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Wednesday, June 4, 2014

कथा बौद्ध सि‍द्ध मेहथपा सगर राति‍ दीप जरएमे पठि‍त कथा ललि‍याएल मुँह :: अखि‍लेश मण्‍डल

ललि‍याएल मुँह

 


डमहाएल गुलाब खास आम जकाँ राम सरूपक ललि‍याएल मुँह देखि‍ सुशीलक मनमे भेल जे कि‍छु पौलक अछि‍। ओना पबै-पबैक अपन-अपन खुशी होइ छै, मुदा मुँहक जेहेन लाली देखै छि‍ऐ ओइसँ कि‍छु खास पबैक बूझि‍ पड़लै। राम सरूप स्‍कूलक संगी छि‍ऐ, हाइ स्‍कूलमे दुनू गोटे एके कि‍लास दसमामे पढ़ि‍तो अछि‍। पुछलकै-
सरूप भाय, कथी पेलौं हेन मन बड़ ललि‍याएल बूझि‍ पड़ैए, ओइमे हमरा सबहक हि‍स्‍सा नै हेतै?”
‘हि‍स्‍सा‘ सुनि‍ राम सरूप ठमकि‍ गेल। मुदा ओहेन ठमकान नै ठमकल जे पाछू ससरैत। रोग उतरि‍ते जहि‍ना कोनो रोगीक मुँहक रोहानी घूमि‍ जाइ छै, तहि‍ना राम सरूपोक घूमल। मनमे जेना लबालब उल्‍लास भरल होइ तहि‍ना भरल बूझि‍ पड़लै। दोहरबैत सुशील बाजल-
सरूप भाय, की बात छि‍ऐ जे करि‍याएल मुँह एना ललि‍आ गेल अछि‍?”
‘करि‍याएल मुँह’ सुनि‍ राम सरूप अपन पहुलका वि‍वशता देखबैत बाजल-
सुशील भाय, समए करोट फेड़लक। अहाँकेँ देखि‍ते मन लजा जाइ छल जे की कहि‍ पच्‍चीस रूपैआ पैंच नेने रही आ अखनि‍ तक नै दऽ सकलौं!
राम सरूपक बेवसाएल बात सुनि‍ मन सहमि‍ गेलै। सहमि‍ ई गेलै जे अनेरे वेचाराकेँ एहेन बात कहलि‍ऐ। पचीस रूपैआक जे मोल एकरा[1] लेल छै से हमरा लेल थोड़े अछि‍। अपने ऊपर गरानि‍ हुअ लगलै। मुदा जे बात मुँहसँ नि‍कलि‍ गेल ओ दोहरा कऽ आपसो तँ नहि‍येँ आबि‍ सकैए। अपनाकेँ सम्‍हारैक कोशि‍श करैत सुशील बाजल-
राम सरूप भाय, अहाँपर हम व्‍यंग्‍य–वाण नै चलेने छेलौं, जँ अहाँ से बुझैत होइ तँ गलती भेल माफी मंगै छी।
‘माफी’ सुनि‍ जेना राम सरूपोक वि‍चार थकथकाएल। बाजल-
सुशील भाय, समए घूमल। दि‍न बदलल।
राम सरूपक अधकट्टी पाँति‍ सुनि‍ जइ ढंगे बुझक चाही से नै बूझि‍, सुशील पुछलक-
की समए घूमल आ दि‍न बदलल?”
राम सरूपक करि‍याएल मुँह जेना पाकल डोमा बम्‍बै आम जकाँ भीतरेसँ ललि‍आ गेल होइ तहि‍ना बाजल-
सुशील भाय, मामा गाममे एक कट्ठा खेत हमरो भेल। पि‍ति‍यौत मामा कहलनि‍, बौआ एक कट्ठा खेतसँ गुजर नै चलतह से हमरा दऽ दैह। बदलामे तोरा पाँच एच.पी.क इंजन कीन दइ छि‍अ। तत्‍-खनात पटौनीक काज करि‍हऽ, जेना-जेना कमाइ होइत जेतह, तेना-तेना काजक जोड़-जाड़ करैत आगू बढ़ि‍हऽ।
राम सरूपक मन वि‍राम नै लि‍अ चाहै छल, जेना कि‍छु आरो बजला पछाति‍ लइतै, मुदा सुशीलेक मन सुनि‍ औगता गेलै। बाजल-
तखनि‍ तँ जि‍नगीक रंगे बदलि‍ जाएत।
असि‍या आस लगबैत राम सरूप बाजल-
पहि‍ल दि‍न, दुइए घंटा आइ चलेलौं। दमकलक हि‍साब अखनि‍ तँ नै बुझै छि‍ऐ। ओ इंजीनेबला आकि‍ इन्‍जीनि‍यरे बुझैत हेता। जे नव मशीनक पहि‍ल साल दोसर साल आ तेसर साल केहेन होइ छै। मुदा एते आशा तँ भाइए गेल अछि‍ जे जँ दू घंटा सभ दि‍न चलाएब तँ गुजरो कऽ लेब आ पढ़ि‍ओ लेब। सोलहो आना आशा भऽ गेल अछि‍ जे जँ अपनो भरोसे जीबए चाहब तँ जीबो लेब आ पढ़ि‍ओ-लि‍खि‍ लेब।¦¦¦

२७ मई २०१४
अखि‍लेश मण्‍डल



[1] राम सरू

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