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Wednesday, May 20, 2015

पसेनाक धरम'' लघु कथा संग्रह अनुक्रम...

(1) नहरकन्‍हा- (1209), 11 मार्च 2015
(2) बटखौक- (1272), 14 मार्च 2015
(3) पसेनाक धरम- (1263), 16 मार्च 2015
(4) जेठुआ गरदा- (1103), 18 मार्च 2015
(5) हँसीएमे उड़ि गेलौं- (1243), 20 मार्च 2015
(6) बुड़िबकहा बुड़िबक बनौलक- (1234), 23 मार्च 2015
(7) हमर बाइनिक विचार- (1207), 26 मार्च 2015
(8) नोकरिहारा- (1146), 26 मार्च 2015
(9) घसवाहि- (1213), 28 मार्च 2015
(10) तेतर भाइक कविता- (1319), 1 अप्रैल 2015
(11) छूआ- (1223), 6 अप्रैल 2015
(12) दोसराइत- (1270), 9 अप्रैल 2015
(13) लछनमान- (1173), 13 अप्रैल 2015
(14) हमर कोन दोख- (1527), 17 अप्रैल 2015
(15) मौसी- (1393), 21 अप्रैल 2015
(16) नटकिया गति- (1313), 24 अप्रैल 2015 
(17) खाए चाहैए- (1223), 27 अप्रैल 2015 

नहरकन्‍हा

कातिक मास। काल्हिये दीयावाती छी। रौदमे ने जेठुआ जलनि अछि आ ने माघक सिरसिरी। ने हथियाक झाँट अछि आ ने मघ-असरेसक गर्जन-तर्जन। मुदा बिनु बरखो-बुन्नीक सौनक सुहावन तँ अछिए। भलहिं सौनमे गरम-ठंढाक घोर किए ने बनैत हउ, मुदा कातिकोमे तँ पानि-रौदक घोरमे ओसक मिश्रण बनिते अछि...।
बेरुका समए, गोसाँइ लहसैत दिन। चेतन काका हाथ-पएर मारि दरबज्‍जापर बैसल अपन बीर्तमान भविस दिस देखि रहल छथि। मनमे उठलनि, पनरह कातिक तीस अखाढ़ जे सूतल से गेल बजार! मुदा हम सूतल कहाँ छी, सुता देल गेल छी। तहूमे आइ चौदहम कातिक तँ छीहे। तही बीच रधिया काकी चाह नेने पहुँचलनि।
काकीक पएरक धमकसँ चेतन कक्काक भक् खुजलनि। भक् खुजिते तकलनि तँ आगूमे पत्नीकेँ चाह नेने ठाढ़ देखलनि। आँखिमे आँखि सटिते चेतन कक्काक मन अश्रु मिश्रित भऽ सिहरि गेलनि। सिहरलनि ऐ दुआरे जे पत्नीक पियासल आँखिमे पानिक तरास बूझि पड़लनि। मुदा भूख-पियास कोनो आइए भेल आ कि सभ दिनसँ रहल। जखने देहधारी जीव हएत तखने ओकरा जीबैत चलै-फिड़ैले अन्न-पानिक खगता हेबे करत। मुदा ओइ खगताक पूर्ति तँ अपने केने हएत। पत्नीक हाथमे चाहक गिलास देखि चेतन काका हाथ बढ़ा गिलास पकड़ि बजला-
काल्हिए ने उका-वाती छी?”
ओना रधिया काकीकेँ सेहो बूझल रहनि। कोनो पावनि परिवारमे पुरुख-पात्रसँ पहिने बाले-बोध आ जनिजातियेक कानमे पहुँचैए, आ ओ पहुँचैए आन परिवारसँ, समाजसँ। काल्हिए पावनि छी सुनि रधिया काकीक मन थकमका गेलनि। थकमकाइते मनमे की उठलनि से तँ ओ जानथि मुदा पतिक सोझासँ हटि, माने दरबज्‍जापर सँ आँगन दिस बढ़ि गेली। भऽ सकैए चुल्हि लग अपन छनाएल चाह ठण्‍ढाइ दुआरे बढ़ि गेल हेती चाहे पतिक सिनेहिल मन जगबै दुआरे सेहो। सिनेहिल मन ई जे जखन तबधल पेटमे चाह पड़तनि तखन पेटक ताप आ चाहक तापक संयोग होइते सिनेहिल विचार पनैपिते सिनेहिल मन बनतनि। आकि अखनो पतिक सोझमे चाह नै पीबैत होथि, तहू दुआरे हटल हेती चाहे आने कारणे...। 
चुपचाप पत्नीकेँ लगसँ हटैत देखि चेतन कक्काक मनमे अनेको प्रश्न एक संग उठलनि, उठलनि ई जे अपनो तँ जनिते छी जे घरमे किछु ने अछि, जखनि कि काल्हि ज्‍योतिक पावनि- दीपावली-क संग काली पूजा सेहो छी। लगले परसू गोबरधनक संग गाए-महींसिक चुमौन माने पखेब-सुकराती-हुरियाहा सेहो छी, तेकर सटले तरसू भाए-बहिनिक पावनि भरदुतियाक संग चित्रगुप्‍त-दवात पूजा सेहो छी। तैसंग सटले छठि पावनिक बीजवपन सेहो भऽ जाएत...,
