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Tuesday, September 9, 2014

फक दऽ नि‍साँस छूटल (क. शारदा नन्‍द सिंह)

शारदा नन्‍द सिंह ::

फक दऽ नि‍साँस छूटल

की यौ भाय, एतै डेरा आबि‍ गेलै की?”
हँ औ बाबू, की कहब एतेक दि‍नसँ...।
हँ-हँ से की?”
अरे बा, आबो बुझैमे कोनो भाँगठ अछि‍?”
यौ, कहैबला कोनो बात छै ऐमे। की कहू कए पुश्‍त बीत गेलैए, हमर पुरखा, ति‍नको पुरखा आ हुनको, तीन मुँह घर एके दुरखा। छला कहबैत मुँहपरखा। गामेटा नै दि‍गारि‍ भरि‍मे। तँ धि‍या-पुता बुझू काँकोरेक बच्‍चा भरा गेलै सभ खादि‍-चबहच्‍चा। मुदा वेमनसताक अपगम नै सभतरि‍ रस्‍ता जाम कलह द्वेष कुलषि‍त भावना, नीनो होइ हराम। भोर-साँझ एक्के रंग युद्ध होइ घमशान। केकरोसँ कि‍यो कम नै, मनु-भैंसाक शान।
हम कहलि‍ऐ अपन ननकि‍रबाकेँ-
चल छोड़ि‍ एकरा सभकेँ, नै बँचतौ आब प्राण। तँए नै मुँह मलान। फक दऽ नि‍साँस छूटल रहै छै काजमे जुटल। घर फूटल गमारे लूटल। हे भूमि‍ देब तीन पुरखाक झंझटसँ पि‍ण्‍ड छूटल। रहै ने एना घर फूटल। ओहेन घरसँ बढ़ि‍याँ बरू ई केहनो छै मरैया लटकल।
परि‍वारक प्रभाव समाजपर, समाजक प्रभाव देशपर। मुदा हमरा परि‍वारपर तेकर कोनो ने असर। ने काजक प्रति‍ समर्पण आ ने समैक प्रति‍वद्धता, ओ अभावे भरल असभ्‍यता। 

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