Pages

Friday, October 18, 2013

अनेरूआ बेटा (दोसर संस्‍करण)

अनेरूआ बेटा

तेसरि साँझ। अन्हरिआ चौठ रहने चान तँ नै उगल छल मुदा पूब दिस धाही छिटकए लगल छेलै। सुनसान अन्हार देखि किछु क्षण पहिनइ एकटा कुमारि, समाजमे लोक-लाज बँचबैक खिआलसँ दस दिनक जनमल बच्चाकेँ रस्ताक किनछरिमेे रखि अढ़े-अढ़ आँगन चलि गेलि। बच्चाकेँ नओ दिन तँ झाँपि-तोपि कऽ बि‍मारीक बहाना बना रखलक। मुदा घटना खुलै दुआरे दसम दिन जी-जाँति कऽ फेकलक नै, रस्ताक कातमे ओरिया कऽ रखि‍ देलक। पाँचे-सात मिनटक पछाति गंगाराम हाटसँ घर अबैत रहए। जनमौटी बच्चाक रुदन गंगाराम सुनलक, एकाएक पएर अस्थिर भऽ गेलै। बीच बाटपर ठाढ़ भऽ ओ अवाज अकानए लगल। ई अवाज तँ कोनो जानवर वा जन्तुक वा चिड़ै-चुनमुनीक तँ नै छी। मनुखक बच्चाकेँ बोली बूझि पड़ैए। मुदा ऐठाम मनुखक बच्चाकेँ बोली भऽ केना सकैए? तहूमे केकरो देखबो ने करै छिऐ। बाँसक गारल खुट्टा जकाँ गंगाराम बीच बाटपर ठाढ़ भऽ गेल। कनीकाल ठाढ़ रहि ओ आस्ते-आस्ते बच्चा दिस पएर बढ़बए लगल। झल-अन्हार रहने अधिक दूर देखबो ने करै छल। खेतमे कीड़ी-मकोड़ी, कि‍यो अपन माए-बापकेँ हाक पाड़ैत तँ कि‍यो अरामसँ गीत गबैत। तइसँ सौंसे बाध अनघोल होइत रहए।
लग पहुँच‍ गंगाराम बैसि बच्चाकेँ निहारए लगल। एक मन कहलकै, ई तँ मनुखक बच्चा छी। मुदा दोसर मन कहलकै, ऐठाम बच्चा आएल केना? तरकारीबला झोरा दूबिपर रखि‍, दहिना हाथ बच्चाक देहपर दऽ हसोथए लगल। देह सिहरि गेलै। सगर देहक रोइयाँ-रोइयाँ ठाढ़ भऽ गेलै। मुदा मनमे खुशी उपकलै। मन थीर कऽ बच्चाकेँ दुनू हाथे उठा लेलक। उठा कऽ बच्चाकेँ पेटमे साटि, बामा हाथे बच्चाकेँ थाम्हि दहिना हाथे खढ़-पात पोछए लगल। बच्चा ओहिना पूर्ववते कनैत रहए। खढ़ पोछि गंगाराम कान्हपर सँ गमछा उतारि बच्चाकेँ लपेटि‍ लेलक। तरकारीक झोरा कान्हमे टाँगि छाती लगौने बच्चाकेँ अपना ओइठाम अनलक।
आँगन आबि गंगाराम हँसैत घरवालीकेँ कहलक-
“आइ भगवान खुश भऽ एकटा बेटा देलनि।
पतिक बात सुनि अकचकाइत भुलिया लगमे दौगल आबि पतिक कोरासँ बच्चा अपना कोरामे लैत पुछलक-
“केतए ई बच्चा भेटल? आ-हा-हा, बच्चा तँ बड़ दीब अछि।
“हाटसँ घुमैत काल बाटपर भेटल। एकर सेवा करू। जँ अप्पन बनि कऽ आएल हएत तँ जीबे करत नै तँ जहिना रस्ते-रस्ते आएल तहिना चलि जाएत।
पतिक बात सुनि भुलिया मोने-मन सोचए लागलि, अपना तँ ने गाए अछि आ ने बकरी, जेकर दूध पिआ बच्चाकेँ पालितौं। अपने तँ दूध हेबे ने करत किएक तँ बुढ़ाड़ीमे सभ अंग सुखा गेल। निराश मनमे भुलियाक आशा जगलै। मनमे एलै, अपन ने छाती सूखि गेल मुदा पितियौत दियादनी तँ चिलकौर अछि। मन पड़िते भुलिया भगवानकेँ धैनवाद दैत बाजलि-
“जहिना भगवान सुखाएल बोनमे फूल फुलौलनि तहिना ओकर अहारोक ओरियान तँ वएह करथिन।
