केते लग केते दूर
पछिला
मासक पत्रिकाक अंकमे आभाक कविता ‘केते लग केते दूर’ छपलनि। ओना किछु पढ़निहार
एहनो होइ छथि जे पत्रिका होइ आकि पोथी, शुरूसँ शुरू करैत अन्त करै छथि आ किछु
एहनो होइ छथि जे पढ़ैसँ पहिने पत्रिका-पोथीकेँ उनटा-पुनटा पसिनगरसँ पढ़ब शुरू
करै छथि। रविन्द्रोकेँ सएह भेलनि। पत्रिकाकेँ उनटबिते आभाक कवितापर नजरि गड़ि
गेलनि। पहिने कविताकेँ लड़ी-कड़ीक दृष्टिसँ पढ़लनि। पछाति झड़ीक दृष्टिसँ
पढ़ब विचारि लेला। लड़ी-कड़ीमे केतौ कोनो बेवधान नै बूझि पड़लनि, मुदा
झ़ड़ीमे बौआ गेला। आभा अपन परिवारक वृत्त बनौने छेली जखनि कि आभाव संग जे रविन्द्र
अपन जिनगी बितौने छला, से भाव पकड़ा गेलनि। कविता पढ़ि रविन्द्रक मुहसँ
अनायास निकललनि-
“सचमुच आभा दूर चलि गेली आकि...?”
चालीस
बरख पूर्ब रविन्द्रकेँ आभासँ भेँट भेल। सेहो ओहिना नै, मोटर साइकिलक एक्सिडेन्टक
पछाति। हाइ स्कूलक एगारहम कक्षाक छात्रा आभा, मोटर साइकिलसँ तरकारी बजार जाइ
छलि, अनासुरती मोड़पर साइकिल सवार रविन्द्रकेँ गाड़ीक धक्का लगि गेल। जइसँ
साइकिल सहित रविन्द्र सिमटीक सड़कपर खसि पड़ल। दहिना बाँहिक केहुनीक जोड़
छिटकि गेल। एक्सिडेन्ट भेला पछाति जहिना लोक हाथ-पएर उठा-उठा देखैए जे
टुटो-फाट भेल आकि चोटेटा लगल तहिना रविन्द्रो पहिने डेन उठा देखैत रहए आकि
बिच्चेमे आभा मोटर साइकिल रोकि लग आबि रविन्द्रकेँ पुछलक-
“देहमे दर्द बेसी तँ ने अछि?”
दर्द
पुछैक कारण आभाक छल जे जेते बेसी दर्द तेते नमहर चोट। आभाक बाजब सुनि रविन्द्रक
मन अपन चोटसँ बहटि आभाक चेहरापर लटैक गेल। शारदीय गुलाब जकाँ कण-कण करैत आभाक
चेहरा। ओना रविन्द्रक नजरि आभाक रूप-लावण्यपर पड़ल मुदा आभाक नजरि दोसर दिस
छल। दोसर दिस ई जे आभा अपनाकेँ अपराधिनी बूझि सेवाक विचारसँ आएल छलि। मनमे
नचै छेलै जे ओना केहनो अपराधक वा नीच काजक पैतकार हटिए कऽ कएल जाइ छै मुदा जँ
अपराधक वा नीच काजक पैतकार सर-जमीनपर केला पछाति जे दर्द भरै छै ओ बेसी नीक होइ
छै। बिनु बुधि-विवेकक जहिना मोटर साइकिल तहिना साइकिल। तैबीच जँ भिड़न्त
भेल तँ भेल। सम्भवो अछि, जँ चलौनिहारक नजरि केम्हरो दोसर दिस रहल होइ वा
ब्रेक ढील पड़ि गेल होइ। चोटसँ जँ शरीरक कोनो अंग-भंग भेल हएत तँ ओकर पैतकार कएल
जा सकैए। जइसँ जेतए जेते धरि सम्भव हएत, तेतए तेते धरि पूर्ब रूप बनि सकइ। रविन्द्रक
हाथ पकड़ि आभा उठौलक। जइ बाँहिक जोड़ छिटकल छल ओकरा उठबिते रविन्द्र किलकारी
मारलक। किलकारी सुनि आभा बूझि गेल जे भरिसक बाँहि टुटि गेल छै। फुलब सेहो
शुरू भेल। मने-मन आभा निश्चय केलक जे रविन्द्रकेँ अस्पताल लऽ जाएब नीक हएत।
मुदा अपन गाड़ी आ रविन्द्रक साइकिल केना जाएत। पहिने लगक दोकानदार लग जा आभा
बाजलि-
“एक्सिडेन्ट भऽ गेल अछि अस्पताल जाएब जरूरी अछि, तँए अहाँ साइकिलो आ
गाड़ीओकेँ देखैत रहब।”
कहि
दोकानक आगूमे साइकिलो आ गाड़ीओ आनि ठाढ़ कऽ देलक। रिक्शापर रविन्द्रकेँ अस्पताल
