रक देल चारू कथा पढ़ि कऽ रामकृष्‍ण बाबूकेँ झलैक गेल छेलैन जे अपन संग्रहक प्रभाव धीरेन्‍द्रपर ओते नइ छोड़लक जेते ब्रज किशोर वर्मा मणिपद्म’, प्रभास कुमार चौधरी, रमानन्‍द रेणु, राजकमल, प्रेमचन्‍द, फणिश्वर नाथ रेणु, भीष्‍म सहनी, राजेन्‍द्र यादव, राहुल संकृत्‍यायन इत्‍यादिक छाप पड़ल छै। अपनाकेँ सम्‍हारैत रामकृष्‍ण बाबू बजला-
मणिपद्म तँ मिथिला रत्न छैथ, मुदा..?”
जिज्ञासा करैत धीरेन्‍द्र पुछलकैन-
मुदा की?”
मणिपद्मजीक प्रति रामकृष्‍ण बाबूकेँ असीम श्रद्धा छैन, श्रद्धावान पुरुखक श्रद्धावान-कृत्‍यक एको चुटकी सिमटी-बाउल भवन निर्माणमे श्रद्धावत केने तँ चानकेँ आरो चारि चान बनबैए मुदा से...।
अपनाकेँ सम्‍हारैत रामकृष्‍ण बाबू बजला-
मणिपद्मजी जिनगीक एकभग्‍गु रचैता छला।
रामकृष्‍ण बाबूक बात सुनि धीरेन्‍द्रक उत्कण्‍ठित मन चहेलैन-
से की?”    
हृदैकेँ हियासैत रामकृष्‍ण बाबू मणिपद्मजी आ प्रभास कुमार चौधरीपर नजैर फेकलैन। फेकते मनमे बरसाकालक पानिक बुलबुला जकाँ कखनो नजैर मणिपद्मपर पहुँचैन तँ कखनो प्रभासजीपर। मुदा ई तँइए ने कऽ पबै छला जे मणिपद्मजीकेँ मुँह बनाबी आकि प्रयासजीकेँ। माने ई जे मणिपद्मजी दिससँ बात चाली आकि प्रभाषजी दिससँ।
धीरेन्‍द्र हिया-हिया रामकृष्‍ण बाबूपर नजैर फेकैथ मुदा मन बजैसँ ई कहि रोकि दैन जे भरिसक कोनो गंभीर विचारक ओझराएल ओझरीकेँ सोझरा रहला अछि...।
हँ-निहँस करैत रामकृष्‍ण बाबू बजला-
मणिपद्मजी एकभग्‍गु रचनाकार छला जखन कि प्रभासजी से नइ छला।
तेहेन गोल-मटोल विचार रामकृष्‍ण बाबू धीरेन्‍द्रक आगूमे रखलैन जे धीरेन्‍द्र अकबका गेला। ई की कहि देलैन? मुदा लगले मन गवाही दैत धीरेन्‍द्रकेँ चरियौलक। चरियाइते धीरेन्‍द्र बजला-
कनी सोझरा कऽ दुनू गोरेक चर्च करियौ?”
धीरेन्‍द्रक बात जेना रामकृष्‍ण बाबूकेँ नीक लगलैन। सोझरा कऽ कहियौक मतलब धीरेन्‍द्रक रहैन भाषाक स्‍तरपर चर्च।  
रामकृष्‍ण बाबू बजला-
मणिपद्मजी केँ जिनगीक तीन चौथाइ आर्थिक भार माने खेनाइ, पीनाइक संग आरो सभ खर्च-बर्च सभ दिन हुनकर पिता जुमबैत रहलैन। मुदा अपना जिनगीक अमलदारीमे अपन केते रचना प्रकाशित करा, केते लोकक बीच पहुँचला?”
बजैत-बजैत रामकृष्‍ण बाबू गंभीर भऽ गेला। जेना अपन जिनगी अपना सोझमे नाचए लगलैन। नाचए ई लगलैन जे अपनो तँ दू संग्रह जोकर कथा, एक संग्रह जोकर कविता लिख कऽ राखल अछि। जखन कि मोट दरमाहाक नोकरी रहल! विचारकेँ आगू नइ बढ़ा बातकेँ मोड़ैत बजला-
धीरेन्‍द्र, रचना आ रचनाकार दुनू दू धुरी छी। ऐ धुरीक बीच अनेको दशा-दिशा अछि। मुदा जँ रचनाकार स्‍वयं रचित भऽ किछु रचैथ आ तहूसँ कनी आगू बढ़ि जँ शब्‍दक संग रचैथ तँ दुनूमे किछु-ने-किछु कमी एबे करत...।
धीरेन्‍द्र-
सर, नीक जकॉं नइ बूझि पेलौं?”
रामकृष्‍ण बाबू-
सत्‍य ओतइ अकाट् अछि जेतए शब्‍द नइ पहुँच पबैए। मुदा रचना-ले तँ शब्‍दे संगी हएत। नइ तँ एक-दोसराक बीच विचार बढ़त केना
किरिण डुबि गेल। मुदा अन्‍हार नइ पसरल, कनी-मनी जाड़क हल्‍फी सेहो हफुअए लगल...।
रामकृष्‍ण बाबूकेँ धीरेन्‍द्र कहलकैन-
सर, औझका जे गप-सप्‍प भेल ओ अविस्‍मरणीय रहत। समए भेटलापर फेर दोसर दिन...।
धीरेन्‍द्र उठि कऽ ठाढ़ भेला। ओना रामकृष्‍ण बाबू एकबेर आरो चाह पीबैले कहलखिन मुदा चाहकेँ टारैत धीरेन्‍द्र कहलकैन-
सर, चाहक पाछू पड़ने अन्‍हारमे पड़ि जाएब।
रामपुरक सीमान टैपते धीरेन्‍द्रक मनमे उठलैन। करीब दस बर्खसँ रामकृष्‍ण बाबूसँ सम्‍बन्‍ध बनल अछि, आबा-जाही अछि। मुदा सम्‍बन्‍धमे जे प्रगाढ़ता एबा चाही से कहाँ आबि रहल अछि...। मन ठमकलैन। ठमकल ई जे सम्‍बन्‍धक प्रगाढ़ताक जे दिशा अछि तइमे कमी भऽ रहल अछि तँए नै प्रगाढ़ता आबि रहल अछि। की कमी? ओना अखन तक कृष्‍णपुरक कार्यक्रमक पछाइत तीनटा आरो कार्यक्रममे दुनू गोरे संग छेलौं। मुदा आबा-जाहीमे एकभग्‍गुपन तँ ऐछे। हमरा हिसाबे रामकृष्‍ण बाबूकेँ सवाड़ियोक सुविधा छैन्‍हे। ओना जे दूरी दुनू गोरेक गामक आकि घरक अछि, तइले सवाड़ीक खगतो ने छै, मुदा किछु अन्‍दरूणी विचारोक सम्‍भावना तँ ऐछे...।
सम्‍बन्‍धमे प्रगाढ़ता अनैले तँ सम्‍बन्‍धिक बीच दुनू दिससँ आबा-जाहीक जरूरत होइए। से जखन हएत तखने ने सम्‍बन्‍धमे प्रगाढ़ता आएत। ओना रामकृष्‍ण बाबू कौलेजमे कार्यरत छैथ, तँए समैयोक अभाव तँ छैन्‍हे। मुदा ई तँ गाम-घरक बात छी।
  
शब्‍द संख्‍या : 2091, तिथि : 06 दिसम्‍बर 2015