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Tuesday, March 25, 2014

श्री ओम प्रकाश झा आयोजि‍त 81म सगर राति‍ दीप जरए देवघरमे पठि‍त कथा ''गंगा लाभ''

गंगा लाभ


बि‍सहरि‍यामे नवाह-कीर्तनक आयोजन भेल। हमहूँ भड़ैत कीर्तनीयाँ छीहे। दि‍नक एक बजेसँ रामधून शुरू हएत। कमसँ कम पनरहो मि‍नट पहि‍ने उपस्‍थि‍ति‍ दर्ज जँ नै कराएब तँ टाटा फैक्‍ट्रीक कम्‍प्‍यूटर थोड़े छोड़त, ओ तँ पकड़ि‍ए लेत। जखनि‍ गामसँ जेबे करब तखनि‍ अगि‍ला-पछि‍ला घरक काज नै सम्‍हारि‍ लेब तँ खगबो करत कि‍ने। चाह पीला, तमाकुल खेला पछाति‍ काज ठेकि‍नेलौं। ठेकानपर कि‍छु चढ़बो कएल, कि‍छु नहि‍योँ चढ़ल। मुदा एकटा वि‍चार चढ़ि‍ गेल ओ चढ़ल जे अनेरे कि‍ए ढोलक-झालि‍क संग बौआएल फि‍ड़ै छी। बड़ बेसी हएत तँ शास्‍त्रीय धून धरि‍ पहुँचब। मुदा ओ जुग-जमाना थोड़े रहल जे घंटाक घंटा भूमि‍के बान्‍हब। आब थुक फेकैत तँ लोककेँ पलखति‍ए ने छै आ हाथ-पएर मारि‍ घंटो-घंटा के बैसत? मनमे घुरि‍यौठ शुरू भेल। घुरि‍यौठ ई जे कीर्तनमे जाइ आकि‍‍ नै जाइ। गछि‍ नेने छि‍ऐ, नै जेने दोखी हएब। दोखी जे हएब से तँ हेबे करब मुदा दस दि‍न नरम दाना, पाँचो टुक वस्‍त्र आ तीन हजार तँ देखि‍ले डाँढ़ लगत। मनक सभ कि‍छु हेरा गेल। वि‍चार पक्का कऽ लेलौं जे कीर्तनमे जेबे करब। अथबल जकाँ बैसल देखि‍ पत्नी आबि‍ चरि‍यबैत पुछली-
भरि‍ दि‍न अपने बौनाएल रही छी। धि‍या-पुता नरवस्‍त्र भेल जा रहल अछि‍। से केकरा भरोसे छी, हमरा गुदानैए?”
जहि‍ना जेठुआ बाढ़ि‍ एने गामक लोक धारक मुँह बान्‍हि‍ खेत पटबैक जोगार करैए तहि‍ना मनक बान्‍ह घेरा गेल। पानि‍ चकभौड़ कटलक। गंगो लाभ तँ भाइए गेल। तीन साल पहि‍ने पि‍ता जीक कि‍रि‍या-कर्म काइए नेने छेलौं, मास दि‍न पहि‍ने माइओसँ उद्घार भाइए गेलौं। अपने दुनू परानी ने ऐ घरकेँ सम्‍हारि‍ कऽ लऽ चलब। नै तँ के केकरा देखै छै। गंगा सन धारकेँ तँ लोक देखबे ने करैए जे केना अकासगंगा बनि‍ बि‍नु धरतीएक बोहैए। केतौ माटि‍पर सँ ससरैत हि‍मालयक कैलाशपर चढ़ि‍ भोलो बाबासँ ऊपर चलि‍ जाइए, केतौ बेटीक बि‍आहोपरान्‍त आबि‍ जाइए, केतौ माए-बापक कि‍रि‍या-कर्म भेला पछाति‍ आँखि‍क सोझ अबैए तँ केतौ माघक ठाढ़ पानि‍मे डुमकीओ लगा उद्घार करैए। यएह भेल गंगा लाभ। थकथकाएल देखि‍ पत्नी दोहरबैत बजली-
सि‍मरि‍या घाट जकाँ जे पछि‍ला पीढ़ी (माता-पि‍ता) पाछू पड़ि‍ गेला। अखनि‍ सनमुख तँ अपने दुनू गोरे भेलि‍ऐ। आगू भेल धि‍या-पुता जे अखनि‍ बाले-बोध अछि‍। साँझ-परात जे ओकरा सभकेँ दू अछर पढ़ा देबै तँ की‍ ओ बि‍सरि‍ जाएत जे बाबू नै पढ़ौलनि‍?”
एक तँ ओहि‍ना पहि‍लके झटहा तेना टाँगमे लगल जे नेग्‍राइत रहौं तैपर सँ जुड़शीतलक नढ़ि‍या जकाँ गदागद पड़ि‍ए रहल छल। बेथाइत-बेथाइत मन एते बेथा गेल जे थकथका गेलौं। थकथाकाइते खापरि‍क तीसी जकाँ मन चनचना उठल-
माए, मन पड़ि‍ गेल तँए मन थकथका गेल छल।
माए सुनि‍ते पत्नीक नजरि‍ जेना चढ़ए लगलनि‍। मुदा मुँहमे ताला लगौने रहली। जहि‍ना जहलक भि‍तर मन औनाए लगै छै तहि‍ना पत्नीक मन औनए गेलनि‍। पि‍ताक (ससूर) मृत्‍युक पछाति‍ माइक (सासु) हाथमे परि‍वार आएल। बाहरसँ कमा-कमा आनि‍ हाथमे दइ छेलनि‍। पोता-पोतीकेँ ननुआगर बना बि‍गाड़ि‍ लेलनि‍। अपन हि‍तकेँ अहि‍त होइतो देखि‍ मुँहमे ताला लगौने रहली। हराएल-थोथि‍याएल-थहि‍याएल-मरि‍याएल बटोही जकाँ पुछलि‍यनि‍-
आब उपए?”
मुँह नीक जकाँ बन्नो ने भेल छल आकि‍ मचकीक झुलि‍नि‍हार जकाँ दोसर डारि‍ पकड़ि‍ मेचैत बजली-
जखने जागी तखने परात।
सँझुके तारा जकाँ घँसाइत-मेटाइत-सुतैत-जगैत भोरक भुरूकबा जहि‍ना सुर्जकेँ पकड़ि अनैत तहि‍ना हमरो अनली।¦¦¦

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