पचास बर्खक गंगाराम। अड़तालीस बर्खक भुलिया। मुदा जेते थेहगर गंगाराम तइसँ कम भुलिया। अड़तालीस बर्खक भुलिया साठि बर्खसँ ऊपर बूझि पड़ैत अछि‍। झुनकुट बूढ़ जकाँ। बूढ़क सभ लक्षण भुलियामे आबि गेल अछि‍ मुदा कोरामे बच्चा देखि भुलियाक शरीरमे जुआनीक खून दौगए लगलै। नव उत्साह, नव-जीवन। आनन्दि‍त भऽ विह्वल होइत नजरिसँ भुलिया पतिकेँ देखैत आ गंगाराम पत्नीकेँ। दुनूक मनमे खुशीक हिलोर उठैत रहए। पानिक गुब्बारा जकाँ खुशी मँुहसँ निकलए चाहैत रहए। बच्चाकेँ चुप रहै दुआरे भुलिया अपन छातीमे बच्चाकेँ लगा लेलक। कनी काल बच्चा छातीमे लागि‍ मुँह बन्न केलक मुदा दूध नै भेटने फेर ओहिना कानए लगल।
गंगारामक घरक बगलेमे पितियौत भाए रूपलालक घर। बच्चाकेँ छाती लगौने भुलिया रूपलालक आँगन पहुँचलि। रूपलालक स्त्री-कबुतरी अपना बच्चाकेँ दूध पि‍अबैत रहए। तीन मासक बच्चा रहै। भुलियाक कोरामे बच्चाकेँ कनैत देखि अपना बच्चाकेँ ओछाइनपर सुता भुलिया कोरासँ बच्चाकेँ लैत दूध पीआबए लागलि। भूखल बच्चा, हपसि-हपसि दूध पीबए लगल। बच्चाकेँ दूध पीबैत देखि भुलिया कबुतरीकेँ कहलक-
“भगवान तोरा सात गो बेटा औरो देथुन।
भुलियाक बातकेँ हँसीमे उड़बैत कबुतरी बाजलि-
“चारिएटा मे तँ अकछि गेलौं आ सातटा आरो पोसब पार लागत। अपन असिरवाद घुमा लथु। जेतबे अछि तेकरे निमेड़ा होइ तहीसँ बहुत हएत।”
फेर बात बदलैत बाजलि-
“दीदी, बुढ़ाड़ीओमे जे हिनका बेटा भेलनि से केहेन पोरगर छन्‍हि‍। हि‍नके जकाँ आँखि, मुँह, नाक लगै छन्‍हि‍। भैया जकाँ किछु ने बूझि पड़ैए।
भुलिया-
“सभ दिन तूँ एक्के रंग रहि गेलैं। कहियो तोरा बजै-भुकैक लूरि‍ नै भेलौ। जेठ-छोटक विचार तँ बुझबे ने करै छीही। केकरो किछु कहि दइ छीही। कोनो गत्तरमे लाज-सरम तँ छौहे नै।
हँसैत कबुतरी दोहरबैत कहलक-
“एँह दीदी, हिनका अखनि‍ की भेलनि हेन, एकटाकेँ के कहाए जे जोड़ो लगि‍ जेतनि।
कबुतरीक बातसँ भुलियाकेँ तामस नै उठै। बच्चाक आनन्द हृदैकेँ पानि जकाँ कोमल बना देने छेलै। भुलिया उद्गारमे हृदए खोलि‍ देलक-
“तोरे भैयाकेँ हाटसँ अबै काल रस्तामे ई बच्चा भेटलै।
कबुतरी-
“भेटुआ बच्चाक मँुह हिनका मुहसँ किए मिलै छन्‍हि‍? ई हमरासँ छिपबै छथि।
खौंझा कऽ भुलिया बाजलि-
“अच्छा हो, हमरे भेल। आब तँ मनमे सबुर भेलौ।
बात बदलैत कबुतरी बाजलि-
“दीदी, जहिना एकटा बच्चाकेँ दूध पीयबै छी तहिना अहू बच्चाकेँ दूध पिआ देबनि। कोनो कि हमरा घरमे मौसरी नै अछि जे बच्चाकेँ दूधकटू हुअए देबनि। लोकेक काज समाजमे लोककेँ होइ छै किने। हिनका अन्हार घरमे दीप जरलनि। तइसँ कि हमरा खुशी नै होइए।
कबुतरीक बात सुनि भुलियाक मन गद्-गद् भऽ गेलै। भुखाएल बच्चाकेँ पेट भरिते निन्न आबि गेलै। बच्चाकेँ बिछौनपर सुतबैत कबुतरी बाजलि-