...भरिसक यएह सभ सुइख ने तँ मनकेँ सता रहल छन्‍हि जइसँ मुँह छिपबै दुआरे परोछ भऽ गेली। मुदा लगले मनमे उठलनि जे किछु छथि तँ अर्द्धांगिनीए छथि ने, किए ने हुनकर मनक तरसैत ताप तरासि दिअनि। जे समए बनि गेल अछि, जेकर भुक्‍तभोगी अपना संग परिवार सेहो बनि गेल अछि। एहेन स्‍थितिमे तँ यएह ने नीक हएत जे सभ बात-विचार जी-खोलि दुनू गोरे जीसँ निकालि जीहक भिरानी करैत जिनगीक आगूक बाट हेरब...।
...मनमे अबिते चेतन कक्काक मन पानिमे बनैत पाथर जकाँ थीर भऽ गेलनि। मुदा लगले भेलनि जे ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे अपन पीबैले चाह चुल्हि लग रखने होथि जे पीबैले चलि गेल हेती। अनेरे मन वौआ रहल अछि, जेते समए अपने चाह पीबैमे लगत तइसँ कनीयेँ बेसी अँटैक सोर पाड़ि गपियाइए किए ने लेब। तैबीच चाहो सधलनि। गिलासकेँ चौकी तरमे रखि, तमाकुलक सूर-सार करए लगला। मुदा तैबीचमे पत्नी पहुँच गेलखिन। आने मिथिलांगना जकाँ रधिया काकी अपन बेथाकेँ बेवस्‍थित ढंगसँ साजि, मुँहक मुस्‍कान साजैत बजली-
की पावनि हएत! बच्‍चाकेँ जँ कितावे ने रहतै तँ ओ की पढ़त! आ की पौत! चाहे किसानेकेँ जँ  बरद नइ रहत तँ ओ गोबरधन पूजा की करत!!”
बेथाएल मने रधिया काकी बजली, मुदा चेतन काका सुनि कऽ वौआ गेला। वौआ ई गेला जे एक दिस बच्‍चाक विद्याध्‍ययनक बात उठेलनि मुदा लगले किसानक गाए-बरदसँ जोड़ि देलनि। मर्र ई की भेल? गाइक नाङ्गरि घोड़ाकेँ आकि घोड़ेक नाङ्गरि गाएकेँ केना छजत। मुदा ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे बेथा-कथाक बखार भरल होन्‍हि, जे बहराइले मनमे उपरौंज केने होन्‍हि तँए गपक मुड़ीक ठेकाने ने रहल होन्‍हि। चेतन काका बजला-
पावनि छी काल्हि आ पीड़ाएल छी आइए? ऐ पीड़ेने नइ ने हएत। किए पीड़ाएल छी तेकर ने खोद-वेद करब।
चेतन कक्काक बोल रधिया काकीकेँ नीक लगलनि। सहटि कऽ लगमे एली। लगमे अबिते चेतन काका बजला-
आइ कातिकक चौदहम दिन छी, चौदहमी-चान सेहो उगत। काल्हिए गणेश-लछमी पूजाक संग घर-आँगन, दुआर-दरबज्‍जा, इनार-पोखरि, मालक थैरक संग चर-चौमासमे दीप जरत। तैसंग निसभेर रातिमे कालीक पूजा हेतनि।
पावनिक पावन विचार सुनि रधिया काकी विहुँसैत बजली-
हाइ रे कातिक! गिरहस्‍तक धरम-करम मास कातिक!”
कहि जेना मने-मन किछु विचारए लगली। विचारए लगली जे वृन्‍दावनक जमुना-कछेरक कदमक फूलक घुघरूक बीच फड़ केना छिपल रहैए...।
...मुदा दुनू गोरेक बीच चुपा-चुपी, धुपा-धुपी भऽ गेल। आँखिसँ नजरि धरि एक-दोसरपर चढ़ौने रहथि, मुदा मुँहमे बोल नहि, भाव रहितो अभावे-अभाव। परिवार छी, पति-पत्नीक सहयोगसँ संचालित होइए। चेतन काका बजला-
अपन गाम, अपन परिवार, अपन जिनगी कनाह भऽ गेल!”
कनाह सुनि रधिया काकी चौंकली। अछैते आँखिए कनाह! मुदा होइ तँ छैहे। आँखिक डेर-वार भेने सेहो लोक कनाह कहाइए। ओना एकटा आँखि नहियोँ रहने लोक कनाह कहबिते अछि, मुदा कनीयोँ ली-ओंच भेने तँ सेहो कनाहे कहबैए! खैर जे होउ। बजली-
की कनाह कहलिऐ?”
पत्नीक भाव पूर्ण प्रश्न सुनि चेतन काका बजला-
जहिना कोसिकन्‍हा भेल तहिना अपनो सभ नहरकन्‍हाक बासी भऽ गेलौं।
नहरकन्‍हा सुनि रधिया काकी मने-मन विचारए लगली जे ई की पावनिक जगह कहि रहला अछि। मुदा जे कहि रहल छथि तिनकेसँ किए ने खरियारि कऽ पूछि बूझि ली। पावनि काल्हि छी। विचार तँ हवाक गतिए चलैए। काज ने कटही गाड़ी जकाँ चर्र-चर्र करैत चलैए...। बजली-
की नहरकन्‍हा कहलिऐ?”
