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Thursday, October 23, 2014

कटा-कटी

कटा-कटी











चैत मासक बेरुका समए। आने दि‍न आ आने जकाँ कामि‍नी काकी अँगना-घरक काज सम्‍हारि‍ घासक बेर होइत जाइत देखि‍ धड़फड़ाएल छथि‍। जाइक समए भेल जा रहल छन्‍हि‍। बेटी कबुतरी दि‍स तकलनि‍, तकलनि‍ ई जे आन दि‍न ओसाराक छाहरि‍ देखि‍ अपने रस्‍तापर पहुँच धूरा-गरदाकेँ चि‍क्कन बना, टोलक आनो-आन बच्‍चाक संग सभ दि‍न खेलाइए। आइ कि‍ए ने ससरि‍ रहल अछि‍, मुँह फुलौने बैसल अछि‍। लगमे पहुँच कामि‍नी काकी बजली-
कानि‍नी दायकेँ, आइ कि‍ए ने अँगनासँ आसन टुटै छन्‍हि‍। कखनि‍ आसन-बासनक ओरि‍यान करती।
धनि‍याँ-मि‍रचाय संग पीसल मसाला जहि‍ना चुल्हि‍क ताैपर लोहि‍यामे पड़ि‍ते आँखि‍मे कुट-कुटा कऽ लगैत तहि‍ना बाल-बोध कबुतरीकेँ माइक बात कुट-कुटा कऽ धेलक। बाजल-
खेलाइ ले नइ जाएब। कटा-कटी कऽ देलक।
‘कटा-कटी’ बजि‍ते जेना कबुतरीक वृन्‍दावन दहलि‍ उठल। ठुनकए लगल। जेना केते भारी राज-पाट कबुतरीक छीना गेल होइ तहि‍ना ठुनकी भरैत गेल। दुदि‍सि‍या माए कामि‍नी, आब की करती। बच्‍चा  जखनि‍ घरसँ नि‍कलि‍ खेलाइले चलि‍ जाइए आ टोलक बच्‍चाक संग साँझ धरि‍ कि‍शुन-कन्‍हैया जकाँ खेलाइत रहैए, तखने हमरो बाध-बोन जाइक समए भेटैए। बाध-बाेन नै जाएब से बनत, बाध-बोन जि‍नगी देने अछि‍ तेकरा केना छोड़ि‍ देब। मुदा जखनि‍ हँसैत बच्‍चा अँगनासँ नि‍कलि‍ रस्‍तापर खेलाइले जाइए तखनि‍ ई कहाँ बुझैए जे माए आँगनमे नै अछि‍। तँए बच्‍चाकेँ बि‍ना बौसने कामि‍नी काकी केना नि‍कलती। बजली-
दाइकेँ की भेलनि‍ जे एना फुफुआइ छथि‍न?” 


अंतिम पेजसँ........................................................... 




माटि‍एक भात-दालि‍-तरकारी हाथसँ उठा-उठा नीचका दाढ़ीमे भि‍रा-भि‍रा नि‍च्‍चेमे रखि‍ भोजक जश दैत सभ पंच एक मुहेँ बाजल-
घरबैयाकेँ धैनवाद।
दि‍न खसल। कामि‍नी काकी बाधसँ आबि‍ घूर पजारि‍ रहल छेली, तखने कबुतरी पहुँच बाजल-
माए, भोजमे खूब जश भेल।
कबुतरीक खुशि‍याएल मन देखि‍ कामि‍नी काकीक मन सेहो खुशि‍येलनि‍।¦१,१४०¦

३० जुलाई २०१४

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