“दीदी, बच्चाकेँ एतै रहए देथुन। राति-बि‍राति जहन‍‍ भुख लगतै, पिया देबै।
“बड़बढ़ियाँ।
कहि भुलिया अपना आँगन आबि पतिकेँ कहलक-
“आब बच्चा जीबे करत। बड़ दूध गोधनपुरवालीकेँ होइ छै। दुनू बच्चाकेँ पालि‍ लेत।
बच्चा लेल गंगारामक मन कनैत। मुदा भुलियाक बात सुनि मन हरिया गेलै। मनमे एकटा शंका जरूर उठलै, बाजल-
“बच्चाकेँ अपना अँगना किए ने नेने अएलौं? आन तँ आने छी।
पतिकेँ चोहटैत भुलिया कहलक-
“अहाँ पुरुख छी, तँ की बुझबै? माएक की मासचर्ज होइ छै? से स्त्रीगणे बूझि सकैए। जे माए एक दिन बच्चाकेँ छातीसँ लगा लेत ओ जिनगीमे कहियो ओइ बच्चाक अधला नै सोचत।
गंगाराम चुप भऽ गेल। मुदा एकटा बात मन पड़लै। पुछलक-
“अपने दुनू गोटे ने ओकर बाप-माए हेबै, तँए कोनो नाओं तँ रखि‍ देबै किने।
पतिक बात सुनि भुलिया मनमे छठियारक दृश्य आबि गेलै। मुस्की दैत बाजलि-
“आन बच्चाकेँ तँ स्त्रीगण सभ मिलि कऽ नाओँ रखै छै। मुदा से तँ ऐ बच्चाकेँ नै भेलै। अपने दुनू गोटे मिलि कऽ नाओं रखि‍ दियौ।
भुलियाक विचार सुनि पति बिहुँसैत बाजल-
“मंगल नाओं रखि‍ दियौ।
सात मासक पछाति‍ बच्चाक मुँहमे दाँतो जनमए लगल आ ठाढ़ भऽ कऽ डेगा-डेगी चलौ लगल। अन्न सेहो चाटए लगल आ पानि सेहो पीबए लगल। बच्चाक सिनेह एते अधिक दुनू परानी गंगाराममे रहै जे कखनो आँखिक परोछ हुअए, से नै चाहए। भुलिया बोइन करब छोड़ि देलक। अँगना-घरक काज सम्हारि साबेक जौर ओसारेपर बैसि बाँटए लागलि। ओकरे बेचि-बेचि दू पाइ कमा लइ छलि। अपना तँ साबे नै रहै मुदा अधियापर बँटैले गाममे साबे भेटै। दुनू परानी गंगारामकेँ एते उत्साह बढ़ि गेलै जेते दस बर्ख पहिने छेलै। भरि-भरि दिन काज करैत मुदा थाकनि बुझिए ने पड़ै। भुलियाकेँ जखनि मंगल माए कहैत तहन‍‍ आनन्दसँ ओ उन्मत भऽ जाए।
पाँच बर्खक अवस्थामे मंगलक नाओं पिता स्कूलमे लिखा देलक। मंगल पढ़ए लगल। पाँचे किलास तक पढ़ाइ गामक स्कूलमे होइत रहए। पँचमा तक मंगल पढ़ि लेलक। दस बर्खक भइओ गेल। मुदा दुनू परानीमे गंगारामक देह एते अव्वल भऽ गेलै जे काज करैले लोक अढ़ौनाइ छोड़ि देलकै। कहुना-कहुना दुनू परानी जौर बाँटि-बाँटि गुजर करए। जिनगी भारी लागए लगलै। मुदा दसे बर्खक मंगलमे ज्ञानक उदए कनी-मनी भऽ गेलै। जहिना बच्चेमे हनुमान बाल सुरूजकेँ गीरि गेल छला, तहिना। मंगल बापकेँ कहलक-
“बाबू अहाँ दुनू गोटे काज करै जोकर नै रहलौं। हमरा मन होइए जे चाहक दोकान खोली। अपने डेढ़ियापर एकटा एकचारी बान्हि दिअ, ओइमे हम दोकान खोलब।
गंगारामक मनमे जँचलै। मुदा चाह तँ गामक लोक पीबैत नै अछि, तहन‍‍ दोकान चलतै केना? मुदा तैयो एकचारी बान्हि देलक। बाड़ीमे एकटा जीमहर-गाछ रहै ओकरा पच्चीस रूपैआमे बेचि, चाह बनबैक बरतन-बासन मंगल कीनि लेलक।