पत्नीक प्रश्न सुनि चेतन काका अपन मनक बेथा पत्नीपर आ पत्नीक बेथा अपनापर लैत बजला-
सम्‍पन्नता घटने विपन्नता अबै छै। अपन सभ किछु देखिते छी, तेहेन नहर गाममे बनि गेल, तैसंग सड़कसँ तेना घेरा गेल जे गामेक रूप कुरूप भऽ गेल। जहिना कोसीकातक सभ गाम कनाह नहि अछि मुदा ओहन गाम तँ कनाह अछिए जेकर चास-बास उकन-विपन भऽ गेल छै। तहिना देखबे करै छी जे धानक चास दहा गेल। पानिक जमाव रहने, गहुम, रब्‍बी-राइक संग वाड़ी-झाड़ीक तीमन-तरकारीक खेती छीना गेल, एहेन स्‍थितिमे...?”
एहेन स्‍थिति कहि चेतन काका बौक भऽ गेला! जेना दलदलमे फँसल हाथी बाहर निकलैले चीतकार करैत तहिना कक्काक चित्त चीत भऽ चीतकार करए लगलनि। बोल घौलाए लगलनि!
चेतन कक्काक विचार सुनिते रधिया काकीक भक् खुजलनि। बजली-
यएह दिवाली पावनि छी जइमे रंग-रंगक तीमनो-तरकारी आ अन्नो-पानि भरल रहै छेलए, अपनो खाइ छेलौं आ दोसरोकेँ पइत सम्‍हारै छेलिऐ। काल्हि पावनि छी आ आइ सुन्न घरमे ठाढ़ छी! केना दीप जरत?”
दुनू परानीक मुँहक बोल, ओइ पोखरि जकाँ सुखा गेल जेकर जाठिक समुच्‍चा देह उघार भेल बालु-माटिपर ठाढ़ भेल फटोफनमे पड़ल रहैए। एक-दोसरपर दुनू परानी नजरि दथि, मुदा लगले नीचाँ खसि पड़नि। ओना रधिया काकी अनभुआर जगहो आ अनभुआर रस्‍तो देखि सहमि कऽ सहजि गेली। सहजि ई गेली जे जखन नारी असगरो ब्रह्मचारिणी बनि सकै छथि तखन तँ हम पुरुखक संग छी। तहूमे ओहन पुरुख जे जीवन संगी छथि! मन मचललनि, चल रे जीवन चलिते चल, सुख-दुखक संगे चल, जिनगी-मृत्‍युक सीमा धरि चल...।
...रधिया काकी विहुँसैत बजली-
अनेरे मनकेँ मारि रहल छी, यएह ने जे आनबेर भाँटिनक चारिटा तड़ूआसँ थारीक पारस सजाइ छल, ऐबेर नइ हएत। घर-अँगनामे दीप नइ जरत, तँए आगूओ नइ जराएब?”
पत्नीक बात सुनि चेतन कक्काक चेतन चनचनेलनि, मुदा लगले ठमैक गेलनि। ठमैक ई गेलनि जे बिनु तेल-वातीक दीया केना बड़त! बिनु शक्‍तिए ज्‍योति केना अनहारमे छिटकत! अपन के कहए, खाइ-पीबै दुआरे गामेसँ माल-जालक हरण भऽ गेल। केना गोबरधन पूजा करब! परात भने बहिन ऐठाम नैहराक की सनेस लऽ कऽ जाएब? भाव रहितो अभावे अभावक बीच चेतन काका बजला-
अपन मन हारि कहाँ कबूल करैए। मुदा फेर जिनगी हरण केना भेल?” 
कहि पत्नीक ओइ नजरिमे चेतन कक्काक नजरि घुसि दीवालीक दीप जरबए लगल जे सुख-दुखकेँ ओते नै जेते संगे-संग चलैत रहबकेँ महत दैत।¦¦
11 मार्च 2015, शब्‍द संख्‍या- 1209

Tuesday, May 19, 2015

खाए चाहैए (कथाकार- जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

खाए चाहैए

आसिन मास, भिनसुरका पहर, मेघौन समए। झिहिर-झिहिर पुर्बा हवा चलैत। सूर्य उगैक समए भेलो पछाति रंग-रोशनक कोनो दरस नहि, मुदा करिखाएल अन्‍हारो नहियेँ अछि। ओस-बर्खाक सीमा परहक मास आसीन, तँए जहिना ओस कनकनाइत तहिना बर्खोक मन कनकनाइते अछि। मुदा दुनूक कनकनाएब दू रंगक अछि। एक अछि- ओसक अपन उठैत जिनगीक कनकनी, तँ दोसर अछि बर्खाक खसैत जिनगीक कानब। जइसँ जहिना दुभिक लोल चमकैत अछि तहिना गुलाबक बोल[1] चुमैक-चुमैक चकभौर लगबिते अछि।
एक तँ भरि रातिक कनैत-खिजैत बितौल समए, जइसँ जगरनासँ भकुआएल ऑंखि आ मिरमिराइत मन, मुदा तैयो भाषा दाय जिद्द पकड़ि घरक चौकठि लग बैसि, डेढ़िया दिस देख रहल छथि।
भिनसुरका अखबार जकॉं गामो-घरमे गामोक आ आनो गामक समाद-समाचार पसरिते अछि। ने समदियाक कमी, ने घटनाक कमी गाम-घरमे अछि।
बरतन-बासन मॉजब छोड़ि सोनमी दीदी भुलिया दादी लग जा बजली-
काकी, अतहतह होइए!”
