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Sunday, July 27, 2014

पुरनी नानी (कथाकार- जगदीश प्रसाद मण्‍डल)

पुरनी नानी




तीन माससँ पुरनी नानी ओछाइन पकड़ने छथि‍। अपने तँ नै बूझि‍ पाबि‍ रहली अछि‍ जे आब ऐ दुनि‍याँ सँ ‘चलचलौ’ भेल जा रहल छी। मुदा गाममे सबहक बीच चर्च होइत जे ‘पुरनी नानी आब जे दि‍न छथि‍ से दि‍न छथि‍।’ अपने ऐ दुआरे नै बूझि‍ पाबि‍ रहल छथि‍ जे बुझि‍नि‍हार तँ ओ ने जि‍नका अपन जनम कुण्‍डली आकि‍ जनम दि‍नक कोनो लि‍खल सबूत होइ। से तँ पुरनी नानीकेँ छन्‍हि‍ नै। भऽ सकैए जनम पतरी होन्‍हि‍। ओना सबूतो सभटा पकि‍ये होइए सेहो बात नै छै। सबूतो कहि‍या होइए। कोनो केसक ‘कचि‍या नकल’ थानामे भेटैए। ओना थानोकेँ दोख लगाएब बेइमानी भेल, जेकरा पकि‍याक अधि‍कारे ने छै ओकर तँ कचि‍ये ने पकि‍या भेल। असल कचि‍या-पकि‍या तँ ओइठाम होइए जैठाम नोकरी दुआरे कि‍यो, बि‍आह करै दुआरे कि‍यो आकि‍ अपन अरुदा छि‍पबै दुआरे कि‍यो जनम कुण्‍डलीक ति‍थि‍ आ वि‍द्यालयक ति‍थि‍मे घटी-बढ़ी कऽ लइए। मुदा सहो नै, असलमे पुरनी नानीकेँ उमेरक ठेकाने ने रहलनि‍। रहबो केना करि‍तनि‍ बेवहारक इति‍हासक तारीक घटनाक हि‍साबे लि‍खल जाइए, मुदा वैदि‍क वि‍धि‍-बेवहारक तारीकक पता केना लागत। जहि‍ना अधला बढ़ैत-बढ़ैत ढेर लगि‍ जाइए तहि‍ना ने नीकोक छै। नीक तँ नीके भेल, तँए बेवहारो नीक बनैत जाइए। पुरनीओं नानीकेँ सएह भेलनि‍। तँए कि‍ ओ अपन जन्‍मक आड़ि‍-धूर नै देने छथि‍ सेहो बात नहि‍येँ कहल जा सकैए। केतौ नापि‍ कऽ कि‍लोमीटरक पाथर गाड़ल जाइए, केतौ ठेकानि‍ए कऽ बूझल जाइए, ठेकानोसँ तँ बुझले जाइए। पुरनी नानीक आड़ि‍-धूरक ठेकान ई छन्‍हि‍ जे पछि‍ला ‘भुमकम’ मन छन्‍हि‍ जइमे नअ बर्खक रहथि‍ जे माए कहने रहनि‍। कहने ऐ दुआरे रहनि‍ जे जखनि‍ भुमकममे घर खसि‍ अँगना वाड़ी सभ एकबट्ट भऽ गेल रहनि‍, आ माएकेँ सोगाएल बैसल देखि‍ पुरनी भुमकमक उथल-पुथल देखि‍ हँसैत आबि‍ बाजल-
माए, आब की हेतै?”