चाहक दोकान मंगल शुरू केलक। नव वस्तुक दोकान गाममे। मुदा पहिल दोकानकेँ तँ मोनोपोली -एकाधिकार- होइ छै। शुरूमे तँ गामक लोक नव चीज पेय बूझि सि‍हन्ते पिनाइ शुरू केलक। मुदा धीरे-धीरे दोकान जमि गेलै। जइसँ एते कमाइ हुअ लगलै जे कहुना-कहुना गुजर चलि‍ जाइ। तीन साल बीतैत-बीतैत दुनू परानी गंगाराम मरि गेल। जाधरि गंगाराम जीबै छल ताधरि गाममे मंगलक प्रति कोनो तरहक घृणा नै छेलै मुदा गंगारामक मरला पछाति‍ लोकमे घृणा जागए लगलै। मुदा तैयो दोकानक बिकरीमे कमी नै एलै, किएक तँ समाजक लोक चाह-पानि पीअब शुरू कऽ देने छल।
चाहक दोकान केलाक उपरान्तो मंगलक मनमे पढ़ैक जिज्ञासा जीविते रहए। खाइ-पीबैसँ जे पाइ उगड़ै ओइसँ किताब-कागत-कलम कीनि-कीनि पढ़बौ करए आ लिखबो करए। मरै काल गंगाराम मंगलकेँ जनमक इतिहास सुना देने रहथि‍न। जइसँ मंगलमे समाजक कुरीति-कुबेवस्‍था जे करमी लत्ती जकाँ छाड़ने अछि, ओइ बिन्दुपर नजरि पहुँच‍ गेल छेलै। तँए किताबक अध्ययन संग-संग समाजक बेवहारक अध्ययन करए लागल। चाहक दोकान चलबैत तँए दस गोटे संग गप-सप्‍प करैक लूरि‍ सेहो सीखि लेलक। तेतबे नै...।
रूपचन गामक खिसक्कर। मुदा बड़ गरीब। साँझू पहर एक झोँक चाहक बिकरी खूब होइ, बादमे गहिंकी पतरा जाइ। जहन‍‍ गहिंकी पतरा जाइ तहन‍‍ रूपचन मंगलक दोकानपर अबै। दू गिलास चाह पिया मंगल रूपचनक दिमाग साफ कऽ दइ। दू-चारिटा पछुएलहा गहिंकीओ रहै, तैबीच रूपचन पुरना खिस्सा उठाबै। एक घंटा, दू घंटा, तीन-तीन घंटा तक रूपचन खिस्सा मंगलकेँ सुनबै। खिस्सा सभ दिन बदलि-बदलि कऽ कहै। कहियो राजा-रानी, तँ कहियो रानी सरंगा तँ कहियो रजनी-सजनीक। कहियो गोनू झा तँ कहियो डाकक। कहियो अल्हा-रुदल तँ कहियो दीना-भदरीक। कहियो लोरिक तँ कहियो सलहेसक।
ऐ रूपे मंगलक बुधि‍क बखाड़ीमे किताबक ज्ञान, समाजक ज्ञान आ खिस्साक ज्ञान जमा हुअ लगलै। रातिमे जे खिस्सा सुनै ओ दिनमे जहन‍‍ समए भेटै, लिखि लिअए। लिखैत-लिखैत पाँति सेहो सोझ-साझ हुअ लगलै आ जिज्ञासो बढ़ए लगलै।
एक दिन बेर टगैत एक गोटे मंगलक ऐठाम चाह पीबए आएल। देह-दशासँ बिल्कुल साधारण। हाथमे एकटा चमड़ाक बैग। ओ आदमी “भारत जागरणपत्रिकाक सम्पादक रहथि‍। गामक दशा-दिशाक अध्ययन करैले गाम दिस आएल छला। मंगलसँ गप-सप्‍प करैत ओ सम्पादक हरा गेला। उन्मत्त भऽ गेला। जेना मंगलक हृदए आ सम्पादकक हृदए एकठाम भऽ केतौ सफरमे निकलल हुअए, तहिना।
भक्क टुटिते दुनू गोटे हँसए लगल। सम्पादक कहलखिन-
“बौआ, अहाँ चाह बनाउ। अखनि‍ धरि हमहूँ आइ चाह नै पीने छेलौं। आइ हम रहब। निचेनसँ गप-सप्‍प करब।
मंगल चाह बनबए लगल। चाह बनल। दुनू गोटे पीलनि‍।