भावुक कलाकार जकॉं तेहेन भावमे सोनमी दीदी बजली जे भुलिया दादी तुलसी चौरा नीपब छोड़ि दुनू कानो आ दुनू ऑंखियो ठाढ़ केलनि। अपरिचित-अनभुआर जकॉं भुलिया दादी पुछलखिन-
की अतहतह होइए, सोनू?”
छोट वस्‍तुकेँ जहिना कलाकार नीक मुँह-कान बना पैघ कलामे बदलैत अछि तहिना सोनमी दीदी बजली-
काकी, की कहब! ओ तँ तेना...?”
ओ तँ तेना कहि सोनमी दीदी मुँह बन्न करैत जेना मने-मन किछु सोचए लगली। भुलिया दादीकेँ ने गपक छीप भेटलनि आ ने जड़ि। मुदा भावक जिज्ञासा मनकेँ तेना सिहरा कऽ डोला देलकनि जे ने किछु पुछैत बननि आ ने चुप रहल होन्‍हि। सोनमी दीदीक मन तरे-तर, भदवरिया कोसीक बाढ़िक पानि जकॉं तेना घोर-मट्ठा होइत रहनि जे ने मुहसँ बकार फुटनि आ ने...। तइ बिच्‍चेमे भुलिया दादी पुछलखिन-
एना किए सोनू, जेठुआ बरखा जकॉं अदहेपर सँ बकार हरण भऽ गेलह?”
तैबीच सोनमी दीदीक मनमे सेहो, नीक जकॉं तँ नहि मुदा कनी-मनी फड़िछा गेल छेलनि। बजली-
भाषा दाय अपन गाम-घर, देस-कोस छोड़ि जाए नइ चाहै छथि, मुदा बड़की बहिन तेना ने चलैले जोर करै छथिन जे वेचारी भारी सङ्कटमे पड़ि गेल छथि!”
न्‍यायालयमे ओकील जहिना अपन पक्षधरक विचारकेँ कसि कऽ पकड़ि न्‍यायालयमे वक्तव्‍य दैत तहिना भुलिया दादी बजली-
बड़की बहिन तँ अपने दोसर मुलुक चलि गेल अछि किने?”
भुलिया दादीक विचारमे सोनमी दीदीकेँ जेना पुरैनिक सिरक संग बिसाँढ़ो भेटल होन्‍हि तहिना भेलनि। सह दैत बजली-
काकी, भषो दाय अपन विचारपर अड़ल छथि, ओ कहै छथिन जे साग-पात तोड़ि खाएब, भीख माङ्गब मुदा अपन नगरीकेँ डगरीक भॉंटा नइ बनाएब।
सोनमी दीदीक विचारसँ भुलिया दादीकेँ मनमे आरो भड़ भेटलनि। अपन टुटल जिनगीक कथा बुझिते मनमे जहिना सक्कतपन अबै छै तहिना अपन विचारकेँ आरो सक्कत बनबैत बजली-
बुच्‍ची, हमरा सबहक दिन घटल, जइसँ दुरदिनक मुँह देखऽ पड़ि रहल अछि, मुदा...?”
सुदिन-कुदिनसँ ऊपर उठि भुलिया दादी बाजल छेली, मुदा सोनमी दीदी नीक जकॉं भुलिया दादीक विचारकेँ नइ बूझि पेली। चहरा-ले जहिना चिड़ैक गेल्ह अपन लोल उठबैत अछि तहिना मुँह बॉबि सोनमी दीदी भुलिया दादीकेँ पुछलखिन-
काकी, हम तँ अहॉं आगूमे जनमल छी तँए अहॉं जकॉं सभ बात थोड़े बुझल अछि। कनी विलगा-विलगा कहियौ जे नीक जकॉं बूझि पाएब।
अपन गुरुत्‍व देखैत भुलिया दादी बजली-
बुच्‍ची, एक बाते नइ बुझबहक, तँए जे कहऽ चाहै छेलियऽ से तर पड़ि जाइ छह आ ऊपरसँ तोहीं एकटा आरो सवाल उठा दइ छहक।
कहि भुलिया दादी चुप भऽ गेली। मुदा सोनमी दीदीक पियासल ऑंखि ऑंखिपर पड़िते भुलिया दादीक ऑंखि नीर-पानिसँ छल-छला गेलनि। बजली-
बुच्‍ची, दूटा गप बुझलापर सभ बात बूझि जेबहक। तँए...?”