जेना माथपर मोटरी रहि‍तो, दोसर-तेसर-चारि‍म मोटरी चढ़ए लगैत आ उठौनि‍हारकेँ जे गति‍ होइत होउ, तही गति‍मे माए पड़ैत गेली। जेना-जेना ‘पड़ैत’ गेली तेना-तेना आँखि‍क सोझमे रौतुका तरेगन बेसि‍याइत गेलनि‍। बेसि‍येबो तँ उचि‍ते छेलनि‍, जँ तृतीया अन्‍हारसँ चौठक अन्‍हार बेसी नै हुअए तँ तृतीया चौठ केना हएत। माएक मन पुरनीक मुँहपर पड़लनि‍। पड़ि‍ते दुनू ठोर वि‍दैक गेलनि‍। जहि‍ना नचारी, वेवसीमे केकरो होइ छै। ‘वि‍दैक’ ई गेलनि‍ जे सभ कि‍छु प्रकृति‍ प्रदत्त चलैत रहत तखने पर्यावरण अनुकूल रहत, नै तँ जहि‍ना कहि‍यो भुमकम हएत, तँ कहि‍यो अकाल पड़त। जखनि‍ बच्‍चा जनम लइए तखनि‍ ओकर उचि‍त देख-भाल होउ, बच्‍चाक संग जच्‍चाकेँ होन्‍हि‍, तहि‍ना वि‍द्यालय जाइ जोकर जखनि‍ बच्‍चा भऽ जाए, तखनि‍ ओकरा वि‍द्यालयमे दाखि‍ल करौल जाए। इत्‍यादि‍-इत्‍यादि‍। भवलोकमे उमड़ैत-घुमड़ैत माइक मन पुरनीपर एलनि‍। पुरनी नअ बर्खक भऽ गेल, भुमकम सभ कुछ खसा-पड़ा, ढाहि‍-ढनमना देलक अछि‍। तीन मास पछाति‍ पुरनीकेँ दसम बरख चढ़तै। दसम बर्खक पछाति‍ बालामे सि‍यानापनक शक्‍ति‍क उदए होइ छै। केना पुरनीक बि‍आह करब पार लागत। भुमकममे जेते नोकसान भेल ओकरे पुड़बैमे केते दि‍न लागत, बि‍ना पुड़ेनौं जि‍नगीक गाड़ी आगू मुहेँ ससरत केना? तैबीच माइक दुनू ठोर वि‍दकैत मसैक‍ गेलनि‍। मसैकि‍ते मुँहक पट खुजलनि‍। पट खुजि‍ते अपन मनक मोटरी मोनेमे रखि‍ बजली-
दाइ पुरनि‍, तोहूँ आब नअ बर्खक भेलह।
माइक कहल वएह ‘भुमकमक दि‍नक नअ बरख’ जोड़ि‍ पुरनी नानी अपन औरुदाक ठेकान केने छथि‍। मनमे अस्‍सी बरख अबि‍तनि‍ तखनि‍ ने बूझि‍ पड़ि‍तनि‍ जे अस्‍सीक पछाति‍ खस्‍सीक जान जाइते छै, हमरो जाएत। मुदा से तँ खुदरा-खुदरी हि‍साब रहनि‍; १९३४ ईस्‍वीमे भुमकम भेल..., तइ दि‍नमे नअ बर्खक रही..., अखनि‍ २०१४ छी...। उमेरक थाहे ने रहनि‍, तँए रोग-सजि‍या नै बूझि‍ अरम-सजि‍याक समए बढ़बए लगली। ओना अरम-सजि‍या देहक संग-संग मनोकेँ अरमबैत रहनि‍। करनीक धरनी रहै वा नै रहै मुदा अरमान तँ असमान दि‍स बढ़बे करत। जहि‍ना सभ तहि‍ना पुरनीओं नानी ने छथि‍ तँए हुनको मनमे हुअ लगलनि‍। मुदा जेना-जेना बैसारी बढ़ैत गेलनि‍ तेना-तेना काजक दुनि‍याँ ‘घटबी’ होइत गेलनि‍। मुदा चि‍न्‍तो अनेरे कि‍ए करि‍तथि‍, आब कि‍ कोनो मनोरथ रहलनि‍ जेकरा सवारी बना चढ़ि‍तथि‍। आब तँ मात्र पाँच कौर ‘अन्न’ आ पाँच हाथ ‘वस्‍त्र’ भेट जाए, भऽ गेल जि‍नगी। मुदा जि‍नगीओ तँ धराह अछि‍ए। दुनू दि‍स