खेला-पीला पछाति‍, रातिमे दुनू गोटे एक्के बिछानपर बैसि गप-सप्‍प करए लगल। जे किछु खिस्सा-पिहानी मंगल लिखने छल ओ हुनका–-सम्पादकक- आगूमे रखि‍ देलकनि‍। उनटा-पुनटा सम्पादकजी देखए लगला। भाषा-शैली तँ नै जँचलनि मुदा विषए-वस्तु हृदैकेँ पकड़ि लेलकनि। हँसैत बजला-
“बड़ सुन्दर वस्तु सभ अछि। एकरे तकैले हम आएल छी।
कहि बैग खोलि किछु पत्रिका आ किछु किताब दैत कहलखिन-
“ऐमे लिखैक तौर-तरीका निर्धारित कएल अछि। एकरा ठीकसँ पढ़ि जे आधार निर्धारित अछि, ओइ अाधारपर लिखब। हम सम्पादक छी। मासिक पत्रिका चलबै छी। अहाँक एक-एक कथा सभ मासक पत्रिकामे छापब। एक कॉपी अहूँकेँ पठा देल करब।
तीन-चारि घंटा धरि सम्पादकजी मंगलकेँ बुझबैत रहलखिन। भोरे सूति उठि चाह पीब ओ चलि गेला।
मंगलक कथा पत्रिकामे मासे-मास छापए लगल। मंगलक अनेको पाठकमे एकटा लड़की सेहो। नाओं सुनयना। दर्शन शास्त्रसँ एम.ए.मे पढ़ैत। पाँचम मासक पत्रिकामे सम्पादकजी मंगलक परिचएमे एकटा उपन्यासक चर्चा सेहो कऽ देलखिन, नाओं छेलै “मरल गाम। सुनयनाक पिता ओकील। सुनयनाक मन “मरल गाम नाओं पढ़ि नाचए लागलि‍। मनमे अाबए लगलै, हमर देश तँ गामक देश छी। जहन‍‍ गामे मरल अछि तहन‍‍ देशकेँ की कहबै? ई विचार सुनयनाक मनमे उड़ी-बीड़ी लगा देलक। जे सुनयना, पिताक सोझाँमे भरि मँुह कहि‍ओ बजैत नै ओ सुनयना आइ पितासँ डिस्कस करैले तैयार भऽ गेलि।
कोर्टसँ आबि ओकील साहेब चाह पीब टहलैले गेला। टहलि-बूलि कऽ दोसर साँझमे आबि कौल्हुका केसक तैयारी लेल फाइल निकाललनि। पत्नी चाह आनि कऽ देलखिन। चाह पीब, पान खा फाइल खोलैत रहथि आकि सुनयना आबि कऽ आगूक कुरसीपर बैसि बाजलि-
“बाबूजी, एकटा सबाल मनमे घुरिया रहल अछि। ओ कनी बुझा दिअ?”
“की?”
“आइ पत्रिकामे पढ़ने छेलौं जे सचमुच गाम मरल अछि। जँ गाम मरल अछि तँ देश गामक छी। देशकेँ की कहबै?”
सुनयनाक प्रश्नक गंभीरतापर नजरि नै दऽ ओकील साहेब कहलखिन-
“ई साहित्यकार लोकनिक समझ छि‍यनि‍, तँए ऐ पर किछु नै कहि सकै छिअ।
साहित्यकारो तँ अही समाजक लोक होइ छथि। हुनको आने लोक जकाँ जिनगी छन्‍हि‍। तहन‍‍ ओ एहेन विचार किए लिखलनि?”
“साहित्यकारक बात साहित्यकारे बूझि सकै छथि। हम तँ ओकील छी कानूनक बात बुझै छिऐ। अखनि‍ तूँ जा, हम एकटा केसक तैयारी करब।
सुनयना उठि कऽ चलि गेलि। अपना कोठरीमे बैसि कऽ विचार करए लागलि। जइ देशक गाममे ने पानि पीबैक ओरियान छै, ने खाइले सभकेँ संतुलित भोजन भेटै छै, ने भरि देह कपड़ा भेटै छै आ ने रहैले घर छै, ओइ देशकेँ मरल नै कहबै? तँ की कहबै। अखनो लोक सरल पानि पीबैए, कहुनाकेँ किछु खा दिन कटैए, गाछक निच्चाँमे आगि तापि समए बितबैए, हजारो रंगक रोग-बि‍आदि‍सँ घेरल अछि, ओइ देशकेँ की कहबै? हजारो बर्खक मनुखक इतिहासमे अखनो धरि सरस्वतीक आगमन सभ मनुख धरि नै भेल अछि, ओइ देशकेँ की कहबै?