लऽ गेल। जाँच-पड़ताल भेला पछाति केहुनी जोड़क प्रश्न उठल। सम्पन्न परिवारक आभा,
पाइक परवाह नै। डाक्टरकेँ कहलक-
“डाक्टर साहैब, जेते बढ़ियाँ आ जेते जल्दी नीक होइ, से उपए करि दियौ।”
सुइया-दबाइक
संग पलश्तर भेल। अस्पतालक चरपाइपर रविन्द्र पड़ल आ एक भागमे आभा बैसल। तैबीच आभाक पिता कोर्टमे
एक्सिडेन्टक समाचार सुनलनि। नीक आेकील दिवाकर बाबू। एक्सिडेन्ट सुनि बिच्चेमे कचहरीसँ अस्पताल विदा भेला।
ओना
दिवाकर बाबूक गिनती नीक ओकीलमे छन्हि, भलहिं पहिनेसँ आब कमाइओ कमि गेल आ
जेहो सभ नीक कहै छेलनि सेहो सभ अधले कहए लगलनि अछि। तेकर कारण भेलनि जे अपन
पत्नी मुइने बाल-विधवासँ बिआह कऽ नेने छला। अपन पुश्तैनी सम्पति सेहो आ
कमाइओसँ दरभंगेमे भारी-भरकम मकान बनौने छथि। जाति-बेरादरीसँ खान-पान टुटि गेलनि,
सामाजिक सम्बन्ध ढील भऽ गेलनि। मुदा तेकर मिसिओ भरि गम नै छेलनि। आभा
पहुलका पत्नीक सन्तान, मुदा परिवारमे कोनो दूजा-भाव नै। दिवाकर बाबू रविन्द्रकेँ
पुछलखिन-
“बाउ, की नाओं छी आ केतए रहै छी?”
दर्दक
पीड़ासँ रविन्द्रक बकार असोथकित छल, तैयो बाजल-
“रविन्द्र नाओं छी, रामपुर रहै छी।”
“ऐठाम की करै छी?”
“आइयेमे पढ़ै छी, होस्टलमे रहै छी।”
दिवाकर
बाबूक मन नाचि उठलनि, ऐठाम कियो आन देखैबला नै छै। नीक हएत जे अपने एेठाम लऽ जा
देख-भाल करब। डाक्टरक विचारसँ रविन्द्रकेँ अपना ऐठाम लऽ गेला। आभाकेँ देख-भाल
करैक भार सुमझा देलखिन।
मास
बीतैत रविन्द्रक पलश्तर कटल। केहुनी जुटि गेल। अखनि धरि सभ दोख आभापर छल, किएक
तँ आभाक गाड़ीसँ धक्का लागल छेलै। मुदा मने-मन रविन्द्र बुझै छल जे गल्ती हमरे
अछि। गल्ती ई जे कुसाडि चलबै छेलौं। जेकरा प्रकट केने पाशा बदलि जाएत तँए चुपे
रहल।
पाँच
बजे बेरुका समए, दिवाकर बाबूकेँ देखिते रविन्द्र बाजल-
“चाचाजी, अपने लोकनि बहुत सेवा केलौं, काल्हि चलि जाएब।”
ओना
रविन्द्रक प्रश्न दिवाकर बाबूसँ छेलनि तँए आभा बीचमे किछु बाजए नै चाहैत। दिवाकर
बाबूकेँ आभा छोड़ि दोसर सन्तान नै, समटल परिवार, तीनियेँ गोटेक। दिवाकर बाबू
किछु बजैसँ पहिने आभापर नजरि देलनि। नजरि दइक कारण छेलनि आभाक विचारकेँ
पढ़ब। आभासँ एक्सिडेन्ट भेल, इलाज भेल, की आभाक मन मानि रहल अछि जे परतबएक पैतकार
भऽ गेल आकि किछु औरो बाँकी अछि। पिताक नजरिसँ नजरि मिलिते आभा बाजलि-
“बाबूजी, रविन्द्रकेँ अपने ऐठाम रखि लिअ। अखनि धरि चोटक इलाज ने भेल,
मुदा चोटाएलकेँ उठाएबे ने मनुखता भेल।”
मुस्की
दैत दिवाकर बाबू अपन सहमति दऽ देलखिन।
दोसर
दिन होस्टलसँ रविन्द्र अपन सभ समान लऽ आभाक संग चलि आएल।
समए
बीतल। छह मासक पछाति रविन्द्र गाम आएल। परिवारमे केकरो रविन्द्रक दुर्घटनाक
जानकारी नै। ने रविन्द्रे जानकारी देने आ ने कियो आने। जहिना रविन्द्रक
जानकारी परिवारकेँ नै तहिना परिवारोक जानकारी रविन्द्रकेँ नै। ओना रविन्द्रकेँ