बहैए। एक दि‍स ‘देवगण’ गनगनाइए तँ दोसर दि‍स ‘दानवगण’। बीचमे पड़ल मानव ‘दानव दल’मे नाओं लि‍खौत आकि‍ ‘देवन दल’मे। दल तँ दले छी कखनि‍ हवा-वि‍हाड़ि‍मे उधि‍या कऽ उनट-पुनट भऽ जाएत तेकरो ठेकान नहि‍येँ अछि‍। जेना-जेना पूर्णिमा पबैले पनरहो दि‍नक ति‍थि‍ नमैर‍-नमैर ठेंगी जकाँ  बढ़ैत रहैए तहि‍ना पुरनीओं नानीक मन अपन जि‍नगीक खि‍स्‍सा-पि‍हानी सुनबै दि‍स बढ़लनि‍। मुदा अमावसक अन्‍हार जकाँ नानीक ‘समए’ बदलए लगलनि‍। बदलए ई लगलनि‍ जे मनक जे ‘मनि‍याँ’ रहनि‍ ओ कमैत गेलनि‍। जहि‍ना सभ लीलाधारी अन्‍ति‍म समैमे ‘राम नाम’पर पहुँच जाइत तहि‍ना पुरनीओं नानीक मन मानि‍ गेलनि‍ जे अनेरे एतेटा जि‍नगीमे समुद्र उपछलौं, जखनि‍ कि‍यो ने कि‍छु लऽ कऽ आएल आ ने लऽ कऽ जाएत, तखनि‍ अनेरे ने ‘हाइ-हाइ’ केलौं।
दू मास ओछाइन धेला पछाति‍ जखनि‍ पुरनी नानीक गि‍रह-गाँठ जकड़ए लगलनि‍ तखनि‍ अपनो मन कनी-मनी मानए लगलनि‍ जे भरि‍सक ‘बूढ़’ भऽ गेलौं। बूढ़केँ तँ एकेटा काज बाँकी रहैए, ओ छी ‘मरब’। जखनि‍ सभ मानि‍ते अछि‍ तँ हमहूँ मानि‍ गेलौं, जे बूढ़ भऽ गेलौं, राजा दशरथकेँ कानक ऊपर, माथक पजरवाहि‍मे, एकटा केश पकि‍ते तुलसी बाबा बूढ़ घोषि‍त कऽ देलखि‍न आ हमर तँ सौंसे माथे पटुआक सोन जकाँ झलकैए। दरभंगा असपताल ताबे नै ने बनल रहै जे पाँच बर्खक धि‍या-पुताकेँ पाकल केश तुलसी बाबा देखि‍तथि‍। दू मास बीतैत-बीतैत पुरनी नानी अदहासँ बेसी जि‍नगीक खि‍स्‍सा-पि‍हानी बि‍सरि‍ गेली। ओना अहू दुनू मासमे, जहि‍एसँ पुरनी नानी ओछाइन दि‍स बढ़लथि‍, गाम-समाजक लोक अपन-अपन असीरवाद लि‍अ पहुँचए लगली। जइसँ जेते बात मनमे रहनि‍ ओइमे बँटैत-बँटैत घटबीओ भेलनि‍। होइते छै कि‍ने खुरपी-टेंगारी तँ ओतबे काल तक ने भेल जेते काल ओकरा धार रहै छै आ काजक रहैए। नै तँ कबारखानाक बौस भेल।
आइ पुरनी नानीक तेसर मासक उनतीसम दि‍न छि‍यनि‍‍। भोरेसँ जि‍ज्ञासा केनि‍हारि‍क भीड़ उमड़ए लगल। जे पहि‍ने जि‍ज्ञासा करैत घुमली, ओ भगवानक परसाद बँटि‍ते गेली, ‘पुरनी नानी आब जे क्षण छथि‍ से क्षण छथि‍।’
आरो जि‍ज्ञासुकेँ नौत पड़ैत गेल। पुरनी नानीक ओछाइनि‍क चारू भाग जि‍ज्ञासु बैसल। भाय! जि‍ज्ञासु तँ जि‍ज्ञासु छी अनके बातमे अपन बात घोड़ि‍ओ दइए आ छानि‍ कऽ नि‍कालि‍ओ लइए।
गामक बेटी सुलक्षणी, कौलेजमे पढ़ैत। गाम आएले छल‍। लोकक संग ओहो पुरनी नानी लग पहुँचल। ‘चुपा-चुप, धुपा-धुप’ देखि‍ सुलक्षणी पुरनी नानीक लगमे पहुँच बाजल-
नानी, नीनक की हालति‍ अछि‍?”
