अलपुरिया बरी
अलपुरिया बरी
फागुनक लहकी लगनक धुमसाही, बटोहीसँ बाट बोनाएल रहैए।
फगुआ मनबए दिनेश भाइ काल्हि साँझू पहर गाम पहुँचला। लगनक धुमसाही देखि अपने
फुड़ने बजला-
“अखनि तकक जिनगीमे दुइयेटा घरदेखिया भोज पइर
लगल अछि।”
अकछाइत पुछलियनि-
“एना किए सुमारक होइए, दिनेश भाय?”
‘सुमारक’ सुनि सुमरला-
“पहिल पइर लगल पचही आ दोसर पइर लगल अलपुरा।”
बजैक फुड़फुड़ी देखि टोनि देलियनि-
“मने-मन गुर-चाउर फँकै छी आ...।”
एतबे सुनैत बजला-
“घरदेखिया भोज कहै छेलौं, घरदेखीमे अपनैत चलै
छै जइमे लोक जमाए-वर्गसँ ममिऔत तक पुरा लइए। मुदा तेतबे से थोड़े अछि।”
टोकारा देलियनि-
“से की?”
बजला-
“जाति-जाति बीच
समाज बनि टुकड़ी-टुकड़ी टूटि रहल अछि, मुदा गुण अछि जे केकरोसँ दोस्तीए ने
अछि।” अंतिम पेजसँ्.्.्.्....................................................
मकै लाबा जकाँ हँसैत भड़भरेला-
“दोसर खेप अलपुरिया बरीसँ भेँट भेल।
गोलगर-गोलगर, फुलल-फुलल। पछिला भोज धक दनि मन पड़ि गेल। बरीक संग बर। भरिसक
तहिना फुलल-फुलाएल अछि। मुदा ले बलैया अँठियाएल रसगुल्ला जकाँ तरमे आँठी बूझि
पड़ल। भोजपुरिया लिट्टी जकाँ, मुदा सेहो कहाँ भेल, ओ सूखल जिनगी जीबैए। बड़ हएत
तँ ओ जलखै हएत मुदा ई कल्लौ भेल।”¦२८७¦
१२
मार्च २०१४
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