आगूक विचार सुनैक प्रवल जिज्ञासु- सोनमी दीदीक मन बाजि उठलि-
काकी, बुझबैमे जे गर अहॉंकेँ नीक लगए तही गरे बाजू। मुदा कहियौ सब बात।
भुलिया दादी बजली-
बुच्‍ची, कोनो भाषा-साहित्‍यक उदय-प्रलय केना होइ छै, ओ निर्भर करै छै ओइठामक लोकपर आ लोकक विचारक परिपक्‍वतापर। जेहेन जैठामक लोक रहल तैठामक वस्‍तु-जात, खान-पान, बात-विचार तेहेन बनल। तँए एकरा अहीठाम रहऽ दहक।
अपना विचारे भुलिया दादी विरामक खुट्टा ठाढ़ केलनि, मुदा दुनू दिससँ सोनमी दीदी तेना डोलौलखिन जे भुलिया दादीकेँ अपन पछिले विचारपर आबऽ पड़लनि। बजली-
बुच्‍ची, जे शासन जेहेन जनप्रिय रहल ओ ओहेन अपन शासनक बेवस्‍था बनबैए, जेहेन बेवस्‍था बनि शासन चलैए तेहेन ओइठामक मनुखक निर्माण होइए। जखने मनुखक निर्माण हेतै तखने ओकरामे निरमबैक शक्‍ति औते। जखने निरमबैक शक्‍ति ओकरामे आबि जाइ छै तखने ओ अपन विचारानुसार निर्माणक प्रक्रिया शुरू करैए।
भुलिया दादीक विचार सोनमी दीदीक मनमे अँटबे ने केलनि, जइसँ अकछाइत बजली-
काकी, ओते खिस्‍सा–पिहानी नइ पसारू। मुड़कुटिये मे कहियौ।
सोनमी दीदीक विचार सुनि भुलिया दादीकेँ मिसियो भरि ई तामस नइ उठलनि जे हमर पेटक सभ बात सोनमी नइ बुझऽ चाहैए। उल्‍टे मनमे खुशीए उपकि गेलनि। बजली-
बुच्‍ची, जहिना पाली भाषा राजसत्ता तक पहुँच फड़ल-फुलाएल मुदा ओ रसे-रसे केना विलीन भेल जाइए! जखनि कि पाली भाषाक साहित्‍य, कला, संस्‍कृति समयानुकूल सुसम्‍पन्न छल! जे मृत्‍युक कगारपर अछि।
भुलिया दादीक बात सुनि सोनमी दादीक मन आरो अकछि गेलनि। बजली-
अपन विचार करू काकी, दुनियॉं बड़ीटा छै तँए ओकर गरदनिक ढोलो आ घेघो ओहने नमहर छै।
सोनमी दीदीक अकछाइत मन देखि भुलिया दादी मने-मन विचारली जे कोनो बात-विचार जँ सुननिहारकेँ अकछबऽ लगै तँ पाशा बदलबे नीक। तहूमे दुनियॉं छोड़ि अपन बात सोनमी बुझऽ चाहैए। बजली-
बुच्‍ची, कहऽ लागल छेलियऽ जे अपना सबहक दिन घटल।
सोनमी दीदी-
की दिन घटल?”
भुलिया दादी-
दिन घटब भेल, काज घटब। लोककेँ जीबैले समैक अनुकूल बनऽ पड़ै छै, अनुकूलता पबैले जिनगीक अवस्‍थानुकूल आवश्‍यकता होइ छै, जे भेला पछातिये सही दिशामे चलि पबैए।
भुलिया दादीक बात सोनमी दीदी नीक जकॉं नहि बूझि पाबि रहल छेली, जइसँ फेर अकछा बजली-
काकी, तेना अहॉं झॉंपि-तोपि बजै छी जे नीक जकॉं बुझिये ने पबै छी। कनी फड़िछा कऽ बजियौ।
सोनमी दीदीक बात सुनि भुलिया दादीकेँ मनमे भेलनि जे जे बात सोनमीकेँ बुझैक मन छै भरिसक से बात छुटि गेल अछि। जँ से बात बजितौं तँ अकछाइत किए। बजली-
बुच्‍ची, अपना सबहक दिन खेती-पथारीपर चलैए। खेती-पथारी जड़ि भेल। अही उपज-उपार्जनपर पेटसँ लऽ कऽ परिवारिक-समाजिक किरिया-कलाप चलैए।
बिच्‍चेमे सोनमी दीदी मुड़ी डोलबैत बजली-
हँ से तँ चलिते अछि।
सह पबिते भुलिया दादी बजली-
पेट-परिवारसँ समाज धरिक जे किरिया-कलाप अछि तही बीच जिनगी चलैए। आइक युगमे मशीन सभसँ बेसी उत्‍पादित वस्‍तु बनि गेल अछि, जइसँ अपना सभ बहुत दूर भऽ गेल छी। जेतबो पहिने छल- माने अन्न आ दलहन-तेलहनसँ लऽ कऽ पटुआ, रूइया, कुशियार इत्‍यादिक मशीन, सेहो नष्‍ट भऽ गेल। बढ़ैक जगह कमि गेल। जइसँ किसानी जिनगीपर भारी चोट पड़ि गेल!”