ढेरो प्रश्न सुनयनाक आगूमे ठाढ़ भऽ गेल। मन घोर-घोर हुअ लगलै। अचेत जकाँ सुनयना कुरसीपर ओंगठि सोचए लागलि। सोचैत-विचारैत अंतमे ऐ प्रश्नपर आबि अँटकि गेलि जे किताबक भाँज लगा कऽ पढ़ी। मुदा किताब भेटत केतए। फेर मनमे एलै, किताब लिखनिहारे लग पहुँच‍ किताबक भाँज लगाबी। पत्रिका निकालि लेखकक पता पुरजीपर लिखलक।
दोसर दिन सुनयना मंगलक भाँज लगबैले विदा भेल। नओ बजेक समए। भिनसुरका गहिंकीकेँ सम्हारि मंगल केतली, टोपिया, ससपेन, गिलास इत्यादि बरतन दोकानक आगूमे रखि‍, चुल्हिसँ छाउर निकालि चुल्हि निपैत रहए। सुनयना चाहक दोकानपर ऐ दुआरे पहुँचल जे ऐठामसँ सौंसे गामक लोकक भाँज लगि सकैए। दोकानपर पहुँच‍ मंगलकेँ पुछलक-
“ऐ गाममे मंगल नामक एक बेकती छथि, हुनकर घर बता दिअ।
अपन नाओं सुनि मंगल चौंकि गेल। मुदा चुप्पे रहल। जेना मोने-मन गाममे मंगलकेँ तकैत रहए। सुनयनो सएह बुझलक। कनी काल गुम्म रहि बाजल-
“बहि‍नजी, अगर मंगल ऐ गाममे हएत तँ जरूर भाँज लगा देब। मुदा अखनि‍ हमरा ऐठाम आएल छी, तँए बिनु खेने-पीने केना जाएब? ई तँ मिथिला छिऐ। जहिना घरवारी लेल स्वागत करब अनिवार्य अछि तहिना तँ अतिथिओ लेल।
मंगलक बात सुनि सुनयनाक मनमे जेना पियासलकेँ शीतल पानि भेट गेने होइत, तहिना भेल। बाँसक फट्ठाक बनौल बेंचपर सुनयना बैसि गेलि। हाथ धोइ मंगल सस्पेन अखारि, चुल्हि पजारि चाह बनबए लगल। विरिंचपर सँ उठि सुनयना चुल्हि लग जाए चाहलक आकि कुर्तीक निचला कोन फट्टीमे फँसि गेलै, जइसँ कनी फाटि गेलै। मुदा तेकर चिन्ता नै कऽ सुनयना मंगल लग बैसि गेल। लगमे सुनयनाकेँ बैसैत देखि मंगल पुछलक-
“मंगलसँ कोन काज अछि?”
सुनयना-
“मंगल साहित्यकार छथि। हुनकर लिखल एकटा उपन्यास `मरल गाम' छन्‍हि‍। ओइ पोथीक भाँज हम बजारमे लगेलौं मुदा केतौ नै भेटल। तँए लिखिनिहारेक भाँज लगबए एलौं।
सुनयनाक बात सुनि मंगल नम्‍हर साँस छोड़ि बाजल-
“मंगलकेँ अहाँ केना जनै छी?”
सुनयना-
“हुनकर लिखल कथा हम `भारत जागरण' मे पढ़ै छी ओइमे `मरल गाम' उपन्यासक चर्चा देखलिऐ। जेकरा पढ़ैक इच्छा मनमे भेल। तँए एलौं हेन।
मंगल बूझि गेल। खुशीसँ मन ओलरि गेलै। मनमे एलै, पियासलकेँ पानि देब ओहने आवश्यक होइए जेना भूखलकेँ अन्न। मुदा हमरा तँ एक्के काँपी अछि जे लिखने छी। जँ ई काँपी दऽ देबै तँ अपन साल भरिक मेहनति‍ चलि जाएत। मुदा नै देब तँ आरो महापाप हएत। फेर मनमे एलै, अपना ऐठाम पढ़ैले दऽ दिऐ आ कहि दिऐ जे जहिया हमर दिन-दुनियाँ घुमत तहिया छपाएब। छपेला पछाति‍ अहुँकेँ देब। ताबे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ।
तैबीच चाह बनल। दुनू गोटे पीलक। चाह पीब सुनयना बाजलि-
“मंगलक भाँज लगा दिअ।
विष्‍मि‍त भऽ मंगल बाजल-
“हमरे नाओं मंगल छी। हमहीं उपन्यास लिखने छी। मुदा छपाैल नै अछि। खाली लिखलेहेटा अछि। तँए हम आग्रह करब जे ऐठाम रहि पढ़ि लिअ। जहिया छपाएब तहिया अहाँकेँ एक काँपी जरूर देब।
मंगलक बात सुनि सुनयना अचंभित भऽ गेलि। पएरसँ माथ धरि मंगलकेँ निङहारए लागलि। आगिक धुआँ आ चुल्हिक कारीखसँ मंगल बेदरंग भेल। देहक वस्त्र परसौती-वस्त्र जकाँ, सौंसे देहसँ गरीबी झक-झक करैत। मंगलक बगए देखि सुनयनाक आँखि नोरा गेलै। नोर पोछैत सुनयना बाजलि-
“ऐठाम रहि कऽ हम उपन्यास नै पढ़ि सकब। किएक तँ कोनो पोथी पढ़ैक मतलब होइए जे ओइ पोथीक विषए-वस्तुकेँ नीक जकाँ बूझब। से धड़-फड़मे केना संभव अछि?”
