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Friday, July 31, 2015

Jagdish Prasad Mandalk ''हरदीक हरदा'' कथासँ...


...झटकल घरपर आबि चुल्हिक ओरियानमे लगि गेलौं। सभ समान चुल्हि लग रखि मसल्‍लाक चङेरी आनए गेलौं कि हरदीकेँ भाषण करैत सुनलौं। मन ठमैक गेल। एक मन हुअए जे चङेरीए उठा चुल्हि लग रखि दिऐ, जे चुल्हिक काजो करब आ हरदीक भाषणो सुनब।
फेर भेल जे जँ कहीं चङेरी छूअब आ गनगुआरि जकॉं मुँह-नाङ्गरि सभ एकबट्ट कऽ लेत, तखन की सुनब? मन अग-दिगमे पड़ि गेल। अन्‍तिम विचार यएह भेल जे हरदी केतेकाल भाषणे देत। ओना चङेरीमे हरदीक संग मिरचाइ, धनियॉं, तेजपात आ नून सेहो छल। पॉंचोक बीच हरदी बाजल-
भाय, आब ऐ दुनियॉंमे जीब कठिन भऽ गेल अछि। हमरेटा नइ तोरो सभकेँ।
हरदीक उदारवादी विचार सुनि मिरचाइ कहलकै-
हरदी भाय, अनकर ठेकान तँ नइ बुझै छी, समए पाबि धनियॉं धनिको भऽ जाइए मुदा अहॉं भेलौं कि हम आकि नून भेल, तीनू गोटे तँ सभ दिनसँ एकठाम छी।
मिरचाइक बात सुनि हरदी मने-मन सोचलक जे मिरचाइ बुधियारी मारए चाहैए। कहू जे हम अपन जन्‍मभूमिपर छी, जन्‍मस्‍थानपर छी, ओना मिरचाइयो अछि मुदा नूनकेँ किए सानि लेलक? दुनूक चलाकी छी, दुनू मिलि मरूआ रोटीक संग चलि जाएत हमरा छोड़ि देत।
फेर हरदीक मनमे उठल- एना जे एकटाकेँ दुसब आ दोसरकेँ पुछब से नीक नहि हएत। तँए सबहक बीच किए ने एक राय बना विचारि लेब।  
डिब्‍बाक भीतरसँ धनियॉं बाजल-
भाय हरदी, पहिने अपन बात बाजह जे आगू दिन-ले की दुख भऽ रहल छह।
धनियॉंक बात सुनि हरदीक मनमे ओहन आस जगल जे बेटी बिआहक देल सहयोगक तगेदा ई कहि करैत जे हुअए तँ देब नइ तँ नहि देब। सोल्‍होअना कहब जे नइ देब। रीन लादब भेल। ओ देनिहार- माने आपस केनिहार- समैनुकूल निर्णए करता।
लोको तँ लोक छी, धन देख धनमन्‍त कहि असीरवाद दइए जे पॉंच पुरुखा तकक लेल अरजि देलिऐ, ने घरक दुख आ ने खाइ-पीबै आ ऐश-मौज करैक दुख बाल-बच्‍चाकेँ हुअ देब। मुदा ई थोड़े ओही मुहेँ कहत जे पछिला पुरुखाक जे ढेरीपर बैसल छी, से भेल केना। अहॉंले अहॉंक पिता आकि बाबा की सभ आ केना केलनि।
मने-मन हरदी गमलक जे बाते-बातमे विवाद भऽ जाएत, काजो रहि जाएत कातेमे आ जिनगीओ चलि जाएत खत्तेमे। से नहि तँ पहिने अपन बेथा कहि देब नीक रहत। जँ कियो दुख देख-सुनि दुखी भेल आ दुर्दिन-ले दोस भेल सेहो बड़बढ़ियॉं नइ तँ अढ़ाइ हाथ सभपर छै, अपन-अपन बूझि लेत। बाजल-
भाय-बन्‍धु, जे जनमभूमि सभ दिनसँ अपन रहल, बाप-दादाक तपोभूमि रहलनि, जे अपन देह गला-गला बलिवेदीपर चढ़ि एक दिस पुन-परताप करैत आएल छथि तँ दोसर दिस जनमभूमिमे नव सृजनक सहयोगी मॉं जननीक रहलनि, तैठाम पेटेन्‍ट कहि पट्ठा बनबए चाहैए?”
हरदीक बात सुनि बिच्‍चेमे खड़खड़ाइत तेजपात बाजल-
ऐ भाय! एहेन अन्‍हेर?”
तेजपातक प्रवाहमे बहैत हरदी बाजल-
भाय, अन्‍हेरे किए कहै छहक, इन्‍होर आ अन्‍हार किए ने कहै छहक?”
मिरचाइ टोनियबैत बाजल-
भाय, जखन अपन दुखनामा बजै छह ते एकहरफी बजैत चलह। बीचमे भौक-भाक हेतह ते महाभारतक सयम श्‍लोक जकॉं भऽ जेतह।