भुलिया दादीक बात सोनमी दीदीकेँ नीक लगलनि। मुदा गामक औझुका घटना- माने भाषा दायकेँ जे बड़की बहिन अपना संगे चलैले कहै छथिन- ओइपर नजरि पड़िते सोनमी दीदी बाजली-
काकी, समाजक बीचक बात छी, नीक हएत जे दुनू गोरे संगे चलू आ भाषा दायकेँ हुनकर अपन विचार पुछि लियनु।
सोनमी दीदीक विचार भुलिया दादीकेँ जँचलनि। बजली-
हाथमे माटि लगल अछि, देखबे केने छेलह जे तुलसी-चौरा नीपै छेलौं, से पहिने धोइ लइ छी।
हाथ-पएर धोइ कऽ भुलिया दादी सोनमी दीदीक संग भाषा दाय ऐठाम विदा भेली।
घरक मुहथरिपर बैसि जेना भाषा दाय बहिनक बात सुनि कनिते रहली, तहिना ललौन ऑंखि। नोरक टघारक दाग ओहिना ऑंखिसँ गाल तक सुखाएल। ऑंगन लग पहुँचिते भुलिया दादी भाषा दायकेँ पुछलखिन-
बहिन, एना ऑंखि किए ललियाएल अछि?”
ललियाएल सुनि भाषा दाय बूझि गेली जे भरिसक राति भरिक जे कानब अछि ओ ऑंखि शिकाइत कऽ रहल अछि। अपनाकेँ संयमित करैत भाषा दाय बजली-
बहीन अपना सेने चलैले कहैए से जेनाइ नीक हएत? तेहेन-तेहेन एकरा सबहक लीला छै जे उलाइए-पका कऽ खा जाएत!”
भाषा दाइक मनक बेथा सुनि सोनमी दीदी बजली-
दीदी, अहाँ माए तुल्‍य छी, हम सभ बच्‍चा भेलौं। जहॉं धरि पार-घाट लागत तहॉं धरि सेवा तँ करबे करब, तइले केकरो बातमे किए पड़ब।
सोनमी दीदीक बात सुनि भाषा दाय मुस्‍कुराइत बजली-
अपन पूर्वजक लगौल सभ किछु छी, एकरा छोड़ि केतऽ जाएब। सबहक जीवन-मरण संगे रहत।¦¦ 
27 अप्रैल 2015, शब्‍द संख्‍या- 1223 



[1] सुगंध

नहरकन्‍हा (जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

नहरकन्‍हा

कातिक मास। काल्हिये दीयावाती छी। रौदमे ने जेठुआ जलनि अछि आ ने माघक सिरसिरी। ने हथियाक झाँट अछि आ ने मघ-असरेसक गर्जन-तर्जन। मुदा बिनु बरखो-बुन्नीक सौनक सुहावन तँ अछिए। भलहिं सौनमे गरम-ठंढाक घोर किए ने बनैत हउ, मुदा कातिकोमे तँ पानि-रौदक घोरमे ओसक मिश्रण बनिते अछि...।
बेरुका समए, गोसाँइ लहसैत दिन। चेतन काका हाथ-पएर मारि दरबज्‍जापर बैसल अपन बीर्तमान भविस दिस देखि रहल छथि। मनमे उठलनि, पनरह कातिक तीस अखाढ़ जे सूतल से गेल बजार! मुदा हम सूतल कहाँ छी, सुता देल गेल छी। तहूमे आइ चौदहम कातिक तँ छीहे। तही बीच रधिया काकी चाह नेने पहुँचलनि।
काकीक पएरक धमकसँ चेतन कक्काक भक् खुजलनि। भक् खुजिते तकलनि तँ आगूमे पत्नीकेँ चाह नेने ठाढ़ देखलनि। आँखिमे आँखि सटिते चेतन कक्काक मन अश्रु मिश्रित भऽ सिहरि गेलनि। सिहरलनि ऐ दुआरे जे पत्नीक पियासल आँखिमे पानिक तरास बूझि पड़लनि। मुदा भूख-पियास कोनो आइए भेल आ कि सभ दिनसँ रहल। जखने देहधारी जीव हएत तखने ओकरा जीबैत चलै-फिड़ैले अन्न-पानिक खगता हेबे करत। मुदा ओइ खगताक पूर्ति तँ अपने केने हएत। पत्नीक हाथमे चाहक गिलास देखि चेतन काका हाथ बढ़ा गिलास पकड़ि बजला-
काल्हिए ने उका-वाती छी?”