पढ़ाइक खर्च परिवारसँ आएब बन्न भऽ गेल मुदा दिवाकर बाबूक बेवस्थासँ कोनो अखर नै
होइ छेलै।
गाम
अबिते रविन्द्र परिवारक रूप बदलल देखलक। जैठाम सिनेह सिंधुमे परिवार-जन हरिदम
डुमल रहै छल तैठाम अनोन-बिसनोन बूझि पड़लै। जेना केकरोसँ केकरो लगिए नै। सभ
बेलागिक। रविन्द्रक पिता दू भाँइ, एक भाँइक बेटा रविन्द्र आ दोसर भाँइकेँ
तीन बेटा, नगेन्द्र, महेन्द्र आ सत्येन्द्र। नगेन्द्र जेठ भाय, तँए पिताक
मृत्युक पछाति घरक गारजन बनि गेला। दुनू परानी नगेन्द्र विचारलनि जे रविन्द्रकेँ
सम्पतिसँ बेदखल कऽ देब। बेदखलो करब बड़ कठिन नहियेँ। ने जमीनक भीर जाए देब आ
ने घरक किछु देब, तैपर सँ कोर्टमे दू-चारि कित्ता मुकदमा कऽ देब। बाल-बोध रविन्द्र
छोड़ि कऽ पड़ा जाएत। मुदा नगेन्द्रक विचारकेँ महेन्द्र आ सत्येन्द्र मानैले
तैयार नै। ओ दुनू भाँइ रविन्द्रकेँ पैत्रिक सम्पतिक आदहाक हिस्सेदार बुझैत।
एक तँ ओहुना केकरो बेइमानी करब नीक नै, तैपर एक बंशक बीच करब तँ आरो नीक नहियेँ।
आठे
दिनक पछाति रविन्द्रक मन गामसँ उचटि गेल। बिना केकरो किछु कहने दरभंगा
पहुँच गेल।
जहिना
रविन्द्र नीक विद्यार्थी तहिना आभो। दुनूक बीच कवि हृदय। ओकील साहैब (दिवाकार
बाबू)केँ अपने तेते काज जे परिवार दिस नीक जकाँ देखि नै पबै छला। मुदा एते रविन्द्रकेँ
कहि देलखिन-
“रविन्द्र, आभोकेँ पढ़ा देबइ।”
साल
भरिक पछाति आभो मैट्रिक पास केलक आ रविन्द्रो आइ.ए. पास केलक। कविता लीखब
दुनूक पढ़ाइसँ जुड़ि गेल। दुनूक चिन्तनधारा एक रहने भावधारक लड़ी-कड़ी मिलैत-जुलैत।
सोझहे मिलबे नै करैत, शब्द गढ़नि आ भाव गढ़नि सेहो मिलैत-जुलैत।
एम.ए.
पास केला पछाति रविन्द्र परिवारक उलझनसँ हटि हाइ स्कूलमे नोकरी शुरू केलनि।
दू सालक पछाति आभा सेहो एम.ए. पास कऽ महिला कौलेजमे शिक्षिका बनली। ओना दिवाकर
बाबूक इच्छा जे रविन्द्रकेँ अपने ऐठाम रखि आभाक संग बिआह करा देब। मुदा जातिक
दूरी बीचमे टाट लगौने छल। तहूमे जाति-समाजक ओझरी सेहो लगले छेलनि।
किछु
दिन पछाति रविन्द्रो आ आभोक बिआह अपन-अपन बेरादरीमे भेल। दरभंगासँ हटला पछाति
रविन्द्र दोहरा कऽ घूमि आभा ऐठाम नै आएल।
समए
बीतल। आभा शिक्षिकासँ प्राचार्य बनि सेवा निवृति भेली, रविन्द्र सेहो भेला।
परिवारक
उलझन तेना उलझि गेल जे रविन्द्र अपन दरमाहापर अपन परिवार ठाढ़ केलनि। गामसँ
हटि, दोसर गाममे। अपन घराड़ी कीनि घर बना रहए लगला। ओना वृत्तिये रविन्द्र शिक्षासँ
जुड़ल रहला, मुदा सृजनक काज ढील पड़ि गेलनि। हृदैमे संवेदना रहितो किछु रचि
नै पबथि, मुदा आभाक सृजन क्रिया आगू बढ़ल, बहुत आगू बढ़ल। अनेको कविता संग्रह आ
एकटा महाकाव्य रचि लेलनि।
पत्रिकाक
कविता ‘केते लग केते दूर’ पढ़ि रविन्द्र मने-मन विस्मित होइत आभाक जिनगी
देखए लगला। बेर-बेर मनमे उठैत रहनि जे जइ आभाकेँ हाथ पकड़ि कहियो पढ़बै-लिखबै
छेलौं, ओ केते दूर चलि गेल।¦¦¦
१४ अप्रैल २०१४
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