मिरचाइक बात सुनि हरदीक मनमे बिसवास जगल जे सभसँ लगमे सुनिनिहार मिरचाइ अछि। वेचारा सजमनि सन तरकारीमे बिनु तेलोक संग पुरैए। एहेन संगीकेँ संगे लऽ चलब नीक हएत। मुदा संगी जे संगबे हएत तइले ते नीक-सँ-नीक आ अधला-सँ-अधला बात-विचारक सम्‍बन्‍ध नइ राखब तँ ओ रस्‍तेमे थुसकुनियॉं मारि देत किने...। 
बाजल-
भाय मिरचाइ, भलहिं तोहर गुण लोक ओहन बुझथु जे अधिकतर संगी सभसँ फुट छह, माने सुआदक नजरिये, मुदा संगी नइ छहक सेहो बात नहियेँ अछि। लाल मिरचाइक संग कारी मिरचाइ सेहो अछिए। भलहिं तूँ अपना पएरे धरतीपर ठाढ़ भऽ फुलाइत-फड़ैत अपन कल्‍याण करै छह आ करिया मिरचाइ अनका पएरे अनका सिरपर चढ़ि कऽ कल्‍याण करैए। सएह ने?”
अपन परिवार दिस बातकेँ अबैत देखि मिरचाइ बाजल-
भाय हरदी, सभ अपना-अपना मुहेँ अपन-अपन बात बाजह, नइ तँ गड़बड़ भऽ जेतह। मोटका चाउरमे महिक्का जेना नुका रहैए तहिना हेतह।
अह्लादित होइत हरदी बाजल-
भाय मिरचाइ, की अपन बात कहबह, बहरबैया जे सेखी उतारैले उताहुल अछि से तँ अछिए, घरबैयो सभ कम खचड़ै नइ ने करैए।
खचड़ै सुनि तेजपातक मनमे उठल, भाय घरबैयाक जखन एहेन दुर्दसा छै तखन हम तँ सहजे बहरबैया भेलौं। मुदा केतबो बहरबैया छी, तँ लोक अपना छातीपर हाथ रखि बाजह जे पुश्‍त-पुश्‍तानिसँ संगे सभ मिलि-जुलि रहैत एलौं हेन की नइ? बाजल-
भाय, की खचड़ै कहलहक?”
जहिना केकरो बेथा सुनिनिहार भेटने मनमे सुआस जगै छै तहिना हरदीओकेँ सेहो जगलै। बेथित होइत तेजपातकेँ कहलक-
भाय तेजू, की कहबह अपन मनक हाल, तेहेन खच्‍चड़क शिरोमणि सभ भऽ गेल अछि जे अधपक्कू ईटाकेँ पीस लइए तइमे कनी केमिकल मिलौल पीअरका रंग फेँट कऽ बीच बजारमे पटैक हमरा बेइज्‍जत करैए।
दुनू हाथसँ धनियॉं सभकेँ शान्‍त करैत बाजल-
भाय, हमहूँ जनमडीही छी, एकर माने ई नइ जे ओ आन भेला। जँ बहरबैयो छथि आ गंगा-सागर जाइले संगी छथि, तखन जँ कोनो मनमे कुवाथ अनै छी से नीक नहि। सभ संगी छी, सभ दिन जहिना बाप-दादाक अमलदारीसँ रहलौं तहिना आगूओ रहब।
मिरचाइ अपन विचार देलकै-
देखह भाय हरदी, केतबो कियो तोरा आगूसँ आकि पाछूसँ धकलै छह तँ की तूँ धकिया जाइ छह, तइले अपन दिन-दुनियॉं ने देखए पड़तह। अखन बस एतबे करह जे सभ अपन-अपन चिन्‍हा-परिचए, गुण-अवगुण अपना मुहेँ कहि कऽ आइए अपन-अपन छान-बान दुरुस कऽ लएह। पछाति सब संगी भेलौं, संगे चलब, बस एतबेसँ सबहक काज चलैत रहत।
पाछू घुसकैत नून बाजल-
भाय, सभकेँ बाप-दादाक ठेकान, खाता-खेसरा आ जमीन छै, हमरा ते किछु ने अछि। कखनो समुद्रक पानिमे दहा जाइ छी, तँ कखनो सिंध नदी होइत सिंध पहाड़मे घोंसिया जाइ छी। कखनो उस्‍सर-खासरक टोपी बनि माटिमे फुला जाइ छी। के एते मुइलहा बाप-दादाक खतियान ताकत। लूटि लाउ कुटि खाउ भिनसर भने फेर जाउ। भाय, हमरा विषयमे जे जेते जनै छह, हम एतबे कहबह।
नूनक दुखनामा सुनि तेजपात बाजल-
भाय, हमहूँ सभ मिथिले-वासी छी। तखन तँ सभ दिनसँ पहाड़पर बसैत एलौं, तँए अखनो बसै छी, मुदा पहड़नीओं बनि तोरा सबहक संग कहियो छोड़लियह हेन।” 

'हरदीक हरदा' कथासँ साभार....

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