ओना रधिया काकीकेँ सेहो बूझल रहनि। कोनो पावनि परिवारमे पुरुख-पात्रसँ पहिने बाले-बोध आ जनिजातियेक कानमे पहुँचैए, आ ओ पहुँचैए आन परिवारसँ, समाजसँ। काल्हिए पावनि छी सुनि रधिया काकीक मन थकमका गेलनि। थकमकाइते मनमे की उठलनि से तँ ओ जानथि मुदा पतिक सोझासँ हटि, माने दरबज्‍जापर सँ आँगन दिस बढ़ि गेली। भऽ सकैए चुल्हि लग अपन छनाएल चाह ठण्‍ढाइ दुआरे बढ़ि गेल हेती चाहे पतिक सिनेहिल मन जगबै दुआरे सेहो। सिनेहिल मन ई जे जखन तबधल पेटमे चाह पड़तनि तखन पेटक ताप आ चाहक तापक संयोग होइते सिनेहिल विचार पनैपिते सिनेहिल मन बनतनि। आकि अखनो पतिक सोझमे चाह नै पीबैत होथि, तहू दुआरे हटल हेती चाहे आने कारणे...। 
चुपचाप पत्नीकेँ लगसँ हटैत देखि चेतन कक्काक मनमे अनेको प्रश्न एक संग उठलनि, उठलनि ई जे अपनो तँ जनिते छी जे घरमे किछु ने अछि, जखनि कि काल्हि ज्‍योतिक पावनि- दीपावली-क संग काली पूजा सेहो छी। लगले परसू गोबरधनक संग गाए-महींसिक चुमौन माने पखेब-सुकराती-हुरियाहा सेहो छी, तेकर सटले तरसू भाए-बहिनिक पावनि भरदुतियाक संग चित्रगुप्‍त-दवात पूजा सेहो छी। तैसंग सटले छठि पावनिक बीजवपन सेहो भऽ जाएत...,
...भरिसक यएह सभ सुइख ने तँ मनकेँ सता रहल छन्‍हि जइसँ मुँह छिपबै दुआरे परोछ भऽ गेली। मुदा लगले मनमे उठलनि जे किछु छथि तँ अर्द्धांगिनीए छथि ने, किए ने हुनकर मनक तरसैत ताप तरासि दिअनि। जे समए बनि गेल अछि, जेकर भुक्‍तभोगी अपना संग परिवार सेहो बनि गेल अछि। एहेन स्‍थितिमे तँ यएह ने नीक हएत जे सभ बात-विचार जी-खोलि दुनू गोरे जीसँ निकालि जीहक भिरानी करैत जिनगीक आगूक बाट हेरब...।
...मनमे अबिते चेतन कक्काक मन पानिमे बनैत पाथर जकाँ थीर भऽ गेलनि। मुदा लगले भेलनि जे ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे अपन पीबैले चाह चुल्हि लग रखने होथि जे पीबैले चलि गेल हेती। अनेरे मन वौआ रहल अछि, जेते समए अपने चाह पीबैमे लगत तइसँ कनीयेँ बेसी अँटैक सोर पाड़ि गपियाइए किए ने लेब। तैबीच चाहो सधलनि। गिलासकेँ चौकी तरमे रखि, तमाकुलक सूर-सार करए लगला। मुदा तैबीचमे पत्नी पहुँच गेलखिन। आने मिथिलांगना जकाँ रधिया काकी अपन बेथाकेँ बेवस्‍थित ढंगसँ साजि, मुँहक मुस्‍कान साजैत बजली-
की पावनि हएत! बच्‍चाकेँ जँ कितावे ने रहतै तँ ओ की पढ़त! आ की पौत! चाहे किसानेकेँ जँ  बरद नइ रहत तँ ओ गोबरधन पूजा की करत!!”
बेथाएल मने रधिया काकी बजली, मुदा चेतन काका सुनि कऽ वौआ गेला। वौआ ई गेला जे एक दिस बच्‍चाक विद्याध्‍ययनक बात उठेलनि मुदा लगले किसानक गाए-बरदसँ जोड़ि देलनि। मर्र ई की भेल? गाइक नाङ्गरि घोड़ाकेँ आकि घोड़ेक नाङ्गरि गाएकेँ केना छजत। मुदा ईहो तँ सम्‍भव अछिए जे बेथा-कथाक बखार भरल होन्‍हि, जे बहराइले मनमे उपरौंज केने होन्‍हि तँए गपक मुड़ीक ठेकाने ने रहल होन्‍हि। चेतन काका बजला-
पावनि छी काल्हि आ पीड़ाएल छी आइए? ऐ पीड़ेने नइ ने हएत। किए पीड़ाएल छी तेकर ने खोद-वेद करब।
चेतन कक्काक बोल रधिया काकीकेँ नीक लगलनि। सहटि कऽ लगमे एली। लगमे अबिते चेतन काका बजला-
आइ कातिकक चौदहम दिन छी, चौदहमी-चान सेहो उगत। काल्हिए गणेश-लछमी पूजाक संग घर-आँगन, दुआर-दरबज्‍जा, इनार-पोखरि, मालक थैरक संग चर-चौमासमे दीप जरत। तैसंग निसभेर रातिमे कालीक पूजा हेतनि।
पावनिक पावन विचार सुनि रधिया काकी विहुँसैत बजली-
हाइ रे कातिक! गिरहस्‍तक धरम-करम मास कातिक!”
कहि जेना मने-मन किछु विचारए लगली। विचारए लगली जे वृन्‍दावनक जमुना-कछेरक कदमक फूलक घुघरूक बीच फड़ केना छिपल रहैए...।
...मुदा दुनू गोरेक बीच चुपा-चुपी, धुपा-धुपी भऽ गेल। आँखिसँ नजरि धरि एक-दोसरपर चढ़ौने रहथि, मुदा मुँहमे बोल नहि, भाव रहितो अभावे-अभाव। परिवार छी, पति-पत्नीक सहयोगसँ संचालित होइए। चेतन काका बजला-
अपन गाम, अपन परिवार, अपन जिनगी कनाह भऽ गेल!”
