केते लग केते
दूर
पछिला
मासक पत्रिकाक अंकमे आभाक कविता ‘केते लग केते दूर’ छपलनि। ओना किछु पढ़निहार
एहनो होइ छथि जे पत्रिका होइ आकि पोथी, शुरूसँ शुरू करैत अन्त करै छथि आ किछु
एहनो होइ छथि जे पढ़ैसँ पहिने पत्रिका-पोथीकेँ उनटा-पुनटा पसिनगरसँ पढ़ब शुरू
करै छथि। रविन्द्रोकेँ सएह भेलनि। पत्रिकाकेँ उनटबिते आभाक कवितापर नजरि गड़ि
गेलनि। पहिने कविताकेँ लड़ी-कड़ीक दृष्टिसँ पढ़लनि। पछाति झड़ीक दृष्टिसँ
पढ़ब विचारि लेला। लड़ी-कड़ीमे केतौ कोनो बेवधान नै बूझि पड़लनि, मुदा
झ़ड़ीमे बौआ गेला। आभा अपन परिवारक वृत्त बनौने छेली जखनि कि आभाक संग जे रविन्द्र
अपन जिनगी बितौने छला, से भाव पकड़ा गेलनि। कविता पढ़ि रविन्द्रक मुहसँ
अनायास निकललनि-
“सचमुच आभा दूर चलि गेली आकि...?” अन्तिमपारा...................
परिवारक
उलझन तेना उलझि गेल जे रविन्द्र अपन दरमाहापर अपन परिवार ठाढ़ केलनि। गामसँ
हटि, दोसर गाममे। अपन घराड़ी कीनि घर बना रहए लगला। ओना वृत्तिये रविन्द्र शिक्षासँ
जुड़ल रहला, मुदा सृजनक काज ढील पड़ि गेलनि। हृदैमे संवेदना रहितो किछु रचि
नै पबथि, मुदा आभाक सृजन क्रिया आगू बढ़ल, बहुत आगू बढ़ल। अनेको कविता संग्रह आ
एकटा महाकाव्य रचि लेलनि।
पत्रिकाक
कविता ‘केते लग केते दूर’ पढ़ि रविन्द्र मने-मन विस्मित होइत आभाक जिनगी
देखए लगला। बेर-बेर मनमे उठैत रहनि जे जइ आभाकेँ हाथ पकड़ि कहियो पढ़बै-लिखबै
छेलौं, ओ केते दूर चलि गेल।¦१,२५५¦
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