सुनयनाक विचारमे गंभीरता देखि मोने-मन मंगल सोचए लगल। आत्माक उत्साह बढ़ए लगलै। सुनयना दिस तकलक। सुनयनाक आँखिमे पढ़ैक भूख जोर पकड़ने देखलक। मनमे एलै, हमहूँ तँ अनके लेल लिखने छी। तहन‍‍ छपौलासँ हजारो हाथ जेत्तै मुदा अखनि‍ तँ एक्के हाथ जा रहल अछि। मनमे सबुर भेलै, कम-सँ-कम एक्कोटा पढ़निहारक हाथ तँ जाएत। तैबीच सुनयना बाजलि-
“जहिना हम काँपी ऐठामसँ लऽ जाएब तहिना पढ़ला पछाति‍ घुमा देब। तँए पोथी हरेबाक कोनो संभवने ने अछि। ऐठाम रहि पढ़ैमे हमरो लाचारी अछि। लाचारी ई अछि जे भरि दिन तँ हम केतौ रहि सकै छी मुदा सूर्यास्त पछाति‍ घर पहुँचब जरूरी अछि।
मंगलक विचारमे कनी सि‍नेह एलै। बाजल-
“बड़बढ़ियाँ, हम अहाँकेँ पोथी दऽ दइ छी। आगूक बात अहाँ जानी।
हाथमे पोथी अबिते सुनयनाक मनमे खुशी एलै। एक टकसँ पोथी देखि मंगल दिस ताकि मुस्किया देलक। मोने-मन मंगल सुनयनाकेँ पढ़ैत आ सुनयना मंगलकेँ। सुनयना हँसैत विदा भऽ गेलि।
सुनयना एम.ए. नीक जकाँ पास केलक। नारी अधिकारक सर्मथक ओकील साहैब। मुदा मन ओतए ओझरा जान्‍हि‍ जेतए देखथि जे नारी खाली एक्के-आध बिन्दुपर नै, जीवनक सभ क्षेत्रमे जकड़ल अछि। जेकरा मेटाएब धिया-पुताक खेल नै। कठिन संघर्षसँ हएत। केतौ वैचारिक संघर्ष करए पड़त तँ केतौ बलक। ऐ विचारमे ओकील साहैब कुरसीपर बैसि सोचैत रहथि। साँझक समए। पत्नी चाह बनौने एलखि‍न। टेबुलपर चाह रखि, बगलक खाली कुरसीपर बैसि कहलखि‍न-
“अपना सबहक पढ़ल-लिखल समाजक परिवारमे सुनयना अछि तँए ने, मुदा जँ एहेन बेटी किसानक घरमे रहैत तँ लोक एना उन्मुक्त रहए दैतै!
चाहक चुसकी लैत ओकील साहेब पुछलखिन-
“अहाँ की कहए चाहै छी, कनी खोलि कऽ बाजू।
“सुनयनाक बिआह कऽ लिअ। तहन‍‍ तँ मनोज रहत कि‍ने ओ तँ बेटा धन छी। बेटा-बेटीक बिआह करब माए-बापक अनिवार्य कर्तव्य छी।”
“हमरा मनमे एकटा नव विचार अछि। ओ ई जे सुनयनाकेँ सेहो पूछि लिऐ?
सुनयनासँ पुछैक बात सुनि पत्नी ढोढ़ साँप जकाँ हनहनाइत बाजलि-
“लोक की कहत? आइ धरि केकरा देखलिऐ जे माए-बाप बेटा-बेटीसँ पूछि कऽ बिआह करैए।
पत्नीक विचार सुनि ओकील साहेब मोने-मन सोचए लगला जे नारीकेँ मात्र पुरुखे नै नारीओ दाबि कऽ राखए चाहैए। अजीब घेरा-बंदीमे नारी फँसल अछि। मुदा अपन विचारकेँ मोनेमे रखि सुनयनाकेँ हाक पाड़लखिन। अपना कोठरीसँ निकलि सुनयना आएल। कुरसीपर बैसलि। सुनयना माए दिस देखए लागल। तामसे माए पति दिस देखैत। ओकील साहेब सुनयनाकेँ कहलखि‍न-
“बाउ, आब तूँ एम.ए. पास कइए लेलह। माए-बापक दायित्व होइ छै बेटा-बेटीक बिआह करब। तँए हमहूँ अपन भार उतारए चाहै छी। तोरो किछु बजैक छह?