कनाह सुनि रधिया काकी चौंकली। अछैते आँखिए कनाह! मुदा होइ तँ छैहे। आँखिक डेर-वार भेने सेहो लोक कनाह कहाइए। ओना एकटा आँखि नहियोँ रहने लोक कनाह कहबिते अछि, मुदा कनीयोँ ली-ओंच भेने तँ सेहो कनाहे कहबैए! खैर जे होउ। बजली-
की कनाह कहलिऐ?”
पत्नीक भाव पूर्ण प्रश्न सुनि चेतन काका बजला-
जहिना कोसिकन्‍हा भेल तहिना अपनो सभ नहरकन्‍हाक बासी भऽ गेलौं।
नहरकन्‍हा सुनि रधिया काकी मने-मन विचारए लगली जे ई की पावनिक जगह कहि रहला अछि। मुदा जे कहि रहल छथि तिनकेसँ किए ने खरियारि कऽ पूछि बूझि ली। पावनि काल्हि छी। विचार तँ हवाक गतिए चलैए। काज ने कटही गाड़ी जकाँ चर्र-चर्र करैत चलैए...। बजली-
की नहरकन्‍हा कहलिऐ?”
पत्नीक प्रश्न सुनि चेतन काका अपन मनक बेथा पत्नीपर आ पत्नीक बेथा अपनापर लैत बजला-
सम्‍पन्नता घटने विपन्नता अबै छै। अपन सभ किछु देखिते छी, तेहेन नहर गाममे बनि गेल, तैसंग सड़कसँ तेना घेरा गेल जे गामेक रूप कुरूप भऽ गेल। जहिना कोसीकातक सभ गाम कनाह नहि अछि मुदा ओहन गाम तँ कनाह अछिए जेकर चास-बास उकन-विपन भऽ गेल छै। तहिना देखबे करै छी जे धानक चास दहा गेल। पानिक जमाव रहने, गहुम, रब्‍बी-राइक संग वाड़ी-झाड़ीक तीमन-तरकारीक खेती छीना गेल, एहेन स्‍थितिमे...?”
एहेन स्‍थिति कहि चेतन काका बौक भऽ गेला! जेना दलदलमे फँसल हाथी बाहर निकलैले चीतकार करैत तहिना कक्काक चित्त चीत भऽ चीतकार करए लगलनि। बोल घौलाए लगलनि!
चेतन कक्काक विचार सुनिते रधिया काकीक भक् खुजलनि। बजली-
यएह दिवाली पावनि छी जइमे रंग-रंगक तीमनो-तरकारी आ अन्नो-पानि भरल रहै छेलए, अपनो खाइ छेलौं आ दोसरोकेँ पइत सम्‍हारै छेलिऐ। काल्हि पावनि छी आ आइ सुन्न घरमे ठाढ़ छी! केना दीप जरत?”
दुनू परानीक मुँहक बोल, ओइ पोखरि जकाँ सुखा गेल जेकर जाठिक समुच्‍चा देह उघार भेल बालु-माटिपर ठाढ़ भेल फटोफनमे पड़ल रहैए। एक-दोसरपर दुनू परानी नजरि दथि, मुदा लगले नीचाँ खसि पड़नि। ओना रधिया काकी अनभुआर जगहो आ अनभुआर रस्‍तो देखि सहमि कऽ सहजि गेली। सहजि ई गेली जे जखन नारी असगरो ब्रह्मचारिणी बनि सकै छथि तखन तँ हम पुरुखक संग छी। तहूमे ओहन पुरुख जे जीवन संगी छथिमन मचललनि, चल रे जीवन चलिते चल, सुख-दुखक संगे चल, जिनगी-मृत्‍युक सीमा धरि चल...।
...रधिया काकी विहुँसैत बजली-
अनेरे मनकेँ मारि रहल छी, यएह ने जे आनबेर भाँटिनक चारिटा तड़ूआसँ थारीक पारस सजाइ छल, ऐबेर नइ हएत। घर-अँगनामे दीप नइ जरत, तँए आगूओ नइ जराएब?”
पत्नीक बात सुनि चेतन कक्काक चेतन चनचनेलनि, मुदा लगले ठमैक गेलनि। ठमैक ई गेलनि जे बिनु तेल-वातीक दीया केना बड़त! बिनु शक्‍तिए ज्‍योति केना अनहारमे छिटकत! अपन के कहए, खाइ-पीबै दुआरे गामेसँ माल-जालक हरण भऽ गेल। केना गोबरधन पूजा करब! परात भने बहिन ऐठाम नैहराक की सनेस लऽ कऽ जाएब? भाव रहितो अभावे अभावक बीच चेतन काका बजला-
अपन मन हारि कहाँ कबूल करैए। मुदा फेर जिनगी हरण केना भेल?” 
कहि पत्नीक ओइ नजरिमे चेतन कक्काक नजरि घुसि दीवालीक दीप जरबए लगल जे सुख-दुखकेँ ओते नै जेते संगे-संग चलैत रहबकेँ महत दैत।¦¦
11 मार्च 2015, शब्‍द संख्‍या- 1209

साभार 
पसेनाक धरम कथा संग्रह...