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Wednesday, September 24, 2014

मर्दानी नारी (क. फागु लाल साहु)

83म सगर राति‍ दीप जरय, सखुआ-भपटि‍याहीमे पठि‍त कथा-

 

मर्दानी नारी

 






मर्दानीक मतलब होइत अछि‍, नि‍डर, साहसी, स्‍वतंत्रता व आत्‍मनिर्भरता। नारी जेतेक अछि‍ सबहक अन्‍दर ई तागत अछि‍, परन्‍तु   खगता ऐ बातक अछि‍ जे नारी सभ ई बातकेँ समझौ आ समझि‍ कऽ बाहर नि‍कालौ।
ई कथा छी एकटा अब्‍बल-दुब्‍बर गरीब नारीक। बर्ख २०१३ ति‍थि‍ स्‍वतंत्रता दि‍वसक दि‍न हरि‍पुर डीह टोलक रूपनी देवी, मधुबनीसँ कलुआही जाइवाली पक्की सड़कक कातमे एकटा छोट-छीन चाहक दोकान खोलि‍ अपन रोजगारक शुरू केलक‍। रूपनीकेँ ई दोकान खोलैक प्रयोजन ऐ लेल पड़ल जे एक दि‍न अन्नक अभावमे बाले-बच्‍चे भूखले सूतए पड़लै। वि‍हान भने रूपनीक पति‍ भोला रोजी वास्‍ते गामक मालि‍क टुनटुन ठाकुरक हबेलीमे पहुँच मजदुरी करए लगल।
दोकान खोलैसँ पनरह दि‍न पहि‍नेक बात छी। रूपनी अपन पति‍क कमाएल बोइन लबैले टुनटुन ठाकुर हबेलीपर गेल। भि‍नसरक आठ बजैत रहै। रूपनीकेँ देखि‍ते ठाकुर साहैब पुछि‍ बैसल-
केतए एलेँ रूपनी?”
बाजलि‍-
मालि‍क, बोइन लइले।
एतबे बात सुनैत टुनटुन बाबू भड़कि‍ उठला। रूपनीकेँ फटकारैत बजला-
अखनि‍ तँ भोलबा खेतमे पहुँचबे कएल आ तूँ बोइन ले चलि‍ एलेँ।
रूपनी सकदम भऽ ठाढ़े छल। आकि‍ पुन: टुनटुन बजला-
खुरपी ले, दरबज्‍जाक सभटा घास उखार तखने बोइन देबौ।
ई बात सुनि‍ते रूपनीक आगू राति‍क तरेगन सोझहामे आबि‍ गेल। माथपर हाथ दऽ सोचए लगल। की करूँ, राति‍मे तँ सब परानी भूखले सुति‍ रहलौं। अखनि‍ की खाएत आ खाएब। मालि‍कक बात तँ नि‍ठुर होइते अछि‍। कमाएलो बोइनपर लुलकार सुनैए पड़ै छै। आब की करब! पेटमे अन्न नै, गामपर बच्‍चा बाटे तकैत हएत जे मालि‍क ऐठामसँ कि‍छु आनत माए तँ खाएब। मुदा ई कोन भगवानक चक्र छी। नै आब छूछ हाथे घर नै जाएब। सोचैत रूपनी चटे हबेलीसँ धुरि‍याएले पएरे घूमि‍ बजार पहुँचल। बजारक एकटा कि‍राना दोकानपर आबि‍ दोकनदारकेँ कहलक-
मालि‍क, ई हमर नाकक छौंक रखि‍ लि‍अ आ चाउर-आँटा दि‍अ।
दोकनदार बाजल-
भोला हमर दू दि‍न काज केने छल, जे बोइनो पछुआएल छै। अहाँ जे समान लेब से बाजू दऽ दइ छी।
रूपनी सोचैत बाजलि‍-
एक दि‍नक बोइनक चाउर-आँटा दऽ दि‍अ आ एक दि‍नककेँ चाहपती-चीनी आैर बि‍स्‍कुट आैरो पलाष्‍टि‍कक पचासटा गि‍लास दऽ दि‍अ।
दोकानदार बाजल-
पाहुन अबै छथि‍ की?”
रूपनी-
नै, चाहक दोकान खोलब।
दोकानदार चाहक दोकान खोलै जोकर सभ समान दैत समझबैत-बुझबैत दोकान चलबैक सभ तरीका बुझा रूपनीकेँ वि‍दा केलक।
रूपनी घर अबि‍ते पहि‍ने खेनाइ बना बाल-बच्‍चाकेँ खि‍आ पति‍ लेल खेनाइ लऽ ठाकुर साहैबक खेत जा भोलोकेँ खि‍एलक। पछाति‍ ओतएसँ घर आपस वि‍दा भेल। बाटमे अबैत रूपनीकेँ ठाकुर साहैबक मलि‍काना बात झुड़झुड़ाइत माथकेँ घुड़ि‍यबैत, पछाति‍ बरहम स्‍थानमे बैसि‍ दोकानक जगह टोहि‍या‍ लेलक। टोहि‍यबि‍ते ओतए घर आबि‍ पहि‍ने खेनाइ खेलक।
दोसरे दि‍न रूपनी स्‍वतंत्रता दि‍वसक अवसरि‍पर चाहक दोकान खोलि‍ अपन मधुर भाषाक सहयोगसँ चाह-बि‍स्‍कुट बेचए लगली। अपन हूनर संग साहसकेँ बटोरि‍ पति‍केँ मजदूरी करैसँ मना करैत दोकानेपर काज करैक बोध देबए लगली। भोला सेहो मालि‍क ठाकुरक झझकारकेँ मोन पड़ैत दोकानक काजमे जतनसँ लागि‍ गेल।
रूपनी साले भरि‍मे काफी उन्नति‍ करैत दोकानक रंग-ढंग बदलि‍ देलक और अपन पति‍ भोलाकेँ मालि‍क कहि‍ सम्‍बोधि‍त करैत चाहक दोकानसँ मि‍ठाइ, जलपान आ भोजनक दोकान बना रूपनी अपन साहस आ मर्दानीक संग आत्‍म निर्भरताक परि‍चए दैत स्‍वतंत्रताक जि‍नगी जीवि‍ रहल अछि‍।   

 

 

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