पिताक बात सुनि सुनयनाक देहमे कँप-कँपी आबि गेलै। मनमे थोड़े ओज। मुदा असथिरसँ बाजलि-
“बाबूजी, बि‍आह तँ सभ पुरुष-नारी लेल अनिवार्य प्रक्रिया छिऐ। जइसँ सृष्टिक विकास प्रक्रियामे सहयोग होइ छै। रहल बात जे बि‍आह केहेन हुअए। अखनि‍ जे देखि रहल छी ओ नब्बे-पनचानबे प्रतिशत अनमेल बिआह होइए। केतौ धनक मिलानीसँ तँ केतौ दहेजक चलैत, केतौ कुल-मूलक चलैत तँ केतौ किछु। मुदा हमरा विचारेसँ बिआह हेबाक चाही मनक मिलानीसँ। जे टिकाउएटा नै आनन्दमय सेहो हएत।
सुनयनाक बात सुनि माए उत्तेजित होइत बाजलि-
“बेटी, हमरा सबहक मिथिलाक परम्परा रहल अछि जे ई काज माए-बापक विचारसँ होइ नै कि‍ बेटा-बेटीक विचारे। किन्तु जौं बेटा-बेटीक विचारसँ बिआह हएत तँ समाज ढनमना जाएत।
सुनयना बाजलि-
“बड़ सुन्नर बात कहलीही माए मुदा परम्पराक भीतर जे दुरगुण छै ओहूपर नजरि देमए पड़तौ।
मुँहपर हाथ लेने ओकील साहैब चुप-चाप सुनैत रहथि। सुनयना तर्कक आगू माए कमजोर पड़ैत गेली। मुदा तैयो चुप होइले तैयारे नै छेली। सामंजस्य करैत ओकील साहेब सुनयनाकेँ कहलखिन-
“बाउ, तूँ अप्पन विचार दैह?”
सुनयना बाजलि-
“अहाँ खर्च केते करए चाहै छी बाबूजी?”
खर्चक नाओं सुनि ओकील साहैब चौंकि गेला। मुदा अपनाकेँ अस्थिर रखि बजला-
“बाउ, अप्पन की ओकाइत अछि से तहूँ जनिते छह। मुदा जे ओकाइत अछि ओइमे हम कंजूसी नै करबह। दू भाए-बहि‍न छह। ई सम्पति‍ तँ तोरे सबहक छिअ।
सुनयना बाजलि-
“बाबूजी, मनुख देहे आ धने पैघ नै होइए, पैघ होइए ज्ञान आ कर्तव्यसँ। सभ स्त्री चाहैए जे हमर जीवन-संगी बुधियार आ कर्मठ हुअए। अखनि‍ हम अहाँकेँ अंतिम निर्णए नै दऽ रहल छी मुदा एते जरूर कहब जे सोनपुरमे मंगल नामक एकटा चाहक दोकानदार अछि। ओकरा कियो ने छै। मुदा ओकर जे काज आ बुधि‍ छै ओ ओकरा एक दिन महान साहित्यकारक रूपमे दुनियाँक बीच अनतै। अखनि‍ ओकरा गरीबी जर्जर बनेने छै। गरीबी जालमे ओ एना ओझरा गेल अछि जइसँ निकलब कठिन छै। किन्तु जँ ओकरा ओइ गरीबीक जालसँ निकालल जाए तँ ओ जरूर उगैत सुरूज जकाँ अकासमे चमकए लगत।
ओकील साहैब कहलखिन-
“बाउ, यदि तूँ हृदैसँ ओकरा चाहै छह तँ हमरा दिससँ कोनो आपति‍ नै। मुदा अखनि‍ समए रहैत विचारि लैह।
सुनयना बाजलि-
“अनेक विषमता रहितो हमरा दुनू गोटेक बीच आत्माक समता अछि। हमहूँ नारीक सम्बन्धमे किछु लिखए चाहै छी। किएक तँ अपना ऐठाम नारीक प्रति जे अदौसँ अखनि‍ धरि अन्याय होइत रहल अछि ओ हमरा हृदैकेँ दलमलित कऽ देने अछि। दुनियाँक सुन्दरसँ सुन्दर वस्तु हमरा फि‍क्का लगि‍ रहल अछि।
ओकील साहैब कहलखिन-
“बाउ, हम तोहर विचारकेँ मानि लेलिअ। तूँ अपनेसँ जा कऽ देखि आबह जे केते मददि‍सँ मंगल उठि कऽ ठाढ़ हएत। हम ओते मदति कऽ देबै।
पिताक विचार सुनि सुनयना हँसैत अपना कोठरी दिस विदा भेल। सुनयनाक विचारपर ओकील साहैब मोने-मन गौर करए लगला। मुदा पत्नीक मनक तामस आरो बढ़िते गेलनि।

¦¦¦

No comments:

Post a Comment