सुलक्षणीक अपन ढंगक प्रश्न। नीनो नि‍रोगक लक्षण छि‍ऐ। मुदा पुरनी नानी आब ओइ अवस्‍थामे नै, जे सुलक्षणीक प्रश्नक उत्तर दि‍तथि‍। कानो बन्न भऽ गेल छन्‍हि‍, सोझहे ठोर पटपटबैत सुलक्षणीकेँ देखलखि‍न, सुनलखि‍न कि‍छु ने। मुदा अपन मनक बात मनमे उबि‍याइते रहनि‍ बजली-
बुच्‍ची, जे नीक कि‍ बेजए केलौं से लि‍अ दुनि‍याँमे रहनि‍हार, मुदा अखनो एकटा बात नै बुइझ‍ पेलौं?”
ओना पुरनी नानी जि‍नगीक सभ बात बि‍सरि‍ गेल छेली। मुदा जेना मनक जड़ि‍मे, जनेरक खुट्टी जकाँ रहबे करनि‍। मरै बखतमे कि‍यो नीक ‘मि‍ठाइ’, तँ कि‍यो नीक ‘फल’, तँ कि‍यो कि‍छु तँ कि‍यो कि‍छु लऽ जि‍ज्ञासा करए जाइते अछि‍। जँ से नै तँ मरैसँ घंटा दू घंटा पहि‍ने एते दान-पुन कि‍ए होइए। पुरनी नानीक कानमे मुँह सटा सुलक्षणी पुछलकनि‍-
की नै अखनि‍ तक बूझि‍ पेलौं नानी?”
ओना कानमे मुँह सटा सुलक्षणी बाजल छल मुदा बहि‍राएल कान पुरनी नानीक, कि‍छु ने सुनि‍ पेली। मुदा अपन मनक मणि‍ फुटलनि‍-
बुच्‍ची, पैछलो भुमकम[1] मन अछि‍, आ कि‍छु दि‍न पहि‍ने[2] सेहो भेल। जँ एके रंग[3] भुमकम होइ, मुदा ओकर मास अलग-अलग होइ जेना अपना ऐठाम जाड़क समए माटि‍ नमी युक्‍त रहैए, बरसातमे गील रहैए, आ गरमीमे नमी वि‍हीन रहैए तखुनका, तँ एके रंग क्षति‍ करत।
एहनो तँ होइते अछि‍ ‘जे बात’ लोक नै बुझैए ओकरा गोपलखतामे दऽ दइए। तहि‍ना पुरनी नानीक बातकेँ जि‍ज्ञासा करैवाली गोपलखतामे फेक, बाजलि‍-
बुढ़ाड़ीमे अहि‍ना लोकक मन भऽ जाइ छै, जे अनेरो कि‍म्‍हरोसँ कि‍म्‍हरो मन छि‍ड़ि‍यए लगै छै। नानीक माया छूटि‍ रहल छन्‍हि‍। आब हि‍नकर बात असीरवाद बूझि‍ सि‍र चढ़ा लि‍अ।
मुदा नानीक नै बूझल बातकेँ प्रश्न बूझि‍ सुलक्षणी ‘बारहो मास’ दि‍स तकलक। तीन सए पैंसैठ दि‍नक बरख होइए मुदा तँए कि‍ ‘दूटा दि‍न’ एक रंग होइए आकि‍ दू रंग। तही बीच पछुआएल जि‍गेसा केनि‍हारि‍ सभ पहुँच गेली। बैसल जमात नानीक पएर छूबि‍-छूबि‍ वि‍दा भेली। मुदा सुलक्षणीक मन ठमकि‍ गेल। ठमकला पछाति‍ मन कबुला करा लेलक जे बि‍नु प्रण-पणक जि‍नगी, केरा, अनरनेबाक फल जे उच्‍च कोटि‍क फल तँ छी मुदा आमक गाछ सन छाती थोड़े हेतइ? तखने मनमे उचरलै गोबरे गोइठा बनि‍ आगि‍क रक्षा करैए! आकि‍ मुँहसँ हँसी फुटलै। मने-मन संकल्‍प केलक, ‘अगि‍ला पाठ कौलेजमे पढ़ब।’¦¦¦
२७ जुलाई २०१४


[1] १९३४ ई.क
[2] १९८८ ई.क
[3] रेक्‍टर पैमाना

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